चन्द्रकान्ता सन्तति - 1
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...
दसवाँ बयान
अब हम अपने पाठकों को फिर उसी खोह में ले चलते हैं जिसमें कुँअर आनन्दसिंह को बेहोश छोड़ आये हैं अथवा जिस खोह में जान बचानेवाले सिपाही के साथ पहुँचकर उन्होंने एक औरत को छुरे से लाश काटते देखा था और योगिनी ने पहुँचकर सभों को बेहोश कर दिया था।
थोड़ी देर बाद आनन्दसिंह को छोड़ योगिनी बाक़ी सभों को कुछ सुँघाकर होश में लायी। बेहोश आनन्दसिंह उठाकर एक किनारे रख दिये गये और फिर वही काम अर्थात लटकते हुए आदमी को छुरे से काट-काटकर पूछना कि ‘इन्द्रजीतसिंह के बारे में जो कुछ जानता है बता’ जारी हुआ। सिपाही ने भी उन लोगों का साथ दिया। मगर वह आदमी भी कितना ज़िद्दी था! बदन के टुकड़े-टुकड़े हो गये मगर जब तक होश में रहा यही कहता गया कि हम कुछ नहीं जानते। हब्शी ने पहिले ही से कब्र खोद रखी थी, दम निकल जाने पर वह आदमी उसी में गाड़ दिया गया।
इस काम से छुट्टी पा योगिनी ने सिपाही की तरफ़ देखकर कहा, ‘‘बाहर जंगल से लकड़ी काट काम चलाने लायक एक छोटी-सी डोली बना लो, उस पर आनन्दसिंह को रख तुम और हब्शी मिलकर उठा ले जाओ, चुनार के किले के पास इनको रख देना जिसमें होश आने पर अपने घर पहुँच जायें, तकलीफ न हो, बल्कि होश में लाने की तरकीब करके तब तुम इनसे अलग होना और जहाँ जी चाहे चले जाना, हम लोगों से अगर मिलने की ज़रूरत हो तो इसी जगह आना।’’
सिपाही : मेरी भी यही राय थी, आनन्दसिंह को तकलीफ क्यों होने लगी, क्या मुझको इसका ख़याल नहीं है!
योगिनी : क्यों नहीं, बल्कि मुझसे ज़्यादे होगा। अच्छा तुम जाओ जिस तरह बने इस काम को कर लो, हम लोग अब अपने काम पर जाती हैं। (दूसरी औरत की तरफ़ देखकर जिसने छुरी से उस लाश को काटा था) चलो बहन चलें, इस छोकरी को इसी जगह छोड़ दो मजे से रहेगी, फिर बुझा जायेगा।
इन दोनों औरतो का भी बहुत कुछ हाल हमें लिखना है इसलिए जब तक दोनों का असल भेद और नाम न मालूम हो जाय तब तक पाठकों के समझने के लिए कोई फर्जी नाम ज़रूर रख देना चाहिए। एक का नाम तो योगिनी रख ही दिया गया, दूसरी का बनचरी समझ लीजिए। योगिनी और बनचरी दोनों खोह के बाहर निकलीं और कुछ दक्खिन झुकते हुए पूरब का रास्ता लिया, इस समय रात बीत चुकी थी और सुबह की सुफेदी के साथ लुपलुपाते हुए दो-चार तारे आसमान पर दिखायी दे रहे थे।
पहर दिन चढ़े तक ये दोनों बराबर चली गयीं, जब धूप कड़ी हुई जंगल में एक जगह बेल के पेड़ों की घनी छाँह देखकर टिक गयीं थीं जिसके पास ही पानी का झरना बह रहा था। दोनों ने कमर से बटुआ खोला और कुछ मेवा निकालकर खाने तथा पानी पीने के बाद ज़मीन पर नरम-नरम पत्ते बिछाकर सो रहीं।
ये दोनों तमाम रात की जगी हुई थीं, लेटते ही नींद आ गयी। दोपहर तक खूब सोयीं। जब पहर दिन बाक़ी रहा उठ बैठीं और चश्मे के पानी से हाथ मुँह धो फिर चल पड़ीं। इस तरह मौके-मौके पर टिकती हुई ये दोनों कई दिनों तक बराबर चली गयीं। एक दिन आधी रात तक बराबर चले जाने के बाद एक तालाब के किनारे पहुँचीं जो बगलवाली पहाड़ी के नीचे सटा हुआ था।
इस लम्बे-चौड़े संगीन और निहायत खूबसूरत तालाब के चारो तरफ़ पत्थर की सीढ़ियाँ और छोटी-छोटी बारहदरियाँ और इस तौर पर बनी हुई थीं जो बिलकुल जल के किनारे ही पड़ती थीं। तालाब के ऊपर भी चारों तरफ़ पत्थर का फ़र्श और बैठने के लिए एक तरफ़ सिंहासन की तरह चार-चार चबूतरे निहायत खूबसूरत मौजूद थे। ताज्जुब की बात यह थी कि इस के बीच का जाट लकड़ी की जगह पीतल का इतना मोटा बना हुआ था कि दोनों तरफ़ दो आदमी खड़े होकर हाथ नहीं मिला सकते थे। जाट के ऊपर लोहे का एक बदसूरत आदमी का चेहरा बैठाया हुआ था।
तालाब के ऊपर चारों तरफ़ बड़े-बड़े सायेदार दरख्त ऐसे घने लगे हुए थे कि सभों की डालियाँ आपुस में गुँथ रही थीं। दोनों उस तालाब पर खड़े होकर उसकी शोभा देखने लगीं। थोड़ी देर बाद दोनों एक चबूतरे पर बैठ गयीं मगर मुँह तालाब ही की तरफ़ किये हुए थीं।
यकायक जाट के पास का पानी खलबलाया और एक आदमी तैरता हुआ जल के ऊपर दिखायी दिया। इन दोनों की टकटकी उसी तरफ़ बँध गयी, वह आदमी किनारे आया और ऊपर की सीढ़ी पर खड़ा हो चारो तरफ़ देखने लगा। अब मालूम हो गया कि वह औरत है। योगिनी और बनचरी ने चबूतरे के नीचे होकर अपने को छिपा लिया मगर उस औरत की तरफ़ बराबर देखती रहीं।
उस औरत की उम्र बहुत कम मालूम होती थी जो अभी-अभी तालाब से बाहर हो इधर-उधर सन्नाटा देख हवा में अपनी धोती सुखा रही थी। थोड़ी ही देर में साड़ी सूख गयी जिसे पहिन कर उसने एक तरफ़ का रास्ता लिया।
मालूम होता है कि योगिनी और बनचरी इसी ताक में बैठी थीं क्योंकि जैसे ही वह औरत वहाँ से चल खड़ी हुई वैसे ही ये दोनों उस पर लपकी और जबर्दस्ती गिरफ़्तार कर लेना चाहा, मगर वह कमसिन औरत इन दोनों को अपनी तरफ़ आते देख और इन दोनों के मुक़ाबले अपनी जीत न समझकर लौट पड़ी और फुर्ती के साथ दरख्तों में से एक पर चढ़ गयी जो उस तालाब के चारों तरफ़ लगे हुए थे। योगिनी और बनचरी दोनों उस दरख्त के नीचे पहुँची, योगिनी खड़ी रही और बनचरी उसे पकड़ने के लिए ऊपर चढ़ी।
हम ऊपर लिख आये हैं कि यह दरख्त इतने पास पास लगे हुए थे कि सभों की डालियाँ आपुस में गुथ रही थीं। बनचरी को चढ़ते देख वह जलचरी ऊपर-ही-ऊपर दूसरे पेड़ पर कूद गयी। यह देख योगिनी ने उसके आगे वाले तीसरे पेड़ को जा घेरा, जिसमें वह बीच ही में फँसी रह जाय और आगे न जाने पावे, मगर यह चालाकी भी न लगी। जब उस औरत ने अपने बगलवाले पेड़ को दुश्मनों से घिरा हुआ पाया, पेड़ के नीचे उतर आयी और तालाब की सीढ़ियों को तै करते हुए धम्म से जल में कूद पड़ी। योगिनी और बनचरी भी साथ ही पेड़ से उतरीं और उसके पीछे जाकर इन दोनों ने भी अपने को जल में डाल दिया।
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