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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

चौदहवाँ बयान


रोहतासगढ़ किले के चारों तरफ़ घना जंगल है, जिसमें साखू, शीशम, तेंद, आसन और सलई इत्यादि के बड़े-बड़े पेड़ों की घनी छाया से एक तरह का अन्धकार-सा हो रहा है। रात की तो बात ही दूसरी है वहाँ दिन को भी रास्ते या पगडण्डी का पता लगाना मुश्किल था क्योंकि सूर्य की सुनहरी किरणों को पत्तों में से छनकर ज़मीन तक पहुँचने का बहुत कम मौका मिलता था। कहीं-कहीं छोटे-छोटे पेड़ों की बदौलत जंगल इतना घना हो रहा था कि उसमें भूले आदमियों को मुश्किल से छुटकारा मिलता था। ऐसे मौके पर उसमें हज़ारों आदमी इस तरह छिप सकते थे कि हज़ार सिर पटकने और खोजने पर भी उनका पता लगाना असम्भव था। दिन को तो इस जंगल में अन्धकार रहता ही था मगर हम रात का हाल लिखते हैं, जिस समय उसकी अँधेरी और वहाँ के सन्नाटे का आलम भूले-भटके मुसाफ़िरों को मौत का समाचार देता था और वहाँ की ज़मीन के लिए अमावस्या और पूर्णिमा की रात एक समान थी।

किले के दाहिने तरफ़वाले जंगल में आधी रात के समय हम तीन आदमियों को जो स्याह चोगे और नकाबों से अपने को छिपाये हुए थे घूमते देख रहे हैं। न मालूम ये किसकी खोज़ और किस ज़मीन की तलाश में हैरान हो रहे हैं! इनमें से एक कुँअर आनन्दसिंह दूसरे भैरोसिंह और तीसरे तारासिंह हैं। ये तीनों आदमी देर तक घूमने के बाद छोटी-सी चारदीवारी के पास पहुँचे जिसके चारों तरफ़ की दीवार पाँच हाथ से ज़्यादे ऊँची न थी और वहाँ के पेड़ भी कम घने और गुँजान थे, कहीं-कहीं चन्द्रमा की रोशनी भी ज़मीन पर पड़ती थी।

आनन्द : शायद यही चारदीवारी है!

भैरो : बेशक यही है, देखिए फाटक पर हड्डियों का ढेर लगा हुआ है।

तारा : ख़ैर भीतर चलिए, देखा जायगा।

भैरो : ज़रा ठहरिए, पत्तों की खड़खड़ाहट से मालूम होता है कि कोई आदमी इसी तरफ़ आ रहा है!

आनन्द : (कान लगाकर) हाँ ठीक तो है, हम लोगों को ज़रा छिपकर देखना चाहिए कि वह कौन है और इधर क्यों आता है।

उस आने वाले की तरफ़ ध्यान लगाये हुए तीनों आदमी पेड़ों की आड़ में छिप रहे और थोड़ी ही देर में सुफेद कपड़े पहिरे एक औरत को आते हुए उन लोगों ने देखा। वह औरत पहिले तो फाटक पर रुकी, तब कान लगाकर चारों तरफ़ की आहट लेने के बाद फाटक के अन्दर घुस गयी। भैरोसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, ‘‘आप दोनों इसी जगह ठहरिए, मैं उस औरत के पीछे जाकर देखता हूँ कि वह कहाँ जाती है।’’ इस बात को दोनों ने मंजूर किया और भैरोसिंह छिपते हुए उस औरत के पीछे रवाना हुए।

ऐसे घने जंगल में भी उस चारदीवारी के अन्दर पेड़, झाड़ी या जंगल का न होना ताज्जुब की बात थी। भैरोसिंह ने वहाँ की ज़मीन बहुत साफ़ सुथरी पायी, हाँ छोटे जंगली बेर के दस-बीस पेड़ वहाँ ज़रूर थे जो किसी तरह का नुकसान न पहुँचा सकते थे और न उनकी आड़ में कोई आदमी छिप ही सकता था, मगर मरे हुए जानवरों और उनकी हड्डियों की बहुतायत से वह जगह बड़ी भयानक हो रही थी। उस चारदीवारी के अन्दर बहुत-सी कब्रें बनी हुई थीं जिनमें कई कच्ची तथा कई ईंट-चूने और पत्थर की भी थीं और बीच में एक सबसे बड़ी कब्र संगमर्मर की बनी हुई थी।

भैरोसिंह ने फाटक के अन्दर पैर रखते ही उस औरत को जिसके पीछे गये थे बीचवाली संगमर्मर की बड़ी कब्र पर खड़े और चारों तरफ़ देखते पाया, मगर थोड़ी देर में वह देखते-देखते कहीं गायब हो गयी। भैरोसिंह ने उस कब्र के पास जाकर उसे ढूँढ़ा मगर पता न लगा, दूसरी कब्रों के चारों तरफ़ और इधर-उधर भी खोजा मगर कोई निशान न मिला। लाचार ये आनन्दसिंह और तारासिंह के पास लौट आये और बोले—

भैरो : वह औरत वहाँ ही चली गयी जहाँ हम लोग जाना चाहते हैं ।

आनन्द : हाँ!

भैरो : जी हाँ।

आनन्द : फिर अब क्या राय है?

भैरो : उसे जाने दीजिए, चलिए हम लोग भी चलें। अगर वह रास्ते में मिल ही जायगी तो क्या हर्ज़ है? एक औरत हम लोगों का कुछ नुकसान नहीं कर सकती!

ये तीनों आदमी उस चारदीवारी के अन्दर गये और बीचवाली संगमर्मर की बड़ी कब्र पर पहुँचकर खड़े हो गये। भैरोसिंह ने उस कब्र की ज़मीन को अच्छी तरह टटोलना शुरू किया। थोड़ी ही देर में एक खटके की आवाज़ आयी और एक छोटा-सा पत्थर का टुकड़ा जो शायद कमानी के ज़ोर पर लगा हुआ था दरवाज़े की तरह खुलकर अलग हो गया। ये तीनों आदमी उसके अन्दर घुसे और उस पत्थर के टुकड़े को उसी तरह बन्द कर आगे बढ़े। अब ये तीनों आदमी एक सुरंग में थे जो बहुत ही तंग और लम्बी थी। भैरोसिंह ने अपने बटुए में से एक मोमबत्ती निकालकर जलायी और चारों तरफ़ अच्छी तरह निगाह करने के बाद आगे बढ़े। थोड़ी ही देर में यह सुरंग खत्म हो गयी और ये तीनों एक भारी दालान में पहुँचे। इस दालान की छत बहुत ऊँची थी और इसमें कड़ियों के सहारे कई जंजीरें लटक रही थीं। इस दालान के दूसरी तरफ़ एक और दरवाज़ा था जिसमे से होकर ये तीनों एक कोठरी में पहुँचे। इस कोठरी के नीचे एक तहख़ाना था, जिसमें उतरने के लिए संगमर्मर की सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। ये तीनों नीचे उतर गये। अब एक बड़े भारी घण्टे के बजने की आवाज़ इन तीनों के कान में पड़ी जिसे सुन ये कुछ देर के लिए रुक गये। मालूम हुआ कि इस तहखानेवाली कोठरी के बगल में कोई और मकान है जिसमें घण्टा बज रहा है। इन तीनों को वहाँ और भी कई आदमियों के मौजूद होने का गुमान हुआ।

इस तहख़ाने में भी दूसरी तरफ़ निकल जाने के लिए एक दरवाज़ा था जिसके पास पहुँचकर भैरोसिंह ने मोमबत्ती बुझा दी और धीरे से दरवाज़ा खोल उस तरफ़ झाँका। एक बड़ी संगीन बारहदरी नज़र पड़ी जिसके खम्भे संगमर्मर के थे। इस बारहदरी में दो मशाल जल रहे थे जिनकी रोशनी से वहाँ की हर एक चीज़ साफ़ मालूम होती थी और इसी से वहाँ दस-पन्द्रह आदमी भी दिखायी पड़े जिनमें रस्सियों से मुश्कें बँधी हुई तीन औरतें भी थीं। भैरोसिंह ने पहिचाना कि इन तीनों औरतों में एक किशोरी है जिसके दोनों हाथ पीठ की तरफ़ कसकर बँधे हुए हैं और वह नीचे सिर किये रो रही है। उसके पासवाली दोनों औरतों की भी वही दशा थी मगर उन्हें भैरोसिंह, आनन्दसिंह या तारासिंह नहीं पहिचानते थे। उन तीनों के पीछे नंगी तलवार लिये तीन आदमी भी खड़े थे जिनकी सूरत और पोशाक से मालूम होता था कि वे जल्लाद हैं।

उस बारहदरी के बीचोंबीच चाँदी के सिंहासन पर स्याह पत्थर की एक मूरत इतनी बड़ी बैठी हुई थी कि आदमी पास में खड़ा होकर भी उस बैठी हुई मूरत के सिर पर हाथ नहीं रख सकता था। उस मूरत की सूरत-शक्ल के बारे में इतना ही लिखना काफी है कि उसे आप कोई राक्षस समझें जिसकी तरफ़ आँख उठाकर देखने से डर मालूम होता था।

भैरोसिंह, तारासिंह और आनन्दसिंह उसी जगह खड़े होकर देखने लगे कि उस दालान में क्या हो रहा है। अब घण्टे की आवाज़ बड़े ज़ोर से आ रही थी मगर यह नहीं मालूम होता था कि वह कहाँ बज रहा है।

उन तीनों औरतों को जिनमें किशोरी भी थी छः आदमियों ने अच्छी तरह मज़बूती से पकड़ा और बारी-बारी से उस स्याह मूरत के पास ले गये जहाँ उसके पैरों पर जबर्दस्ती सिर रखवाकर पीछे हटे और फिर उसी के सामने खड़ा कर दिया।

इसके बाद दो आदमी एक औरत को लेकर आगे बढ़े जिसे हमारे तीनों आदमियों में से कोई भी नहीं पहिचानता था, उस औरत के पीछे जो जल्लाद नंगी तलवार लिये खड़ा था वह भी आगे बढ़ा। दोनों आदमियों ने उस औरत को स्याह मूरत के ऊपर इस ज़ोर से ढकेल दिया कि बेचारी बेतहाशा गिर पड़ी साथ ही जल्लाद ने एक हाथ तलवार का ऐसा मारा कि सिर कटकर दूर जा पड़ा और धड़ तड़पने लगा। इस हाल को देख वे दोनों औरतें जिनमें बेचारी किशोरी भी थी बड़े ज़ोर से चिल्लायीं और बदहवास होकर ज़मीन पर गिर पड़ीं।

इस कैफ़ियत को देखकर हमारे दोनों ऐयारों और कुँअर आनन्दसिंह की बड़ी अजब हालत हो गयी। गुस्से के मारे थर-थर काँपने लगे। थोड़ी देर बाद उन लोगों ने किशोरी को उठाया और मूरत के पास ले चले। उसके साथ ही दूसरा जल्लाद भी आगे बढ़ा। अब ये तीनों किसी तरह बर्दाश्त न कर सके। कुँअर आनन्दसिंह ने दोनों ऐयारों को ललकारा—‘‘मारो इन जालिमों को! ये थोड़े से आदमी हैं क्या चीज़!’’

तीनों आदमी खंजर निकाल आगे बढ़ना ही चाहते थे कि पीछे से कई आदमियों ने आकर इन लोगों को भी पकड़ लिया और ‘‘यही हैं, यही हैं, पहिले इन्हीं की बलि देना चाहिए‘‘ कहकर चिल्लाने लगे।

 

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