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चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...

तीसरा बयान

मायारानी उस बेचारे मुसीबत के मारे कैदी को रञ्ज, डर और तरद्दुद की निगाहों से देख रही थी जबकि यह आवाज़ उसने सुनी, "बेशक, मायारानी की मौत आ गयी!" इस आवाज़ ने मायारानी को हद से ज़्यादे बेचैन कर दिया। वह घबड़ाकर चारों तरफ़ देखने लगी, मगर कुछ मालूम न हुआ कि यह आवाज़ कहाँ से आयी। आख़िर, वह लाचार होकर धनपति को साथ लिये हुए वहाँ से लौटी और जिस तरह वहाँ गयी थी, उसी तरह बाग के तीसरे दर्जे से होती हुई कैदख़ाने के दरवाज़े पर पहुँची, जहाँ अपने दोनों ऐयार बिहारीसिंह और हरनामसिंह को छोड़ गयी थी। मायारानी को देखते ही बिहारीसिंह बोला–"आप हम लोगों को यहाँ व्यर्थ ही छोड़ गयीं!"

माया : हाँ, अब मैं भी यही सोचती हूँ, क्योंकि अगर तुम दोनों को अपने साथ ले जाती तो इसी समय टण्टा तै हो जाता। यद्यपि धनपति मेरे साथ थी और तुम लोग भी जानते हो कि यह बहुत ताकतवर है, तथापि मेरा हौसला न पड़ा कि उसे बाहर निकालती।

बिहारी : (चौंककर) तो क्या आप अपने कैदी को देखने के लिए चौथे दर्जे में गयी थीं? मगर मैंने जो कुछ कहा, वह कुछ दूसरे मतलब से कहा था।

माया : हाँ, मैं उसी दुश्मन के पास गयी थी, जिसके बारे मैं चण्डूल ने मुझे होशियार किया था, मगर तुमने यह किस मतलब से कहा कि आप हम लोगों को यहाँ व्यर्थ ही छोड़ गयी थीं।

बिहारी : मैंने इस मतलब से कहा कि हम लोग यहाँ बैठे-बैठे जान रहे थे कि इस कैदख़ाने के अन्दर ऊधम मच रहा है, मगर कुछ कर नहीं सकते थे।

माया : ऊधम कैसा?

बिहारी : इस कैदख़ाने के अन्दर से दीवार तोड़ने की आवाज़ आ रही थी, मालूम होता है कि कैदियों की हथकड़-बेड़ी किसी ने खोल दी।

माया : मगर तुम्हारी बातों से यह जाना जाता है कि अभी कैदी लोग इसके अन्दर ही हैं। मैं सोच रही थी कि जब ताली लेकर लाडिली चली गयी तो कहीं कैदियों को भी छुड़ा न ले गयी हो।

बिहारी : नहीं नही, कैदी बेशक इसके अन्दर थे और आपके जाने के बाद कैदियों के बातचीत की कुछ-कुछ आवाज़ भी आ रही थी, कुछ देर बाद दीवार तोड़ने की आहट मालूम होने लगी, मगर अब मैं नहीं कह सकता कि कैदी इसके अन्दर हैं या निकल गये, क्योंकि थोड़ी देर से भीतर सन्नाटा-सा जान पड़ता है, न तो किसी की बातचीत की आहट मिलती है, न दीवार तोड़ने की।

माया : (कुछ सोचकर) दीवार तोड़कर इस बाग के बाहर निकल जाना ज़रा मुश्किल है, मगर मुझे ताज्जुब मालूम होता है कि उन कैदियों की हथकड़ी-बेड़ी किसने खोली, और दीवार तोड़ने का सामान उन्हें क्योंकर मिला! शायद तुम्हें धोखा हुआ हो।

बिहारी : नहीं नहीं, मुझे धोखा नहीं हुआ, मैं पागल नहीं हूँ!

हरनाम : क्या हम लोग इतना भी नहीं पहिचान सकते कि यह दीवार तोड़ने की आवाज़ है?

माया : (ऊँची साँस लेकर) हाय, न मालूम मेरी क्या दुर्दशा होगी! ख़ैर कैदियों के बारे में पीछे सोचूँगी, पहिले तुम लोगों से एक दूसरे काम में मदद लिया चाहती हूँ!

बिहारी : वह कौन-सा काम है?

माया : मैंने जिस काम के लिए उसे क़ैद किया था, वह न हुआ और न आशा ही है कि वह कोई भेद बतायेगा, अस्तु, अब उसे मारकर टण्टा मिटाया चाहती हूँ।

बिहारी : हाँ, आपने उसे जिस तरह की तकलीफ दे रक्खी है, उससे तो उसका मर जाना ही उत्तम है। हाय, वह बेचारा इस योग्य न था। हाय, आपकी बदौलत मेरा भी लोक-परलोक दोनों बिगड़ गया! ऐसे नेक और होनहार मालिक के साथ आपके बहकाने से जो कुछ मैंने किया, उसका दुःख जन्म-भर न भूलूँगा।

 माया : और उन नेकियों को याद न करोगे, जो मैंने तुम लोगों के साथ की थीं।

बिहारी : ख़ैर, अब इस विषय पर हुज्जत करना व्यर्थ है, जब लालच में आकर बुरा काम कर ही चुके तो अब रोना काहे का है।

हरनाम : मुझे भी इस बात का बड़ा ही दुःख है, देखा चाहिए क्या होता है। आजकल जो कुछ देखने-सुनने में आ रहा है, उसका नतीजा अवश्य ही बुरा होगा।

माया : (लम्बी साँस लेकर) ख़ैर, जो होगा देखा जायगा, मगर इस समय यदि सुस्ती करोगे तो मेरी जान तो जायगी ही, तुम लोग भी जीते न बचोगे।

बिहारी : यह तो हम लोगों को पहिले ही मालूम हो चुका है कि अब उन बुरे कर्मों का फल शीघ्र भोगना पड़ेगा, मगर ख़ैर, आप यह कहिए कि हम लोग क्या करें? जान बचाने की क्या कोई सूरत दिखायी पड़ती है?

माया : मेरे साथ बाग के चौथे दर्जे में चलकर पहिले उस कैदी को मारकर छुट्टी करो तो दूसरा काम बताऊँ।

हरनाम : नहीं नहीं, नहीं, यह काम मुझसे न हो सकेगा। बिहारीसिंह से हो सके तो इन्हें ले जाइए। मैं उनके ऊपर हर्बा नहीं उठा सकता। नारायण नारायण, इस अनर्थ का भी कोई ठिकाना है।

माया ; (चिढ़कर) हरनाम, क्या तू पागल हो गया है, जो मेरे सामने ऐसी बेतुकी बातें करता है? अदब और लेहाज को भी तूने एकदम चूल्हे में डाल दिया! क्या तू मेरी सामर्थ्य को भूल गया?

हरनाम : नहीं, मैं आपकी सामर्थ्य को नहीं भूला, बल्कि आपकी सामर्थ्य ने स्वयं आपका साथ छोड़ दिया।

बिहारीसिंह और हरनामसिंह की बातें सुनकर मायारानी को क्रोध तो बहुत आया, परन्तु इस समय क्रोध करने का मौका न देखकर, वह तरह दे गयी। मायारानी बड़ी ही चालबाज और दुष्ट औरत थी, समय पड़ने पर वह एक अदने को बाप बना लेती और काम न होने से किसी को एक तिनके बराबर भी न मानती। इस समय अपने ऊपर संकट आया हुआ जान उसने दोनों ऐयारों को किसी तरह राजी रखना ही उचित समझा।

माया : क्यों हरनामसिंह, तुमने कैसे जाना कि मेरी सामर्थ्य ने मेरा साथ छोड़ दिया?

हरनाम : वह तो इसी से जाना जाता है कि बेबस कैदी की जान लेने के लिए हम लोगों को ले जाया चाहती हो। उस बेचारे को तो एक अदना लड़का भी मार सकता है।

बिहारी : हरनामसिंह का कहना ठीक है, बहार खड़े होकर आपके हाथ से चलायी हुई एक तीर उसका काम तमाम कर सकती है।

माया : नहीं, यदि ऐसा होता तो मैं उसे मारे बिना न लौट आती, मेरे तीर व्यर्थ गये और नतीजा कुछ न निकला!

बिहारी : (चौंककर) सो क्यों?

माया : उसके हाथ में एक ढाल है। न मालूम वह ढाल उसे किसने दी, जिस पर वह तीर रोककर हँसता है और कहता है कि अब मुझे कोई मार नहीं सकता।

बिहारी : (कुछ सोचकर) अब अनर्थ होने में कोई सन्देह नहीं, यह काम बेशक चण्डूल का है। कुछ समझ में नहीं आता कि वह कौन कम्बख्त है?

माया : अब सोच-विचार में विलम्ब करना उचित नहीं, जो होना था सो हो चुका, अब जान बचाने की फिक्र करनी चाहिए।

बिहारी : आपने क्या विचारा?

माया : तुम लोग यदि मेरी मदद न करोगे तो मेरी जान न बचेगी और जब मुझपर आफ़त आवेगी तो तुम लोग भी जीते न बचोगे।

बिहारी : हाँ, यह तो ठीक है, जान बचाने के लिए कोई-न-कोई उद्योग तो करना ही होगा।

माया : अच्छा तो तुम लोग मेरे साथ चलो और जिस तरह हो सके उस कैदी को यमलोक पहुँचाओ। मुझे विश्वास हो गया कि उस कैदी की जान के साथ हम लोगों की आधी बला टल जायगी और इसके बदले में मैं तुम दोनों को एक लाख दूँगी।

हरनाम : काम तो बड़ा कठिन है?

यद्यपि बिहारीसिंह और हरनामसिंह अपने हाथ से उस कैदी को मारा नहीं चाहते थे, तथापि मायारानी की मीठी-मीठी बातों से और रुपये की लालच तथा जान के डर से वे लोग यह अनर्थ करने के लिए तैयार हो गये। धनपति और दोनों ऐयारों को साथ लिये हुए मायारानी फिर बाग के चौथे दर्जे की ओऱ रवाना हुई। सूर्य भगवान के दर्शन तो नहीं हुए थे, मगर सवेरा हो चुका था और मायारानी के नौकर नींद से उठकर अपने-अपने कामों में लग चुके थे। लेकिन मायारानी का ध्यान उस तरफ़ कुछ भी न था, उसने उस बेचारे कैदी की जान लेना ही सबसे ज़रूरी काम समझ रक्खा था।

थोड़ी ही देर में चारों आदमी बाग के चौथे दर्जे में जा पहुँचे और कूँए के अन्दर उतरकर उस कैदख़ाने में गये, जिसमें मायारानी का वह अनूठा कैदी बन्द था। मायारानी को उम्मीद थी कि उस कैदी को फिर उसी तरह हाथ में ढाल लिये हुए देखगी, मगर ऐसा न हुआ। उस जंगले वाली कोठरी का दरवाज़ा खुला हुआ था और उस कैदी का कहीं पता न था।

वहाँ की ऐसी अवस्था देखकर मायारानी अपने रंज और गम को सम्हाल न सकी और एकदम 'हाय' करके ज़मीन पर गिरकर बेहोश हो गयी। धनपति और दोनों ऐयारों के भी होश जाते रहे, उनके चेहरे पीले पड़ गये और निश्चय हो गया कि अब जान जाने में कोई कसर नहीं, बल्कि डर के मारे वहाँ ठहरना भी वे लोग उचित न समझते थे, मगर बेहोश मायारानी को वहाँ से उठाकर बाग के दूसरे दर्जे में ले जाना भी कठिन था, इसलिए लाचार होकर उन लोगों को वहाँ ठहरना पड़ा।

बिहारीसिंह ने अपने बटुए में से लखलखा निकालकर मायारानी को सुँघाया और कोई अर्क उसके मुँह में टपकाया। थोड़ी देर में मायारानी होश में आयी और पड़े-पड़े नीचे लिखी बातें प्रलाप की तरह बकने लगी–

"हाय, आज मेरी जिन्दगी का दिन पूरा हो गया और मेरी मौत आ पहुँची। हाय, मुझे तो अपनी जान का धोखा उसी दिन हो चुका था, जिस दिन कम्बख्त नानक ने दरबार में मेरे सामने आकर कहा था कि 'उस कोठरी की ताली मेरे पास है जिसमें किसी के खून से लिखी हुई किताब रक्खी है'*। (* देखिए चौथा भाग, सातवाँ बयान। )

इस समय उसी किताब ने धोखा दिया। हाय, उस किताब के लिए नानक को छोड़ देना ही बुरा हुआ। यह काम उसी हरामज़ादे का है, लाडिली और धनपति के किये कुछ भी न हुआ। (धनपति की तरफ़ देखकर) सच तो यों है कि मेरी मौत तेरे ही सबब से हुई। तेरी ही मुहब्बत ने मुझे गारत किया, तेरे ही सबब से मैंने पाप की गठरी सिर पर लादी, तेरे ही सबब से मैंने अपना धर्म खोया,तेरे ही सबब से मैं बुरे कर्मों पर उतारू हुई, तेरे ही सबब से मैंने अपने पति के साथ बुराई की, तेरे ही सबब से मैंने अपना सर्वस्व बिगाड़ दिया, तेरे ही सबब से मैं बीरेन्द्रसिंह के लड़कों के साथ बुराई करने के लिए तैयार हुई, तेरे ही सबब से कमलिनी मेरा साथ छोड़कर चली गयी, और तेरे ही सबब से मैं आज इस दशा में पहुँची। हाय, इसमें कोई सन्देह नहीं कि बुरे कर्मों का बुरा फल अवश्य मिलता है। हाय, मुझ-सी औरत, जिसे ईश्वर ने हर प्रकार का सुख दे रक्खा था, आज बुरे कर्मों की बदौलत ही इस अवस्था को पहुँची। आह, मैंने क्या सोचा था और क्या हुआ? क्या बुरे कर्म करके भी कोई सुख भोग सकता है! नहीं नहीं, कभी नहीं, दृष्टान्त के लिए स्वयं मैं मौजूद हूँ!"

मायारानी न मालूम और भी क्या-क्या बकती, मगर एक आवाज़ ने उसके प्रलाप में विघ्न डाल दिया और उसके होश-हवास दुरुस्त कर दिये।

किसी तरफ़ से यह आवाज़ आयी–"अब अफसोस करने से क्या होता है, बुरे कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा।"

बहुत कुछ विचारने और चारों तरफ़ निगाह दौड़ाने पर भी किसी के समझ में न आया कि बोलने वाला कौन और कहाँ है। डर के मारे सभों के बदन में कँपकँपी पैदा हो गयी। मायारानी उठ बैठी और धनपति तथा दोनों ऐयारों को साथ लिये और काँपते हुए कलेजे पर हाथ रक्खे वहाँ से अपने स्थान अर्थात् बाग के दूसरे दर्जे की तरफ़ भागी।

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