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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

नौवाँ बयान


दिन बहुत ज्यादे चढ़ चुका था, जब कमलिनी अपना काम करके सुरंग की राह से लौटी और किशोरी, कामिनी तथा तारा को भैरोसिंह के बात-चीत करते पाया। कमलिनी, लाडिली और देवीसिंह बहुत प्रसन्न हुए और क्यों न होते, जिस आदमी की मेहनत ठिकाने लगती है, उसकी खुशी का अन्दाजा करना उसी आदमी का काम है, जो कठिन मेहनत करके किसी अमूल्य वस्तु का लाभ कर चुका हो। किशोरी, कामिनी और तारा को इस तरह पाना कम खुशी की बात न थी, जिनके मिलने के विषय में आशा की भी आशा टूटी हुई थी।

किशोरी, कामिनी और तारा जमीन पर पड़ी बातें कर रही थीं, क्योंकि उनमें उठने की सामर्थ्य बिल्कुल न थी, उन्होंने अपने बचानेवालों की तरफ खास करके कमलिनी की तरफ—अहसान, शुक्रगुजारी और मुहब्बत-भरी निगाहों से देर तक देखा, जिसे कमलिनी तथा उसके साथी अच्छी तरह समझकर प्रसन्न होते रहे। कमलिनी को इस बात की खुशी हद्द से ज्यादे थी कि किशोरी, कामिनी तथा तारा की जान बच गयी।

कमलिनी, लाडिली, भैरोसिंह और देवीसिंह इस बात पर विचार करने लगे कि अब क्या करना चाहिए। किशोरी, कामिनी और तारा में इतनी सामर्थ्य न थी कि दो कदम भी चल सकें या घोड़े पर सवार हो सकें और दो-तीन दिन के अन्दर इतनी ताकत हो भी नहीं सकती थी।

कमलिनी : अफसोस तो यह है कि दुश्मनों ने मेरे तिलिस्मी मकान की अवस्था बिल्कुल खराब कर दी, और वह मकान अब इस योग्य न रहा कि उसमें चलकर डेरा डालें, बिछावन और बरतन तक उठा के ले गये।

देवी : तालाब की अवस्था भी तो बिल्कुल खराब है, मिट्टी भर जाने के कारण वह स्थान अब निर्भय होकर रहने योग्य नहीं रहा और उसकी सफाई भी सहज में नहीं हो सकती।

कमलिनी : नहीं इस बात की तो मुझे कुछ भी चिन्ता नहीं है, क्योंकि दो दिन के अन्दर मैं उस तालाब को बिना परिश्रम साफ़  कर सकती हूँ, और ऐसा करने के लिए किसी मजदूर की भी आवश्यकता नहीं है।

भैरो : सो कैसे?

कमलिनी : उस मकान में एक विचित्र कूआँ है। यदि उसका मुँह खोल दिया जाय तो चश्मे की तरह दो हाथ मोटी धारा पानी की उसमें से निकला करे और महीनों बन्द न हो, इसके अतिरिक्त तालाब में जल को निकासी के लिए भी एक लम्बी-चौड़ी मोहरी बनी हुई है। कारीगरों ने ये दोनों चीज़ें तालाब की सफाई के लिए बनायी हैं। बस इसी से तुम समझ सकते हो कि तालाब की सफाई को मुश्किल नहीं है। जब कूँए से बेअन्दाज जल निकलकर तालाब को साफ़ करता हुआ दूसरी तरफ निकल जाने लगेगा तो उतनी मिट्टी का बह जाना कुछ कठिन नहीं है। जितनी दुश्मनों ने तालाब में भर दी है।

देवी : बेशक अगर ऐसा है तो तालाब की सफाई कुछ मुश्किल नहीं है।

तारा : (बारीक और कमजोर आवाज़ से) अफसोस, यह बात मुझे मालूम न थी नहीं तो तालाब का जल क्यों सूखता और मिट्टी भरने की नौबत क्यों आती!

कमलिनी : ठीक है, और इसी सबब से मैं मकान की बरबादी का इलजाम तुझ पर नहीं लगाती, बल्कि अपने ऊपर लगाती हूँ, इसलिए कि यह भेद मैंने तुझे क्यों न बता रक्खा था। असल तो यह है कि दुश्मनों के इस उद्योग का मुझे गुमान भी न था, खैर, जो होना था, हो गया।

देवी : अच्छा तो जिस तरकीब से आपने कहा है, तालाब को साफ़  करके इन लोगों को उसी मकान में ले चलना चाहिए। बाकी रहा मकान के अन्दर का सामान, सो इसके लिए कोई चिन्ता नहीं, देखा जायगा।

कमलिनी : हाँ, मैं भी यही समझती हूँ, दो रोज में मकान और तालाब की दुरुस्ती हो जायगी, तब तक इन लोगों को इसी जगह रखना चाहिए, यह जगह भी बड़ी हिफाजत की है, जिसको रास्ता मालूम न हो, यहाँ कदापि नहीं आ सकता। देखिए चारों तरफ कैसे ऊँचे-ऊँचे पहाड़ हैं। कभी-कभी इन पहाड़ों के ऊपर से जाते हुए मुसाफ़िर दिखायी देते हैं, मगर वे लोग यदि यहाँ आना चाहें तो नहीं आ सकते। जब तक मकान और तालाब की सफाई न हो जाय, तब तक वहाँ केवल आपका रहना काफी है। सफाई के सम्बन्ध में या और भी जिन-जिन बातों की आवश्यकता है, मैं आपको समझा दूँगी, और फिर इसी जगह आकर इनके पास रहूँगी, और इनका इलाज करूँगी।

देवी : आपका खयाल बहुत ठीक है, जो कुछ आप कहें करने के लिए मैं तैयार हूँ।

कमलिनी : पहिले किशोरी, कामिनी और तारा के खाने-पीने का बन्दोबस्त करना चाहिए। (भैरोसिंह) देखो इस रमणीक स्थान में तीतरों और बटेरों की कमी नहीं है।

भैरो : और हमारे पास खाना बनाने का सफरी सामान भी है, मैं भी यही समझता हूँ कि इनके लिए तीतर का शोरबा बहुत लाभदायक होगा।

किशोरी : (कमजोर आवाज़ से) नहीं मैं शोरबा या माँस न खाऊँगी, औरतों के लिए यह...

देवी : (हुकूमत के ढंग पर, मगर वह हुकूमत का ढंग ठीक वैसा ही था, जैसा बड़े लोग छोटों पर कर सकते हैं) नहीं, बीमारी की अवस्था में इसका खयाल नहीं हो सकता है, तुम इसे दवा समझके चुप रहो।

बेचारी किशोरी ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया और चुप हो रही। भैरोसिंह उसी समय उठ खड़ा हुआ और तीतर पकड़ने के लिए चला गया। उस धूर्त और चालाक ऐयार को इस काम के लिए किसी तीर या गुलेल इत्यादि किसी विशेष सामान की आवश्यकता न थी, वह केवल अपनी फुर्ती और चालाकी से बात-की-बात में सब्ज घास पर चरते हुए और खटका पाने के साथ ही झाड़ियों में घुसकर छिप जानेवाले* कई तीतरों को पकड़ लाया और शोरबा पकाने का बन्दोबस्त करने लगा। इधर कमलिनी और देवीसिंह में बातचीत होने लगी। (* तीतरों और बटेरों की प्रकृति है कि यदि उनके पीछे दौड़िए तो वे भी आगे-आगे पहिले तो दौड़ते हैं, और इसके बाद अगल-बगल की झाड़ी में ऐसे घुस बैठते हैं कि जल्दी पता नहीं लगता, हाँ, जब साफ़ मैदान पाते हैं, अर्थात् पास में कोई छोटी या बड़ी झाड़ी नहीं है तो उड़ भी जाते हैं।)

देवी : उन घोड़ों की भी सुध लेनी चाहिए, जिन्हें यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक पेड़ से बाँधकर छोड़ आये हैं।

कमलिनी : हाँ, उन घोड़ों को भी जिस तरह बने धीरे-धीरे यहाँ तक ले आना चाहिए, नहीं तो बेचारे जानवर भूख और प्यास के मारे मर जायँगे। एक तो यहाँ का रास्ता ऐसा खराब है कि घोड़ों पर सवार होकर मैं आ नहीं सकती थी, दूसरे रात का समय था, इसलिए लाचार होकर उनको उसी जगह छोड़ देना पड़ा, पर अब हम लोगों को वहाँ तक जाने की कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती।

देवी : ठीक है, अगर कहिए तो मैं उन दोनों घोड़ों को यहाँ ले आऊँ, अब तो दिन का समय है, और जब तक भैरोसिंह खाने की तैयारी करता है, तब तक बेकार बैठे रहने से कुछ काम ही करना अच्छा है।

कमलिनी : अगर ले आइए तो अच्छी बात है, मगर हाँ सुनिए तो सही, भूतनाथ और श्यामसुन्दरसिंह को कहा गया था कि आज रात के समय हम लोगों से मिलने के लिए उसी ठिकाने पर तैयार रहें, जहाँ भगवानी उनके हवाले की गयी थी।

देवी : जी हाँ, कहा गया था, मगर मैं समझता हूँ कि अब हम लोगों का वहाँ जाना वृथा ही है, अगर आप कहिए तो मैं उन लोगों के पास जाँऊ, और यदि इस समय मुलाकात हो जाय तो इस बात का इत्तिला भी देता आऊँ या उन लोगों को इसी जगह लेता आऊँ?

कमलिनी : एक तो रात होने के पहिले उन लोगों से मुलाकात ही नहीं हो सकती, कौन ठिकाना वहाँ हों या दूसरी जगह चले गये हों, दूसरी बात यह है कि मैं उन लोगों को यह जगह दिखाना नहीं चाहती, और न यहाँ का भेद बताना चाहती हूँ, क्योंकि आजकल की अवस्था देखकर श्यामसुन्दरसिंह पर भी विश्वास उठा जाता है, बाकी रहा भूतनाथ। वह यद्यपि मेरे आधीन है, और इस बात का भी उद्योग करता है कि हम लोगों को प्रसन्न रक्खे, मगर वह कई ऐसी भयानक घटनाओं का शिकार हो रहा है कि बहुत लायक और खैरखाह होने पर भी मैं उसे किसी भी योग्य नहीं समझती, और न इसी बात का विश्वास है कि उसका दिल वैसा ही रहेगा जैसा आज है, बल्कि मैं कह सकती हूँ कि वह अपने दिल का मालिक आप नहीं है।

देवी: यह तो आप एक ऐसी बात कहती हैं, जिसे पहेली की तरह उल्टी भूमिका कहने की इच्छा होती है।

कमलिनी : बेशक, ऐसा ही है। इस जगह तिनके की ओट पहाड़ीवाली कहावत ठीक बैठती है। न मालूम वह कौन-सा भेद है, जिसको जानने के लिए पहाड़ ऐसे पचासों दिन नष्ट करने की आवश्यकता होगी।

देवी : तो क्या आप भूतनाथ को अच्छी तरह नहीं जानतीं?

कमलिनी : मैं भूतनाथ के सात पुश्त को जानती हूँ, जिसका परिचय आप लोगों को भी आप-से-आप मिल जायगा। निःसन्देह भूतनाथ दिल से हम लोगों का खैरखाह है, परन्तु उसका दिल निरोग नहीं है, और इसके भीतर का लँगर जो फौलाद की तरह ठोस है, किसी चुम्बक की समीपता के कारण सीधी चाल नहीं चलता। मैं इस फिक्र में हूँ कि इसे हर तरह से स्वतंत्र कर दूँ, मगर उसके मुँह पर किसी जबर्दस्त घटना के हाथ की लगी हुई मोहर उसके द्वारा कोई भेद प्रकट होने नहीं देती, निःसन्देह उस पर किसी अनुचित कार्य का काला धब्बा ऐसा मजबूत लगा है कि वह केवल आँसुओं को जल से धुलकर साफ़ नहीं हो सकता। हाय, एक दफे की चूक जन्म-भर के लिए बवाल हो जाती है। आप स्वयं चालाक हैं, यदि मेरी तरह खोज में लगे रहेंगे तो बहुत कुछ पता पा जाँयगे। वह बेशक हम लोगों का खैरखाह है, निमकहराम नहीं, मगर जिसका दिल इश्क का लव-लेश न होने पर भी अपने अख्तियार में न हो, उसका क्या विश्वास।

कमलिनी की इन भेद-भरी बातों ने केवल देवीसिंह ही को नहीं, बल्कि किशोरी, कामिनी और तारा को भी हैरानी में डाल दिया, जो असाध्य रोगियों की तरह जमीन पर पड़ी हुई थीं, और उनसे थोड़ी ही दूर पर बैठे हुए भैरोसिंह ने भी कमलिनी की बातों को अच्छी तरह सुना और समझा, मगर जिस तरह देवीसिंह के दिल पर उन बातों का असर किया, उस तरह भैरोसिंह के दिल पर उन बातों से मालूम होता है, असर नहीं किया, क्योंकि भैरोसिंह के चेहरे पर उन बातों को सुनने से कोई आश्चर्य या उत्कण्ठा की कोई निशानी नहीं पायी जाती थी।

कुछ देर तक सोचने के बाद देवीसिंह यह कह कर उठ खड़े हुए, "अच्छा मैं पहिले घोड़ों की फिक्र में जाता हूँ, फिर जैसा होगा, देखा जायगा।"

आधा घण्टा सफर करने के बाद देवीसिंह उस जगह पहुँचे, जहाँ एक पेड़ के साथ दोनों घोड़े बँधे हुए थे। वहाँ से थोड़ी दूर पर एक चश्मा बह रहा था, देवीसिंह दोनों घोड़ों को वहाँ ले गया और पानी पिलाने के बाद लम्बी बागडोर के सहारे पेड़ों के साथ बाँध दिया, जहाँ उनके चरने के लिए लम्बी घास बहुतायत के साथ जमी हुई थी।

देवीसिंह ने सोचा कि यद्यपि कुसमय है, मगर फिर भी वहाँ अवश्य चलना चाहिए, जहाँ भगवानी को छोड़ आये थे, शायद भूतनाथ या श्यामसुन्दरसिंह से मुलाकात हो जाय, अगर किसी से मुलाकात हो गयी तो कह देंगे कि आज प्रतिज्ञानुसार इस जगह कमलिनी से मुलाकात न होगी। अगर यह काम हो गया तो राम के समय पुनः बीमारों को छोड़के इस तरफ आने की आवश्यकता न पड़ेगी।

इन बातों को सोचकर देवीसिंह वहाँ से आगे की तरफ बढ़े, मगर सौ कदम से ज्यादे दूर न गये होंगे कि सामने की तरफ से किसी के आने की आहट मालूम पड़ी। देवीसिंह ठहर गये और बड़े गौर से उधर देखने लगे, जिधर से आने की आहट मिल रही थी। थोड़ी ही देर में दो आदमी निगाह के सामने आ पहुँचे, जिनमें से एक को देवीसिंह पहिचानते थे और दूसरे को नहीं। पाठक समझ गये होंगे कि उन दोनों में से एक तो भूतनाथ था, और दूसरा वही विचित्र आदमी, जिसने भूतनाथ पर अपना अधिकार कर लिया था, और जो उसे इस समय अपने साथ न मालूम कहाँ लिये जाता था।

देवीसिंह ने भूतनाथ के उदास और मुर्झाये चेहरे को बड़े गौर से देखा और फिर आगे बढ़कर उससे पूछा—

देवी : क्यों साहब, आप कहाँ जा रहे हैं और वह आपका साथी कौन है?

भूतनाथ : (अपने साथी की तरफ इशारा करके) इन्हें आप नहीं जानते, इनके साथ मैं एक ज़रूरी काम के लिए जा रहा हूँ। आप कमलिनी जी से कह दीजिएगा कि आज रात को प्रतिज्ञानुसार मैं उनसे नहीं मिल सकता।

देवी : सो क्यों?

भूतनाथ : इसलिए कि मैं इनके साथ जाता हूँ, क्या जाने कब छुट्टी मिले!

देवी : इनके साथ कहाँ जाते हो?

भूतनाथ : (घबराहट और लाचारी के ढंग से) सो तो मुझे मालूम नहीं!

इतना कहके उसने एक लम्बी साँस ली। अब देवीसिंह के दिमाग में वे बातें घूमने लगीं जो भूतनाथ के विषय में कमलिनी ने कही थीं। देवीसिंह ने भूतनाथ की कलाई पकड़ ली और एक तरफ से जाकर पूछा, "दोस्त, क्या तुम इतना भी नहीं बता सकते कि कहाँ जा रहे हो? ऐयार लोगों का आपुस में क्या ऐसा ही बर्ताव होता है! क्या तुम और हम दोनों एक ही पक्ष के नहीं हैं, और क्या तुम अपने दिल की बातें मुझसे भी नहीं कह सकते? बोलो बोलो, मेरी बातों का कुछ जवाब दो! वाह वाह, यह क्या, तुम रो क्यों रहे हो?"

भूतनाथ : (आँखों से आँसू पोंछकर) हाय, मैं कुछ भी नहीं कह सकता कि मेरे दिल की क्या अवस्था है। (मुहब्बत से देवीसिंह का हाथ पकड़के) मैं तुमको अपना बड़ा भाई समझता हूँ, और तुम इस बात का अपने दिल में ध्यान भी लाना कि भूतनाथ तुम्हारे साथ चालबाजी की बातें करेगा, मगर हाय, मैं मजबूर हूँ, कुछ नहीं कह सकता! (विचित्र मनुष्य की तरफ इशारा करके) मैं और मेरा सर्वस्व इस हरामजादे की मुट्ठी में है, और छुटकारे की कोई आशा नहीं! अफसोस! अच्छा दोस्त अब मुझे बिदा दो, अगर जीता रहा तो फिर मिलूँगा!

देवी : भूतनाथ, तुम कैसी बेसिर-पैर की बातें कर रहे हो, कुछ समझ में नहीं आता! आश्चर्य है कि तुम्हारे ऐसा बहादुर आदमी और इस तरह की बातें करे। साफ़-साफ़ कहो तो कुछ मालूम हो, कदाचित् मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूँ।

भूतनाथ : नहीं तुम कुछ भी मदद नहीं कर सकते, मेरा नसीब बिगड़ा हुआ है और इसे वही ठीक कर सकता है, जिसने इसे बनाया है।

देवी : मैं इस बात को नहीं मानता, निःसन्देह ईश्वर सबके ऊपर है, परन्तु साथ ही इसके यह भी समझना चाहिए कि वह किसी को बनाने और बिगाड़ने के लिए अपने हाथ-पैर से काम नहीं लेता, यदि ऐसा करे या हो तो उसमें और मनुष्य में कोई भेद कहने के लिए भी बाकी न रह जाय, अतएव कह सकते हैं कि केवल उसकी इच्छा ही इतनी प्रबल है कि वह किसी तरह टल नहीं सकती और वह इस पृथ्वी का काम इसी पर रहनेवालों से कराता है। इसका तत्व यह है कि वह जिस मनुष्य द्वारा अपनी इच्छा पूरी किया चाहता है, उसके अन्दर उस बुद्धि और साहस का संचार करता है, जिसका मुकाबला करने वाला पृथ्वी में सिवाय बुद्धि और साहस के और कोई नहीं, इसके साथ-ही-साथ, जिससे वह रुष्ट होता है, उससे बुद्धि और साहस छीन लेता है। बस इन्हीं दो बातों द्वारा वह अपनी इच्छा पूरी करके नित्य नवीन नाटक देखा करता है, और यही उसकी कारीगिरी है। मैं इस समय जब अपनी तरफ ध्यान देता हूँ तो ईश्वर की कृपा से अपने में साहस की कमी नहीं देखता, और दिल को तुम्हारी मदद को व्याकुल पाता हूँ, और इससे निश्चय होता है कि मैं तुम्हारी सहायता कर सकता हूँ, और यही ईश्वर की इच्छा भी है। तुम एकदम हताश मत हो जाओ, और जान-बूझके अपनी जान के दुश्मन मत बनो, असल-असल हाल कहो, फिर देखो कि मैं क्या करता हूँ।

भूतनाथ : तुम्हारा कहना बहुत ठीक है, परन्तु मुझे निश्चय है कि जब मैं अपना असल भेद तुमसे कह दूँगा तो तुम स्वयं मुझसे घृणा करोगे और चाहोगे कि यह दुष्ट किसी तरह मेरे सामने से दूर हो जाय!! प्यारे दोस्त, जबसे मैंने अपनी प्रकृति बदलने का उद्योग किया है, और ईश्वर के सामने कसम खायी है कि अपने माथे से बदनामी का टीका दूर करके नेक, ईमानदार, सच्चा और सुयोग्य बनूँगा, तब से मेरे हृदय की विचित्र अवस्था हो गयी है। जब मुझे मालूम होता है कि मेरी पिछली बातें अब प्रकट हुआ चाहती हैं, तब मुझे मौत से भी बढ़के कष्ट होता है, और जब यह चाहता हूँ कि अपनी जान देकर भी किसी तरह इन बातों से छुटकारा पाऊँ तो उसी समय मुझे मालूम होता है कि मेरे अन्दर दिल के पास ही बैठा हुआ कोई कह रहा है कि खबरदार ऐसा न कीजियो। तू कसम खा चुका है कि अपने सिर से बदनामी का टीका दूर करेगा। यदि ऐसा किये बिना मर जायगा तो ईश्वर के सामने झूठा होने के कारण नर्क का भागी होगा, अर्थात् तेरी आत्मा जो कभी मरने वाली नहीं है, बड़ा कष्ट भोगेगी और हजारों वर्ष तक बिना पानी की मछली की तरह तड़पा करेगी। हाय, ये बातें ऐसी हैं कि मुझे बेचैन किये देती हैं, ऐसी अवस्था में तुम स्वयं सोच सकते हो कि अपनी बुराइयों को अपने ही मुँह से कैसे प्रकट करूँ और तुमसे क्या कहूँ। यदि जी कड़ा करके कुछ कहूँगा भी तो निःसन्देह तुम मुझसे घृणा करोगे जैसा कि मैं तुमसे कह चुका हूँ।

देवी : नहीं नहीं, कदापि नहीं, मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि यदि मुझे यह भी मालूम हो जायगा कि तुम मेरे पिता के घातक हो, जिन पर मेरा बड़ा ही स्नेह था, तो भी मैं तुम्हें इसी तरह मुहब्बत की निगाह से देखूँगा, जैसा कि अब देख रहा हूँ! कहो इससे ज्यादे मैं क्या कह सकता हूँ!

इतना सुनते हरी भूतनाथ जिसने अपनी पीठ विचित्र मनुष्य की तरफ इसलिए कर रक्खी थी कि चेहरे के उतार-चढ़ाव से वह उसकी बातों का कुछ भेद न पा सके, देवीसिंह के पैरों पर गिर पड़ा और रोने लगा। देवीसिंह ने उसे उठाकर गले से लगा लिया और कहा, "देखो, जी कड़ा करो, घबराओ मत, ईश्वर जो कुछ करेगा, अच्छा ही करेगा, क्योंकि नेकी की राह पर चलनेवालों की वह सहायता किया ही करता है, और उनके पिछले ऐबों पर ध्यान नहीं देता, यदि वह जान जाय कि यह भविष्य में नेक और सच्चा निकलेगा।"

विचित्र मनुष्य जो दूर खड़ा यह तमाशा देख रहा था जी में बहुत ही कुढ़ा और उसने भूतनाथ से ललकारके कहा, "भूतनाथ, यह क्या बात है? तुम राह चलते हरएक ऐरे-गैरे के सामने खड़े होकर घण्टों कलपा करोगे और मैं खड़ा पहरा दिया करूँगा? यह नहीं हो सकता। मैं तुम्हारा ताबेदार नहीं हूँ, बल्कि तुम ताबेदार हो, चलो जल्दी करो, अब मैं नहीं रुक सकता!"

भूतनाथ ने लाचारी और मजबूरी की निगाह से देवीसिंह पर नजर डाली और सिर नीचा करके चुप हो रहा। देवीसिंह ने पहिले तो भूतनाथ के कान में धीरे-से कुछ कहा और इसके बाद विचित्र मनुष्य की तरफ बढ़कर बोले—

देवी : क्यों बे, क्या तूने मुझे ऐरे-गैरों में समझ लिया है? जुबान सँभालके नहीं बोलता! क्या तू नहीं जानता कि मैं कौन हूँ?

विचित्र मनुष्य : मैं खूब जानता हूँ कि तुम्हारा नाम देवीसिंह है, और तुम राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयार हो, मगर मुझे इससे क्या मतलब? तुमने मेरे आसामी को इतनी देर तक क्यों रोक रक्खा?

देवी : भूतनाथ तेरा आसामी नहीं है, बल्कि मेरा साथी ऐयार है। कदाचित अपने पागलपन में तूने इसे अपना आसामी समझ लिया हो तो भी जो कुछ कहना हो भूतनाथ से कह, तुझे पागल समझकर मैं कुछ न कहूँगा छोड़ दूँगा, मगर तू इतना हौसला नहीं कर सकता कि राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों को ‘ऐरे-गैरे’ कहकर सम्बोधन करे! क्या तू नहीं जानता कि ऐयार की इज्जत राजदीवान से कम नहीं होती? मैं बेशक तुझे इस बेअदबी की सजा दूँगा।

विचित्र मनुष्य : तुम मुझे क्या सजा दोगे, मैं तुम्हें समझता ही क्या हूँ!

देवी : तो मैं दिखाऊँ तमाशा और तुझे बता दूँ कि राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग कैसे होते हैं?

विचित्र : हाँ हाँ, जो कुछ करते बने करो, मैं तैयार हूँ, तुमसे डरने वाला नहीं।

इतना कहकर विचित्र मनुष्य ने म्यान से तलवार निकाल ली और देवीसिंह ने भी जमीन पर से पत्थर का एक टुकड़ा उठा लिया। विचित्र मनुष्य ने झपटकर देवीसिंह पर तलवार का वार किया। देवीसिंह उछलकर दूर जा खड़े हुए और उस पत्थर के टुकड़े से अपने वैरी पर वार किया, मगर उसने भी पैंतरा बदलकर अपने को बचा लिया और देवीसिंह पर झपटा। अबकी दफे देवीसिंह ने फुर्ती के साथ पत्थर के दो टुकड़े दोनों हाथों में उठा लिये और दुश्मन के वार को खाली देखकर एक पत्थर चलाया। जब तक विचित्र मनुष्य उस वार को बचाये, तब तक देवीसिंह ने दूसरा टुकड़ा चलाया, जो उसके घुटने पर जा बैठा और उसे सख्त चोट लगी। देवीसिंह ने विलम्ब न किया, फिर एक पत्थर उठा लिया, और अपने वैरी को दूर से ही मारा। पैर में चोट लग जाने के कारण वह उछलकर अलग न हो सका, और देवीसिंह का चलाया हुआ दूसरा पत्थर उसके दूसरे घुटने पर इस जोर से लगा कि वह चलने लायक न रहा, इसके बाद देवीसिंह का चलाया हुआ फिर एक पत्थर उसकी दाहिनी कलाई पर बैठा, और तलवार उसके हाथ से छूटकर जमीन पर गिर पड़ी। विचित्र मनुष्य की कलाई नकाबपोश की लड़ाई में पहिले ही चोट खा चुकी थी, अबकी दफे तो वह ऐसी बेकाम हुई कि उसे विश्वास हो गया कि कई महीने तक तलवार का कब्जा न थाम सकेगी। वह घबराहट के साथ देवीसिंह की तरफ देख ही रहा था कि देवीसिंह का चलाया हुआ एक और पत्थर आया, जिसने उसका सिर तोड़ दिया, और उसने त्योराकर जमीन पर गिरते-गिरते यह सुना कि, "देखा, राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयार की करामात!"

देवीसिंह तुरन्त उस विचित्र मनुष्य के पास पहुँचे जो जमीन पर बेहोश पड़ा हुआ था। अपने बटुए में से बेहोशी की दवा निकालकर उसे सुँघायी और उसके हाथ-पैर बाँधने के बाद पुनः भूतनाथ के पास आये और बोले, "तुम मेरी इस कार्रवाई से किसी तरह की चिन्ता मत करो और देखो कि मैं इस कमबख्त को कैसा छकाता हूँ।"

भूतनाथ : मैं आपकी जितनी तारीफ करूँ थोड़ी है। कोई जमाना ऐसा था कि ऐसे दुष्ट लोग मेरे नाम से काँपा करते थे, परन्तु अब तो बात ही उल्टी हो गया। अब यह जब मेरे सामने आता है तो ‘बालि’ बनकर आता है, अर्थात् इसकी सूरत देखते ही मेरी ताकत, फुर्ती और चालाकी हवा खाने चली जाती है या इसी दुष्ट का साथ देती है। अच्छा तो अब मुझे क्या करना चाहिए? हाँ, इस बात पर भी विचार कर लेना कि मेरी इज्जत अर्थात् मेरी स्त्री इसके कब्जे में है, न मालूम इसने उसे कहाँ कैद कर रक्खा है!

देवी : (आश्चर्य से भूतनाथ का मुँह देखके) खैर, पहिले यह बताओ कि यह कौन है, इससे तुमसे कब मुलाकात हुई और क्या हुआ?

भूतनाथ ने यह तो नहीं बताया कि वह विचित्र मनुष्य कौन है, मगर जिस समय से वह मिला, और उसके बाद जो-जो हुआ सब पूरा-पूरा कह सुनाया और देवीसिंह आश्चर्य के साथ सुनते रहे।

देवीसिंह कुछ देर तक सोचते रहे। भगवनिया के छूट जाने का उन्हें बहुत रंज था, क्योंकि उन्हें या भूतनाथ को इस बात की खबर नहीं थी कि भगवनिया भूतनाथ के कब्जे से निकलकर नकाबपोश के कब्जे में जा फँसी है। देवीसिंह इस बात पर देर तक गौर करते रहे कि नकाबपोश कौन होगा, तारा की किस्मत क्या चीज़ होगी, जो गठरी में थी, और वह घूमती-फिरती नकाबपोश के कब्जे में कैसे जा पहुँची? देवीसिंह को तो विश्वास था कि तारा की किस्मत के विषय में भूतनाथ से बढ़कर साफ़ कोई नहीं समझा सकता, मगर साथ ही इसके यह भी निश्चय था कि भूतनाथ अपने मुँह से इन भेदों को इस समय कदापि न खोलेगा और ऐसा करने के लिए जोर देने से उसे कष्ट होगा।

देवी : अच्छा भूतनाथ, यह बताओ कि तुम मुझ पर विश्वास कर सकते हो? मैं इस दुष्ट के पंजे से तुम्हें छुड़ाने का उद्योग करूँगा। तुम इस बात की चिन्ता न करो कि मैं इसे मार डालूँगा या बहुत दिनों तक, कैद कर रक्खूँगा, क्योंकि ऐसा करने से तुम्हारी स्त्री को कष्ट होगा और यह बात मुझे मंजूर नहीं!

भूतनाथ : मैं शपथ-पूर्वक कहता हूँ कि अपनी जिन्दगी का सबसे नाजुक और कीमती हिस्सा आपके हवाले करता हूँ, आप जैसा चाहें उसके साथ बर्ताव करें, मगर मेरी एक प्रार्थना अवश्य स्वीकार करें।

देवी : वह क्या?

भूतनाथ : यही कि इस भेद के विषय में मेरी जुबान से कुछ कहलाने का उद्योग न करें, और तहकीकात करने पर जो कुछ भेद आपको मालूम हों, उन भेदों को भी बिना मेरी इच्छा के राजा बीरेन्द्रसिंह, उनके दोनों कुमारों, राजा गोपालसिंह, तारा और कमलिनी पर प्रकट न करें। बस इससे ज्यादे कुछ न कहकर आशा करता हूँ कि मुझे अपना कनिष्ठ भ्राता समझकर इस दुष्ट के पंजे से छुटकारा दिलावेंगे। हाँ, एक बात कहना भूल गया, वह यह कि इस दुष्ट को कैद करके आप बेफिक्र न रहिएगा, इसके मददगार लोग बड़े ही शैतान और पाजी हैं।

देवी : जो कुछ तुमने कहा मुझे मंजूर है, मैं वादा करता हूँ कि जब तक तुम आज्ञा न दोगे, तुम्हारे भेद अपने दिल के अन्दर रक्खूँगा और उद्योग करूँगा, जिसमें तुम्हारी आत्मा निरोग हो और तुम स्वतंत्र होकर विचार कर सको—अच्छा एक काम करो।

भूतनाथ : कहिए।

देवी : इस दुष्ट को तो मैं अपने कब्जे में करता हूँ, जहाँ मुनासिब समझूँगा ले जाऊँगा, तुम यहाँ से जाओ, कल सवेरे तालाब वाले तिलिस्मी मकान में जिसे दुश्मनों खराब कर डाला है, मुझसे और कमलिनी से मुलाकात करो, इस बीच में अगर हो सके श्यामसुन्दरसिंह को खोज निकालो, और उसे भी अपने साथ उसी जगह लेते आओ, फिर जो कुछ मुनासिब होगा किया जायगा।

भूतनाथ : (चौंककर) तो क्या ये सब बातें आप कमलिनी से कहेंगे?

देवी : हाँ, यदि आवश्यकता होगी तो कहूँगा और इसमें तुम्हारा कुछ हर्ज नहीं है, परन्तु विश्वास रक्खो कि इन बातों का असल भेद जिनका पता भविष्य में मैं लगाऊँगा, अपनी प्रतिज्ञानुसार किसी से न कहूँगा।

भूतनाथ : (मजबूरी के ढंग से) बहुत अच्छा, मैं जाता हूँ।

भूतनाथ वहाँ से चला गया। देवीसिंह ने उस विचित्र मनुष्य की गठरी बाँधी और उस जगह आये, जहाँ दोनों घोड़ों को छोड़ा था। घोड़ों पर जीन कसने के बाद एक पर उस आदमी को लादा और दूसरे पर आप सवार होकर उस तरफ रवाना हुए, जहाँ कमलिनी, किशोरी, कामिनी इत्यादि को छोड़ा था।

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