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चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...

बारहवाँ बयान

दो पहर दिन चढ़ने के पहिले ही फौज लेकर नाहरसिंह, रोहतासगढ़ पहाड़ी के ऊपर चढ़ गया। उस समय दुश्मनों ने लाचार होकर फाटक खोल दिया और लड़-भिड़कर जान देने पर तैयार हो गये। किले की कुल फौज फाटक पर उमड़ आयी और फाटक के बाहर मैदान में घोर युद्ध होने लगा। नाहरसिंह की बहादुरी देखने योग्य थी। वह हाथ में तलवार लिये जिस तरफ़ को निकल जाता था, सफाई कर देता था। उसकी बहादुरी देखकर उसके मातहत फौज की भी हिम्मत दूनी हो गयी और ककड़ी की तरह दुश्मनों को काटने लगे। उसी समय पाँच-सौ बहादुरों को साथ लि़ये राजा बीरेन्द्रसिंह, कुँअर आनन्दसिंह और तेजसिंह वगैरह भी आ पहुँचे और उस फौज में मिल गये, जो नाहरसिंह की मातहती में लड़ रही थी। ये पाँच-सौ आदमी उन्हीं की फौज के थे, जो दो-दो चार-चार करके पहाड़ के ऊपर चढ़ाये गये थे। तहख़ाने से बाहर निकलने पर राजा बीरेन्द्रसिंह से इनकी मुलाकात हुई थी और सब एक जगह हो गये थे।

जिस समय किलेवालों को यह मालूम हुआ कि राजा बीरेन्द्रसिंह वगैरह भी उस फौज में आ मिले, उस समय उनकी हिम्मत बिल्कुल जाती रही। बिना दिल का हौसला निकाले ही उन लोगों ने हथियार रख दिये और सुलह का डंका बजा दिया। पहाड़ी के नीचे से और फौज भी पहुँच गयी और रोहतासगढ़ में राजा बीरेन्द्रसिंह की अमलदारी हो गयी। जिस समय राजा बीरेन्द्रसिंह दीवानख़ाने में पहुँचे, वहाँ राजा दिग्विजयसिंह की लाश पायी गयी। मालूम हुआ कि उसने आत्मघात कर लिया। उसकी हालत पर राजा बीरेन्द्रसिंह देर तक अफसोस करते रहे।

राजा बीरेन्द्रसिंह ने कुँअर आनन्दसिंह को गद्दी पर बैठाया। सभों ने नज़रें दीं। उसी समय कमला भी आ पहुँची। उसने किले में पहुँचकर कोई ऐसा काम नहीं किया था, जो लिखने लायक हो, हाँ गिल्लन के सहित ग़ौहर को ज़रूर गिरफ़्तार कर लिया था। दिग्विजयसिंह की रानी अपने पति के साथ सती हुई। रामानन्द की स्त्री भी अपने पति के साथ जल मरी। शहर में कुमार के नाम की मुनादी करा दी गयी और यह कहला दिया गया कि जो रोहतासगढ़ से निकल जाना चाहे, वह खुशी से चला जाय। दिग्विजयसिंह के मरने से जिसे कष्ट हुआ हो, वह यदि हमारे भरोसे पर यहाँ रहेगा तो उसे किसी तरह का दुःख न होगा, हर एक की मदद की जायगी और जो जिस लायक है, उसकी ख़ातिर की जायगी। इन सब कामों के बाद राजा बीरेन्द्रसिंह ने कुल हाल की चीठी लिखकर अपने पिता के पास रवाना की।

दूसरे दिन राजा बीरेन्द्रसिंह ने एकान्त में कमला को बुलाया। उस समय उनके पास कुँअर आनन्दसिंह, तेजसिंह, भैरोसिंह, तारासिंह वगैरह ऐयार लोग ही बैठे थे, अर्थात् सिवाय आपुस वालों के बाहरी आदमी कोई भी न था। राजा बीरेन्द्रसिंह ने कमला से पूछा, "कमला तू इतने दिनों तक कहाँ रही, तेरे ऊपर क्या-क्या मुसीबतें आयीं, और तू किशोरी का क्या-क्या हाल जानती है सो मैं सुना चाहता हूँ।"

कमला : (हाथ जोड़कर) जोकुछ मुसीबतें मुझ पर आयीं और जोकुछ किशोरी का हाल मैं जानती हूँ, सब अर्ज़ करती हूँ। अपनी प्यारी किशोरी से छूटने के बाद मैं बहुत ही परेशान हुई। अग्निदत्त की लड़की कामिनी ने जब किशोरी को अपने बाप के पंजे से छुड़ाया और खुद भी निकल खड़ी हुई तो पुनः मैं उन लोगों से जा मिली और बहुत दिनों तक गयाजी में रही और वहीं बहुत-सी विचित्र बातें हुईं।

बीरेन्द्र : हाँ, गयाजी का बहुत कुछ हाल तुम लोगों के बारे में देवीसिंह की जुबानी मुझे मालूम हुआ था और यह भी जाना गया था कि जिन दिनों इन्द्रजीत बीमार था, उसके कमरे में जो-जो अद्भुत बातें देखने-सुनने में आयीं, वह सब कामिनी ही की कार्रवाई थी, मगर उनमें से कई बातों का भेद अभी तक मालूम नहीं हुआ।

कमला : वह क्या?

बीरेन्द्र : एक तो यह कि तुम लोग उस कोठरी में किस रास्ते से आती-जाती थीं, दूसरे लड़ाई किससे हुई थी, वह कटा हाथ जो कोठरी में पाया गया था किसका था, और बिना सिर की लाश किसकी थी?

कमला : वह भेद भी मैं आपसे कहती हूँ। गयाजी में फलगू नदी के किनारे एक मन्दिर श्री राधाकृष्णजी का है। उसी मन्दिर में से एक रास्ता महल में जाने का है जो उस कोठरी में निकला है, जिसका हाल माधवी, अग्निदत्त और कामिनी के सिवाय किसी को मालूम नहीं, कामिनी की बदौलत मुझे और किशोरी को मालूम हुआ। उसी रास्ते से हम लोग आते-जाते थे। वह रास्ता बड़ा ही विचित्र है, उसका हाल मैं जुबानी नहीं समझा सकती, गयाजी चलने के बाद जब मौका मिलेगा तो ले चलकर उसे दिखाऊँगी। हम लोगों का उस मकान में आना-जाना नेकनीयती के साथ होता था मगर जब माधवी गयाजी में पहुँची तो बदला लेने की नीयत से एक आदमी और अपनी ऐयारा को साथ ले उसी राह से महल की तरफ़ रवाना हुई। उसे उस समय तक शायद हम लोगों का हाल मालूम न था। इत्तिफाक से हम तीनों आदमी भी उसी समय सुरंग में घुसे, आख़िर नतीजा यह हुआ कि उस कोठरी में पहुँचकर लड़ाई हो गयी, माधवी के साथ का आदमी मारा गया। वह कलाई माधवी की थी और मेरे हाथ से कटी थी। अन्त में उसकी ऐयारा उस आदमी का सर और माधवी को लेकर चली गयी, हम लोगों ने उस समय रोकना मुनासिब न समझा।

बीरेन्द्र : हाँ, ठीक है, ऐसा ही हुआ है, यह हाल मुझे मालूम था, मगर शक मिटाने के लिए तुमसे पूछा था।

कमला : (ताज्जुब में आकर) आपको कैसे मालूम हुआ?

बीरेन्द्र : मुझसे देवीसिंह ने कहा था और देवीसिंह को उस साधु ने कहा था, जो रामशिला पहाड़ी के सामने फलगू नदी के बीचवाले भयानक टीले पर रहता था। देवीसिंह की जुबानी बाबाजी ने मुझे एक सन्देश भी कहला भेजा था, मौका मिलने पर मैं ज़रूर उनके हुक्म की तामील करूँगा।

कमला : वह सन्देश क्या था?

बीरेन्द्र : सो इस समय न कहूँगा। हाँ, यह तो बता कि कामिनी का और उन डाकुओं का साथ क्योंकर हुआ, जो गयाजी की रिआया को दुःख देते थे।

कमला : कामिनी का उन डाकुओं से मिलना केवल उन लोगों को धोखा देने के लिए था। वे डाकू सब अग्निदत्त की तरफ़ से तनख्वाह और लूट के माल मंन कुछ हिस्सा भी पाते थे। वे लोग कामिनी को पहिचानते थे और उसकी इज्जत करते थे। उस समय उन लोगों को यह नहीं मालूम था कि कामिनी अपने बाप से रंज होकर घर से निकली है, इसलिए उससे डरते थे और जो वह कहती थी, करते थे। आख़िर कामिनी ने धोखा देकर उन लोगों को मरवा डाला और मेरे ही साथ से उन डाकुओं की जानें गयीं। वे डाकू लोग जहाँ रहते थे, आपको मालूम हुआ ही होगा।

बीरेन्द्र : हाँ मालूम हुआ है, जोकुछ मेरा शक था, मिट गया, अब उस विषय में विशेष कुछ मालूम करने की कोई ज़रूरत नहीं है। अब मैं यह पूछता हूँ कि इस रोहतासगढ़ वाले आदमी जब किशोरी को ले भागे, तब तेरा और कामिनी का क्या हाल हुआ?

कमला : कामिनी को साथ लेकर मैं उस खण्डहर से, जिसमें नाहरसिंह से और कुँअर इन्द्रजीतसिंह से लड़ाई हुई थी, बाहर निकली और किशोरी को छुड़ाने की धुन में रवाना हुई, मगर कुछ न कर सकी, बल्कि यों कहना चाहिए कि अभी तक मारी फिरती हूँ। यद्यपि इस रोहतासगढ़ के महल तक पहुँच चुकी थी, मगर मेरे हाथ से कोई काम न निकला।

बीरेन्द्र : ख़ैर, कोई हर्ज़ नहीं, अच्छा यह बता कि अब कामिनी कहाँ है?

कमला : कामिनी को मेरे चाचा शेरसिंह ने अपने एक दोस्त के घर में रक्खा है, मगर मुझे यह नहीं मालूम कि वह कौन है और कहाँ रहता है।

बीरेन्द्र : शेरसिंह से कामिनी क्योंकर मिली?

कमला : यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक खण्डहर है। शेरसिंह से मिलने के लिए कामिनी को साथ लेकर मैं उसी खण्डहर में गयी थी। मगर अब सुनने में आया है कि शेरसिंह ने आपकी ताबेदारी कबूल कर ली और आपने उन्हें कहीं भेजा है।

बीरेन्द्र : हाँ, वह देवीसिंह को साथ लेकर इन्द्रजीत को छुड़ाने के लिए गये हैं, मगर न मालूम क्या हुआ कि अभी तक नहीं लौटे।

कमला : कुँअर इन्द्रजीतसिंह तो यहाँ से दूर न थे और चाचा को वह जगह मालूम थी, अब तक उन्हें लौट आना चाहिए था।

बीरेन्द्र : क्या तुझे भी वह जगह मालूम है?

कमला : जी हाँ, यहाँ से शायद पच्चीस या तीस कोस से ज़्यादे दूर न होगा। एक छोटा-सा तालाब है, जिसके बीच में एक खूबसूरत मकान बना हुआ है, कुमार उसी में हैं।

बीरेन्द्र : क्या तू वहाँ तक मुझे ले जा सकती है?

कमला : जी हाँ, आप जब चाहें चलें, मुझे रास्ता बखूबी मालूम है।

इस समय कुँअर आनन्दसिंह ने जो सिर झुकाये सब बातें सुन रहे थे, अपने पिता की तरफ़ देखा और कहा, "यदि आज्ञा हो तो मैं कमला के साथ भाई की खोज में जाऊँ?" इसके जवाब में राजा बीरेन्द्रसिंह ने सिर हिलाया अर्थात् उनकी अर्ज़ी नामंजूर की।

राजा बीरेन्द्रसिंह और कमला में जो कुछ बातें हो रही थीं, सब कोई गौर से सुन रहे थे। यह कहना ज़रा मुश्किल है कि उस समय कुँअर आनन्दसिंह की क्या दशा थी। कामिनी के वे सच्चे आशिक थे, मगर वाह रे दिल, इस इश्क को उन्होंने जैसा छिपाया, उन्हीं का काम था। इस समय वे कमला की बातें बड़े गौर से सुन रहे थे। उन्हें निश्चय था कि जिस जगह शेरसिंह ने कामिनी को रक्खा है, वह जगह कमला को मालूम है, मगर किसी कारण से बताती नहीं, इसलिए कमला के साथ भाई की खोज में जाने के लिए पिता से आज्ञा माँगी। इसके सिवाय कामिनी के विषय में और भी बहुत-सी बातें कमला से पूछा चाहते थे, मगर क्या करें, लाचार कि उनकी अर्ज़ी नामंजूर की गयी और वे कलेजा मसोसकर रह गये।

इसके बाद आनन्दसिंह फिर अपने पिता के सामने गये और हाथ जोड़कर बोले, "मैं एक बात और अर्ज़ किया चाहता हूँ।"

बीरेन्द्र : वह क्या?

आनन्द : इस रोहतासगढ़ की गद्दी पर मैं बैठाया गया हूँ, परन्तु मेरी इच्छा है कि बतौर सूबेदार के यहाँ का राज्य किसी के सुपुर्द कर दिया जाय।

आनन्दसिंह की बात सुन राजा बीरेन्द्रसिंह गौर में पड़ गये और कुछ देर तक सोचने के बाद बोले, "हाँ, मैं तुम्हारी इस राय को पसन्द करता हूँ और इसका बन्दोबस्त तुम्हारे ही ऊपर छोड़ता हूँ, तुम जिसे चाहो इस काम के लिए चुन लो।"

आनन्दसिंह ने झुककर सलाम किया और उन लोगों की तरफ़ देखा, जो वहाँ मौजूद थे। इस समय सभों के दिल में खुटका पैदा हुआ और सभों इस बात से डरने लगे कि कहीं ऐसा न हो कि यहाँ का बन्दोबस्त मेरे सुपुर्द किया जाय, क्योंकि उन लोगों में से कोई भी ऐसा न था, जो अपने मालिक का साथ छोड़ना पसन्द करता। आख़िर आनन्दसिंह ने सोच-समझकर अर्ज़ किया–

आनन्द : मैं इस काम के लिए पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषीजी को पसन्द करता हूँ।

बीरेन्द्र अच्छी बात है, कोई हर्ज़ नहीं!

ज्योतिषीजी ने बहुत कुछ उज्र किया, बावेला मचाया, मगर कुछ सुना नहीं गया। उसी दिन से मुद्दत तक रोहतासगढ़ ब्राह्मणों की हुकूमत में रहा और यह हुकूमत हुमायूँ के जमाने में ९४४ हिजरी तक कायम रही, इसके बाद ९४५ में दग़ाबाज़ शेरखाँ ने (यह दूसरा शेरखाँ था) रोहतासगढ़ के राजा चिन्तामन ब्राह्मण को धोखा देकर किले पर अपना कब्ज़ा कर लिया।

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