चन्द्रकान्ता सन्तति - 2
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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...
दूसरा बयान
हम ऊपर लिख आये हैं कि राजा बीरेन्द्रसिंह तिलिस्मी खँडहर से (जिसमें दोनों कुमार और तारासिंह इत्यादि गिरफ़्तार हो गये थे) निकलकर रोहतासगढ़ की तरफ़ रवाना हुए तो तेजसिंह उनसे कुछ कह-सुनकर अलग हो गये और उनके साथ रोहतासगढ़ न गये। अब हम यह लिखना मुनासिब समझते हैं कि राजा बीरेन्द्रसिंह से अलग होकर तेजसिंह ने क्या किया।
एक दिन और रात उस खँडहर के चारों तरफ़ जंगल और मैदान में तेजसिंह घूमते रहे, मगर कुछ काम न चला। दूसरे दिन वह एक छोटे-से पुराने शिवालय के पास पहुँचे, जिसके चारों तरफ़ बेल और पारिजात के पेड़ बहुत ज़्यादे थे, जिसके सबब से वह स्थान बहुत ठण्डा और रमणीक मालूम होता था। तेजसिंह शिवालय के अन्दर गये और शिवजी का दर्शन करने के बाद बाहर निकल आये, उसी जगह से बेलपत्र तोड़कर शिवजी की पूजा की और फिर उस चश्मे के किनारे, जो मन्दिर के पीछे की तरफ़ बह रहा था, बैठकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। इस समय तेजसिंह एक मामूली जमींदार की सूरत में थे और यह स्थान भी उस खँडहर से बहुत दूर न था।
थोड़ी देर बाद तेजसिंह के कान में आदमियों के बोलने की आवाज़ आयी। बात साफ़ समझ में नहीँ आती थी, इससे मालूम हुआ कि वे लोग कुछ दूर पर हैं। तेजसिंह ने सिर उठाकर देखा तो कुछ दूर पर दो आदमी दिखायी पड़े, जो उस शिवालय की तरफ़ आ रहे थे। तेजसिंह चश्मे के किनारे से उठ खड़े हुए और एक झाडी़ के अन्दर छिपकर देखने लगे कि वे लोग कहाँ जाते और क्या करते हैं। इन दोनों की पोशाकें उन लोगों से बहुत कुछ मिलती थीं, जो तारासिंह की चालाकी से तिलिस्मी खँडहर में बेहोश हुए थे और जिन्हें राजा बीरेन्द्रसिंह साधू बाबा (तिलिस्मी दारोगा) के सहित कैदी बनाकर रोहतासगढ़ ले गये थे, इसलिए तेजसिंह ने सोचा कि ये दोनों आदमी भी ज़रूर उन्हीं लोगों में से हैं, जिनकी बदौलत हम लोग दुःख भोग रहे हैं, अस्तु, इन लोगों में से किसी को फँसाकर अपना काम निकालना चाहिए।
तेजसिंह के देखते-ही-देखते वे दोनों आदमी वहाँ पहुँचकर उस शिवालय के अन्दर घुस गये और लगभग दो घड़ी के बीत जाने पर भी बाहर न निकले। तेजसिंह ने छिपकर राह देखना उचित न जाना। वह झाड़ी में से निकलकर शिवालय में आये मगर झाँककर देखा तो शिवालय के अन्दर किसी आदमी की आहट न मिली। ताज्जुब करते हुए शिवलिंग के पास तक चले गये, मगर किसी आदमी की सूरत दिखायी न पड़ी तेजसिंह तिलिस्मी कारखाने और अद्भुत मकानों तथा तहखानों की हालत से बहुत कुछ वाकिफ हो चुके थे, इसलिए समझ गये कि इस शिवालय के अन्दर कोई गुप्त राह, सुरंग या तहखाना अवश्य है और इसी सबब से ये दोनों आदमी गायब हो गये हैं।
शिवालय के सामने की तरफ़ बेल का एक पेड़ था। उसी के नीचे तेजसिंह यह निश्चय करके बैठ गये कि जब तक वे लोग अथवा उनमें से कोई बाहर न आयेगा, तब तक यहाँ से न टलेंगे। आख़िर घण्टे-भर के बाद उन्हीं में से एक आदमी शिवालय के अन्दर से बाहर आता हुआ दिखायी पड़ा। उसे देखते ही तेजसिंह उठ खड़े हुए, निगाह मिलते ही झुककर सलाम किया और तब कहा, "ईश्वर आपका भला करे, मेरे भाई की जान बचाइए!"
आदमी : तू कौन है और तेरा भाई कहाँ है?
तेज : मैं जमींदार हूँ, (हाथ का इशारा करके) उस झाड़ी के दूसरी ओर मेरा भाई है। बेचारे को एक बुढ़िया व्यर्थ मार रही है। आप पुजेरीजी हैं, धर्मात्मा हैं, किसी तरह मेरे भाई को बचाइए। इसीलिए मैं यहाँ आया हूँ। (गिड़गिड़ाकर) बस अब देर न कीजिए, ईश्वर आपका भला करे!
तेजसिंह की बातें सुनकर उस आदमी को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और बेशक ताज्जुब की बात भी थी, क्योंकि तेजसिंह बदन के मजबूत और निरोग मालूम होते थे, देखने वाला कह सकता था कि बेशक इसका भाई भी वैसा ही होगा, फिर ऐसे दो आदमियों के मुकाबले में एक बूढ़ी औरत का जबर्दस्त पड़ना ताज्जुब नहीं तो क्या है!
आख़िर बहुत कुछ सोच-विचारकर उस आदमी ने तेजसिंह से कहा "ख़ैर, चलो देखें वह बुढ़िया कैसी पहलवान है।"
उस आदमी को साथ लिये हुए तेजसिंह शिवालय से कुछ दूर चले गये और एक गुंजान झाड़ी के पास पहुँचकर इधर-उधर घूमने लगे।
आदमी : तुम्हारा भाई कहाँ है?
तेजसिंह : उसी को तो ढूँढ़ रहा हूँ।
आदमी : क्या तुम्हें याद नहीं कि उसे किस जगह छोड़ गये थे?
तेजसिंह : राम राम, कैसे बेवकूफ से पाला पड़ा है! अरे कम्बख्त जब जगह याद नहीं तो यहाँ तक कैसे आये!
आदमी : पाजी कहीं का! हम तो तेरी मदद को आये और तू हमें ही कम्बख्त कहता है!!
तेज : बेशक, तू कम्बख्त बल्कि कमीना है, तू मेरी मदद क्या करेगा, जब तू अपने ही को नहीं बचा सकता?
इतना सुनते ही वह आदमी चौकन्ना हो गया और बड़े ग़ौर से तेजसिंह की तरफ़ देखने लगा। जब उसे निश्चय हो गया कि यह कोई ऐयार है, तब उसने खंजर निकालकर तेजसिंह पर वार किया। तेजसिंह ने वार बचाकर उसकी कलाई पकड़ ली और एक झटका ऐसा दिया कि खंजर उसके हाथ से छूटकर दूर जा गिरा। वह और कुछ चोट करने की फिक्र ही में था कि तेजसिंह ने उसकी गर्दन पर हाथ डाल दिया और बात-की-बात में ज़मीन पर दे मारा। वह घबड़ाकर चिल्लाने लगा, मगर इससे भी कुछ काम न चला, क्योंकि उसके नाक में बेहोशी की दवा जबर्दस्ती ठूँस दी गयी और एक छींक मारकर वह बेहोश हो गया।
उस बेहोश आदमी को उठाकर तेजसिंह एक ऐसी झाड़ी में घुस गये, जहाँ से आते-जाते मुसाफ़िरों को वे बखूबी देख सकते, मगर उन पर किसी की निगाह न पड़ती। उस बेहोश आदमी को ज़मीन पर लेटा देने के बाद तेजसिंह चारों तरफ़ देखने लगे और जब किसी को न पाया तो धीरे से बोले, "अफसोस इस समय मैं अकेला हूँ, यदि मेरा कोई साथी होता तो इसे रोहतासगढ़ भेजवाकर बेखौफ हो जाता और बेफिक्री के साथ काम करता! ख़ैर, कोई चिन्ता नहीं, अब किसी तरह काम तो निकालना ही पड़ेगा।"
तेजसिंह ने ऐयारी का खोला बटुआ और आईना निकालकर सामने रक्खा, अपनी सूरत ठीक वैसी ही बनायी जैसा कि वह आदमी था, इसके बाद अपने कपड़े उतारकर रख दिये और उसके बदन से कपड़े उतारकर आप पहिन लेने के बाद उसकी सूरत बदलने लगे। किसी तेज़ दवा से उसके चेहरे पर कई जख्म के दाग ऐसे बनाये कि सिवाय तेजसिंह के दूसरा कोई छुड़ा ही नहीं सकता था और मालूम ऐसा होता था कि ये जख्म के दाग कई वर्षों से उसके चेहरे पर मौजूद हैं। इसके बाद उसका तमाम बदन एक स्याह मसाले से रंग दिया। इसमें यह गुण था कि जिस जगह लगाया जाय वह आबनूस के रंग की तरह स्याह हो जाय और जब तक केले के अर्क से न धोया जाय वह दाग किसी तरह न छूटे चाहे वर्षों बीत जाँय।
वह आदमी गोरा था, मगर अब पूर्ण रूप से काला हो गया, चेहरे पर कई जख्म के निशान भी बन गये। तेजसिंह ने बड़े ग़ौर से उसकी सूरत देखी और इस ढंग से गर्दन हिलाकर उठ खड़े हुए कि जिससे उनके दिल का भाव साफ़ झलक गया। तेजसिंह ने सोच लिया कि बस इसकी सूरत बखूबी बदल गयी, अब और कोई कारीगरी करने की आवश्यकता नहीं है और वास्तव में ऐसा ही था भी, दूसरे की बात तो दूर रही यदि उसकी माँ भी उसे देखती तो अपने लड़के को कभी न पहिचान सकती।
उस आदमी की कमर के साथ ऐयारी का बटुआ था, तेजसिंह ने उसे खोल लिया और अपने बटुए की कुल चीज़ें उसमें रख अपना बटुआ उसकी कमर से बाँध दिया और वहाँ से रवाना हो गये।
तेजसिंह फिर उसी शिवालय के सामने आये और एक बेल के पेड़ के नीचे बैठकर कुछ गाने लगे। दिन केवल घण्टे-भर बाकी रह गया था, जब वह दूसरा आदमी भी शिवालय के बाहर निकला। तेजसिंह को जो उसके साथी की सूरत में थे, पेड़ के नीचे मौजूद पाकर यह गुस्से में आ गया और उनके पास आकर कड़ी आवाज़ में बोला, "वाहजी बिहारीसिंह, अभी तक आप यहाँ बैठे गीत गा रहे हैं।"
तेजसिंह को इतना मालूम हो गया कि हम जिसकी सूरत में हैं, उसका नाम बिहारीसिंह है। अब, जब तक ये अपनी असली सूरत में न आवें, हम भी इन्हें बिहारीसिंह के ही नाम से लिखेंगे। हाँ, कहीं-कहीं तेजसिंह लिख जाँय तो कोई हर्ज़ भी नहीं।
बिहारीसिंह ने अपने साथी की बात सुनकर गाना बन्द किया और उसकी तरफ़ देखके कहा—
बिहारी : (दो-तीन दफे खाँसकर) बोलो मत, इस समय मुझे खाँसी हो गयी है, आवाज़ भारी हो रही है, जितना कोशिश करता हूँ, उतना ही गाना बिगड़ जाता है। ख़ैर, तुम भी आ जाओ और ज़रा सुर में सुर मिलाकर साथ गाओ तो!
वह : क्या बात है! मालूम होता है कि तुम कुछ पागल हो गये हो, मालिक का काम गया जहन्नुम में और हम लोग बैठे गीत गाया करें!!
बिहारी : वाह, ज़रा-सी बूटी ने क्या मजा दिखाया। अहा हा जीते रहो पट्ठे, ईश्वर तुम्हारा भला करे, खूब सिद्धी पिलायी।
वह : बिहारीसिंह, यह तुम्हें क्या हो गया? तुम तो ऐसे न थे!
बिहारी : जब न थे तब बुरे थे, जब हैं तो अच्छे हैं। तुम्हारी बात ही क्या है, सत्रह हाथी जलपान करके बैठा हूँ। कम्बख्त ने ज़रा नमक भी नहीं दिया, फीका ही उड़ाना पड़ा। ही-ही-ही-ही, आओ एक गदहा तुम भी खा लो, नहीं नहीं सूअर, अच्छा कुत्ता ही सही। ओ-हो-हो-हो, क्या दूर की सूझी! बचाजी ऐयारी करने बैठे हैं, हल जोतना आता ही नहीं, जिन्न पकड़ने लगे। हा-हा-हा-हा, वाह रे बूटी, अभी तक जीभ चटचटाती है–लो देख लो (जीभ चटचटाकर दिखाता है)।
वह : अफसोस!
बिहारी : अब अफसोस करने से क्या फायदा? जो होना था, वह तो हो गया। जाके पिण्डदान करो। हाँ, यह तो बताओ पितर-मिलौनी कब करोगे? मैं जाता हूँ, तुम्हारी तरफ़ से ब्राह्मणों को नेवता दे आता हूँ।
वह : (गर्दन हिलाकर) इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम पूरे पागल हो गये हो। तुम्हें ज़रूर किसी ने कुछ खिला या पिला दिया है।
बिहारी : न इसमें सन्देह, न उसमें सन्देह, पागल की बातचीत तो बिल्कुल जाने दो, क्योंकि तुम लोगों में केवल मैं ही हूँ सो हूँ, बाकी सब पागल। खिलानेवाले की ऐसी-तैसी, पिलानेवाले का बोलबाला। एक लोटा भाँग, दो सौ पैंतीस साढ़े तेरह आना, लोटा निशान। ऐयारी के नुस्खे एक-से-एक बढ़के याद हैं, जहाज की पाल भी खूब ही उड़ती है। वाह, कैसी अँधेरी रात है। बाप-रे-बाप, सूरज भी अस्त हुआ ही चाहता है। तुम भी नहीं हम भी नहीं, अच्छा तुम भी सही, बड़े अकिलमन्द हौ, अकिल-अकिल-अकिल मन्द-मन्द-मन्द। (कुछ देर तक चुप रहकर) अरे बाप-रे-बाप, मैया-रे-मैया, बड़ा ही गजब हो गया, मैं तो अपना नाम भी भूल गया! अभी तक तो याद था कि मेरा नाम बिहारीसिंह है मगर अब भूल गया, तुम्हारे सिर की कसम जो कुछ भी याद हो। भाई यार दोस्त मेरे, ज़रा बता दो मेरा नाम क्या है।
वह : अफसोस, रानी मुझी को दोष देंगी, कहेंगी कि हरनामसिंह अपने साथी की हिफ़ाज़त न कर सका।
बिहारी : ही-ही-ही-ही, वाह रे भाई हरनामसिंह, अलिफ बे ते से च छ ज झ, उल्लू की दुम फाख्ता...!
हरनामसिंह को विश्वास हो गया कि ज़रूर किसी ऐयार की शैतानी से जिसने कुछ खिला या पिला दिया है, हमारा साथी बिहारीसिंह पागल हो गया, इसमें कोई सन्देह नहीं। उसने सोचा कि अब इससे कुछ कहना-सुनना उचित नहीं, इसे इस समय किसी तरह फुसलाकर घर ले चलना चाहिए।
हरनाम : अच्छा यार अब देर हो गयी, चलो घर चलें।
बिहारी : क्या हम औरत हैं कि घर चलें! चलो जंगल में चलें, शेर का शिकार खेलें, रण्डी का नाच देखें, तुम्हारा गाना सुनें और सब के अन्त में तुम्हारे सिरहाने बैठकर रोएँ। ही-ही-ही-ही...!
हरनाम : ख़ैर, जंगल ही में चलो।
बिहारी : हम क्या साधू-वैरागी या उदासी हैं कि जंगल में जाँय! बस इसी जगह रहेंगे, भंग पीएँगे, चैन करेंगे, यह भी जंगल ही है। तुम्हारे जैसे गदहों का शिकार करेंगे, गदहे भी कैसे कि बस पूरे अन्धे! (इधर-उधर देखकर) सात-पाँच बारह पाँच तीन, तीन घण्टे बीत गये अभी तक भंग लेकर नहीं आया, पूरा झूठा निकला, मगर मुझसे बढ़के नहीं! बदमाश है, लुच्चा है, अब उसकी राह या सड़क नहीं देखूँगा! चलो भाई साहब चलें, घर ही की तरफ़ मुँह करना उत्तम है, मगर मेरा हाथ पकड़ लो, मुझे कुछ सूझता नहीं।
हरनामसिंह ने गनीमत समझा और बिहारीसिंह का हाथ पकड़, घर की तरफ़ अर्थात् मायारानी के महल की तरफ़ ले चला। मगर वाह रे तेजसिंह, पागल बनके क्या काम निकाला है! अब ये चाहे दो सौ दफे चूकें, मगर किसी की मजाल नहीं कि शक करें। बिहारीसिंह को मायारानी बहुत चाहती थीं, क्योंकि इसकी ऐयारी खूब पढ़ी-बढ़ी थी, इसलिए हरनामसिंह उसे ऐसी अवस्था में छोड़कर अकेला जा भी नहीं सकता था। मजा तो उस समय होगा, जब नकली बिहारीसिंह मायारानी के सामने होंगे और भूत की सूरत बने असली बिहारीसिंह भी पहुँचेंगे।
बिहारीसिंह को साथ लिये हरनामसिंह जमानिया* की तरफ़ रवाना हुआ। मायारानी वास्तव में जमानिया की रानी थी, इसके बाप-दादे भी इस जगह हुकूमत कर गये थे। जमानिया के सामने गंगा के किनारे से कुछ दूर हटकर एक बहुत ही खुशनुमा और लम्बा-चौड़ा बाग था, जिसे वहाँवाले "खास बाग" के नाम से पुकारते थे। इस बाग में राजा अथवा राज्य कर्मचारियों के सिवाय कोई दूसरा आदमी जाने नहीं पाता था। इस बाग के बारे में तरह-तरह की गप्पें लोग उड़ाया करते थे, मगर असल भेद यहाँ का किसी को मालूम न था। इस बाग के गुप्त भेदों को राजखानदान और दीवान तथा ऐयारों के सिवाय कोई गैर आदमी नहीं जानता था और न कोई जानने की कोशिश कर सकता था, यदि कोई गैर आदमी इस बाग में पाया जाता तो तुरन्त मार डाला जाता था, और यह कायदा बहुत पुराने जमाने से चला आता था। (*जमानिया–इसे लोग जमानिया भी कहते हैं। काशी के पूरब गंगा के दाहिने किनारे पर आबाद है।)
जमानिया में जिस किले के अन्दर मायारानी रहती थी, उसमें से गंगा के नीचे-नीचे एक सुरंग भी इस बाग तक गयी थी और इसी राह से मायारानी वहाँ आती-जाती थीं, इस सबब से मायारानी का इस बाग में आना या यहाँ से जाना खास-खास आदमियों के सिवाय किसी गैर को न मालूम होता था। किले और इस बाग का खुलासा हाल पाठकों को स्वयं मालूम हो जायगा, इस जगह विशेष लिखने की कोई आवश्यकता नहीं, हाँ, इस जगह इतना लिख देना मुनासिब मालूम होता है कि रामभोली के आशिक नानक तथा कमला ने इसी बाग में मायारानी का दरबार देखा था।
जमानिया पहुँचने तक बिहारीसिंह ने अपने पागलपन से हरनामसिंह को बहुत ही तंग किया और साबित कर दिया कि पढ़ा-लिखा आदमी किस ढंग का पागल होता है। यदि मायारानी का डर न होता तो हरनामसिंह अपने साथी को बेशक छोड़ देता और हजार खराबी के साथ घर ले जाने की तकलीफ न उठाता।
कई दिन के बाद बिहारीसिंह को साथ लिये हुए हरनामसिंह जमानिया के किले में पहुँच गया। उस समय पहर-भर रात जा चुकी थी। किले के अन्दर पहुँचने पर मालूम हुआ कि इस समय मायारानी बाग में हैं, लाचार बिहारीसिंह को साथ लिये हुए हरनामसिंह को उस बाग में जाना पड़ा और इसलिए बिहारीसिंह (तेजसिंह) ने किले और सुरंग का रास्ता भी बखूबी देख लिया। सुरंग के अन्दर दस-पन्द्रह कदम जाने के बाद बिहारीसिंह ने हरनामसिंह से कहा—
बिहारी : सुनो जी, इस सुरंग के अन्दर सैकड़ों दफे हम आ चुके और आज भी तुम्हारे मुलाहिजे से चले आये, मगर आज के बाद फिर कभी यहाँ लाओगे तो मैं तुम्हें कच्चा ही खा जाऊँगा और इस सुरंग को भी बर्बाद कर दूँगा, अच्छा यह बताओ कि मुझे लिये कहाँ जाते हो?
हरनाम : मायारानी के पास।
बिहारी : तब तो मैं न जाऊँगा क्योंकि मैं सुन चुका हूँ कि मायारानी आजकल आदमियों को खाया करती हैं, तुम भी तो कल तीन गदहियाँ खा चुके हो! मायारानी के सामने चलो तो सही, देखो मैं तुम्हें कैसे छकाता हूँ, ही-ही-ही, बच्चा तुम्हें छकाने से क्या होगा मायारानी के छकाऊँ तो कुछ मजा मिले! भज मन राम चरन सुखदाई!!( भजन गाता है।)
बड़ी मुश्किल से सुरंग खतम किया और बाग में पहुँचे। उस सुरंग का दूसरा सिरा बाग में एक कोठरी के अन्दर निकलता था। जिस समय वे दोनों कोठरी के बाहर हुए तो उस दालान में पहुँचे, जिसमें मायारानी का दरबार होता था। इस समय मायारानी उसी दालान में थी, मगर दरबार का सामान वहाँ कुछ न था, केवल अपनी बहन और सखी-सहेलियों के साथ बैठी दिल बहला रही थी। मायारानी पर निगाह पड़ते ही उसकी पोशाक और गम्भीर भाव ने बिहारीसिंह (तेजसिंह) को निश्चय करा दिया कि यहाँ की मालिक यही है।
हरनामसिंह और बिहारीसिंह को देखकर मायारानी को एक प्रकार की खुशी हुई और उसने बिहारीसिंह की तरफ़ देखकर पूछा, "कहो क्या हाल है?"
बिहारी : रात अँधेरी है, पानी खूब बरस रहा है, काई फट गयी, दुश्मन ने सिर निकाला, चोर ने घर देख लिया, भूख के मारे पेट फूल गया, तीन दिन से भूखा हूँ, कल का खाना अभी तक हजम नहीं हुआ। मुझ पर बड़े अन्धेर का पत्थर आ टूटा, बचाओ बचाओ!!
बिहारीसिंह के बेतुके जवाब से मायारानी घबड़ा गयी, सोचने लगी कि इसको क्या हो गया जो बेमतलब की बात बक गया आख़िर हरनामसिंह की तरफ़ देखकर पूछा, "बिहारी क्या कह गया मेरी समझ में न आया!"
बिहारी : अहा हा, क्या बात है! तुमने मारा हाथ पसारा, छुरा लगाया खंजर खाया, शेर लड़ाया गीदड़ लाया! राम लिखाया नहीं मिटाया, फाँस लगाया आप चुभाया, ताड़ खुजाया खून बहाया, समझ खिलाड़ी बूझ मेरे उल्लू, हा-हा-हा, भला समझो तो!
मायारानी और भी घबड़ायी, बिहारीसिंह का मुँह देखने लगी। हरनामसिंह मायारानी के पास गया और धीरे से बोला, "इस समय मुझे दुख के साथ कहना पड़ता है कि बेचारा बिहारीसिंह पागल हो गया है, मगर ऐसा पागल नहीं है कि हथकड़ी-बेड़ी की ज़रूरत पड़े क्योंकि किसी को दुःख नहीं देता, केवल बकता बहुत है और अपने पराये का होश नहीं है, कभी बहुत अच्छी तरह भी बातें करता है। मालूम होता है कि बीरेन्द्रसिंह के किसी ऐयार ने धोखा देकर इसे कुछ खिला दिया।"
माया : तुम्हारा और इसका साथ क्योंकर छूटा और क्या हुआ कुछ खुलासा कहो तो हाल मालूम हो।
हरनाम : पहले इनके लिए कुछ बन्दोबस्त कर दीजिए, फिर सब हाल कहूँगा, वैद्यजी को बुलाकर जहाँ तक जल्द हो इनका इलाज कराना चाहिए!
बिहारी : यह काना फुसकी अच्छी नहीं, मैं समझ गया कि तुम मेरी चुगली खा रहे हो। (चिल्लाकर) दोहाई रानी साहबा की, इस कम्बख्त हरनामसिंह ने मुझे मार डाला, जहर खिलाकर मार डाला, मैं जिन्दा नहीं हूँ, मैं तो मरने के बाद भूत बनकर यहाँ आया हूँ, तुम्हारी कसम खाकर कहता हूँ। अब मैं वह बिहारीसिंह नहीं हूँ, मैं कोई दूसरा ही हूँ। हाय-हाय, बड़ा गजब हुआ। या ईश्वर उन लोगों से तू ही समझियो, जो भले आदमियों को पकड़कर पिंजरे में बन्द किया करते हैं।
माया : अफसोस, इस बेचारे की क्या दशा हो गयी, मगर हरनामसिंह यह तो तुम्हारा ही नाम लेता है, कहता है हरनामसिंह ने जहर खिला दिया!
हरनाम : इस समय मैं इसकी बातों से रंज नहीं हो सकता, क्योंकि इस बेचारे की अवस्था ही दूसरी हो रही है।
माया : इसकी फिक्र जल्द करना चाहिए, तुम जाओ वैद्यजी को बुला लाओ।
हरनाम : बहुत अच्छा।
माया : (बिहारी से) तुम मेरे पास आकर बैठो। कहो तुम्हारा मिजाज कैसा है?
बिहारी : (मायारानी के पास बैठकर) मिजाज? मिजाज है, बहुत है, अच्छा है, क्यों अच्छा है, सो ठीक है!
माया : क्या तुम्हें मालूम है कि तुम कौन हो?
बिहारी : हाँ, मालूम है, मैं महाराजाधिराज श्री बीरेन्द्रसिंह हूँ। (कुछ सोचकर) नहीं, वह तो अब बुड्ढे हो गये, मैं कुँअर इन्द्रजीतसिंह बनूँगा, क्योंकि वह बड़े खूबसूरत हैं, औरतें देखने के साथ ही उन पर रीझ जाती हैं, अच्छा अब मैं कुँअर इन्द्रजीतसिंह हूँ। (सोचकर) नहीं, नहीं, नहीं, वह तो अभी लड़के हैं और उन्हें ऐयारी भी नहीं आती और मुझे बिना ऐयारी के चैन नहीं, अतएव मैं तेजसिंह बनूँगा। बस यही बात पक्की रही, मुनादी फिरवा दीजिए कि लोग मुझे तेजसिंह कहके पुकारा करें।
माया : (मुस्कुराकर) बेशक, ठीक है, अब हम भी तुमको तेजसिंह ही कहके पुकारेंगे।
बिहारी : ऐसा ही उचित है। जो मजा दिन-भर भूखे रहने में है, वह मजा आपकी नौकरी में है, जो मजा डूब मरने में है, वह मजा आपका काम करने में है।
माया : सो क्यों?
बिहारी : इतना दुःख भोगा, लड़े-झगड़े, सर के बाल नोच डाले, सबकुछ किया, मगर अभी तक आँख से अच्छी तरह न देखा। यह मालूम ही न हुआ कि किसके लिए, किसको फाँसा और उस फँसाई से फँसनेवाले की सूरत अब कैसी है!
माया : मेरी समझ में न आया कि इस कहने से तुम्हारा क्या मतलब है?
बिहारी : (सिर पीटकर) अफसोस, हम ऐसे नासमझ के हैं। ऐसी जिन्दगी ठीक नहीं, ऐसा खून किसी काम का नहीं, जो कुछ मैं कह चुका हूँ जब तक उसका कोई मतलब न समझेगा और मेरी इच्छा पूरी न होगी तब तक मैं किसी से न बोलूँगा, न खाऊँगा, न सोऊँगा, न एक, न दो, न चार, हजार, पाँच सौ कुछ नहीं चाहे जो हो मैं तो देखूँगा!
माया : क्या देखोगे?
बिहारी : मुँह से तो मैं बोलनेवाला नहीं, आपको समझने की गौं हो तो समझिए।
माया : भला कुछ कहो भी तो सही।
बिहारी : समझ जाइए।
माया : कौन-सी चीज़ ऐसी है जो तुम्हारी देखी नहीं है?
बिहारी : देखी है, मगर अच्छी तरह देखूँगा।
माया : क्या देखोगे?
बिहारी : समझिए।
माया : कुछ कहो भी कि समझिए, समझिए ही बकते जाओगे।
बिहारी : अच्छा एक हर्फ कहो तो कह दूँ।
माया : ख़ैर यही सही।
बिहारी : कै कै कै कै!!
माया : (मुस्कुराकर) कैदियों को देखोगे?
बिहारी : हाँ, हाँ, हाँ, बस, बस, बस, वही, वही, वही।
माया : उन्हें तो तुम देख ही चुके हो, तुम्हीं लोगों ने तो गिरफ़्तार ही किया है।
बिहारी : फिर देखेंगे, सलाम करेंगे, नाच नचावेंगे, ताक धिनाधिन नाचो भालू (उठकर कूदता है)।
मायारानी बिहारीसिंह को बहुत मानती थी। मायारानी के कुल ऐयारों का वह सरदार था और वास्तव में बहुत ही तेज़ और ऐयारी के फन में पूरा ओस्ताद भी था। यद्यपि इस समय वह पागल है, तथापि मायारानी को उसकी खातिर मंजूर है। मायारानी हँसकर उठ खड़ी हुई और बिहारीसिंह को साथ लिये हुए उस कोठरी में चली गयी, जिसमें सुरंग का रास्ता था। दरवाज़ा खोलकर सुरंग के अन्दर गयी। सुरंग में कई शीशे की हाँडियाँ लटक रही थीं और रोशनी बखूबी हो रही थी। मायारानी लगभग पचास कदम के जाकर रुकी, उस जगह दीवार में एक छोटी-सी आलमारी बनी हुई थी। मायारानी की कमर में जो सोने की जंजीर लटक रही थी, उसके साथ तालियों का एक छोटा-सा गुच्छा लटक रहा था। मायारानी ने वह गुच्छा निकाला और उसमें की एक ताली लगाकर यह आलमारी खोली। आलमारी के अन्दर निगाह करने से सीढ़ियाँ नज़र आयीं जो नीचे उतर जाने के लिए थीं। वहाँ भी शीशे की कन्दील में रोशनी हो रही थी। बिहारीसिंह को साथ लिये हुए मायारानी नीचे उतरी। अब बिहारीसिंह ने अपने को ऐसी जगह पाया, जहाँ लोहे की जँगले वाली कई कोठरियाँ थीं और हरएक कोठरी का दरवाज़ा मजबूत ताले से बन्द था। उन कोठरियों में हथकड़ी-बेड़ी से बेबस उदास और दुःखी केवल चटाई पर लेटे अथवा बैठे हुए कई कैदियों की सूरत दिखायी दे रही थी। ये कोठरियाँ गोलाकार ऐसे ढंग से बनी हुई थीं कि हरएक कोठरी में अलग-अलग क़ैद करने पर भी कैदी लोग आपस में बातें कर सकते थे।
सबसे पहिले बिहारीसिंह की निगाह जिस कैदी पर पड़ी, वह तारासिंह था, जिसे देखते ही बिहारीसिंह खिलखिलाकर हँसा और चारों तरफ़ देख न मालूम क्या-क्या बक गया, जिसे मायारानी कुछ भी न समझ सकीं, इसके बाद बिहारीसिंह ने मायारानी की तरफ़ देखा और कहा—
"छिः छिः, मुझे आप इन कमबख्तों के सामने क्यों लायीं? मैं इन लोगों की सूरत नहीं देखा चाहता। मैं तो कै देखूँगा, बस केवल कै देखूँगा और कुछ नहीं, आप जब तक चाहें यहाँ रहें, मगर मैं दम-भर नहीं रह सकता, अब कै देखूँगा कै, बस कै देखूँगा, बस कै केवल कै!"
'कै कै' बकता हुआ बिहारीसिंह वहाँ से भागा और उस जगह आकर बैठ गया, जहाँ मायारानी से पहिले-पहिल मुलाकात हुई थी। बिहारीसिंह की बदहवासी देखकर मायारानी घबरायीं और जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ चढ़ कैदख़ाने का ताला बन्द करने के बाद अपनी जगह पर आयी, जहाँ लम्बी-लम्बी साँसे लेते बिहारीसिंह को बैठे हुए पाया। मायारानी की वे सहेलियाँ भी उसी जगह बैठी थीं, जिन्हें छोड़कर मायारानी कैदख़ाने की तरफ़ गयी थी।
मायारानी ने बिहारीसिंह से भागने का सबब पूछा, मगर उसने कुछ जवाब न दिया। मायारानी ने कई तरह के प्रश्न किये, मगर बिहारीसिंह ने ऐसी चुप्पी साधी कि जिसका कोई हिसाब ही नहीं। मालूम होता था कि यह जन्म का गूँगा और बहिरा है, न सुनता है, न कुछ बोल सकता है। मायारानी की सहेलियों ने भी बहुत कुछ ज़ोर मारा, मगर बिहारीसिंह ने मुँह न खोला। इस परेशानी में मायारानी को बिहारीसिंह की हालत पर अफसोस करते हुए घण्टा-भर बीत गया और तब तक वैद्यजी को जिनकी उम्र लगभग अस्सी वर्ष के होगी, अपने साथ लिये हुए हरनामसिंह भी आ पहुँचा।
वैद्यराज ने इस अनोखे पागल की जाँच की और अन्त में यह निश्चय किया कि बेशक इसे कोई ऐसी दवा खिलायी गयी है, जिसके असर से यह पागल हो गया है और यदि इसी समय इसका इलाज किया जाय तो एक ही दो दिन में आराम हो सकता है। मायारानी ने इलाज करने की आज्ञा दी और वैद्यराज ने अपने पास से एक जड़ाऊ डिबिया निकाली जो कई तरह की दवाओं से भरी हुई हमेशा उनके पास रहा करती थी।
वैद्यराज को उस अनोखे पागल की जाँच में कुछ भी तकलीफ न हुई। बिहारीसिंह ने नाड़ी दिखाने में उज्र न किया और अन्त में दवा की वह गोली भी खा गया, जो वैद्यराज ने अपने हाथ से उसके मुँह में रख दी थी। बिहारीसिंह ने अपने को ऐसा बनाया, जिससे देखनेवालों को विश्वास हो गया कि वह दवा खा गया, परन्तु उस चालाक पागल ने गोली दातों के नीचे छिपा ली और थोड़ी देर बाद मौका पाकर इस ढब से थूक दी कि किसी को गुमान तक न हुआ।
आधी घड़ी तक उछल-कूद करने के बाद बिहारीसिंह ज़मीन पर गिर पड़ा और सवेरा होने तक उसी तरह पड़ा रहा। वैद्यराज ने नब्ज देखकर कहा कि यह दवा की तासीर से बेहोश हो गया है, इसे कोई छेड़े नहीं, आशा है कि इसकी जब आँख खुलेगी तो अच्छी तरह बातचीत करेगा। बिहारीसिंह चुपचाप पड़ा ये बातें सुन रहा था। मायारानी बिहारी की हिफ़ाज़त के लिए कई लौंडियाँ छोड़ दूसरे कमरे में चली गयी और एक नाजुक पलँग पर जो वहाँ बिछा हुआ था सो रही।
सूर्योदय से पहिले ही मायारानी उठी और हाथ-मुँह धोकर उस जगह पहुँची, जहाँ बिहारीसिंह को छोड़ गयी थी। हरनामसिंह पहिले ही वहाँ जा चुका था। बिहारीसिंह को जब मालूम हो गया कि मायारानी उसके पास आकर बैठ गयी है तो वह भी दो-तीन करवटें लेकर उठ बैठा और ताज्जुब से चारों तरफ़ देखने लगा।
माया : अब तुम्हारा क्या हाल है?
बिहारी : हाल क्या कहूँ मुझे ताज्जुब मालूम होता है कि मैं यहाँ क्योंकर आया, मेरी आवाज़ क्यों बैठ गयी और इतनी कमजोरी क्यों मालूम होती है कि मैं उठकर चल-फिर नहीं सकता!
माया : ईश्वर ने बड़ी कृपा की जो तुम्हारी जान बच गयी, तुम तो पूरे पागल हो गये थे, वैद्यराज ने भी ऐसी दवा दी कि एक ही खूराक में फायदा हो गया। बेशक, उन्होंने इनाम पाने का काम किया। तुम अपना हाल तो कहो, तुम्हें क्या हो गया था?
बिहारी : (हरनामसिंह की तरफ़ देखकर) मैं एक ऐयार के फेर में पड़ गया था, मगर पहिले आप कहिए कि मुझे इस अवस्था में कहाँ पाया?
हरनाम : आप मुझसे यह कहकर कि तुम थोड़ा-सा काम जो बच रहा है, उसे पूरा करके जमानिया चले जाना, मैं कमलिनी से मुलाकात करके और जिस तरह होगा उसे राजी करके जमानिया आऊँगा–खँडहरवाले तहख़ाने के बाहर चले गये, परन्तु काम पूरा करने के बाद मैं सुरंग से बाहर निकला तो आपको शिवालय के सामने पेड़ के नीचे विचित्र दशा में पाया। (पागलपन की बातचीत और महारानी के पास तक आने का खुलासा हाल कहने के बाद) मालूम होता है, आप कमलिनी के पास नहीं गये?
बिहारी : (मायारानी से) जैसा धोखा मैंने अबकी खाया आज तक नहीं खाया था। हरनामसिंह का कहना सही है। जब मैं सुरंग से निकलकर शिवालय से बाहर हुआ तो एक आदमी पर नज़र पड़ी, जो मामूली जमींदार की सूरत में था। वह मुझे देखते ही मेरे पैरों पर गिर पड़ा और गिड़गिड़ाकर कहने लगा कि 'पुजेरीजी महाराज, किसी तरह मेरे भाई की जान बचाइए'! मैंने उससे पूछा कि 'तेरे भाई को क्या हुआ है'? उसने जवाब दिया कि 'उसे एक बुढ़िया बेतरह मार रही है, किसी तरह उसके हाथ से छुड़ाइए'। वह जमींदार बहुत ही मजबूत और मोटा-ताजा था। मुझे ताज्जुब मालूम हुआ कि वह कैसी बुढ़िया है, जो ऐसे-ऐसे दो भाइयों से नहीं हारती!
आख़िर मैं उसके साथ चलने पर राजी हो गया। वह मुझे शिवालय से कुछ दूर एक झाड़ी में ले गया, जहाँ कई आदमी छिपे हुए बैठे थे। उस जमींदार के इशारे से सभों ने मुझे घेर लिया और एक ने चाँदी की लुटिया मेरे सामने रखकर कहा 'कि यह भंग है इसे पी जाओ'। मुझे मालूम हो गया कि यह वास्तव में कोई ऐयार है, जिसने मुझे धोखा दिया। मैंने भंग पीने से इनकार किया और वहाँ से लौटना चाहा, मगर उन सभों ने भागने न दिया। थोड़ी देर तक मैं उन लोगों से लड़ा मगर कर क्या सकता था, क्योंकि वे लोग गिनती में पन्द्रह से कम न थे।
आख़िर में उन लोगों ने पटककर मुझे मारना शुरू किया और जब मैं बेदम हो गया तो भंग या दवा, जो कुछ हो मुझे जबर्दस्ती पिला दी, बस इसके बाद मुझे कुछ भी ख़बर नहीं कि क्या हुआ।
थोड़ी देर तक इसी तरह की ताज्जुब की बातें कहकर बिहारीसिंह ने मायारानी का दिल बहलाया और इसके बाद कहा, "मेरी तबीयत बहुत खराब हो रही है, यदि कुछ देर बाग में टहलूँ तो बेशक जी प्रसन्न हो, मगर कमजोरी इतनी बढ़ गयी है कि स्वयं उठने और टहलने की हिम्मत नहीं पड़ती।"मायारानी ने कहा, "कोई हर्ज़ नहीं, हरनामसिंह सहारा देकर तुम्हें टहलावेंगे, मैं समझती हूँ कि बाग की ताजी हवा खाने और फूलों की खुशबू सूँघने से तुम्हें बहुत-कुछ फायदा पहुँचेगा।"
आख़िर हरनामसिंह ने बिहारीसिंह को हाथ पकड़कर बाग में अच्छी तरह टहलाया और इस बहाने से तेजसिंह ने उस बाग को अच्छी तरह देख लिया था। ये लोग घूम-फिरकर मायारानी के पास पहुँचे ही थे कि एक लौंडी ने जो चोबदार थी, मायारानी के सामने आकर और हाथ जोड़कर कहा, "बाग के फाटक पर एक आदमी आया है और सरकार में हाजिर हुआ चाहता है। बहुत ही बदसूरत और काला-कलूटा है, परन्तु कहता है कि मैं बिहारीसिंह हूँ, मुझे किसी ऐयार ने धोखा दिया और चेहरे तथा बदन को ऐसे रंग से रँग दिया कि अभी तक साफ़ नहीं होता!"
माया : यह अनोखी बात सुनने में आयी कि ऐयारों का रँगा हुआ रंग और धोने से नहीं छूटे! कोई-कोई रंग पक्का ज़रूर होता है, मगर उसे भी ऐयार लोग छुड़ा सकते हैं। (हँसकर) बिहारीसिंह ऐसा बेवकूफ नहीं कि अपने चेहरे का रंग न छु़ड़ा सके!
बिहारी : रहिए रहिए, मुझे शक पड़ता है कि शायद यह वही आदमी हो जिसने मुझे धोखा दिया बल्कि ऐसा कहना चाहिए कि मेरे साथ जबर्दस्ती की। (लौंडी की तरफ़ देखकर) उसके चेहरे पर जख्म के दाग भी हैं?
लौंडी : जी हाँ, पुराने जख्म के कई दाग हैं।
बिहारी : भौं के पास भी कोई जख्म का दाग है?
लौंडी : एक आड़ा दाग है, मालूम होता है कि कभी लाठी की चोट खायी है।
बिहारी : बस बस, यह वही आदमी है, देखो जाने न पावे। चण्डूल को यह ख़बर ही नहीं कि बिहारीसिंह यहाँ पहुँच गया है। (मायारानी की तरफ़ देखकर) यहाँ पर्दा करवाकर उसे बुलवाइए, मैं भी पर्दे के अन्दर रहूँगा, देखिए क्या मजा करता हूँ। हाँ, हरनामसिंह पर्दे के बाहर रहें, देखें पहिचानता है या नहीं।
माया : (लौंडी की तरफ़ देखकर) पर्दा करने के लिए कहो और नियमानुसार आँख में पट्टी बाँधकर उसे यहाँ लिवा लाओ।
लौंडी : वह यहाँ की हरएक चीज़ों का पूरा-पूरा पता देता है, और ज़रूर इस बाग के अन्दर आ चुका है।
बिहारी : पक्का चोर है, ताज्जुब नहीं कि यहाँ आ चुका हो। ख़ैर, तुम लोगों को अपना नियम पूरा करना चाहिए।
हुक्म पाते ही लौंडियों ने पर्दे का इन्तजाम कर दिया और वह लौंडी जिसने बिहारीसिंह के आने की ख़बर दी थी, इसलिए फाटक की तरफ़ रवाना हुई कि नियमानुसार आँख में पट्टी बाँधकर बिहारीसिंह को बाग के अन्दर ले आवे और मायारानी के सामने हाजिर करे।
इस जगह इस बाग का कुछ थोड़ा-सा हाल लिख देना मुनासिब मालूम होता है। यह दो सौ बिगहे का बाग मजबूत चहारदीवारी के अन्दर था। इसके चारों तरफ़ की दीवारें बहुत मोटी, मजबूत और लगभग पचीस हाथ के ऊँची थीं। दीवार के ऊपरी हिस्से में तेज़ नोक और धारवाले लोहे के काँटे और फाल इस ढंग से लगे हुए थे कि काबिल ऐयार भी दीवार लाँघकर बाग के अन्दर जाने का साहस नहीं कर सकते थे। काँटों के सबब यद्यपि कमन्द लगाने में सुबीता था, परन्तु उसके सहारे ऊपर चढ़ना बिल्कुल ही असम्भव था। इस चहारदीवारी के अन्दर की ज़मीन जिसे हम बाग कहते हैं, चार हिस्सों में बँटी हुई थी। पूरब तरफ़ आलीशान फाटक था, जिसके अन्दर जाकर एक बाग जिसे पहिला हिस्सा कहना चाहिए, मिलता था। इसकी चौड़ी-चौड़ी रविशें ईंट और चूने से बनी हुई थीं। पश्चिम तरफ़ अर्थात् इस हिस्से के अन्त में बीस हाथ मोटी और इससे ज़्यादे ऊँची दीवार बाग की पूरी चौड़ाई तक बनी हुई थी, जिसके नीचे बहुत-सी कोठरियाँ थीं, जो सिपाहियों के काम में आती थीं। इस दीवार के ऊपर चढ़ने के लिए खूबसूरत सीढ़ियाँ थीं जिन पर जाने से बाग का दूसरा हिस्सा दिखायी देता था और इन्हीं सीढ़ियों की राह दीवार के नीचे उतरकर उस हिस्से में जाना पड़ता था। सिवा इसके और कोई दूसरा रास्ता उस बाग में, जिसे हम दूसरा हिस्सा कहते हैं, जाने के लिए नहीं था। पहिले हिस्से की अपेक्षा यह हिस्सा विशेष खूबसूरत और सजा हुआ था। बाग के तीसरे हिस्से में जाने का रास्ता उसी मकान के अन्दर से था, जिसमें मायारानी रहा करती थी। बाग के तीसरे हिस्से का हाल लिखना ज़रा मुश्किल है, तथापि इमारत के बारे में इतना कह सकते हैं कि इस तीसरे हिस्से के बीचोबीच में एक बहुत ऊँचा बुर्ज था। उस बुर्ज के चारों तरफ़ कई मकान थे जिनके दालानों, कोठरियों, कमरों और बारहदारियों तथा तहखानों का हाल इस जगह लिखना कठिन है, क्योंकि उन सभों का तिलिस्मी बातों से विशेष सम्बन्ध है। हाँ, इतना कह सकते हैं कि उसी बुर्ज में से बाग के चौथे हिस्से में जाने का रास्ता था, मगर इस बाग के चौथे हिस्से में क्या है, उसका हाल लिखते कलेजा काँपता है। इस जगह हम उसका ज़िक्र करना मुनासिब नहीं समझते, आगे जाकर किसी मौके पर वह हाल लिखा जायगा।
जब वह लौंडी असली बिहारीसिंह को जो फाटक पर आया था, लेने चली गयी तो नकली बिहारीसिंह अर्थात् तेजसिंह ने मायारानी से कहा, "इसे ईश्वर की कृपा ही कहनी चाहिए कि वह शैतान ऐयार, जिसने मेरे साथ जबर्दस्ती की और ऐसी दवा खिलायी कि जिसके असर से मैं पागल ही हो गया था, घर बैठे फन्दे में आ गया।"
माया : ठीक है, मगर देखा चाहिए यहाँ पहुँचकर क्या रंग लाता है।
बिहारी : जिस समय वह यहाँ पहुँचे, सबके पहिले हथकड़ी और बेड़ी उसके नज़र करनी चाहिए, जिसमें मुझे देखकर भागने का उद्योग न करे।
माया : जो मुनासिब हो करो, मगर मुझे यह आश्चर्य ज़रूर मालूम होता है कि वह ऐयार जब तुम्हारे साथ बुरा बर्ताव कर ही चुका है और तुम्हें पागल बनाकर छोड़ ही चुका था तो बिना अपनी सूरत बदले, यहाँ क्यों चला आया। ऐयारों से ऐसी भूल न होनी चाहिए, उसे मुनासिब था कि तुम्हारी या मेरे किसी और आदमी की सूरत बनाकर आता।
बिहारी : ठीक है, मगर जो कुछ उसने किया, वह भी उचित ही किया। मेरी या यहाँ के किसी और नौकर की सूरत बनाकर उसका यहाँ आना तब अच्छा होता, जब मुझे गिरफ़्तार रखता!
माया : मैं यह भी सोचती हूँ कि तुम्हें गिरफ़्तार करके केवल पागल ही बनाकर छोड़ देने में उसने क्या फायदा सोचा था? मेरी समझ में तो यह उसने भूल की।
इतना कहकर मायारानी ने टटोलने की नीयत से नकली बिहारीसिंह पर अर्थात् तेजसिंह पर एक तेज़ नज़र डाली। तेजसिंह भी समझ गये कि मायारानी को मेरी तरफ़ से कुछ शक हो गया है और इस शक को मिटाने के लिए वह किसी तरह की जाँच ज़रूर करेगी, तथापि इस समय बिहारीसिंह (तेजसिंह) ने ऐसा गम्भीर भाव धारण किया कि मायारानी का शक बढ़ने न पाया। थोड़ी देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं और इसके बाद लौंडी असली बिहारीसिंह को लेकर आ पहुँची। आज्ञानुसार असली बिहारीसिंह पर्दे के बाहर बैठाया गया। अभी तक उसकी आँखों पर पट्टी बँधी हुई थी।
असली बिहारीसिंह की आँखों से पट्टी खोली गयी और उसने चारों तरफ़ अच्छी तरह निगाह दौड़ाने के बाद कहा, "बड़ी खुशी की बात है कि मैं जीता-जागता अपने घर आ पहुँचा। (हाथ का इशारा करके) मैं इस बाग को और अपने साथियों को खुशी की निगाह से देखता हूँ। इस बात का अफसोस नहीं है कि मायारानी ने मुझसे पर्दा किया क्योंकि जब तक मैं अपना बिहारीसिंह होना साबित न कर दूँ, तब तक इन्हें मुझ पर भरोसा न करना चाहिए, मगर मुझे (हरनामसिंह की तरफ़ देखकर और इशारा करके) अपने इस अनूठे दोस्त हरनामसिंह पर अफसोस होता है कि इन्होंने मेरी कुछ भी परवाह न की और मुझे ढूँढ़ने का भी कष्ट न उठाया। शायद इसका सबब यह हो कि वह ऐयार मेरी सूरत बनकर इनके साथ हो लिया हो, जिसने मुझे धोखा दिया। अगर मेरा खयाल ठीक है तो वह ऐयार यहाँ ज़रूर आया होगा, मगर ताज्जुब की बात है कि मैं चारों तरफ़ निगाह दौड़ाने पर भी उसे नहीं देखता। ख़ैर, यदि यहाँ आया तो देख ही लूँगा कि बिहारीसिंह वह है, या मैं हूँ। केवल इस बाग के चौथे भाग के बारे में थोड़े से सवाल करने ही से उसकी सारी कलई खुल जायगी।"
असली बिहारीसिंह की बातों ने जो इस जगह पहुँचने के साथ ही उसने कहीं सभों पर अपना असर डाला। मायारानी के दिल पर तो उसका बहुत ही गहरा असर पड़ा मगर उसने बड़ी मुश्किल से अपने को सम्हाला और तब एक निगाह तेजसिंह के ऊपर डाली। तेजसिंह को यह क्या ख़बर थी कि यहाँ कोई ऐसा विचित्र बाग देखने में आवेगा और उसके भाग अथवा दर्जों के बारे में सवाल किये जाँयगे। उन्होंने सोच लिया कि अब मामला बेढब हो गया, काम निकालना अथवा राजकुमारों को छुड़ाना तो दूर रहा कोई दूसरा उद्योग करने के लिए मेरा बचकर यहाँ से निकल जाना भी मुश्किल हो गया, क्योंकि मैं किसी तरह उसके सवालों का जवाब नहीं दे सकता और न उस बाग के गुप्त भेदों की मुझे ख़बर ही है।
असली बिहारीसिंह अपनी बात कहकर चुप हो गया और इस फिक्र में हुआ कि मेरी बात का कोई जवाब दे ले तो मैं कुछ कहूँ, मगर मायारानी की आज्ञा बिना कोई भी उसकी बातों का जवाब न दे सकता था। चालाक और धूर्त मायारानी न मालूम क्या सोच रही थी कि आधी घड़ी तक उसने सिर न उठाया। इसके बाद उसने एक लौंडी की तरफ़ देखकर कहा, "हरनामसिंह को यहाँ बुलाओ।"
हरनामसिंह पर्दे के अन्दर आया और मायारानी के सामने खड़ा हो गया।
माया : यह ऐयार जो भी आया है और बड़ी तेजी से बोलकर चुप बैठा है, बड़ा ही शैतान और धूर्त मालूम होता है। मैं इससे बहुत कुछ पूछना चाहती हूँ, परन्तु इस समय मेरे सर में दर्द है, बात करना या सुनना मुश्किल है। तुम इस ऐयार को ले जाओ, चार नम्बर के कमरे में इसके रहने का बन्दोबस्त कर दो, जब मेरी तबियत ठीक होगी तो देखा जायगा।
हरनाम : बहुत मुनासिब है और मैं सोचता हूँ कि बिहारीसिंह को भी...
माया : हाँ, बिहारीसिंह भी दो-चार दिन इसी बाग में रहें तो ठीक है, क्योंकि वे इस समय बहुत ही कमजोर और सुस्त हो रहे हैं, यहाँ की आबहवा से दो-तीन दिन में यह ठीक हो जायँगे। इनके लिए बाग के तीसरे हिस्से का दो नम्बरवाला कमरा ठीक है, जिसमें तुम रहा करते हो।
हरनाम : मैं सोचता हूँ कि पहले बिहारीसिंह का बन्दोबस्त कर लूँ, तब शैतान ऐयार की फिक्र करूँ।
माया : हाँ, ऐसा ही होना चाहिए।
हरनाम : (नकली बिहारीसिंह अर्थात् तेजसिंह की तरफ़ देखकर) चलिए, उठिए।
यद्यपि तेजसिंह को विश्वास हो गया कि अब बचाव की सूरत मुश्किल है तथापि उन्होंने हिम्मत न हारी और अपनी कार्रवाई सोचने से बाज न आये। इस समय तो चुपचाप हरनामसिंह के साथ चले जाना ही उन्होंने मुनासिब जाना।
तेजसिंह को साथ लेकर हरनामसिंह उस कोठरी में पहुँचा, जिसमें सुरंग का रास्ता था। इस कोठरी में दीवार के साथ लगी हुई छोटी-छोटी कई आलमारियाँ थीं। हरनामसिंह ने उनमें से एक आलमारी खोली, मालूम हुआ कि यह दूसरी कोठरी में जाने का दरवाज़ा है। हरनामसिंह और तेजसिंह दूसरी कोठरी में गये। यह कोठरी बिल्कुल अँधेरी थी। अस्तु, तेजसिंह को मालूम न हुआ कि यह कितनी लम्बी और चौड़ी है। दस-बारह कदम आगे बढ़कर हरनामसिंह ने तेजसिंह की कलाई पकड़ी और कहा, "बैठ जाइए।"यहाँ की ज़मीन कुछ हिलती हुई मालूम हुई और इसके बाद इस तरह की आवाज़ आयी, जिससे तेजसिंह ने समझा कि हरनामसिंह ने किसी कल या पुर्जे को छेड़ा है।
वह ज़मीन का टुकड़ा था, जिस पर दोनों ऐयार बैठे थे, यकायक नीचे की तरफ़ धँसने लगा और थोड़ी देर के बाद किसी दूसरी ज़मीन पर पहुँचकर ठहर गया। हरनामसिंह ने हाथ पकड़कर तेजसिंह को उठाया और दस कदम आगे बढ़ाकर हाथ छोड़ दिया, इसके बाद फिर घड़घड़ाहट की आवाज़ आयी, जिससे तेजसिंह ने समझ लिया कि वह ज़मीन का टुकड़ा जो नीचे उतर आया था फिर ऊपर की तरफ़ चढ़ गया। यहाँ तेजसिंह को सामने की तरफ़ कुछ उजाला मालूम हुआ। ये उसी तरफ़ बढ़े मगर अपने साथ हरनामसिंह के आने की आहट न पाकर उन्होंने हरनामसिंह को पुकारा पर कुछ जवाब न मिला। अब तेजसिंह को विश्वास हो गया कि हरनामसिंह मुझे इस जगह क़ैद करके चलता बना, लाचार वे उसी तरफ़ रवाना हुए, जिधर कुछ उजाला मालूम हुआ था। लगभग पचास कदम जाने के बाद दरवाज़ा मिला और उसके पार होने पर तेजसिंह अपने को एक बाग में पाया।
यह बाग भी हरा-भरा था और मालूम होता था कि इसकी रविशों पर अभी छिड़काव किया गया है, मगर माली या किसी दूसरे आदमी का नाम भी न था। इस बाग में बनिस्बत फूलों के मेवे के पेड़ बहुत ज़्यादे थे और एक छोटी-सी नहर भी जारी थी, जिसका पानी मोती की तरह साफ़ था, सतह की कंकड़ियाँ भी साफ़ दिखायी देती थीं। बाग के बीचोबीच में एक ऊँचा बुर्ज था और उसके चारों तरफ़ कई मकान कमरे और दालान इत्यादि थे, जैसाकि हम ऊपर लिख आये हैं। तेजसिंह सुस्त और उदास होकर नहर के किनारे बैठ गये और न मालूम क्या-क्या सोचने लगे। और चाहे जो कुछ भी हो, मगर अब तेजसिंह इस योग्य न रहे कि अपने को बिहारीसिंह कहें। उनकी बची-बचायी कलई भी हरनामसिंह के साथ इस बाग में आने से खुल गयी। क्या बिहारीसिंह, तेजसिंह की तरह चुपचाप हरनामसिंह के साथ अनजान आदमियों की तरह चला आता? क्या मायारानी अथवा उसका कोई ऐयार, अब तेजसिंह को बिहारीसिंह समझ सकता है? कभी नहीं! कभी नहीं! इन सब बातों को तेजसिंह बखूबी समझ सकते थे और उन्हें विश्वास हो गया था कि अब हम क़ैद कर लिये गये।
थोड़ी देर के बाद यहाँ के मकानों को घूम-घूमकर देखने के लिए तेजसिंह उठे, मगर सिवाय एक कमरे के जिसके दरवाज़े पर मोटे अक्षर में (२) का अंक लिखा हुआ था बाकी सब कमरे और मकान बन्द पाये। दो का नम्बर देखते ही तेजसिंह को ध्यान आया कि मायारानी ने इसी कमरे में मुझे रखने का हुक्म दिया है। उस कमरे में एक दरवाज़ा और छोटी-छोटी कई खिड़कियाँ थीं, अन्दर फर्श बिछा हुआ और कई तकिये भी मौजूद थे। तेजसिंह को भूख लगी हुई थी, बाग में मेवों की कमी न थी, उन्हीं से पेट भरा और नहर का पानी पीकर, उसी दो नम्बर वाले कमरे को अपना मकान या कैदखाना समझा।
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