चन्द्रकान्ता सन्तति - 3
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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...
दूसरा बयान
ऐयारों को जो कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के साथ थे, बाग के चौथे दर्जे के देवमन्दिर में आने-जाने का रास्ता बताकर कमलिनी ने तेजसिंह को रोहतासगढ़ जाने के लिए कहा और बाकी ऐयारों को अलग-अलग काम सुपुर्द करके दूसरी तरफ़ बिदा किया।
इस बाग के चौथे दर्जे की इमारत का हाल हम ऊपर लिख आये हैं और यह भी लिख आये हैं कि वहाँ असली फूल-पत्तों का नाम-निशान भी न था। यहाँ की ऐसी अवस्था देखकर कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने कमलिनी से पूछा, "राजा गोपालसिंह ने कहा था कि ‘चौथे दर्जे में मेवे बहुतायत से हैं, खाने-पीने की तकलीफ न होगी’ मगर यहाँ तो कुछ भी दिखायी नहीं देता! हम लोगों को यहाँ कई दिनों तक रहना होगा, कैसे काम चलेगा?" इसके जवाब में कमलिनी ने कहा, "आपका कहना ठीक है और राजा गोपालसिंह ने भी गलत नहीं कहा। यहाँ मेवों के पेड़ नहीं हैं, मगर (हाथ का इशारा करके) उस तरफ़ थोड़ी-सी जमीन मजबूत चहारदीवारी से घिरी हुई है, जिसे आप मेवों का बाग कह सकते हैं। उसको कोई सींचता या दुरुस्त नहीं करता है बाहर से एक नहर दीवार तोड़कर उसके अन्दर पहुँचायी गयी है, और उसी की तरावट से वह बाग सूखने नहीं पाता। कई पेड़ पुराने होकर मर जाते हैं, और कई नये पैदा होते हैं, और इस तिलिस्मी बाग का राजा दस-पन्द्रह वर्ष पीछे उसकी सफाई करा दिया करता है। मैं वहाँ जाने का रास्ता आपको बता दूँगी!"
ऐयारों को बिदा करने के बाद ही कमलिनी भी लाडिली को लेकर दोनों कुमारों से यह कह बिदा हुई—"कई जरूरी काम पूरा करने के लिए मैं जाती हूँ, परसों यहाँ आऊँगी।"
तीन दिन तक कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह देवमन्दिर में रहे। जब आवश्यकता होती, मेवोंवाले बाग में चले जाते, और पेट भर-कर फिर उस देवमन्दिर में चले आते। इस बीच में दोनों भाइयों ने मिलकर ‘रिक्तगन्थ’ (खून से लिखी किताब) भी पढ़ डाली, मगर रिक्तगन्थ में जो भी बातें लिखी थीं, वे सब-की सब बखूबी समझ में न आयीं क्योंकि उसमें बहुत से शब्द इशारे के तौर पर लिखे थे, जिनका भेद जाने बिना असल बात का पता लगाना बहुत ही कठिन था, तथापि तिलिस्म के कई भेदों और रास्तों का पता उन दोनों को मालूम हो गया, और बाकी के विषय में निश्चय किया कि कमलिनी से मुलाकात होने पर उन शब्दों का अर्थ पूछेंगे, जिनके जाने बिना कोई काम नहीं चलता।
यद्यपि कुँअर इन्द्रजीतसिंह किशोरी के लिए और आनन्दसिंह कामिनी के लिए बेचैन हो रहे थे, मगर कामलिनी और लाडिली की भोली सूरत के साथ-साथ उनके अहसानों ने भी दोनों कुमारों के दिलों को पूरी तरह से अपने काबू में कर लिया था, फिर भी किशोरी और कमिनी की मुहब्बत के खयाल से दोनों कुमार अपने दिलों को कोशिश के साथ दबाये जाते थे।
दोनों कुमारों को देवमन्दिर में टिके हुए आज तीसरा दिन है। ओढ़ने और बिछावन का कोई सामान न होने पर भी, उन दोनों को किसी तरह की तकलीफ नहीं मालूम होती। रात आधी से ज्यादे जा चुकी है। तिलिस्मी बाग के दूसरे दर्जे से होती और वहाँ के खुशबूदार फूलों से बसी हुईं मन्द चलनेवाली हवा ने नर्म थपकियाँ लगाकर, दोनों नौजवान, सुन्दर और सुकुमार कुमारों को सुला दिया है। ताज्जुब नहीं कि दिन-रात ध्यान बने रहने के कारण दोनों कुमार इस समय स्वप्न में भी अपनी-अपनी माशूकाओं से लाड़-प्यार की बातें कर रहे हों, और उन्हें इस बात का गुमान भी न हो कि पलक उठते ही रंग बदल जायेगा, और नर्म कलाइयों का आनन्द लेनेवाला हाथ सर तक पहुँचने का उद्योग करेगा।
यकायक घड़घड़ाहट की आवाज़ ने दोनों को जगा दिया। वे चौंककर उठ बैठे और ताज्जुब-भरी निगाहों से चारों तरफ़ देखने और सोचने लगे कि यह आवाज़ कहाँ से आ रही है। ज्यादे ध्यान देने पर भी यह निश्चय न हो सका कि आवाज़ किस चीज़ की है। हाँ, इतनी बात मालूम हो गयी कि देवमन्दिर के पूरब तरफ़ वाले मकान के अन्दर से यह आवाज़ आ रही है। दोनों कुमारों को देवमन्दिर से नीचे उतर कर उस मकान के पास जाना उचित न मालूम हुआ, इसलिए वे देवमन्दिर की छत पर चढ़ गये और बड़े गौर से उस तरफ़ देखने लगे।
आधे घण्टे तक वह आवाज़ एक रंग से बराबर आती रही और इसके बाद धीरे-धीरे कम होकर बन्द हो गयी। उस समय दरवाज़ा खोलकर अन्दर से आता हुआ एक आदमी उन्हें दिखायी पड़ा। वह आदमी धीरे-धीरे देवमन्दिर के पास आया और थोड़ी देर तक खड़ा रहकर उस कूएँ की तरफ़ लौटा, जो पूरब की तरफ़ वाले मकान के साथ और उससे थोड़ी ही दूर पर था। कूएँ के पास पहुँचकर थोड़ी देर तक वहाँ भी खड़ा रहा और फिर आगे बढ़ा, यहाँ तक की घूमता-फिरता छोटे-छोटे मकानों की आड़ में जाकर, वह न जाने कहाँ नजरों से गायब हो गया और इसके थोड़ी ही देर बाद उस तरफ़ से एक कमसिन औरत के रोने की आवाज़ आयी।
इन्द्रजीत : जिस तौर से यह आदमी इस चौथे दर्ज़े में आया है, वह बेशक ताज्जुब की बात है।
आनन्द : तिस पर इस रोने की आवाज़ ने और भी ताज्जुब में डाल दिया है। मुझे आज्ञा हो तो जाकर देखूँ कि क्या मामला है?
इन्द्र : जाने में कोई हर्ज तो नहीं है मगर...खैर, तुम इसी जगह ठहरो, मैं जाता हूँ।
आनन्द : यदि ऐसा ही है तो चलिए हम दोनों आदमी चलें।
इन्द्रजीत : नहीं एक आदमी का यहाँ रहना बहुत ज़रूरी है। खैर, तुम ही जाओ कोई हर्ज नहीं, मगर तलवार लेते जाओ।
दोनों भाई छत के नीचे उतर आये। आनन्दसिंह ने खूँटी से लटकती हुई अपनी तलवार ले ली और कमरे के बीचोबीचवाले गोल खम्भे के पास पहुँचे। हम ऊपर लिख आये हैं कि उस खम्भे में तरह-तरह की तस्वीरें बनी हुई थीं। आनन्दसिंह ने एक मूरत पर हाथ रखकर जोर से दबाया, साथ ही एक छोटी-सी खिड़की अन्दर जाने के लिए दिखायी दी। छोटे कुमार उसी खिड़की की राह उस गोल कम्भे के अन्दर घुस गये और थोड़ी ही देर बाद उस नकली बाग में दिखायी देने लगे। खम्भे के अन्दर रास्ता कैसा था और वह नकली बाग के पास क्योंकर पहुँचे, इसका हाल आगे चलकर दूसरी दफे किसी और के आने या जाने के समय बयान करेंगे, यहाँ मुख्तसर ही में लिखकर मतलब पूरा करते हैं-
आनन्दसिंह उस तरफ़ गये जिधर वह आदमी गया था, या जिधर से किसी औरत के रोने की आवाज़ आयी थी। घूमते-फिरते एक छोटे मकान के आगे पहुँचे, जिसका दरवाज़ा खुला हुआ था। वहाँ औरत तो कोई दिखायी न दी, मगर उस आदमी को दरवाज़े पर खड़े हुए जरूर पाया।
आनन्दसिंह को देखते ही वह आदमी झट मकान के अन्दर घुस गया और कुमार भी तेजी के साथ उसका पीछा किये बेखौफ मकान के अन्दर चले गये। वह मकान दो मंजिल का था, उसके अन्दर छोटी-छोटी कई कोठरियाँ थीं और हर एक कोठरी में दो-दो दरवाज़े थे, जिससे आदमी एक कोठरी के अन्दर जाकर कुल कोठरियों की सैर कर सकता था।
यद्यपि कुमार तेजी के साथ उसका पीछा किये हुए चले गये, मगर वह आदमी एक कोठरी के अन्दर जाने के बाद कई कोठरियों में घूम-फिरकर कहीं गायब हो गया। रात का समय था और मकान के अन्दर तथा कोठरियों में बिल्कुल अन्धकार छाया हुआ था, ऐसी अवस्था में कोठरियों के अन्दर घूम-घूमकर उस आदमी का पता लगाना बहुत ही मुश्किल था, दूसरे इसका भी शक था कि वह कहीं हमारा दुश्मन न हो, लाचार होकर कुमार वहाँ से लौटे, मगर मकान के बाहर न निकल सके, क्योंकि वह दरवाज़ा बन्द हो गया था, जिस राह से कुमार मकान के अन्दर घुसे थे। कुमार ने दरवाज़ा उतारने का भी उद्योग किया, मगर उसकी मजबूती के आगे कुछ बस न चला। आखिर दुखी होकर फिर मकान के अन्दर घुसे और एक कोठरी के दरवाज़े पर जाकर खड़े हो गये। थोड़ी देर के बाद ऊपर की छत पर से फिर किसी औरत के रोने की आवाज़ आयी, गौर करने से कुमार को मालूम हुआ कि यह बेशक उसी औरत की आवाज़ है, जिसे सुनकर यहाँ तक आये थे। उस आवाज की सीध पर कुमार ने ऊपर की दूसरी मंजिल पर जाने का इरादा किया, मगर सीढ़ियों का पता न था।
इस समय कुमार का दिल कैसा बेचैन था, यह वही जानते होंगे। हमारे पाठकों में भी जो दिलेर और बहादुर होंगे, वह उनके दिल की हालत कुछ समझ सकेंगे। बेचारे आनन्दसिंह हर तरह से उद्योग करके रह गये, पर कुछ भी बन न पड़ा। न तो वे उस आदमी का पता लगा सकते थे, जिसके पीछे-पीछे मकान के अन्दर घुसे थे, न उस औरत का हाल मालूम कर सकते थे, जिसके रोने की आवाज़ से दिल बेताब हो रहा था, और न उस मकान ही से बाहर होकर, अपने भाई इन्द्रजीतसिंह को इन सब बातों की खबर कर सकते थे, बल्कि यों कहना चाहिए कि सिवाय चुपचाप खड़े रहने या बैठ जाने के और कुछ भी नहीं कर सकते थे।
जो कुछ रात थी, खड़े-खड़े बीत गयी। सुबह की सुफेदी ने जिधर से रास्ता पाया मकान के अन्दर घुसकर उजाला कर दिया, जिससे कुँअर आनन्दसिंह को वहाँ की हर एक चीज़ साफ़-साफ़ दिखायी देने लगी। यकायक पीछे की तरफ़ से दरवाज़ा खुलने की आवाज़ कुमार के कान में पड़ी। कुमार ने घूमकर देखा तो एक कोठरी का दरवाज़ा जो इसके पहिले बन्द था, खुला हुआ पाया। वे बेधड़क उसके अन्दर घुस गये और वहाँ ऊपर की तरफ़ गयी हुई छोटी-छोटी खूबसूरत सीढ़ियाँ देखीं। धड़धड़ाते हुए दूसरी मंजिल पर चढ़ गये और हर तरफ़ गौर करके देखने लगे। इस मंजिल में बारह कोठरियाँ एक ही रंग-ढंग की देखने में आयीं। हर एक कोठरी में दो दरवाज़े थे, एक दरवाज़ा कोठरी के अन्दर घुसने के लिए और दूसरा अन्दर की तरफ़ से दूसरी कोठरी में जाने के लिए था। इस तरह पर किसी एक कोठरी के अन्दर घुसकर, कुल कोठरियों में आदमी घूम आ सकता था। धीरे-धीरे अच्छी तरह उजाला हो गया और वहाँ की हरएक चीज़ बखूबी देखने का मौका कुमार को मिला। छोटे कुमार एक कोठरी के अन्दर घुसे और देखा कि वहाँ सिवाय एक चबूतरे के और कुछ भी नहीं है। यह चबूतरा स्याह पत्थर का बना हुआ था, और उसके ऊपर एक कमान और पाँच तीर रक्खे हुए थे। कुमार ने तीर और कमान पर हाथ रक्खा, मालूम हुआ कि सब पत्थर का बना हुआ है, और किसी काम में आने योग्य नहीं है। दूसरे दरवाज़े से दूसरी कोठरी में घुसे तो वहाँ एक लाश पड़ी देखी, जिसका कटा हुआ सिर पास ही पड़ा हुआ था और वह लाश भी पत्थर ही की थी। उसे अच्छी तरह देख-भालकर तीसरी कोठरी में पहुँचे।
इसके अन्दर चारों तरफ़ दीवार में कई खूँटियाँ थीं, और हर एक खूँटी से एक-एक नंगी तलवार लटक रही थी। ये तलवारे नकली न थीं, बल्कि असली लोहे की थीं, मगर हरएक पर जंग चढ़ा हुआ था। जब चौथी कोठरी में पहुँचे तो वहाँ चाँदी के सिंहासन पर बैठी हुई एक मूरत दिखायी पड़ी। यह मूरत किसी प्रकार की धातु की बहुत ही खूबसूरत और ठीक-ठीक बनी हुई थी, जिसे देखने के साथ ही कुमार ने पहिचान लिया कि यह मायारानी की छोटी बहिन लाडिली की मूरत है। कुमार मुहब्बत-भरी निगाहें, उस मूरत पर डालने लगे। निराली जगह अपनी माशूक को देखने का उन्हें अच्छा मौका मिला, यद्यपि वह माशूक असली नहीं, बल्कि केवल उसकी एक छवि मात्र थी, तथापि इस सबब से कि यहाँ पर कोई ऐसा आदमी न था, जिसका लिहाज या खयाल होता, उन्हें एक निराले ढंग की खुशी हुई और वे देर तक उसके हरएक अंग की खूबसूरती देखते रहे। इसी बीच बगलवाली कोठरी में से यकायक एक खटके की आवाज़ आयी। कुमार चौंक पड़े और यह सोचते हुए उस कोठरी की तरफ़ बढ़े कि शायद वह आदमी उसमें मिले, जिसके पीछे-पीछे इस मकान के अन्दर आये हैं, मगर इस कोठरी में भी किसी की सूरत दिखायी न दी।
इस कोठरी में, जिसमें कुमार पहुँचे चाँदी का केवल एक सन्दूक था, जिसके बीच में हाथ डालने के लायक एक छेद भी बना हुआ था और छेद के ऊपर सुनहले हर्फों में लिखा हुआ था:—
"इस छेद में हाथ डाल के देखो क्या अनूठी चीज़ है।"
कुँअर आनन्दसिंह ने बिना सोचे-विचारे उस छेद में हाथ डाल दिया, मगर फिर हाथ निकाल न सके। सन्दूक के अन्दर हाथ जाते ही मानों लोहे की हथकड़ी पड़ गयी, जो किसी तरह हाथ बाहर निकालने की इजाजत नहीं देती थी। कुमार ने झुककर सन्दूक के नीचे की तरफ़ देखा तो मालूम हुआ कि सन्दूक जमीन से अलग नहीं है, और इसलिए उसे किसी तरह खिसका भी नहीं सकते थे।
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