चन्द्रकान्ता सन्तति - 1
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...
सोलहवाँ बयान
राजा बीरेन्द्रसिंह के चुनार चले जाने के बाद दोनों भाइयों को अपनी-अपनी फ़िक्र पैदा हुई। कुअँर आनन्दसिंह किन्नरी की फ़िक्र में पड़े और कुँअर इन्द्रजीतसिंह को राजगृही की फ़िक्र पैदा हुई। राजगृही को फतह कर लेना उनके लिए एक अदना काम था मगर इस विचार से कि किशोरी वहाँ फँसी हुई है, हमें सताने के लिए अग्निदत्त उसे तक़लीफ़ दे, धावा करने का जल्दी साहस नहीं कर सकते थे। जिस समय वह आज़ाद हुए अर्थात् बीरेन्द्रसिंह के मौजूद रहने का ख़याल जाता रहा, उसी समय से किशोरी की मुहब्बत ने जो बाँधा और तरद्दुद के साथ मिली हुई बेचैनी बढ़ने लगी। आख़िर अपने मित्र भैरोसिंह से बोले, ‘‘अब मैं बिना राजगृही गये नहीं रह सकता। जिस जगह हमारे देखते-देखते बेचारी किशोरी हम लोगों से छीन ली गयी उस जगह अर्थात् उस अमलदारी को बिना तहस-नहस किये और किशोरी को पाये मेरा जी ठिकाने न होगा और न मुझे दुनिया की कोई चीज़ भली मालूम होगी।
भैरो : आपका कहना ठीक है मगर आप अकेले वहाँ क्या करेंगे?
इन्द्र : दुष्ट अग्निदत्त के लिए मैं अकेला ही बहुत हूँ।
भैरो : दुष्ट अग्निदत्त के लिए आप अकेले बहुत हैं मगर शहर-भर के लिए नहीं।
इन्द्र : शहर-भर से मुझे कोई मतलब नहीं।
भैरो: आख़िर शहरवाले उसकी तरफ़दारी करेंगे या नहीं!
इन्द्र : इसका अन्दाज़ गयाजी पर कब्ज़ा करने से ही तुम्हें मालूम हो गया होगा।
भैरो : ठीक है मगर अपनी तरफ़ से मज़बूती रखना मुनासिब है।
इन्द्र : अच्छा तो मैं आनन्द को समझा दूँगा कि फलाने दिन एक सरदार की थोड़ी फौज देकर हमारी मदद के लिए भेज देना।
भैरो : यह हो सकता है, मगर उत्तम तो यही था कि दो-चार दिन और ठहर जाते, तब तक मैं राजगृही से घूम आता।
इन्द्र : नहीं अब इस किस्म की नसीहत सुनने लायक मैं नहीं रहा।
भैरो : (कुछ देर सोचकर) ख़ैर जैसी आपकी मर्जी।
शाम के वक्त दोनों भाई घोड़ों पर सवार हो अपने दोनों ऐयारों और बहुत से मुसाहबों और सरदारों को साथ ले घूमने और हवा खाने के लिए महल के बाहर निकले। कायदे के मुताबिक सरदार और मुसाहब लोग अपने-अपने घोड़े उन दोनों भाइयों के घोड़ों से लगभग पच्चीस कदम पीछे लिये जाते थे; जब इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह घूमकर उनकी तरफ़ देखते तब ये लोग झट आगे बढ़ जाते और बात सुनकर पीछे हट जाते, हाँ दोनों ऐयार घोड़ों की रकाब थामे पैदल जा रहे थे। जब ये दोनों भाई घूमने के लिए बाहर निकलते तब शहर के मर्द औरत बल्कि छोटे-छोटे बच्चे भी इनको देखकर खुश होते थे। जिसके मुँह से सुनिये यही आवाज़ निकलती थी, ‘‘ईश्वर ने हम लोगों की सुन ली जो ऐसे राजकुमार के चरण यहाँ आये और उस खुदगरज़ निमकहराम बेईमान का साया हमारे सर से हटा।’’
जब घूमते हुये ये दोनों भाई शहर के बाहर हुये इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, ‘‘मैं किसी काम के लिए भैरोसिंह को साथ लेकर राजगृही जाता हूँ। आज से ठीक आठवें दिन अर्थात् किसी सरदार के साथ थोड़ी-सी फौज हमारी मदद के लिए भेज देना।’’
आनन्द : (थोड़ी देर चुप रहने के बाद) जो हुक़्म, मगर...
इन्द्र : तुम किसी तरह की चिन्ता मत करो, मैं अपने को हर तरह से सँभाले रहूँगा।
आनन्द : ठीक है, लेकिन...
इन्द्र : गयाजी पहुँचने से ही तुम्हें मालूम हो गया होगा कि माधवी की रिआया हमारे खिलाफ न होगी।
आनन्द : ईश्वर करे ऐसा ही हो, परन्तु...
इन्द्र : जब तक तुम्हारी फौज न पहुँच जायगी हम लोगों को जो कुछ करना होगा छिपकर करेंगे।
आनन्द : ऐसा करने पर भी...
इन्द्र : ख़ैर जो कुछ तुम्हें कहना हो साफ़-साफ़ कहो!
आनन्द : आपका अकेले जाना मुनासिब नहीं, दुश्मन के घर में जाकर अपने को सम्हाले रहना भी कठिन है, राजा की मौजूदगी में रिआया को हर तरह से उसका डर बना ही रहता है, आप दुश्मन के घर में किसी तरह निश्चिन्त नहीं रह सकते और आपके इस तरह चले जाने के बाद मेरा जी यहाँ कभी नहीं लग सकता।
राजगृही जाने पर कुँअर इन्द्रजीतसिंह कैसे ही मुस्तैद क्यों न हों लेकिन छोटे भाई की आख़िरी बात ने उन्हें हर तरह से मजबूर कर दिया। कुँअर इन्द्रजीतसिंह बड़े ही समझदार और बुद्धिमान थे, मगर मुहब्बत का भूत जब किसी के सर पर सवार होता है तो वह पहिले उसकी बुद्धि की ही मिट्टी पलीद करता है।
छोटे भाई की बात सुन इन्द्रजीतसिंह ने भैरोसिंह की तरफ़ देखा।
भैरो : मैं भी यही चाहता था कि आप दो-चार रोज़ यहीं और सब्र करें और तब तक मुझे राजगृही से घूम आने आने दें।
आनन्द : (भैरोसिंह की तरफ़ देखकर) वादा कर जाओ कि तुम कब लौटोगे?
भैरो : चार दिन के अन्दर ही मैं यहाँ पहुँच जाऊँगा।
आनन्द : (भैरोसिंह की तरफ़ देखकर इन्द्रजीसिंह से) यदि आज्ञा हो जाय तो ये इधर ही से चले जायँ, घर जाने की ज़रूरत ही क्या है!
भैरो : मैं तैयार हूँ
इन्द्र : घर जाकर अपना सामान तो इन्हें दुरुस्त करना ही होगा, हाँ मुझसे चाहे इसी समय विदा हो जायँ।
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