चन्द्रकान्ता सन्तति - 2
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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...
दसवाँ बयान
दूसरे दिन आधी रात जाते-जाते भूतनाथ फिर उसी मकान में नागर के पास पहुँचा। इस समय नागर आराम से सोयी न थी, बल्कि न मालूम किस धुन में और फिक्र में मकान की पिछली तरफ़ नज़रबाग में टहल रही थी। भूतनाथ को देखते ही वह हँसती हुई पास आयी और बोली।
नागर : कहो कुछ काम हुआ?
भूतनाथ : काम तो बखूबी हो गया, उन दोनों से मुलाकात भी हुई और जो कुछ मैंने कहा दोनों ने मंजूर भी किया। कमलिनी की चीठी जब मैंने गोपालसिंह के हाथ में दी तो वे पढ़कर बहुत खुश हुए और बोले, "कमलिनी ने जो कुछ लिखा है मैं उसे मंजूर करता हूँ। वह तुम पर विश्वास रखती है तो मैं भी रक्खूँगा और जो तुम कहोगे वही करूँगा।"
नागर : बस, तब काम बखूबी बन गया, अच्छा अब क्या करना चाहिए?
भूतनाथ : अब वे दोनों आते ही होंगे, तुम टहलना बन्द करो और अपने कमरे में जाकर किवाड़ बन्द करके सो रहो और सिपाहियों को भी हुक्म दे दो कि आज कोई सिपाही पहरा न दे, बल्कि सब आराम से सो रहें, यहाँ तक कि अगर किसी को इस बाग में देखे तो भी चुपके हो रहें।
नागर "बहुत अच्छा" कहकर अपने कमरे में चली गयी और भूतनाथ के कहे मुताबिक सिपाहियों को हुक्म देकर, अपने कमरे का दरवाज़ा बन्द करके चारपाई पर लेट रही। भूतनाथ उसी बाग में घूमता-फिरता पिछली दीवार के पास जहाँ एक चोर दरवाज़ा था, जा पहुँचा और उसी जगह बैठकर किसी के आने की राह देखने लगा।
आधे घण्टे तक सन्नाटा रहा, इसके बाद किसी ने दरवाज़े पर दो दफे हाथ से थपकी लगायी। भूतनाथ ने उठकर झट दरवाज़ा खोल दिया और दो आदमी उस राह से आ पहुँचे। बँधे हुए इशारे के होने से मालूम हो गया कि ये दोनों राजा गोपालसिंह और देवीसिंह हैं। भूतनाथ उन दोनों को अपने साथ लिये हुए धीरे-धीरे कदम रखता हुआ, नज़रबाग के बीचोबीच आया, जहाँ एक छोटा-सा फौव्वारा था।
गोपाल : (भूतनाथ से) कुछ मालूम है कि इस समय किस तरफ़ पहरा पड़ रहा है?
भूतनाथ : कहीं भी पहरा नहीं पड़ता चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ है। इस मकान में जितने आदमी रहते हैं, सभों को मैंने बेहोशी की दवा दे दी है और सब-के-सब उठने के लिए मुर्दों से बाजी लगाकर पड़े हैं।
गोपाल : तब तो हम लोग बड़ी लापरवाही से अपना काम कर सकते हैं?
भूतनाथ : बेशक!
गोपाल : अच्छा मेरे पीछे-पीछे चले आओ। (हाथ का इशारा करके) हम उस हम्माम की राह तहख़ाने में घुसा चाहते हैं। क्या तुम्हें मालूम है कि इस समय किशोरी और कामिनी किस तहख़ाने में क़ैद हैं?
भूतनाथ : हाँ, ज़रूर मालूम है। किशोरी और कामिनी दोनों एक ही साथ 'वायु-मण्डप' में क़ैद हैं।
गोपाल : तब तो हम्माम में जाने की कोई ज़रूरत नहीं, अच्छा तुम ही आगे चलो।
भूतनाथ आगे-आगे रवाना हुआ और उसके पीछे राजा गोपालसिंह और देवीसिंह चलने लगे। तीनों आदमी उत्तर तरफ़ के दालान में पहुँचे, जिसके दोनों तरफ़ दो कोठरियाँ थीं और इस समय दोनों कोठरियों का दरवाज़ा खुला हुआ था। तीनों आदमी दाहिने तरफ़ वाली कोठरी में घुसे और अन्दर जाकर कोठरी का दरवाज़ा बन्द कर लिया। बटुए में से सामान निकालकर मोमबत्ती जलायी और देखा कि सामने दीवार में एक आलमारी है, जिसका दरवाज़ा एक खटके पर खुलता था। भूतनाथ उस दरवाज़े को खोलना जानता था, इसलिए पहिले उसी ने खटके पर हाथ रक्खा। दरवाज़ा खुल जाने पर मालूम हुआ कि उसके अन्दर सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। तीनों आदमी उस सीढ़ी की राह से नीचे तहख़ाने में उतर गये और एक कोठरी में पहुँचे, जिसका दूसरा दरवाज़ा बन्द था। भूतनाथ ने उस दरवाज़े को भी खोला और तीनों आदमियों ने दूसरी कोठरी में पहुँचकर देखा कि एक चारपाई पर बेचारी किशोरी पड़ी हुई है, सिरहाने की तरफ़ कामिनी बैठी धीरे-धीरे उसका सिर दबा रही थी। कामिनी का चेहरा जर्द और सुस्त था मगर किशोरी तो वर्षों से बीमार जान पड़ती थी। जिस चारपाई पर वह पड़ी थी, उसका बिछावन बहुत मैला था और उसी के पास एक दूसरी चारपाई बिछी हुई थी, जो शायद कामिनी के लिए हो। कोठरी के एक कोने में एक घड़ा, लोटा, गिलास और कुछ खाने का सामान रक्खा हुआ था।
किशोरी और कामिनी देवीसिंह को बखूबी पहिचानती थीं, मगर भूतनाथ को केवल कामिनी ही पहिचानती थी, जब कमला के साथ शेरसिंह से मिलने के लिए कामिनी तिलिस्मी खँडहर में गयी थी, तब उसने भूतनाथ को देखा था और यह भी जानती थी कि भूतनाथ को देखकर शेरसिंह डर गया था, मगर इसका सबब पूछने पर भी उसने कुछ न कहा था। इस समय वह फिर उसी भूतनाथ को यहाँ देखकर डर गयी और जी में सोचने लगी कि एक बला में तो मैं फँसी ही थी, यह दूसरी बला कहाँ से आ पहुँची, मगर उसी के साथ देवीसिंह को देख उसे कुछ ढाढ़स हुई और किशोरी को तो पूरी उम्मीद हो गयी कि ये लोग हमको छुड़ाने आये हैं। वह भूतनाथ और राजा गोपालसिंह को पहिचानती न थी, मगर सोच लिया कि शायद ये दोनों भी राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयार होंगे। किशोरी यद्यपि बहुत ही कमजोर, बल्कि अधमरी-सी हो रही थी, मगर इस समय यह जानकर कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह के ऐयार हमें छुड़ाने आ गये हैं और शीघ्र ही इन्द्रजीतसिंह से मुलाकात होगी उसकी मुरझाई हुई आशालता हरी हो गयी और उसमें जान आ गयी। इस समय किशोरी का सिर कुछ खुला हुआ था, जिसे उसने अपने हाथ से ढँक लिया और देवीसिंह की तरफ़ देखकर बोली–
किशोरी : मैं समझती हूँ, आज ईश्वर को मुझ पर दया आयी है, इसी से आप लोग मुझे यहाँ से छुड़ाकर ले जाने के लिए आये हैं।
देवी : जी हाँ, हम लोग आपको छुड़ाने के लिए आये हैं, मगर आपकी दशा देखकर रुलाई आती है। हाय, क्या दुनिया में भलों और नेकों को यही इनाम मिला करता है!!
किशोरी : मैंने सुना था कि राजा साहब के दोनों लड़कों और ऐयारों को मायारानी ने क़ैद कर लिया है?
देवी : जी हाँ, उन कैदी ऐयारों में मैं भी था, परन्तु ईश्वर की कृपा से सब कोई छूट गये और अब हम लोग आपको और (कामिनी की तरफ़ इशारा करके) इनको छुड़ाने आये हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आप बहुत कुछ मुझसे पूछा चाहती हैं और मेरे पेट में भी बहुत-सी बातें कहने योग्य भरी हैं, परन्तु यह अमूल्य समय बातों में नष्ट करने योग्य नहीं है इसलिए जो कुछ कहने-सुनने की बातें हैं, फिर होती रहेंगी, इस समय जहाँ तक जल्द हो सके यहाँ से निकल चलना ही उत्तम है।
"हाँ ठीक है।" कहकर किशोरी उठ बैठी। उसमें चलने-फिरने की ताकत न थी, परन्तु इस समय की खुशी ने उसके खून में कुछ जोश पैदा कर कर दिया और वह इस लायक हो गयी कि कामिनी के मोढ़े पर हाथ रखके तहख़ाने के ऊपर आ सके और वहाँ से बाग की चहारदीवारी के बाहर जा सके। कामिनी यद्यपि भूतनाथ को देखकर सहम गयी थी, मगर देवीसिंह के भरोसे उसने इस विषय में कुछ कहना उचित न जाना, दूसरे उसने यह सोच लिया कि इस कैदख़ाने से बढ़कर और कोई दुःख की जगह न होगी, अतएव यहाँ से तो निकल चलना ही उत्तम है।
किशोरी और कामिनी को लिए हुए, तीनों आदमी तहख़ाने से बाहर निकले। इस समय भी उस मकान के चारों तरफ़ तथा नज़रबाग में सन्नाटा ही था, इसलिए ये लोग बिना रोक-टोक उसी दरवाज़े की राह यहाँ से बाहर निकल गये, जिससे राजा गोपालसिंह बाग के अन्दर आये थे। थोड़ी दूर पर तीन घोड़े और एक रथ, जिसके आगे दो घोड़े जुते हुए थे, मौजूद था। रथ पर किशोरी और कामिनी को सवार कराया गया और तीनों घोड़ों पर राजा गोपालसिंह, देवीसिंह तथा भूतनाथ ने सवार होकर रथ को तेजी से साथ हाँकने के लिए कहा। बात-की-बात में ये लोग शहर के बाहर हो गये, बल्कि सुबह की सुफेदी निकलने के पहिले ही लगभग पाँच कोस दूर निकल जाने के बाद एक चौमुहानी पर रुककर विचार करने लगे कि अब रथ को किस तरफ़ ले चलना या रथ की हिफ़ाज़त किसके सुपुर्द करना चाहिए।
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