लोगों की राय

चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: author_hindi

Filename: views/read_books.php

Line Number: 21

निःशुल्क ई-पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

ग्यारहवाँ बयान


अब तो कुन्दन का हाल ज़रूर ही लिखना पड़ेगा, पाठक महाशय उसका हाल जानने के लिए उत्कण्ठित हो रहे होंगे। हमने कुन्दन को रोहतासगढ़ महल के उसी बाग़ में छोड़ा है, जिसमें किशोरी रहती थी। कुन्दन इस फ़िक्र में लगी रहती थी कि किशोरी किसी तरह लाली के कब्ज़े में न पड़ जाय।

जिस समय किशोरी को लेकर सींध की राह से लाली उस घर में उतर गयी जिसमें से तहख़ाने का रास्ता था और यह हाल कुन्दन को मालूम हुआ तो वह बहुत घबरायी। महल-भर में इस बात का गुल मचा दिया और सोच में पड़ी कि अब क्या करना चाहिए। हम पहिले लिख आये हैं कि किशोरी और लाली के जाने के बाद, ‘धरो पकड़ो’ की आवाज़ लगाते हुए कई आदमी सींध की राह उसी मकान में उतर गये जिसमें लाली और किशोरी गयी थी।

उन्हीं लोगों में मिलकर कुन्दन भी एक छोटी-सी गठरी कमर के साथ बाँध उस मकान में चली गयी और यह हाल घबराहट और गुलशार में किसी को मालूम न हुआ। उस मकान के अन्दर भी बिल्कुल अँधेरा था। लाली ने दूसरी कोठरी में जाकर दरवाज़ा बन्द कर लिया, इसीलिए लाचार होकर पीछा करनेवालों को लौटना पड़ा और उन लोगों ने इस बात की इत्तिला महाराज से की, मगर कुन्दन उस मकान से न लौटी बल्कि किसी कोने में छिप रही।

हम पहिले लिख आये हैं कि और अब भी लिखते हैं कि उस मकान के अन्दर तीन दरवाज़े थे, एक तो वह सदर दरवाज़ा था, जिसके बाहर पहरा पड़ा करता था, दूसरा खुला पड़ा था, तीसरे दरवाज़े को खोलकर किशोरी को साथ लिये लाली गयी थी।

जो दरवाज़ा खुला था उसके अन्दर एक दालान था, इसी दालान तक लाली और किशोरी को खोजकर पीछा करनेवाले लौट गये थे क्योंकि कहीं आगे जाने का रास्ता उन लोगों को न मिला था। जब वे लोग मकान के बाहर निकल गये तो कुन्दन ने अपनी कमर से गठरी खोली और उसमें से सामान निकालकर मोमबत्ती जलाने के बाद चारों तरफ़ देखने लगी।

यह एक छोटा-सा दालान था मगर चारों तरफ़ से बन्द था। इस दालान की दीवारों में तरह-तरह की भयानक तस्वीरें बनी हुई थीं मगर कुन्दन ने उन पर कुछ ध्यान न दिया। दालान के बीचोबीच में बित्ते-बित्ते भर के ग्यारह डिब्बे लोहे के रक्खे हुए थे और हर एक डिब्बे पर आदमी की खोपड़ी रक्खी हुई थी। कुन्दन उन्हीं डिब्बों को गौर से देखने लगी। ये डिब्बे गोलाकार एक चौकी पर सजाये हुए थे, एक डिब्बे पर आधी खोपड़ी थी और बाक़ी डिब्बों पर पूरी-पूरी। कुन्दन इस बात को देखकर ताज्जुब कर रही थी कि इसमें से एक खोपड़ी ज़मीन पर क्यों पड़ी हुई है औरों की तरह उसके नीचे डिब्बा नहीं है? कुन्दन ने उस डिब्बे से जिस पर आधी खोपड़ी रक्खी हुई थी गिनना शुरू किया। मालूम हुआ कि सातवें नम्बर की खोपड़ी के नीचे डिब्बा नहीं है। यकायक कुन्दन के मुँह से निकला, ‘‘ओफ ओह, बेशक इसके नीचे का डिब्बा लाली ले गयी क्योंकि ताली वाला डिब्बा वही था, मगर यह हाल उसे क्योंकर मालूम हुआ?

कुन्दन ने फिर गिनना शुरू किया और टूटी हुई खोपड़ी से पाँचवे नम्बर पर रुक गयी, खोपड़ी उठाकर नीचे रख दी और डिब्बे को उठा लिया, तब अच्छी तरह गौर से देखकर ज़ोर से ज़मीन पर पटका। डिब्बे के चार टुकड़े हो गये, मानों चार जगहों से जोड़ लगाया हुआ हो। उसके अन्दर से एक ताली निकली जिसे देख कुन्दन हँसी और खुश होकर आप-ही-आप बोली, ‘‘देखो तो लाली को मैं कैसा छकाती हूँ!’’

कुन्दन ने उस ताली से काम लेना शुरू किया। उसी दालान में दीवार के साथ एक आलमारी थी, जिसे कुन्दन ने उस ताली से खोला। नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ नज़र आयीं और वह बेख़ौफ़ नीचे उतर गयी। एक कोठरी में पहुँची जहाँ एक छोटे सिंहासन के ऊपर हाथ-भर लम्बी और इससे कुछ कम चौड़ी ताँबे की एक पट्टी रक्खी हुई थी। कुन्दन ने उसे उठाकर अच्छी तरह देखा, मालूम हुआ कि कुछ लिखा हुआ है, अक्षर खुदे हुए थे और उन पर किसी तरह का चिकना तेल मला हुआ था जिसके सबब से पटिया अभी तक जंग लगने से बची हुई थी। कुन्दन ने उस लेख को बड़े गौर से पढ़ा और हँसकर चारों तरफ़ देखने लगी। उस कोठरी की दीवार में दो तरफ़ दो दरवाज़े थे और एक पल्ला ज़मीन में था। उसने एक दरवाज़ा खोला, ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ मिलीं, वह बेख़ौफ़ ऊपर चढ़ गयी और एक ऐसी तंग कोठरी में पहुँची जिसमें चार-पाँच आदमी से ज़्यादे के बैठने की जगह न थी, मगर इस कोठरी के चारों तरफ़ की दीवार में छोटे-छोटे कई छेद थे, जलती हुई बत्ती बुझाकर उन छेदों में से एक छेद में आँख लगाकर कुन्दन ने देखा।

कुन्दन ने अपने को ऐसी जगह पाया जहाँ से वह भयानक मूर्ति, जिसके आगे एक औरत की बलि दी जा चुकी थी और जिसका हाल ऊपर लिख आये हैं, साफ़ दिखायी देती थी। थोड़ी देर में कुन्दन ने महाराज दिग्विजयसिंह, तहख़ाने के दारोग़ा, लाली, किशोरी और बहुत से आदमियों को वहाँ देखा। उसके देखते-ही-देखते एक औरत उस मूरत के सामने बलि दी गयी और कुँअर आनन्दसिंह ऐयारों सहित पकड़े गये। इस तहख़ाने में से किशोरी और कुँअर आनन्दसिंह का भी जो कुछ हाल हम ऊपर लिख आये हैं वह सब कुन्दन ने देखा था। आखीर में कुन्दन नीचे उतर आयी और उस पल्ले को जो ज़मीन में था उसी ताली से खोलकर तहख़ाने में उतरने के बाद बत्ती बालकर देखने लगी। छत की तरफ़ निगाह करने से मालूम हुआ कि वह सिंहासन पर बैठी हुई भयानक मूर्ति जो कि भीतर की तरफ़ (सिंहासन सहित) पोली थी, उसके सिर के ऊपर थी।

कुन्दन फिर ऊपर आयी और दीवार में लगे हुए दूसरे दरवाज़े को खोलकर एक सुरंग में पहुँची। कई कदम जाने के बाद एक छोटी खिड़की मिली। उसी ताली से कुन्दन ने उस खिड़की को भी खोला। अब वह उस रास्ते में पहुँच गयी जो दीवानख़ाने और तहख़ाने में आने-जाने के लिए था और जिस राह से महाराज आते थे, तहख़ाने से दीवानख़ाने में जाने तक जितने दरवाज़े थे, सभों को कुन्दन ने अपनी ताली से बन्द कर दिया, ताले के अलावे उन दरवाजों में एक-एक खटका और भी था उसे भी कुन्दन ने चढ़ा दिया। इस काम से छुट्टी पाने के बाद फिर वहाँ पहुँची, जहाँ से भयानक मूर्ति और आदमी सब दिखायी दे रहे थे। कुन्दन ने अपनी आँखों से राजा दिग्विजयसिंह की घबराहट देखी जो दरवाज़ा बन्द हो जाने से उन्हें हुई थी।

मौका देखकर कुन्दन वहाँ से उतरी और उस तहख़ाने में जो उस भयानक मूर्ति के नीचे था, पहुँची। थोड़ी देर तक कुछ बकने के बाद कुन्दन ने ही बे शब्द कहे जो उस भयानक मूर्ति के मुँह से निकले हुए राजा दिग्विजयसिंह या और लोगों ने सुने थे और जिनके मुताबिक किशोरी बारह नम्बर की कोठरी में बन्द कर दी गयी थी। असल में वे शब्द कुन्दन ही के कहे हुए थे जो सब लोगों ने सुने थे।

कुन्दन वहाँ से निकलकर यह देखने के लिए कि राजा किशोरी को उस कोठरी में बन्द करता है या नहीं, फिर उस छत पर पहुँची जहाँ से सब लोग दिखायी पड़ते थे। जब कुन्दन ने देखा कि किशोरी उस कोठरी में बन्द कर दी गयी तो वह नीचे तहख़ाने में उतरी। उसी जगह से एक रास्ता था जो उस कोठरी के ठीक नीचे पहुँचता था, जिसमें किशोरी बन्द की गयी थी। वहाँ की छत इतनी नीची थी कि कुन्दन को बैठकर जाना पड़ा। छत में एक पेंच लगा हुआ था, जिसके घुमाने से एक पत्थर की चट्टान हट गयी और आँचल से मुँह ढाँपे कुन्दन, किशोरी के सामने जा खड़ी हुई।

बेचारी किशोरी तरह-तरह की आफ़तों से आप ही बदहवास हो रही थी, अँधेरे में बत्ती लिये यकायक कुन्दन को निकलते हुए देख घबड़ा गयी। उसने घबराहट में कुन्दन को बिल्कुल नहीं पहिचाना बल्कि उसे भूत-प्रेत या कोई आसेब समझकर डर गयी और एक चीख मारकर बेहोश हो गयी।

कुन्दन ने अपनी कमर से कोई दवा निकालकर किशोरी को सुँघाई जिससे वह अच्छी तरह बेहोश हो गयी, इसके बाद अपनी छोटी गठरी में से सामान निकाल कर वह बरवा अर्थात् ‘धनपति रंग मचायो साध्यो काम...’ इत्यादि लिखकर कोठरी में एक तरफ़ रख दिया और अपने कमर से एक चादर खोली जो महल से लेती आयी थी, उसी में किशोरी की गठरी बाँधी और नीचे घसीट ले गयी। जिस तरह पेंच घुमाकर पत्थर की चट्टान हटायी थी उसी तरह रास्ता बन्द कर दिया।

यह सुरंग कोठरी के नीचे ख़तम नहीं हुई थी बल्कि दूर तक चली गयी थी और आगे से चौड़ी और ऊँची होती गयी थी। किशोरी को लिये हुए कुन्दन उस सुरंग में चलने लगी। लगभग सौ कदम जाने के बाद एक दरवाज़ा मिला, जिसे कुन्दन ने उसी ताली से खोला, आगे फिर उसी सुरंग में चलना पड़ा। आधी घड़ी के बाद सुरंग का अन्त हुआ और कुन्दन ने अपने को एक खोह के मुँह पर पाया।

इस जगह पहुँचकर कुन्दन ने सीटी बजायी। थोड़ी देर में इधर-उधर से पाँच आदमी आ मौजूद हुए और एक ने बढ़कर पूछा, ‘‘कौन है? धनपतिजी!’’

कुन्दन : हाँ रामा, तुम लोगों को यहाँ बहुत दुःख भोगना और कई दिन तक अटकना पड़ा।

रामा : जब हमारे मालिक ही इतने दिनों तक अपने को बला में डाले हुए थे, जहाँ से जान बचाना मुश्किल था तो फिर हम लोगों की क्या बात है, हम लोग तो खुले मैदान में थे।

कुन्दन : लो किशोरी तो हाथ लग गयी, अब इसे ले चलो और जहाँ तक जल्द हो सके भागो।

वे लोग किशोरी को लेकर वहाँ से रवाना हुए।

पाठक तो समझ ही गये होंगे कि किशोरी धनपति के काबू में पड़ गयी। कौन धनपति? वही धनपति, जिसे नानक और रामभोली के बयान में आप जान चुके हैं। मेरे इस लिखने से पाठक महाशय चौंकेंगे और उनका ताज्जुब घटेगा नहीं बल्कि बढ़ जायगा, इसके साथ ही साथ पाठकों को नानक की यह बात कि ‘वह किताब भी जो किसी के खून से लिखी गयी है...’ भी याद आयेगी जिसके सबब से नानक ने अपनी जान बचायी थी। पाठक इस बात को भी ज़रूर सोचेंगे कि कुन्दन अगर असल में धनपति थी तो लाली ज़रूर रामभोली होगी, क्योंकि धनपति को ‘किसी के खून से लिखी हुई किताब’ का भेद मालूम था और यह भेद रामभोली को भी मालूम था। जब धनपति ने रोहतासगढ़ महल में लाली के सामने उस किताब का ज़िक्र किया तो लाली काँप गयी जिससे मालूम होता है कि वह रामभोली ही होगी। ‘किसी के खून से लिखी हुई किताब’ का नाम सुनकर अगर लाली डर गयी तो धनपति भी ज़रूर समझ गयी होगी कि यह रामभोली है, फिर धनपति (कुन्दन) लाली से मिल क्यों न गयी क्योंकि वे दोनों तो एक ही के तुल्य थीं? ऐसी अवस्था में तो इस बात का शक होता है कि लाली रामभोली न थी। फिर तहख़ाने में धनपति के लिखे हुए बरवे को सुनकर लाली क्यों हँसी? इत्यादि बातों को सोचकर पाठकों की चिन्ता अवश्य बढ़ेगी, क्या किया जाय, लाचारी है।


...Prev | Next...

To give your reviews on this book, Please Login