चन्द्रकान्ता सन्तति - 4
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...
तेरहवाँ बयान
दोपहर दिन का समय है। गर्म-गर्म हवा के झपेटों से उड़ी हुई जमीन की मिट्टी केवल आसमान ही को गँदला नहीं कर रही है, बल्कि पथिकों के शरीरों को भी अपना-सा करती और आँखों को इतना खुलने नहीं देती है, जिसके रास्ते को अच्छी तरह देखकर तेजी के साथ चलें और किसी घने पेड़ के नीचे पहुँचकर अपने थके-माँदे शरीर को आराम दें। ऐसे ही समय में भूतनाथ सर्यूसिंह और सर्यूसिंह का एक चेला आँखों को मिट्टी और गर्द से बचाने के लिए अपने-अपने चेहरों पर बारीक कपड़ा डाले रोहतासगढ़ की तरफ तेजी के साथ कदम बढ़ाये चले जा रहे हैं। हवा के झपेटे आगे बढ़ने में रोक-टोक करते हैं, मगर ये तीनों अपनी धुन के पक्के इस तरह चले जा रहे हैं कि बात तक नहीं करते। हाँ, उस सामने के घने जंगल की तरफ उनका ध्यान अवश्य है, जहाँ आधी घड़ी के अन्दर ही पहुँचकर सफर की हरारत मिटा सकते हैं। उन तीनों ने अपनी चाल और भी तेज की और थोड़ी ही देर बाद, उसी जंगल में एक सघन पेड़ के नीचे बैठकर थकावट मिटाते दिखायी देने लगे।
सर्यूसिंह : (रूमाल से मुँह पोंछकर) यद्यपि आज तक का सफर दुःखदायी हुआ, परन्तु हम लोग ठीक समय पर ठिकाने पहुँच गये।
भूतनाथ : अगर दुश्मनों का डेरा अभी तक इसी जंगल में हो तो मैं भी ऐसा ही कहूँगा।
सर्यूसिंह : बेशक, वे लोग अभी तक इसी जंगल में होंगे, क्योंकि मेरे शागिर्द ने उनके दो दिन तक यहाँ ठहरने की खबर दी थी और वह जासूसी का काम बहुत अच्छे ढंग से करता है।
भूतनाथ : तब हम लोगों को कोई ऐसा ठिकाना ढूँढ़ना चाहिए, जहाँ पानी हो और अपना भेष अच्छी तरह बदल सकें।
सर्यूसिंह : जरा-सा और आराम कर लें, तब उठें।
भूतनाथ : क्या हर्ज हैं।
थोड़ी देर तक ये तीनों उसी पेड़ के नीचे बैठे बातचीत करते रहे और इसके बाद उठकर ऐसे ठिकाने पहुँचे, जहाँ साफ जल का सुन्दर चश्मा बह रहा था। उसी चश्में के जल से बदन साफ करने बाद तीनों ऐयारों ने आपुस में कुछ सलाह करके, अपनी सूरतें बदलीं और वहाँ से उठकर दुश्मनों की टोह में इधर-उधर घूमने लगे तथा सन्ध्या होने के पहिले ही उन लोगों का पता लगा लिया, जो दो सौ आदमियों के साथ, उसी जंगल में टिके हुए थे। जब रात हुई और अन्धकार ने अपना दखल चारों तरफ अच्छी तरह जमा लिया तो ये तीनों उस लश्कर की तरफ रवाना हुए।
शिवदत्त और कल्याणसिंह तथा उनके साथियों ने जंगल के मध्य में डेरा जमाया हुआ था। खेमा या कनात का नाम न था, बड़े-बड़े और घने पेड़ों के नीचे शिवदत्त और कल्याणसिंह मामूली बिछावन पर बैठे हुए बातें कर रहे थे और उनके थोड़ी ही दूर पर उनके संगी-साथी और सिपाही लोग अपने अपने काम तथा रसोई बनाने की फिक्र में लगे हुए थे। जिस पेड़ के नीचे शिवदत्त और कल्याणसिंह थे, उससे तीस या चालीस गज की दूरी पर दो पालकियाँ पेड़ों की झुरमुट के अन्दर रक्खी हुई थीं और उसमें माधवी तथा मनोरमा विराज रही थीं और इन्हीं के पीछे की तरफ बहुत-से घोड़े पेड़ों के साथ बँधे हुए घास पर रहे थे।
शिवदत्त और कल्याणसिंह एकान्त में बैठे बातचीत कर रहे थे। उनसे थोड़ी ही दूर पर एक जवान, जिसका नाम धून्नूसिंह था, हाथ में नंगी तलवार लिये हुए पहरा दे रहा था, और यही जवान उन दो-सौ सिपाहियों का अफसर था, जो इस समय जंगल में मौजूद थे। रात हो जाने के कारण कहीं-कहीं पर रोशनी हो रही और एक लालटेन उस जगह जल रही थी, जहाँ शिवदत्त और कल्याणसिंह बैठे हुए आपुस में बातें कर रहे थे।
शिवदत्त : हमारी फौज ठिकाने पर पहुँच गयी होगी।
कल्याण : बेशक।
शिवदत्त : क्या इतने आदमियों का रोहतासगढ़ तहखाने के अन्दर समा जाना सम्भव है?
कल्याण : (हँसकर) इसके दूने आदमी भी अगर हों तो उस तहखाने में अँट सकते हैं।
शिवदत्त : अच्छा तो उस तहखाने में घुसने के बाद क्या-क्या करना होगा?
कल्याण : उस तहखाने के अन्दर चार कैदखाने हैं, पहिले उन कैदखानों को देखेंगे, अगर उनमें कोई कैदी होगा तो उसे छुड़ाकर अपना साथी बनावेंगे। मायारानी और उसका दारोगा भी उन्हीं कैदखानों में से किसी में जरूर होंगे, और छूट जाने पर उन दोनों से बड़ी मदद मिलेगी।
शिवदत्त : बेशक बड़ी मदद मिलेगी, अच्छा तब?
कल्याण : अगर उस समय बीरेन्द्रसिंह वगैरह तहखाने की सैर करते हुए मिल जायँगे तो मैं उन लोगों के बाहर निकलने का रास्ता बन्द करके फँसाने की फिक्र करूँगा तथा आप फौजी सिपाहियों को लेकर किले के अन्दर चले जाइयेगा और मर्दानगी के साथ किले में अपना दखल कर लीजिएगा।
शिवदत्त : ठीक हैं, मगर यह कब सम्भव है कि उस समय बीरेन्द्रसिंह वगैरह तहखाने की सैर करते हुए, हम लोगों को मिल जायँ।
कल्याण : अगर न मिलेंगे तो न सही, उस अवस्था में हम लोग एक साथ, किले के अन्दर अपना दखल जमावेंगे और बीरेन्द्रसिंह तथा उनके ऐआरों को गिरफ्तार कर लेंगे। या तो आप सुन ही चुके हैं कि इस समय रोहतासगढ़ किले में फौजी सिपाही पाँच सौ से ज्यादे नहीं हैं, सो भी बेफिक्र बैठे होंगे और हम लोग यकायक हर तरह से तैयार जा पहुँचेगे। मगर मेरा दिल यही गवाही देता है कि बीरेन्द्रसिंह वगैरह को हम लोग तहखाने में सैर करते हुए अवश्य देखेंगे, क्यों बीरेन्द्रसिंह ने, जहाँ तक सुना गया है, अभी तक तहखाने की सैर नहीं की, अबकी दफे जो वह वहाँ गये हैं, तो जरूर तहखाने की सैर करेंगे और तहखाने की सैर दो-एक दिन में नहीं हो सकती आठ-दस दिन अवश्य लेगेंगे और सैर करने का समय भी रात ही को ठीक होगा, इसी से कहते हैं कि अगर वे लोग तहखाने में मिल जाँय तो ताज्जुब नहीं।
शिवदत्त : अगर ऐसा हो तो क्या बात है! मगर सुनो तो, कदाचित् बीरेन्द्रसिंह तहखाने में मिल गये तो तुम तो उनके फँसाने की फिक्र में लगोगे और मुझे किले के अन्दर घुसकर दखल जमाना होगा। मगर मैं उस तहखाने के रास्ते को जानता नहीं, तुम कह चुके हो कि तहखाने में आने-जाने के लिए कई रास्ते हैं और वे पेचीले हैं। अस्तु, ऐसी अवस्था में मैं क्या कर सकूँगा!
कल्याण : ठीक है, मगर आपको तहखाने के कुछ रास्तों का हाल और वहाँ आने-जाने की तरकीब मैं सहज ही में समझ सकता हूँ।
शिवदत्त : सो कैसे?
कल्याणसिंह ने अपने पास पड़े हुए एक बटुए में से कमल-दावात और कागज निकाला और लालटेन को जो कुछ हटकर जल रही थी, पास रखने बाद कागज पर तहखाने का नक्शा खींचकर समझाना शुरू किया। उसने ऐसे ढंग से समझाया कि शिवदत्त को किसी तरह का शक न रहा और उसने कहा, ‘‘अब मैं बखूबी समझ गया।’’ उसी समय बगल से यह आवाज आयी, ‘‘ठीक है, मैं भी समझ गया।’’
वह पेड़ बहुत मोटा और जंगली लताओं के चढ़े होने से घना हो रहा था। शिवदत्त और कल्याणसिंह की पीठ जिस पेड़ की तरह थी, उसी की आड़ में कुछ देर से खड़ा एक आदमी उन दोनों की बातचीत सुन रहा और छिपकर उस नक्शे को भी देख रहा था। जब उसने कहा कि ‘ठीक है, मैं भी समझ गया’ तब ये दोनों चौंके और घूमकर पीछे की तरफ देखने लगे, मगर एक आदमी के भागने की आहट के सिवाय और कुछ भी मालूम न हुआ।
कल्याण : लीजिए, श्रीगणेश हो गया, निःसन्देह बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों को हमारा पता लग गया।
शिवदत्त : बात तो ऐसी ही मालूम होती है, लेकिन कोई चिन्ता नहीं देखो हम बन्दोबस्त करते हैं।
कल्याण : अगर हम ऐसा जानते तो आपके ऐयारों को दूसरा काम सुपुर्द करके आगे बढ़ने की राय कदापि न देते।
शिवदत्त : धन्नूसिंह को बुलाया चाहिए।
इतना कहकर शिवदत्त ने ताली बजायी, मगर कोई न आया और न किसी ने कुछ जवाब दिया। शिवदत्त को ताज्जुब मालूम हुआ और उसने कहा, ‘‘अभी तो हाथ में नंगी तलवार लिये यहाँ पहरा दे रहा था, चला कहाँ गया?’’ कल्याणसिंह ने जफील बजायी, जिसकी आवाज सुनकर कई सिपाही दौड़ आये और हाथ जोड़कर सामने खड़े हो गये। शिवदत्त ने एक सिपाही से पूछा, ‘‘धन्नू कहाँ गया है!’’
सिपाही : मालूम नहीं हुजूर, अभी तो इसी जगह पर टहल रहे थे।
शिवदत्त : देखो कहाँ है, जल्द बुलाओ।
हुक्म पाकर वे सब चले गये और थोड़ी ही देर में वापस आकर बोले ‘‘हुजूर करीब में तो कहीं पता नहीं लगता!’’
शिवदत्त : बड़े आश्चर्य की बात है। उसे दूर जाने की आज्ञा किसने दी।
इतने ही में हाँफता-काँपता धन्नूसिंह भी आ मौजूद हुआ, जिसे देखते ही शिवदत्त ने पूछा, ‘‘तुम कहाँ चले गये थे!’’
धन्नूसिंह : महाराज कुछ न पूछिए, मैं तो बड़ी आफत में फँस गया था!
शिवदत्त : सो क्या’ और तुम बदहवास क्यों हो रहे हो
धन्नूसिंह : मैं इसी जगह पर घूम-घूमकर पहरा दे रहा था कि एक लड़के ने, जिसे मैंने आज के सिवाय पहिले कभी देखा न था, आकर कहा, ‘‘एक औरत तुमसे कुछ कहा चाहती है।’’ यह सुनकर मुझे ताज्जुब हुआ और मैंने उससे पूछा, ‘‘वह औरत कौन है, कहाँ है और मुझसे क्या कहा चाहती है?’’ उसके जवाब में लड़का बोला, ‘‘सो सब मैं कुछ नहीं जानता, तुम खुद चलो और जोकुछ वह कहती है, सुन लो, इसी जगह पास ही में तो है।’’ इतना सुनकर ताज्जुब करता हुआ मैं उस लड़के के साथ चला गया और थोड़ी ही दूर पर एक औरत को देखा। (काँपकर) क्या कहूँ ऐसा दृश्य तो आज तक मैंने देखा ही न था।
शिवदत्त : अच्छा-अच्छा कहो, वह औरत कैसी और किस उम्र की थी!
धन्नूसिंह : कृपानिधान वह बड़ी भयानक औरत थी। काला रंग, बड़ी-बड़ी और लाल आँखें, हाथ में लोहे का एक डण्डा लिये हुए थी, जिसमें बड़े-बड़े काटे लगे हुए थे और उसके चारों तरफ बड़े-बड़े और भयानक सूरत के कुत्ते मौजूद थे, जो मुझे देखते ही गुर्राने लगे। उस औरत ने कुत्तों को डाँटा, जिससे वे चुप हो रहे, मगर चारों तरफ से मुझे घेरकर खड़े हो गये। डर के मारे मेरी अजब हालत हो गयी। उस औरत ने मुझसे कहा, ‘‘अपने हाथ की तलवार म्यान में रख ले नहीं तो ये कुत्ते तुझे फाड़ खायेंगे।’’ इतना सुनते ही मैंने तलवार म्यान में कर ली और इसके साथ ही वे कुत्ते मुझसे कुछ दूर हटकर खड़े हो गये। (लम्बी साँस लेकर) ओफ ओह! इतने भयानक और बड़े कुत्ते, मैंने आज तक नहीं देखे थे!!’’
शिवदत्त : (आश्चर्य और भय से) अच्छा-अच्छा आगे चलो, तब क्या हुआ?
धन्नूसिंह : मैंने डरते-डरते उस औरत से पूछा–‘‘आपने मुझे क्यों बुलाया?’’ उस औरत ने कहा, ‘‘मैं अपनी बहिन मनोरमा से मिला चाहती हूँ, उसे बहुत जल्द मेरे पास ले आ!’’
शिवदत्त : (आश्चर्य से) अपनी बहिन मनोरमा से!
धन्नूसिंह : जी हाँ। मुझे यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि मुझे स्वप्न में भी इस बात का गुमान न हो सकता था कि मनोरमा की बहिन ऐसी भयानक राझसी होगी! और महाराज, उसने आपको और कुँअर साहब को भी अपने पास बुलाने के लिए कहा।
कल्याण : (चौंककर) मुझे और महाराज को?
धन्नूसिंह : जी हाँ!
शिवदत्त : अच्छा तब क्या हुआ?
धन्नूसिंह : मैंने कहा कि तुम्हारा सन्देशा मनोरमा को अवश्य दे दूँगा, मगर महाराज और कुँअर साहब तुम्हारे कहने से यहाँ नहीं आ सकते।
कल्याण : तब उसने क्या कहा?
धन्नूसिंह : बस मेरा जवाब सुनते ही वह बिगड़ गयी और डाँटकर बोली, ‘‘खबरदार ओ कमबख्त! जो मैं कहती हूँ, वह तुझे और तेरे महाराज को करना ही होगा!!’’ (काँपकर) महाराज, उसके डाँटने के साथ ही एक कुत्ता उछलकर मुझ पर चढ़ बैठा। अगर वह औरत अपने कुत्ते को न डाँटती और न रोकती तो बस मैं आज ही समाप्त हो चुका था! (गर्दन और पीठ के कपड़े दिखाकर) देखिए मेरे तमाम कपड़े उस कुत्ते के बड़े-बड़े नाखूनों की बदौलत फट गये और बदन भी छिल गया, देखिए यह मेरे ही खून से मेरे कपड़े तर हो गये हैं।
शिवदत्त : (भय और घबराहट से) ओफ ओह धन्नूसिंह, तुम तो जख्मी हो गये! तुम्हारे पीठ पर के कपड़े सब लहू से तर हो रहे हैं!!
धन्नूसिंह : जी हाँ, महाराज, बस आज मैं काल के मुँह से निकलकर आया हूँ, मगर अभी तक मुझे इस बात का विश्वास नहीं होता कि मेरी जान बचेगी।
कल्याण : सो क्यों?
धन्नूसिंह : जवाब देने के लिए लौटकर मुझे फिर उसके पास जाना होगा।
कल्याण : सो क्या! अगर न जाओ तो क्या हो? क्या हमारी फौज में भी आकर वह उत्पात मचा सकती है?
इतने ही में दो-तीन भयानक कुत्तों के भौंकने की आवाज थोड़ी ही दूर पर से आयी, जिसे सुनते ही धन्नूसिंह थरथर काँपने लगा। शिवदत्त तथा कल्याणसिंह भी डरकर उठ खड़े हुए और काँपते हुए उस तरफ देखने लगे। उसी समय बदहवास की घबड़ायी हुई मनोरमा भी वहाँ आ पहुँची और बोली, ‘‘अभी मैंने भूतनाथ की सूरत देखी है, वह बेखौफ मेरी पालकी के पास आकर कह गया कि ‘आज तुम लोगों की जान लिये बिना मैं नहीं रह सकता’! अब क्या होगा? उसका बेखौफ यहाँ चले आना मामूली बात नहीं है!!’’
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