चन्द्रकान्ता सन्तति - 2
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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...
तीसरा बयान
अब हम पाठकों को फिर उस मैदान के बीचवाले अद्भुत मकान के पास ले चलते हैं, जिसके अन्दर इन्द्रजीतसिंह, देवीसिंह, शेरसिंह और कमलिनी के सिपाही लोग जा फँसे थे अर्थात् कमन्द के सहारे दीवार पर चढ़कर अन्दर की तरफ़ झाँकने के बाद हँसते-हँसते उस मकान में कूद पड़े थे। हम लिख आये हैं कि जब वे लोग मकान के अन्दर कूद गये तो न मालूम क्या समझकर कमलिनी हँसी और अपनी ऐयारा तारा को साथ ले वहाँ से रवाना हो गयी।
तारा को साथ लिये और बातें करती हुई कमलिनी दक्खिन की तरफ़ रवाना हुई, जिधर का जंगल घना और सोहावना था लगभग दो कोस चले जाने के बाद जंगल बहुत ही रमणीक मिला, बल्कि यों कहना चाहिए कि जैसे-जैसे वे दोनों बढ़ती जातीं थीं, जंगल सोहावना और खुशबूदार जंगली फूलों की महक से बसा हुआ मिलता जाता था, यहाँ तक कि दोनों एक ऐसे सुन्दर चश्में के किनारे पहुँची, जिसका जल बिल्लौर की तरह साफ़ था और जिसके दोनों किनारों पर दूर-दूर तक मौलसिरी के पेड़ लगे हुए थे। इस चश्मे का पाट दस हाथ का होगा और गहराई दो हाथ से ज़्यादे न होगी। यहाँ की ज़मीन पथरीली और पहाड़ी थी।
अब ये दोनों उस चश्मे के किनारे-किनारे जाने लगीं। ज्यों-ज्यों आगे जाती थीं, ज़मीन ऊँची मिलती जाती थी, जिससे समझ लेना चाहिए कि यह मुकाम किसी पहाड़ी की तराई में है। लगभग आधा कोस जाने के बाद वे दोनों ऐसी जगह पहुँचीं, जहाँ चश्मे के दोनों किनारेवाले मौलसिरी* के पेड़ झुककर आपुस में मिल गये थे और जिसके सबब से चश्मा अच्छी तरह से ढँककर मुसाफ़िरों का दिल लुभा लेनेवाली छटा दिखा रहा था। इस जगह चश्मे के किनारे एक छोटा-सा चबूतरा था, जिसकी ऊँचाई पुर्सा-भर से कम न होगी। चबूतरे पर एक छोटी-सी पिण्डी इस ढब से बनी हुई थी, जिसे देखते ही लोगों को विश्वास हो जाय कि किसी साधु की समाधि है। (*इसका नाम 'मालश्री' भी है।)
इस ठिकाने पहुँचकर वे दोनों रुकीं और घोड़े से नीचे उतर पड़ीं। तारा ने अपने घोड़े का असबाब नहीं उतारा अर्थात् उसे कसा-कसाया छोड़ दिया परन्तु कमलिनी ने अपने घोड़े का चारजामा उतार लिया और लगाम उतारकर घोड़े को यों ही छोड़ दिया। घोड़ा पहिले तो चश्मे के किनारे आया और पानी पीने के बाद कुछ दूर जाकर सब्ज़ ज़मीन पर चरने और खुशी-खुशी घूमने लगा। तारा ने भी अपने घोड़े को पानी पिलाया और बागडोर के सहारे एक पेड़ से बाँध दिया। इसके बाद कमलिनी और तारा चश्मे के किनारे पत्थर की एक चट्टान पर बैठ गयीं और यों बातचीत करने लगीं—
कमलिनी : अब इसी जगह से मैं तुमसे अलग होऊँगी!
तारा : अफसोस, यह दुश्मनी अब हद से ज़्यादे बढ़ चली?
कमलिनी : फिर क्या किया जाय, तू ही बता इसमें मेरा क्या कसूर है?
तारा : तुम्हें कोई भी दोषी नहीं ठहरा सकता, इसमें कोई सन्देह नहीं कि महारानी अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मार रही हैं।
कमलिनी : हर एक लक्षण पर ध्यान देने से महारानी को भी निश्चय हुआ है कि ये ही दोनों भाई तिलिस्म के मालिक होंगे, फिर उसके लिए ज़िद करना और उन दोनों की जान लेने का उद्योग करना भूल नहीं तो क्या है?
तारा : बेशक भूल है और इसकी वह सजा पावेंगी। तुमने बहुत अच्छा किया कि उनका साथ छोड़ दिया। (मुस्कुराकर) इसके बदले में ज़रूर तुम्हारी मुराद पूरी होगी।
कमलिनी : (ऊँची साँस लेकर) देखें क्या होता है।
तारा : होना क्या है? क्या उनकी आँखों ने उनके दिल का हाल तुमसे नहीं कह दिया?
कमलिनी : हाँ ठीक है, ख़ैर, इस समय तो उन पर भारी मुसीबत आ पड़ी है, जहाँ तक जल्द हो सके, उन्हें बचाना चाहिए।
तारा : मगर मुझे ताज्जुब मालूम पड़ता है कि उनके छुड़ाने का कोई उद्योग किये बिना ही तुम यहाँ चली आयीं?
कमलिनी : क्या तुझे मालूम नहीं कि नानक ने इसी ठिकाने मुझसे मिलने का वादा किया है? उसने कहा था कि जब मिलना हो इसी ठिकाने आना।
तारा : (कुछ सोचकर) हाँ हाँ, ठीक है, अब याद आया, तो क्या वह यही जगह है?
कमलिनी : हाँ, यही जगह है।
तारा : मगर तुम तो इस तरह घोड़ा फेंक चली आयीं, जैसे कई दफे आने-जाने के कारण यहाँ का रास्ता तुम्हें बखूबी याद हो।
कमलिनी : बेशक मैं यहाँ कई दफे आ चुकी हूँ, बल्कि नानक को इस ठिकाने का पता पहिले मैंने ही बताया था, और यहाँ का कुछ भेद भी कहा था।
तारा : अफ़सोस, इस जगह का भेद तुमने आज तक मुझसे कुछ नहीं कहा।
कमलिनी : यद्यपि तू ऐयारा है और मैं तुझे चाहती हूँ, परन्तु तिलिस्मी कायदे के मुताबिक मेरे भेदों को तू नहीं जान सकती।
तारा : सो तो मैं भी जानती हूँ, मगर अफसोस इस बात का है कि मुझसे तो तुमने छिपाया और नानक को यहाँ का भेद बता दिया। न मालूम नानक की कौन-सी बात पर तुम रीझ गयी हो?
कमलिनी : (कुछ हँसकर और तारा के गाल पर धीरे-से चपत मारकर) बदमाश कहीं की, मैं नानक पर क्यों रीझने लगी?
तारा : (झुँझलाकर) तो फिर ऐसा क्यों किया?
कमलिनी : अरे, उससे उस कोठरी की ताली लेनी है न, जिसमें खून से लिखी हुई किताब रक्खी है
तारा : तो फिर ताली लेने के पहिले ही यहाँ का भेद उसे क्यों बता दिया? अगर वह ताली न दे तब?
कमलिनी : ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि भूतनाथ ने मेरी दिलजमई कर दी है और वह भूतनाथ के कब्जे में है।
"हाँ हाँ, वह मेरे कब्जे में है–" उसी समय यह आवाज़ पेड़ों के झुरमुट में से जो कमलिनी के पीछे की तरफ़ था आयी और कमलिनी ने फिरकर देखा तो भूतनाथ की सूरत दिखायी पड़ी।
कमलिनी : अजी आओ भूतनाथ, तुम कहाँ थे, मैं बड़ी देर से यहाँ बैठी हूँ, नानक कहाँ है?
भूतनाथ : (पास आकर) आ ही तो गये, (हाथ का इशारा करके) वह देखो नानक भी आ रहा है।
बात-की-बात में नानक भी वहाँ आ पहुँचा और कमलिनी को सलाम करके खड़ा हो गया।
कमलिनी : कहो जी नानकप्रसाद, अब वादा पूरा करने में क्या देर है?
नानक : कुछ देर नहीं, मैं तैयार हूँ, परन्तु आप भी अपना वादा पूरा कीजिए और समाधि पर हाथ रखकर कसम खाइए।
कमलिनी : हाँ हाँ, लो मैं अपना वादा पूरा करती हूँ।
भूतनाथ : मेरा भी ध्यान रखना।
कमलिनी : अवश्य!
कमलिनी उठी और समाधि के पास जाकर खड़ी हो गयी। पहिले तो उसने समाधि के सामने अदब से सिर झुकाया और तब उस पर हाथ रखकर यों बोली— "मैं उस महात्मा की समाधि पर हाथ रखकर कसम खाती हूँ, जो अपना सानी नहीं रखता था, हर एक शास्त्र का पूरा पण्डित, पूरा योगी, भूत, भविष्य और वर्तमान का हाल जाननेवाला और ईश्वर का सच्चा भक्त था। यद्यपि यह उसकी समाधि है परन्तु मुझे विश्वास है कि योगिराज सजीव हैं और मेरी रक्षा का ध्यान उन्हें सदैव बना रहता है (हाथ जोड़कर) योगिराज से मैं प्रार्थना करती हूँ कि मेरी प्रतिज्ञा को निबाहें। (समाधि पर हाथ रखकर) यदि नानक मुझे वह ताली दे देगा तो मैं उसके साथ कभी दगा न करूँगी, उसे अपने भाई के समान मानूँगी और उसी काम में उद्योग करूँगी, जिसमें उसकी खुशी हो। मैं उस आदमी के लिए भी कसम खाती हूँ, जिसने अपना नाम भूतनाथ रक्खा हुआ है। उसे मैं अपने सहोदर भाई के समान मानूँगी और जब तक वह मेरे साथ बुराई न करेगा, मैं उसकी भलाई करती रहूँगी।"
इतना कहकर कमलिनी समाधि से अलग हो गयी। नानक ने एक छोटी-सी डिबिया कमलिनी के हाथ में दी और उसके पैरों पर गिर पड़ा। कमलिनी ने पीठ ठोंककर उसे उठाया और उस डिबिया को इज्जत के साथ सिर से लगाया। इसके बाद चारों आदमी फिर उस पत्थर की चट्टान पर आकर बैठ गये और बातचीत होने लगी।
भूतनाथ :(कमलिनी से) जब आपने मुझे और नानक को अपने भाई के समान मान लिया तो मुझे जोकुछ आपसे कहना हो दिल खोलकर कह सकता हूँ और जो कुछ माँगना हो माँग सकता हूँ, चाहे आप दें अथवा न दें।
कमलिनी : (मुस्कराकर) हाँ हाँ, जो कुछ कहना हो कहो और माँगना हो माँगो।
भूतनाथ : इसमें कोई सन्देह नहीं कि आपके पास एक-से-एक बढ़कर अनमोल चीज़ें होंगी। अस्तु, मुझे और नानक को कोई ऐसी चीज़ दीजिए जो समय पर काम आये और दुश्मनों को धमकाने और उन पर फतह पाने के लिए बेनजीर हो।
कमलिनी : इसके कहने की तो कोई ज़रूरत नहीं थी, मैं स्वयं चाहती थी कि तुम दोनों को कोई अनमोल वस्तु दूँ, ख़ैर, ठहरो मैं अभी ला देती हूँ।
इतना कहकर कमलिनी उठी और चश्मे के जल में कूद पड़ी। उस जगह जल बहुत गहरा था, इसलिए मालूम न हुआ कि वह कहाँ चली गयी। कमलिनी के इस काम ने सभों को ताज्जुब में डाल दिया और तीनों आदमी टकटकी बाँधकर उसी तरफ़ देखने लगे।
आधे घण्टे बाद कमलिनी जल के बाहर निकली। उसके एक हाथ में छोटी-सी कपड़े की गठरी और दूसरे हाथ में लोहे की जंजीर थी। यद्यपि कमलिनी जल में से निकली थी और उसके कपड़े गीले हो रहे थे तथापि उस कपड़े की गठरी पर जल ने कुछ भी असर न किया था, जिसे कमलिनी लायी थी।
कमलिनी ने कपड़े की गठरी पत्थर की चट्टान पर रख दी और लोहे की जंजीर भूतनाथ के हाथ में देकर बोली, "इसे तुम दोनों आदमी मिलकर खींचो।" उस जंजीर के साथ एक छोटा-सा लोहे का मगर हल्का सन्दूक बँधा हुआ था, जिसे भूतनाथ और नानक ने खैंचकर बाहर निकाला।
कमलिनी ने एक खटका दबाकर सन्दूक खोला। इसके अंदर चार खंजर, एक नेजा और पाँच अँगूठियाँ थीं। कमलिनी ने पहिले एक अँगूठी निकाली और अपनी अँगुली में पहिर लिया, इसके बाद एक खंजर निकाला और उसे म्यान से बाहर कर तारा, भूतनाथ और नानक को दिखाकर बोली, "देखो इस खंजर का लोहा कितना उम्दा है।"
भूतनाथ : बेशक बहुत उम्दा लोहा है।
कमलिनी : अब इसके गुण सुनो। यह खंजर जिस चीज़ पर पड़ेगा, उसे दो टुकड़े कर देगा चाहे वह चीज़ लोहा, पत्थर, अष्टधातु या फौलादी हर्बा क्यों न हो। इसके अतिरिक्त जब इसका कब्ज़ा दबाओगे तो इसमें बिजली की तरह चमक पैदा होगी, उस समय यदि सौ आदमी भी तुम्हें घेरे हुए होंगे तो चमक से सभों की आँखें बन्द हो जाँयगी। यद्यपि इस समय दिन है और किसी तरह की चमक सूर्य का मुकाबला नहीं कर सकती तथापि इसका मजा मैं तुम्हें दिखाती हूँ।
इतना कहकर कमलिनी ने खंजर का कब्ज़ा दबाया, यकायक इतनी ज़्यादे चमक उसमें पैदा हुई कि दिन का समय होने पर भी उन तीनों की आँखें बन्द हो गयीं, मालूम हुआ कि एक बिजली-सी आँख के सामने चमक गयी।
कमलिनी: सिवाय इसके इस खंजर को जो कोई छुएगा या जिसके बदन से यह खंजर छुला दोगे, उसके खून में एक प्रकार की बिजली दौड़ जायगी और वह तुरत बेहोश होकर ज़मीन पर गिर पड़ेगा। लो, इसे तुम लोग छूकर देखो, यही अद्भुत खंजर मैं तुम लोगों को दूँगी।
कमलिनी ने खंजर भूतनाथ के आगे रख दिया, भूतनाथ ने उसे उठाना चाहा मगर हाथ लगाने के साथ ही वह काँपा और बदहवास होकर ज़मीन पर गिर पड़ा। कमलिनी ने अपना दूसरा हाथ, जिसमें अँगूठी थी, उसके बदन पर फेरा तब उसे होश आया।
भूतनाथ : चीज़ तो बहुत अच्छी है, मगर इसका छूना गजब है।
कमलिनी : (सन्दूक में से कई अँगूठियाँ निकालकर) पहिले इन अँगूठियों को तुम लोग पहिरो तब इस खंजर को हाथ में ले सकोगे और तब इसकी तेज़चमक भी तुम्हारी आँखों पर अपना पूरा असर न कर सकेगी अर्थात् जो कोई मुकाबले में या तुम्हारे चारों तरफ़ होगा, उसकी आँखें तो बन्द हो जायेंगी मगर तुम्हारी आँखें खुली रहेंगी और तुम दुश्मनों को बखूबी मार सकोगे।
इतना कहकर कमलिनी ने एक-एक अँगूठी तीनों को पहिरा दी और इसके बाद एक एक खंजर तीनों के हवाले किया। तारा, भूतनाथ और नानक ऐसा अद्भुत खंजर पाकर हद से ज़्यादे खुश हुए और घड़ी-घड़ी उसका कब्ज़ा दबाकर, उसकी चमक का मजा लेते रहे।
कमलिनी : अब एक खंजर और एक अँगूठी बच गयी, सो कुँअर इन्द्रजीतसिंह के लिए अपने पास रक्खूँगी, जिस समय उनसे मुलाकात होगी, उनके हवाले करूँगी, और यह अँगूठी जो मेरी उँगली में है और यह नेजा जो अपने वास्ते लायी हूँ, इसमें भी वही गुण हैं जो खंजर में है, मगर फर्क इतना है कि बनिस्बत खंजर के इस नेजे में बिजली का असर बहुत ज़्यादे है।
उस नेजे के चार टुकड़े थे जो पेंच पर चढ़ाकर एक कर दिये जाते थे। कमलिनी ने इन चारों टुकड़ों को एक कर दिया और अब वह पूरा नेजा हो गया।
भूतनाथ : इसमें कोई सन्देह नहीं कि आपने हम लोगों को अद्भुत और अनमोल चीज़ें दीं, इसकी बदौलत हम लोगों के हाथ से बड़े-बड़े काम निकलेंगे।
इसके बाद कमलिनी ने वह कपड़े की गठरी खोली। इसमें स्याह रंग की एक साड़ी,एक चोली और एक बोतल थी। कमलिनी उठकर समाधि के पीछे गयी और गीले कपड़े उतारकर वही काली साड़ी और चोली पहिर-कर अपने ठिकाने आ बैठी। वह साड़ी और चोली रेशमी थी और उसमें एक प्रकार का रोगन चढ़ा हुआ था, जिसके सबब उस कपड़े पर पानी का असर नहीं होता था। कमलिनी ने वह गीली साड़ी और चोली तारा के सामने रख दी और बोली, "इसे तू पेड़ पर डाल दे, जिसमें झटपट सूख जाय, इसके बाद तू कमलिनी बन जा अर्थात् मेरी तरह अपनी सूरत बना ले और इसी साड़ी और चोली को पहिरकर मेरे घर अर्थात् उस तालाबवाले मकान में जाकर बैठ, जिसमें नौकरो को मेरे गायब होने का हाल मालूम न हो, वे यही समझें कि तारा कहीं गयी हुई है!
तारा : बहुत अच्छा, मगर आप कहाँ जायेंगी।
कमलिनी : मेरा कोई ठिकाना नहीं, मुझे बहुत काम करना है। (भूतनाथ और नानक की तरफ़ देखकर) आप लोग भी जाइए और जहाँ तक हो सके राजा बीरेन्द्रसिंह की भलाई का उद्योग कीजिए।
नानक : बहुत अच्छा। (हाथ जोड़कर) मेरी एक बात का जवाब दीजिए तो बड़ी कृपा होगी।
कमलिनी : वह क्या?
नानक : इस प्रकार का खंजर उन लोगों के पास भी है या नहीं?
कमलिनी : (हँसकर) क्या उन लोगों के पास पुनः जाने की इच्छा है? अपनी रामभोली को देखा चाहता है।
नानक : हाँ, यदि मौका मिलेगा तो।
कमलिनी : अच्छा जा, कोई हर्ज़ नहीं, इस प्रकार की कोई वस्तु उन लोगों के पास नहीं है और न इसका पता ही उन्हें मिल सकता है, मगर जो कुछ कीजियो होशियारी के साथ।
इसके बाद कमलिनी ने वह बोतल खोली, जो कपड़े की गठरी में थी। उसमें किसी प्रकार का अर्क था। समाधि के पीछे जाकर कमलिनी ने वह अर्क अपने तमाम बदन में लगाया, जिससे बात-की-बात में उसका रंग बहुत ही काला हो गया, तब वह फिर तारा के पास आयी और उससे दो लम्बे बनावटी दाँत लेकर अपने मुँह में लगाने के बाद, नेजा हाथ में लेकर खड़ी हो गयी।
तारा ने भी अपनी सूरत बदली और कमलिनी बनकर तैयार हो गयी। इस काम में भूतनाथ ने उसकी मदद की। कमलिनी के हुक्म से वह सन्दूक और जंजीर पानी में डाल दी गयी।
कमलिनी ने अपने घोड़े को आवाज़ दी। यद्यपि वह कुछ दूर पर चर रहा था, परन्तु मालिक की आवाज़ के साथ ही दौड़ता हुआ पास आ गया। तारा ने उसे पकड़ लिया और चारजामा कसकर उस पर सवार हो गयी तथा कमलिनी, तारा के घोड़े पर सवार हुई। अन्त में चारों आदमी कुछ सलाह करके अलग हुए और चारों ने अपना-अपना रास्ता लिया अर्थात् उसी जगह से चारों आदमी जुदा हो गये।
इस वारदात के कई दिन बाद कमलिनी इसी राक्षसी भेष में नेजा लिये रोहतासगढ़ की पहाड़ी पर कब्रिस्तान में कमला से मिली थी, इसी ने राजा बीरेन्द्रसिंह वगैरह को क़ैद से छुड़ाया, और फिर भी कई दफे उनके काम आयी थी, जिसका हाल पिछले बयानों में लिखा जा चुका है।
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