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चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...

पाँचवाँ बयान

अब हम रोहतासगढ़ की तरफ़ मुड़ते हैं और वहाँ राजा बीरेन्द्रसिंह के ऊपर जो-जो आफ़ते आयी हैं, उन्हें लिखकर इस किस्से के बहुत से भेद, जो अभी तक छिपे पड़े हैं, खोलते हैं। हम ऊपर लिख आये हैं कि रोहतासगढ़ फतह करने के बाद राजाबीरेन्द्रसिंह वगैरह उसी किले से जाकर मेहमान हुए, वहीं एक छोटी-सी कमेटी की गयी तथा उसी समय कुँअर इन्द्रजीतसिंह का पता लगाने और उन्हें ले आने के लिए शेरसिंह तथा देवीसिंह रवाना किये गये।

उन दोनों के चले जाने के बाद यह राय राट ठहकी कि यहाँ का हाल-चाल और रोहतासगढ़ फतह होने का समाचार चुनारगढ़ महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास भेजना चाहिए। यद्यपि यह ख़बर उन्हें पहुँच गयी होगी तथापि किसी ऐयार को वहाँ भेजना मुनासिब है और इस काम के लिए भैरोसिंह चुने गये। राजाबीरेन्द्रसिंह ने अपने हाथ से पिता को पत्र लिखा और भैरोसिंह को तलब करके चुनारगढ़ जाने के लिए कहा।

भैरो : मैं चुनारगढ़ जाने के लिए तैयार हूँ परन्तु दो बातों की हवस जी में रह जाएगी।

बीरेन्द्र : वह क्या?

भैरो : एक तो फतह की खुशी का इनाम बाँटने के समय मैं न रहूँगा इसका...

बीरेन्द्र: यह हवस तो अभी पूरी हो जाएगी, दूसरी क्या है?

तेज : यह लड़का तो बहुत ही लालची है, यह नहीं सोचता कि यदि मैं न रहूँगा तो मेरे बदले का इनाम मेरे पिता तो पावेंगे!

भैरो : (हाथ जोड़कर और तेजसिंह की तरफ़ देखकर) यह उम्मीद तो हुई है, परन्तु इस समय मैं आपसे कुछ इनाम लिया चाहता हूँ।

बीरेन्द्र : अवश्य ऐसा होना चाहिए क्योंकि तुम्हारे लिए हम और ये एक समान हैं।

तेज : आप और भी शह दीजिए, जिसमें यदि कुछ मिल सके मेरा ऐयारी का बटुआ ही ले ले।

भैरो : मेरे लिए वही बहुत है।

बीरेन्द्र : दो, अब सस्ते में छूटते हो, बटुआ देने में उज्र न करो।

तेज : जब आप ही इसकी मदद पर हैं तो लाचार होकर देना ही पड़ेगा।

राजा बीरेन्द्रसिंह ने अपना सन्दूक मँगवाया और उसमें से एक जड़ाऊ डिब्बा जिसके अन्दर न मालूम क्या चीज़ निकाल, बिना खोले, भैरोसिंह को दे दिया। भैरोसिंह ने ईनाम पाकर सलाम किया और अपने पिता तेजसिंह की तरफ़ देखा, उन्हें भी लाचार होकर ऐयारी का बटुआ जिसे वे हरदम अपने पास रखते थे, भैरोसिंह के हवाले करना ही पड़ा।

राजाबीरेन्द्रसिंह ने भैरोसिंह से कहा, "इनाम तुम पा चुके, अब बताओ तुम्हारी दूसरी हवस क्या है, जो पूरी की जाय?"

भैरो : मेरे जाने के बाद आप यहाँ के तहख़ाने की ख़ैर करेंगे, अफ़सोस यही है कि इसका आनन्द मुझे कुछ न मिलेगा।

बीरेन्द्र : ख़ैर, इसके लिए भी हम वादा करते हैं कि जब तुम चुनारगढ़ से लौट आओगे तो, तब यहाँ के तहख़ाने की सैर करूँगा, मगर जहाँ तक हो सके जल्दी लौटना।

भैरोसिंह सलाम करके बिदा हुए मगर दो ही चार कदम आगे बढ़े थे कि तेजसिंह ने पुकारा और कहा, "सुनो,सुनो, बटुए में से एक चीज मुझे ले लेने दो क्योंकि वह मेरे ही काम की है।"

भैरो : (लौटकर और बटुआ तेजसिंह के सामने रखकर) बस, अब मैं यह बटुआ न लूँगा, जिसके लोभ से मैंने बटुआ लिया था, जब वही आप निकाल लेंगे, तो इसमें रह ही क्या जाएगा!

बीरेन्द्र : नहीं जी, ले जाओ, अब तेजसिंह उसमें से कोई चीज़ न निकालने पाएँगे, जो चीज़ वह निकालना चाहते थे तुम भी उस चीज़ को रखने योग्य पात्र है!

भैरोसिंह ने खुश होकर वह बटुआ उठा लिया और सलाम करने के बाद तेजी के साथ वहाँ से रवाना हो गये।

पाठक तो समझ ही गये होंगे कि इस बटुए में कौन-सी ऐसी चीज़ थी, जिसके लिए इतनी खिंचा-खिंची हुई! ख़ैर, शक मिटाने के लिए हम उस भेद को खोल ही देना मुनासिब समझते हैं। इस बटुए में वे ही तिलिस्मी फूल थे, जो चुनारगढ़ के इलाके में तिलिस्म के अन्दर से तेजसिंह के हाथ लगे थे और जिसे किसी प्राचीन वैद्य ने बड़ी मेहनत से तैयार किया था।

अब हम भैरोसिंह के चले जाने के बाद तीसरे दिन का हाल लिखते हैं। दिग्विजय सिंह अपने कमरे में मसहरी पर लेटा-लेटा न मालूम क्या-क्या सोच रहा है, रात आधी से ज़्यादे जा चुकी है, मगर अभी तक उसकी आँखों में नींद नहीं है, दर्वाजे के तरफ़ मुँह किये हुए मालूम होता है, किसी के आने की राह देख रहा है, क्योंकि किसी तरह की ज़रा-सी भी आहट आने पर चौंक जाता और और चैतन्य होकर दरवाजे की तरफ़ देखने लगता है। यकायक चौखट के अन्दर पैर रखते हुए एक वृद्ध बाबाजी की सूरत दिखायी पड़ी। उनकी अवस्था अस्सी वर्ष से ज़्यादे होगी, नाभी तक लम्बी दाढ़ी और सर के फैले हुए बाल रुई की सुफेद हो रहे थे, कमर में केवल एक कोपीन पहने और शेर की खाल ओढ़े कमरे के अन्दर आ पहुँचे। उन्हें देखते ही राजा दिग्विजयसिंह उठ ख़ड़े हुए और मुस्कराते हुए दण्डवत करके बोले, "आज बहुत दिनों के बाद दर्शन हुए हैं, समय टल जाने पर सोचता था कि शायद आज आना न हो!"

बाबाजी ने आशिर्वाद देकर कहा–"राह में एक आदमी से मुलाकात हो गयी, इसी से विलम्ब हुआ।"

इस कमरे में एक सिंहासन मौजूद था। दिग्विजयसिंह ने उसी सिंहासन पर साधु को बैठाया और स्वयं नीचे फर्श पर बैठ गया, इसके बाद यों बातचीत होने लगी–

साधु : कहो क्या निश्चय किया?

दिग्विजय : (हाथ जोड़कर) किस विषय में?

साधु : यही बीरेन्द्रसिंह के विषय में।

दिग्विजय : सिवाय ताबेदारी कबूल करने के और कर ही क्या सकता हूँ?

साधु : सुना है, तुम उन्हें तहख़ाने की सैर कराना चाहते हो? क्या यह बात सच है?

दिग्विजय : मैं उन्हें रोक ही क्योंकर सकता हूँ?

ऐसा कभी नहीं होना चाहिए। तुम्हें मेरी बातों का विश्वास है कि नहीं?

दिग्विजय : विश्वास क्यों न होगा? आपको मैं गुरु के समान मानता हूँ और आज तक जो कुछ मैंने किया, आप ही की सलाह से किया।

साधु : केवल यही आख़िरी काम बिना मुझसे राय लिये किये सो उसमें यहाँ तक धोखा खाया कि राज्य से हाथ धो बैठे!

दिग्विजय : बेशक ऐसा ही हुआ, ख़ैर, अब जो आज्ञा हो किया जाय।

साधु : मैं नहीं चाहता कि तुम बीरेन्द्रसिंह के ताबेदार बनो, इस समय वे तुम्हारे कब्जे में हैं और तुम उन्हें हर तरह से क़ैद कर सकते हो।

दिग्विजय : (कुछ सोचकर) जैसी आज्ञा, परन्तु मेरा लड़का अभी तक उनके कब्ज़े में है।

साधु : उसे यहाँ लाने के लिए बीरेन्द्रसिंह का आदमी जा ही चुका है, बीरेन्द्रसिंह वगैरह के गिरफ़्तार होने की ख़बर जब तक चुनार पहुँचेगी, उसके पहिले ही कुमार वहाँ से रवाना हो जाएगा। फिर वह उन लोगों के कब्जे में नहीं फँस सकता, उसको ले आना मेरा जिम्मा।

दिग्विजय : हर एक बात को विचार कर लीजिए, मैं आज्ञानुसार चलने को तैयार हूँ।

इसके आधे-घण्टे भर तक साधु महाराज और राजा दिग्विजयसिंह में बातें होती रहीं, जिसे यहाँ लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है। पहर-रात रहे बाबाजी वहाँ से विदा हुए।

उसके दूसरे दिन राजा बीरेन्द्रसिंह को ख़बर मिली कि लाली का पता नहीं लगता, न मालूम वह किस तरह क़ैद से निकलकर भाग गयी, उसका पता लगाने के लिए कई जासूस चारो तरफ़ रवाना किये गये।

अब महाराज दिग्विजयसिंह की नीयत खराब हो गयी और वे इस बात पर उतारू हो गये कि राजा बीरेन्द्रसिंह, उनके लड़के और दोस्तों को गिरफ्तार कर लेना चाहिए, खाली गिरफ्तार नहीं मार डालना चाहिए।

राजा बीरेन्द्रसिंह तहख़ाने में जाकर वहाँ का हाल देखा और जानना चाहते थे। मगर दिग्विजयसिंह हीले-हवाले में दिन काटने लगा। आख़िर यह निश्चय हुआ कि कल तहख़ाने में अवश्य चलना चाहिए। उसी दिन रात को दिग्विजयसिंह को फिर ज्याफत की और खाने की चीज़ों में बेहोशी की दवा मिलाने का हुक्म अपने ऐयार रामानन्द को दिया। बेचारे राजा बीरेन्द्रसिंह इन बातों से बिलकुल बेख़बर थे और उनके ऐयारों को भी ऐसी उम्मीद न थी, आख़िर नतीजा यह हुआ कि रात को भोजन करने के बाद सभों पर दवा ने असर किया। उस समय तेजसिंह चौंके और समझ गये कि दिग्विजयसिंह ने दगा दिया, मगर अब क्या हो सकता था? थोड़ी देर बादा राजा बीरेन्द्रसिंह, कुँअर आनन्दसिंह, तेजसिंह, पण्डित बद्रीनाथ, ज्योतिषीजी और तारासिंह वगैरह बेहोश होकर ज़मीन पर लेट गये और बात-की-बात में हथकड़ियों और बेड़ियों से बेबस कर उसी तिलिस्मी तहख़ाने में डाल दिये गये। उस तहख़ाने से बाहर निकलने के लिए जो दो रास्ते थे, उनका हाल पाठक जान ही गये हैं, क्योंकि ऊपर उसका बहुत कुछ हाल लिखा जा चुका है। उन दोनों रास्तों में से एक रास्ता जिससे हमारे ऐयार लोग और कुँअर आनन्दसिंह गये थे, बखूबी बन्द कर दिया गया, मगर दूसरा रास्ता जिधर से कुन्दन ((धनपति) किशोरी को लेकर निकल गयी थी ज्यों का त्यों रहा क्योंकि उसकी ख़बर राजा दिग्विजयसिंह को न थी, उस रास्ते का हाल वह कुछ भी नहीं जानता था।

राजा बीरेन्द्रसिंह और उनके लड़के और साथी लोग जब कैदख़ाने भेज दिये गये, उस समय राजा बीरेन्द्रसिंह के थोड़े से फौजी आदमी जो उनके साथ किले में आ चुके थे, यह दग़ाबाज़ी देखकर जान देने के लिए तैयार हो गये। उन्होंने राजा दिग्विजयसिंह के बहुत से आदमीयों को मारा और जब तक जीते रहे, मालिक के नमक का ध्यान उनके दिल में बना रहा, पर आख़िर कहाँ तक लड़ सकते थे, शेष में सब-के-सब बहादुरी के साथ लड़कर बैकुण्ठ को चले गये। राजा दिग्विजयसिंह ने किले का फाटक बन्द करवा दिया, सफीलों पर तोपें चढ़वा दीं और राजा बीरेन्द्रसिंह के लश्कर से, जो पहाड़ के नीचे था, लड़ाई का हुक्म दिया। राजा बीरेन्द्रसिंह के लश्कर में दो सरदार मौजूद थे, जो अभी तक रोहतासगढ़ में नहीं आये थे, एक नाहरसिंह और दूसरे फतह सिंह, ये दोनों सेनापति थे।

पाठक, देखिए जमाने ने कैसा पलटा खाया! किशोरी की धुन मे कुँअर इन्द्रजीतसिंह अपने दो ऐयारों को साथ ले ऐसी जगह जा फँसे कि उनका पता लगना भी मुश्किल है, उधर राजा बीरेन्द्रसिंह वगैरह की यह दशा हुई, अगर भैरोसिंह चीठी लेकर चुनार न भेज दिये गये होते तो वह भी फँस जाते। आप भूले न होंगे कि रामनारायण और चुन्नीलाल चुनारगढ़ में हैं और पन्नालाल को राजा बीरेन्द्रसिंह गयाजी में छोड़ आये हैं, राजगृही भी उन्हीं के सुपुर्द है, वे किसी तरह वहाँ से टल नहीं सकते, क्योंकि वह शहर नया फतह हुआ और वहाँ एक सरदार का हरदम बने रहना बहुत ही मुनासिब है।

जिस समय रोहतास गढ़ किले से तोप की आवाज़ आयी, दोनों सेनापति बहुत घबराये और पता लगाने के लिए जासूसों को किले में भेजा, मगर उनके लौट आने पर दिग्विजय की दग़ाबाज़ी का हाल दोनों सेनापतियों का मालूम हो गया, उन्होंने इसी समय इस हाल की चीठी लिख दो सवार चुनारगढ़ रवाना किये और इसके बाद सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।

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