चन्द्रकान्ता सन्तति - 3
A PHP Error was encounteredSeverity: Notice Message: Undefined index: author_hindi Filename: views/read_books.php Line Number: 21 |
निःशुल्क ई-पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 3 |
चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...
छठवाँ बयान
हम ऊपर किसी बयान में लिख आये हैं कि तिलिस्मी दारोगा की बदौलत जब नागर और मायारानी में लड़ाई हो गयी तो उसी समय मौका पाकर कम्बख्त दारोगा वहाँ से भाग निकला और उसके थोड़ी ही देर बाद मायारानी भी नागर के धमकाने के डर से वहाँ से चली गयी।
यद्यपि दारोगा और मायारानी में लड़ाई हो गयी थी, मगर मेल होने में कुछ देर न लगी। कायदे की बात है कि चोर, बदमाश, बेईमान आदि जितने बुरे कर्म करने वाले हैं, प्रकृत्यानुसार कभी-कभी आपुस में लड़ भी जाते हैं और लड़ाई यहाँ तक बढ़ जाती है कि एक के खून का दूसरा प्यासा हो जाता है, बल्कि जान का नुकसान भी हो जाता है, मगर थोड़े ही अरसे के बाद फिर आपुस में मेल-मिलाप हो जाता है। इसका असल सबब यही है कि बुरे मनुष्यों के हृदय में लज्जा, शान, मान और आन की जगह नहीं होती। उन्हें इस बात का ध्यान नहीं होता कि फलाने ने मुझे ताना मारा था। फलाने ने मेरी किसी प्रकार बेइज्जती की, अतएव कदापि उसके सामने न जाना चाहिए या किसी तरह उसे अवश्य नीचा दिखाना चाहिए, क्योंकि बुरे मनुष्य तो नीच होते ही हैं, उन्हें अपने नीच कर्मों या अपने साथियों के ताने या लड़ाई से शर्म ही क्यों आने लगी? और यही सबब है कि उनकी लड़ाई बहुत दिनों के लिए मजबूत नहीं होती। अगर ऐसा होता तो फूट और तकरार के कारण स्वयं बदमाशों का नाश हो जाता और भले आदमियों को बुरे मनुष्यों से दुःख पाने का दिन नसीब न होता। परमेश्वर की इस विचित्र माया ही ने मायारानी और दारोगा में फिर से मेल करा दिया और राजा बीरेन्द्रसिंह तथा उनके खानदान की बदनसीबी के वृक्ष में पुनः फल लगने लगे, जिसका हाल आगे चलकर मायारानी और दारोगा की बातचीत से मालूम होगा।
जिस समय नागर की धमकी से डरकर कुछ सोचती-विचारती मायारानी सदर फाटक के बाहर निकली और गंगा के किनारे की तरफ चली तो थोड़ी ही दूर जाने बाद तिलिस्मी दारोगा से जो नाक कटाकर अपनी बदकिस्मती पर रोना-कलपता धीरे-धीरे गंगी जी की तरफ जा रहा था, उसकी मुलाकात हुई। जब अपने पीछे किसी के आने की आहट पा दारोगा ने फिरकर देखा तो मायारानी पर निगाह पड़ी। यद्यपि उस समय वहाँ पर अँधेरा था, परन्तु बहुत दिनों तक साथ रहने के कारण दोनों ने एक दूसरे को बखूबी पहिचान लिया। मायारानी तुरन्त दारोगा के पैरों पर गिर पड़ी और आँसुओं से उसके नापाक पैरों को भिगोती हुई बोली—
"दारोगा साहब, निःसन्देह इस समय आपकी बड़ी बेइज्जती हुई और आप मुझसे रंज हो गये, परन्तु मैं कसम खाकर कहती हूँ कि इसमें मेरा कसूर नहीं है। थोड़ी-सी बात जो मैं आपसे कहा चाहती हूँ, आप कृपा कर सुन लीजिए, इसके बाद यदि आपका दिल गवाही दे कि बेशक मायारानी का दोष है तो आप बेखटक अपने हाथ से मेरा सर काट डालिए, मुझे कोई उज्र न होगा, बल्कि मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहती हूँ कि मैं उस समय अपने हाथ से कलेजे में खंजर मारकर मर जाऊँगी, जब मेरी बात सुनने के बाद आप अपने मुँह से कह देंगे कि बेशक कसूर तेरा है, क्योंकि आपको रंज करके मैं इस दुनिया में रहना नहीं चाहती। आप खूब जानते हैं कि इस दुनिया में मेरा सहायक सिवाय आपके दूसरा नहीं, अतएव जब आप ही मुझसे अलग हो जायेंगे तो दुश्मनों के हाथों सिसक-सिसककर मरने की अपेक्षा अपने हाथ से आप ही जान दे देना उत्तम समझती हूँ।"
दारोगा : यद्यपि अभी तक मेरा दिल यही गवाही देता है कि आज तू ही ने मेरी बेइज्जती की और तू ही ने मेरी नाक काटी, परन्तु जब तू मेरे पैरों पर गिरकर साबित किया चाहती है कि इसमें तेरा कोई कसूर नहीं है, तो मुझे भी उचित है कितेरी बातें सुन लूँ और इसके बाद जिसका कसूर हो उसे दण्ड दूँ।
माया : (खड़ी होकर और हाथ जोड़कर) बस बस बस, मैं इतना ही चाहती हूँ।
दारोगा : अच्छा तो इस जगह खड़े होकर बातें करना उचित नहीं। किसी तरह शहर के बाहर निकल चलना चाहिए, बल्कि उत्तम तो यह होगा कि गंगा के पार हो जाना चाहिए, फिर एकान्त में जो कुछ कहोगी मैं सुनूँगा।
दोनों वहाँ से रवाना होकर बात-की-बात में गंगा के किनारे जा पहुँचे। वहाँ दारोगा ने खूब अच्छी तरह अपनी नाक धोकर मरहम पट्टी बाँधी जो उसके बटुए में मौजूद थी, और इसके बाद मल्लाह को कुछ देकर मायारानी को साथ लिये दारोगा साहब गंगा पार हो गये। दारोगा ने वहाँ भी दम न लिया और लगभग आधा कोस के सीधे जाकर एक गाँव में पहुँचे, जहाँ घोड़ों के सौदागर लोग रहा करते थे और उनके पास हर प्रकार के कम-कीमत और बेशकीमत घोड़े मौजूद रहा करते थे। वहाँ पहुँचकर दारोगा ने मायारानी से पूछा कि, तेरे पास कुछ रुपया अशर्फी है या नहीं? इसके जवाब में मायारानी ने कहा कि ‘रुपये तो नहीं हैं मगर अशर्फियाँ हैं और जवाहिरात का एक डिब्बा भी जो तिलिस्मी बाग से भागती समय साथ लायी थी, मौजूद है’।
आसमान पर सुबह की सुफेदी अच्छी तरह फैली न थी। गाँव में बहुत कम आदमी जागे थे। मायारानी से पचास अशर्फी लेकर और उसे एक पेड़ के नीचे बैठाकर दारोगा साहब सराय में गये और थोड़ी ही देर में दो घोड़े मय साज के खरीद लाये। मायारानी और दारोगा दोनों घोड़ों पर सवार होकर दक्खिन की तरफ इस तेजी के साथ रवाना हुए कि जिससे जाना जाता था कि इन दोनों को अपने घोड़ों के मरने की कोई परवाह नहीं है, इसके बाद जब एक जंगल में पहुँचे, तो दोनों ने अपने-अपने घोड़ों की चाल कम की, और बातचीत करते हुए जाने लगे।
दारोगा : अब हम लोग ऐसी जगह आ पहुँचे हैं, जहाँ किसी तरह का डर नहीं है, अब तुम्हें जो कुछ कहना हो कहो।
माया : इसके पहिले कि आपके छूटने का हाल आपसे पूछूँ, जिस दिन से आप मुझसे अलग हुए हैं, उस दिन से लेकर आज तक का अपना किस्सा मैं आपसे कहा चाहती हूँ, जिसके सुनने से आपको पूरा-पूरा हाल मालूम हो जायगा और आप स्वयं कहेंगे कि मैं हर तरह से बेकसूर हूँ।
दारोगा : ठीक है, जितने विस्तार के साथ तुम कहना चाहो कहो, मैं सुनने के लिए तैयार हूँ।
मायारानी ने ब्यौरेवार अपना हाल दारोगा से कहना शुरू किया, जिसमें तेजसिंह का पागल बनके तिलिस्मी बाग में आना, चण्डूल का पहुँचना, राजा गोपालसिंह का कैद से छूटना, लाडिली का मायारानी से अलग होना, धनपत की गिरफ्तारी, अपना भागवा, तिलिस्म का हाल, सुरंग में राजा गोपालसिंह, कमलिनी, लाडिली, भूतनाथ और देवीसिंह का आना, नकली दारोगा का पहुँचना और उससे बाचतीत करके धोखा खाना इत्यादि जो कुछ हुआ था, सच-सच दारोगा से कह सुनाया, इसके बाद दारोगा की चीठी पढ़ना और फिर असली दारोगा के विषय में धोखा खाना भी कुछ बनावट के साथ बयान किया, जिसे बड़े गौर से दारोगा साहब सुनते रहे और जब मायारानी अपनी बात खतम कर चुकी तो बोले—
दारोगा : अब मुझे मालूम हुआ कि जो कुछ किया हरामजादी नागर ने किया और तू बेकसूर है, या अगर तुझसे किसी तरह का कसूर हुआ भी तो धोखे में हुआ, मगर तेरी जुबानी सब हाल सुनकर मुझे इस बात का बहुत रंज हुआ कि तूने राजा गोपालसिंह के बारे में मुझे पूरा धोखा दिया।
माया : बेशक, मेरा यह कसूर है, मगर वह कसूर पुराना हो गया और धोखे में लक्ष्मीदेवी का भेद खुल जाने पर अब तो वह क्षमा के योग्य भी हो गया। अगर आप उस कसूर को भूलकर बचने का उद्योग न करेंगे तो बेशक मेरी और आपकी दोनों ही की जान दुर्गति के साथ जायगी, क्योंकि मैं फिर भी ढिठाई के साथ कहती हूँ कि उस विषय में मेरा और आपका कसूर बराबर है।
दारोगा : बेशक ऐसा ही है, खैर मैं तेरा कसूर माफ करता हूँ, क्योंकि तूने इस समय उसे साफ़-साफ़ कह दिया और यह भी निश्चय हो गया कि आज केवल नागर की हरामजदगी ने...
माया : (अपने घोड़े के पास ले जाकर और दारोगा का पैर छूकर) केवल माफ ही नहीं बल्कि उद्योग करना चाहिए, जिसमें राजा गोपालसिंह, बीरेन्द्रसिंह और उनके दोनों लड़के और ऐयार गिरफ्तार हो जायँ या दुनिया से उठा लिये जायँ।
दारोगा : ऐसा ही होगा और शीघ्र ही उसके लिए मैं उत्तम उद्योग करूँगा। (कुछ सोचकर) मगर मैं देखता हूँ कि इस काम के लिए रुपये की बहुत जरूरत पड़ती है।
माया : रुपये-पैसे की किसी तरह कमी नहीं हो सकती, मेरे पास लाखों रुपये के जवाहिरात हैं, बल्कि देवगढ़ी का खजाना ऐसा गुप्त है कि सिवा मेरे कोई दूसरा पा ही नहीं सकता, क्योंकि गोपालसिंह को उसकी कुछ भी खबर नहीं है।
दारोगा : (ताज्जुब से) देवगढ़ी का खजाना कैसा? मैं भी उस विषय में कुछ नहीं जानता।
माया : वाह, आप क्यों नहीं जानते! वह मकान आप ही ने तो धनपत को दिया था।
दारोगा : ओह देवगढ़ी क्यों कहती हो, शिवगढ़ी कहो!
माया : हाँ हाँ, शिवगढ़ी, शिवगढ़ी, मैं तो भूल गयी थी, नाम से गलती हुई। उसमें बड़ी दौलत है। जो कुछ मैंने धनपत को दिया, सब उसी में मौजूद है, धनपत बेचारा कैद ही हो गया, फिर निकालता कौन?
दारोगा : बेशक, वहाँ बड़ी दौलत होगी। इसके सिवाय मुझे भी तुम दौलत से खाली न समझना, अस्तु, कोई चिन्ता नहीं देखा जायगा।
माया : मगर अभी तक यह न मालूम हुआ कि आप कहाँ जा रहे हैं? घोड़े बहुत थक गये हैं, अब ये ज्यादे नहीं चल सकते।
दारोगा : हमें भी अब बहुत दूर नहीं जाना है, (उँगली के इशारे से बताकर) वह देखो सामने जो पहाड़ी है, उसी पर मेरा गुरुभाई इन्द्रदेव रहता है, इस समय हम लोग उसी के मेहमान होंगे।
माया : ओहो, अब याद आया, इन्हीं का जिक्र आप अकसर किया करते थे, और कहते थे कि बड़े चालाक और प्रतापी राजा हैं! आपने कई दफे यह भी कहा था कि इन्द्रदेव भी किसी तिलिस्म के दारेगा हैं।
दारोगा : बेशक, ऐसा ही है और मैं उसका बहुत भरोसा रखता हूँ। उसकी बदौलत मैं अपने को राजा से भी बढ़कर अमीर समझता हूँ, और बीरेन्द्रसिंह की कैद से छूटकर आजादी के साथ घूमने का दिन भी उसी के उद्योग से मिला, जिसका हाल मैं फिर कभी तुमसे कहूँगा। वह बड़ा ही धूर्त एवं बुद्धिमान और साथ ही इसके ऐयाश भी है।
माया : उम्र में आपसे बड़े हैं या छोटे?
दारोगा : ओह, मुझसे बहुत छोटा है, बल्कि यों कहना चाहिए कि अभी नौजवान है, बदन में ताकत भी खूब है, रहने का स्थान भी बहुत ही उत्तम और रमणीक है, मेरी तरह फकीरी भेष में नहीं रहता, बल्कि अमीराना ठाठ के साथ रहता है।
दारोगा की बात सुनकर मायारानी के दिल में एक प्रकार की उम्मीद और खुशी पैदा हुई, आँखों में विचित्र चमक और गालों पर सुर्खी दिखायी देने लगी, जो क्षण-भर के लिए थी, इसके बाद फिर मायारानी ने कहा-
माया : यह आपकी कृपा है कि ऐसी बुरी अवस्था तक पहुँचने पर भी मैं किसी तरह निराश नहीं हो सकती।
दारोगा : जब तक मैं जीता और तुझसे खुश हूँ तब तक तो तू किसी तरह निराश कभी नहीं हो सकती, मगर अफसोस अभी तीन-ही-चार दिन हुए हैं कि इसके पास से तेरी खोज में गया था, आज मेरी नाक कटी देखेगा को क्या कहेगा?
माया : बेशक, उन्हें बड़ा क्रोध आवेगा, जब आपकी जुबानी यह सुनेंगे कि नागर ने आपकी यह दशा की।
दारोगा : क्रोध! अरे तू देखेगी कि नागर को पकड़वा मँगवावेगा और बड़ी दुर्दशा से उसकी जान लेगा। उसके आगे यह कोई बड़ी बात नहीं है! लो अब हम लोग ठिकाने आ पहुँचे, अब घोड़े से उतरना चाहिए।
इस जगह पर एक छोटी-सी पहाड़ी थी, जिसके पीछे की तरफ और दाहिने-बायें कुछ चक्कर खाता हुआ पहाड़ियों का सिलसिला दूर तक दिखायी दे रहा था। जब ये दोनों आदमी पहाड़ी के नीचे पहुँचे तो घोड़े से उतर पड़े, क्योंकि पहाड़ी के ऊपर घोड़ा ले जाने का मौका न था, और इन दोनों को पहाड़ी के ऊपर जाना था। दोनों घोड़े लम्बी-लम्बी बागडोरों के सहारे एक पेड़ के साथ बाँध दिये गये और इसके बाद मायारानी को साथ लिए हुए दारोगा ने उस पहाड़ी के ऊपर चढ़ना शुरू किया। उस पहाड़ी पर चढ़ने के लिए केवल एक पगडण्डी का रास्ता था और वह भी बहुत पथरीला और ऐसा ऊबड़-खाबड़ था कि जाने वाले को बहुत सम्हलकर चढ़ना पड़ता था। यद्यपि पहाड़ी बहुत ऊँची न थी, मगर रास्ते की कठिनाई के कारण इन दोनों को ऊपर पहुँचने तक पूरा एक घण्टा लग गया।
जब दोनों पहाड़ी के ऊपर पहुँचे तो मायारानी ने एक पेड़ के नीचे खड़े होकर देखा कि सामने की तरफ जहाँ तक निगाह काम करती है, पहाड़-ही-पहाड़ दिखायी दे रहे हैं, जिनकी अवस्था आसाढ़ के उठते हुए बादलों-सी जान पड़ती है। टीले-पर-टीला, पहाड़-पर-पहाड़, कृमशः बराबर ऊँचा ही होता गया है। यह वही विन्ध्य की पहाड़ी है, जिसका फैलाव सैकड़ों कोस तक चला गया है। इस जगह से जहाँ इस समय मायारानी खड़ी होकर पहाड़ी के दिलचस्प सिलसिले को बड़े गौर से देख रही हैं, राजा बीरेन्द्रसिंह की राजधानी नौगढ़ बहुत दूर नहीं है, परन्तु यह जगह नौगढ़ की हद से बिल्कुल बाहर है।
धूप बहुत तेज थी और भूख-प्यास ने भी सता रक्खा था, इसलिए दारोगा ने मायारानी से कहा, "मैं समझता हूँ कि इस पहाड़ पर चढ़ने की थकावट अब मिट गयी होगी, यहाँ देर तक खड़े रहने से काम न चलेगा, क्योंकि अभी हम लोगों को कुछ दूर और चलना है, और भूख-प्यास से जी बेचैन हो रहा है।"
माया : क्या अभी हम लोगों को और आगे जाना पड़ेगा? आपने तो इसी पहाड़ी पर इन्द्रदेव का घर बताया था?
दारोगा : ठीक है, मगर उसका मतलब यह न था कि पहाड़ पर चढ़ने के साथ ही कोई मकान मिल जायगा।
माया : खैर, चलिए, अब कितनी देर में ठिकाने पहुँचने की आशा कर सकती हूँ?
दारोगा : अगर तेजी के साथ चलें तो घण्टे-भर में।
माया : ओफ!
आगे-आगे दारोगा और पीछे-पीछे मायारानी दोनों आगे की तरफ बढ़े। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते थे, जमीन ऊँची मिलती जाती थी, और चढ़ाव चढ़ने के कारण मायारानी का दम फूल रहा था। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर खड़ी होकर दम लेती थी और फिर दारोगा के पीछे-पीछे चल पड़ती थी, यहाँ तक कि दोनों एक गुफा के मुँह पर जा पहुँचे, जिसके अन्दर खड़े होकर, बराबर दो आदमी बखूबी जा सकते थे। बाबाजी ने मायारानी से कहा कि ‘अब हम लोगों को इसके अन्दर चलना पड़ेगा’ जिसके जवाब में मायारानी ने कहा, ‘क्या हर्ज है, मैं चलने को तैयार हूँ, मगर जरा दम ले लूँ’।
गुफा के दोनों तरफ चौड़े-चौड़े दो पत्थर थे, जिनमें से एक पर दारोगा और दूसरे पर मायारानी बैठ गयी। इन दोनों को बैठे अभी ज्यादा देर नहीं हुई थी कि गुफा के अन्दर से एक आदमी निकला, जिसने पहिली निगाह में मायारानी और दूसरी निगाह में दारोगा को देखा। मायारानी को देखकर उसे ताज्जुब हुआ, मगर जब दारोगा को देखा तो झपटकर उसके पैरों पर गिर पड़ा और बोला, "आश्चर्य है कि आज मायारानी को लेकर आप यहाँ आये हैं!"
दारोगा : हाँ, एक भारी आवश्यकता पड़ जाने के कारण ऐसा करना पड़ा। कहो तुम अच्छे तो हो? बहुत दिन पर दिखायी दिए।
आदमी : जी, आपकी कृपा से बहुत अच्छा हूँ, हाल ही में जब आप यहाँ आये थे तो मैं एक ज़रूरी काम के लिए भेजा गया था, इसी से आपके दर्शन न कर सका, कल जब मैं लौटकर आया तो मालूम हुआ कि बाबाजी आये थे, पर एक ही दिन रहकर चले गये (आश्चर्य ढंग से) मगर यह नाक में पट्टी कैसे बँधी है!
दारोगा : कल लड़ाई में एक आदमी ने बेकसूर मुझे जख्मी किया, इसी से पट्टी बाँधने की अवश्यकता हुई।
आदमी : (क्रोध में आकर) किसकी मौत आयी है, जिसने हम लोगों के होते आपके साथ ऐसा किया! जरा नाम तो बताइए!
दारोगा : अब आया हूँ तो अवश्य सब कुछ कहूँगा, पहिले यह बताओ कि इस समय तुम जाते कहाँ हो?
आदमी : एक काम के लिए महाराज ने भेजा है, सन्ध्या होने के पहिले ही लौट आऊँगा, यदि आज्ञा हो तो महाराज के पास जाकर आपके आने का संवाद दे दूँ?
दारोगा : नहीं नहीं, इसकी आवश्यकता नहीं है, मैं चला जाऊँगा तुम जाओ, जब लौटोगे तो रात को बातचीत होगी।
आदमी : जो आज्ञा।
दारोगा का पैर छूकर वह आदमी वहाँ से तेजी के साथ चला गया, और इसके बाद मायारानी ने दारोगा से कहा, "अफसोस, यहाँ तक नौबत आ पहुँची कि अब हरएक आदमी बारह परदे के अन्दर रहने वाली मायारानी को खुल्लम-खुल्ला देख सकता है, जैसाकि अभी इस गैर आदमी ने देखा।"
दारोगा : तुझे इस बात का अफसोस न करना चाहिए। समय ने जब तुझे अपने घर से बाहर कर दिया, रिआया से बदतर बना दिया, हुकूमत छीनकर बेकार कर दिया बल्कि यों कहना चाहिए कि वास्तव में छिपकर जान बचाने लायक कर दिया, तो परदे और इज्जत का खयाल कैसा! किस जात-बिरादरी के वास्ते? क्या तुझे आशा है कि राजा गोपालसिंह अब तुझे अपना बनाकर रक्खेगा? कभी नहीं। फिर लज्जा का ढकोसला क्यों? हाँ, समय ने अगर तेरा नसीब चमकाया और तू हम लोगों की मदद से गोपालसिंह, बीरेन्द्रसिंह तथा उसके लड़कों पर फतह पाकर पुनः तिलिस्म की रानी हो गयी तो तुझे उस समय आज की निर्लज्जता की परवाह न रहेगी, क्योंकि रुपयेवालों का ऐब जमाना नहीं देखता, रुपयेवाले की खातिर में कमी नहीं होती, रुपये वालों को कोई दोष नहीं लगता, और रुपये की पहिली अवस्था पर कोई ध्यान नहीं देता, फिर इसके लिए सोचने विचारने से क्या फायदा? तू आज से अपने को मर्द समझ ले और मर्दों की तरह जो कुछ मैं सलाह दूँ, कर।
मायारानी बात तो आपने ठीक कही, वास्तव में ऐसा ही है! अब आज से मैं ऐसी तुच्छ बातों पर ध्यान न दूँगी। अच्छा जहाँ चलना हो चलिए मैं बखूबी आराम कर चुकी। हाँ, यह तो बताइए कि वह आदमी कौन था? और उसने मुझे पहिचाना कैसे?
दारोगा : वह इन्द्रदेव का ऐयार है, मुझसे मिलने के लिए बराबर आया करता था, यही सबब है कि तुझे पहिचानता है, और फिर ऐयारों से यह बात कुछ दूर नहीं है कि तुझ-सी मशहूर को पहिचान लिया!
इसके बाद दारोगा उठ खड़ा हुआ, और मायारानी को अपने पीछे-पीछे आने को कहकर गुफा के अन्दर रवाना हुआ।
To give your reviews on this book, Please Login