भूतनाथ - खण्ड 7
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भूतनाथ - खण्ड 7 पुस्तक का ई-संस्करण
तीसरा बयान
उस अंधेरे और भयानक अंधकूप में प्रभाकरसिंह सुस्त और उदास अकेले पड़े हैं।
इस स्थान में उनको आए आज यह तीसरा दिन है। जिस दिन उस औरत से उनकी बात हुई थी उस रात को ही मालती न-जाने कहाँ गायब हो गई थी और दूसरे दिन सुबह सोकर उठने पर (यद्यपि इस अंधेरी जगह में दिन-रात और सुबह-शाम सब एक-सा ही था) इन्होंने उसे वहाँ न पाया। इस छोटी-सी जगह की बिसात ही क्या फिर भी अपने तिलिस्मी डण्डे की मदद से उन्होंने एक-एक कोना तलाश किया और कहीं मालती को न पाया और न उसकी कोई निशानी ही देख वे सुस्त बैठे रहे थे। उनकी सब बुद्धिमानी, समूची कोशिश और तिलिस्मी किताब और हथियार की मदद उनके किसी काम न आई और वे अपने को इस कैदखाने से छुड़ा न पाए। न-जाने यह कौन-सी जगह थी और यह तिलिस्मी रानी और उसकी सहेलियां कौन बला थीं क्योंकि तिलिस्मी किताब में इनका कोई भी जिक्र कहीं पर न था और इस समय उदास मन से अकेले अपनी बांह पर सिर रखे लेटे वे यही सोच रहे थे।
अचानक प्रभाकरसिंह चौंके और इधर-उधर देखने लगे। उनके कानों में किसी के खिलखिलाकर हंसने की आवाज पड़ी थी। उन्होंने सिर घुमाकर इधर-उधर देखा पर कहीं कोई न था। वह भयानक अंधकूप पहले ही की तरह अकेला अंधेरा और निर्जन था। तब यह आवाज किधर से आई? ऊपर की तरफ कहीं से कोई आहट मिल न रही थी और उधर की ऊंचाई इतनी अधिकी थी कि वहाँ की आवाज नीचे इस तरह सुनाई भी न पड़ सकती थी। तब फिर यह हंसने की आवाज किधर से आई? ताज्जुब के साथ वे यही सोच रहे थे कि फिर वैसी ही आवाज आई।
अब प्रभाकरसिंह लेटे न रह सके। उठ खड़े हुए और इधर-उधर घूम-घूम कर तलाश करने लगे कि बार-बार यह आवाज किधर से आ रही है। कुएं की दीवार के साथ-साथ घूमते हुए एक जगह पहुंचकर यकायक प्रभाकरसिंह चौंक गए।न तो उन्हें कोई रोशनी दिखी थी और न उन्हें कोई आहट मिली थी, फिर भी जो वे रुके उसका कारण यह था कि उन्हें एक जगह से कुछ हवा आती हुई-सी जान पड़ी। हाथ से टटोलकर देखा तो एक छोटा-सा छेद गर्दन की ऊंचाई पर मालूम हुआ जिसके अन्दर से तेजी के साथ हवा आ रही थी। कुछ नीचे झुककर आँख लगाई तो सचमुच देखा कि एक छोटा सुराख था और दूसरी तरफ कुछ रोशनी-सी भी मालूम हुई। इसकी जांच कर ही रहे थे कि फिर उसी तरह हंसने की आवाज सुनाई पड़ी और इस बार साफ मालूम हो गया कि यह आवाज भी इसी सुराख की राह आ रही है। कुछ बातचीत की आहट मिली और ये गौर से सुनने लगे। कोई कह रहा था, ‘‘भला यह भी तो सोचो कि वह इस बात को कैसे मंजूर कर सकती है।’’ जिसके जवाब में दूसरा कोई बोला, ‘‘तो इन्दुमति भी फिर अपने जान की खैर नहीं मना सकती। आखिर वह भी तो कैद ही में है और न-जाने कब महारानी उसका सिर काटने की आज्ञा दे दें!!’’
प्रभाकरसिंह चौंक पड़े। यह क्या बात है? इन्दुमति का जिक्र यहाँ कैसा? क्या वह भी इन शैतानों के फेर में आ फंसी है? ओफ, कितने दिनों से मेरी-उसकी भेंट नहीं हुई है। न-जाने वह बेचारी किन-किन मुसीबतों में पड़ी या क्या-क्या आफतें उस पर आईं!! इन्दुमति के ख्याल ने इन्हें बेचैन कर दिया और वे उतावली के साथ इस जगह से बाहर होने की कोई राह तलाश करने लगे। जिस जगह वह छोटा-सा छेद उन्हें दिखा था उसके चारों तरफ हाथ फेरने पर उससे जरा ही ऊपर एक और छेद उन्हें मिला जो उस पहले सुराख से कुछ बड़ा था मगर उसकी बनिस्बत ज्यादा ऊंचाई पर भी था, जमीन से उचककर ही उसमें आंख लगाई जा सकती थी।पैर की उंगलियों पर बोझा दे प्रभाकरसिंह ऊपर को उठे और छेद तक अपना सिर पहुंचाया। देखा तो मालूम हुआ कि यह सुराख पहले से बड़ा है और इसकी राह दूसरी तरफ का कुछ-कुछ दृश्य भी दिखाई पड़ रहा है। एक जंगले का कुछ हिस्सा, उसके बाद आंगन का और तब पीछे वाले एक दालान का कोना इनकी आंख के सामने पड़ा जिसे देखते ही ये चौंक गए क्योंकि चट इन्हें याद आ गया कि यह वही जगह है जहाँ बावली वाली राह से सुरंग के भीतर कुछ कैदियों को देखा था अथवा जिसका हाल मालती ने इस तरह बयान किया था कि-सुरंग के अन्दर को तिलिस्म को खोलने के बजाय मैं उन कैदियों के पास चली गई और उनसे बात करना चाहती थी कि रानी के आदमियों ने मुझे गिरफ्तार कर लिया!प्रभाकरसिंह इस स्थान को सिर्फ एक झलक ही बावली में से देख पाये थे अस्तु इस समय कुछ ताज्जुब और कौतूहल के साथ इसको देखने लगे।
उन्होंने देखा कि किसी बहुत बड़े मकान का आंगन है जिसके चारों तरफ दालान बने हैं, आंगन का एक बड़ा हिस्सा और उसके पीछे का दालान लोहे के छड़दार जंगलों से घेर कैदखाने की तरह बना दिया गया है जो ऊपर की तरफ से भी लोहे के मजबूत जाल से बन्द है। उसके पीछे वाले दालान के बाद भी कई कोठरियों के खुले या बन्द दरवाजे नजर आ रहे थे जो शायद उन कैदियों के रहने के काम में आती होंगी जो इस वक्त उस दालान में बैठे कुछ कर रहे थे और उनके पीठ इधर-उधर होने तथा फासला ज्यादा होने और पूरा-पूरा दिखाई भी न पड़ने के कारण जिन्हें प्रभाकरसिंह पहचान नहीं सकते थे। मगर प्रभाकरसिंह उन कैदियों की तरफ ज्यादा गौर दे भी न सके क्योंकि इसी समय उनका ध्यान उन दो औरतों की बातचीत ने खींच लिया जो उनके सामने ही दिखाई न पड़ने पर भी कपड़ों की झलक और बातचीत की आवाज से साफ मालूम पड़ रही थीं। प्रभाकरसिंह बड़े गौर से उनकी बातें सुनने लगे।
एक : अगर प्रभाकरसिंह महारानी की बात न मानेंगे तो क्या इन्दुमति मार डाली जायेगी?
दूसरी : जरूर। और सिर्फ इन्दुमति ही क्यों, इसके बाद एक-एक करके इन सब कैदियों का सिर उतार लिया जायगा जो यहाँ बन्द हैं और सबके अन्त में मालती को सूली दे दी जायेगी। मगर प्रभाकरसिंह इन्कार करेंगे ही क्यों? क्या वे इतना नहीं समझ सकते थे कि किस काम में उनका फायदा है? इन्कार करके अपने प्रेमियों की जान लेने और खुद अपनी जान भी इस अंधकूप में भूखे-प्यासे पड़े रहकर देने में या महारानी का हुक्म मानकर इतने कैदियों को छुड़ाने और खुद बेशबहा-दौलत हीरे-मोती-जवाहरात और ऐसा खूबसूरत रत्न पाने में।
पहली : ठीक है, तभी तो उनकी मालती ने हमारी महारानी की बात तुरन्त मान ली। मगर अफसोस। प्रभाकरसिंह अपनी जिद्द पर कायम रहकर उसकी जान लेंगे। क्योंकि महारानी ने हुक्म दिया है कि अगर वे यह बात न मानें तो मालती भी सूली पर चढ़ा दी जाय।
दूसरी : सोई तो! मगर मैं समझती हूँ, वे मान जायेंगे। यों तो वह लड़कपन के जिद्दी हैं मगर इस समय इतना गहरा नुकसान पहुंचाने वाली जिद्द पर अड़े न रहेंगे ऐसा विश्वास है।
पहली : सो न समझो! अगर वे तुम्हारी बात न मानें तो तुमको इन्दुमति का सिर काटने का हुक्म मिला है, ऐसा जब प्रभाकरसिंह सुनेंगे तो फिर वे तुम्हारी बात कभी भी न मानेंगे! भूखे-प्यासे रहकर अपनी भी जान भले ही दे दें पर डरा धमकाकर उनसे कोई काम नहीं लिया जा सकता, यह तुम जाने रहो।
दूसरी : सो तो मैं खूब जानती हूँ और इसी से इस वक्त जैसे भी होगा समझा-बुझाकर ही उन्हें राजी करूंगी। वे बुद्धिमान् आदमी हैं, अपना नफा-नुकसान अच्छी तरह सोच सकते हैं और इसलिए मुझे विश्वास है कि जरूर मेरी बात न मान लेंगे।
पहली : कोशिश कर देखो, मुझे तो यकीन नहीं होता।
बातचीत की आवाज बन्द हो गई और तब किसी दरवाजे के खुलने की आहट मिली जिसके साथ ही अपने ऊपर की तरफ प्रभाकरसिंह को कुछ रोशनी मालूम हुई। तुरन्त ही वे उस जगह से हट गए और अपनी जगह पर पहुंच उसी तरह लेट रहे जैसे पहले पड़े हुए थे।
प्रभाकरसिंह को देखते-देखते पहले ही की तरह झूला पुन: नीचे को उतरा और उस पर से हाथ में विचित्र ढंग की मशाल लिए जिसमें लवर और रोशनी तो थी मगर धुआं बिल्कुल न था, एक औरत नीचे उतरी। प्रभाकरसिंह को गुमान था कि वह वही होगी जिसने उस महारानी के दरबार में उनसे बातें की थीं या जो यहाँ भी एक बार आकर उन्हें धमकियां दे गई थी मगर सो न था। उस औरत के बजाय इन्होंने एक दूसरी ही को अपने सामने पाया जो इसकी बनिस्बत उम्र में तो कुछ कम मगर खूबसूरती में कहीं ज्यादा थी और जिसने बहुत ही सुन्दर और कीमती गहने-कपड़ों से अपने को सजा रखा था। प्रभाकरसिंह इसे देख उठ बैठे और सवाल की निगाह उसके ऊपर डालने लगे।
उस औरत ने इन्हें नमस्कार किया और तब एक चिट्ठी इनकी तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘यह चिट्ठी मालती देवी ने आपके पास भेजी है।’’
‘‘मालती ने?’’ ताज्जुब और खुशी के साथ प्रभाकरसिंह ने हाथ बढ़ा चिट्ठी ले ली। उस औरत के हाथ की मशाल के सबब से वहाँ काफी उजाला था अस्तु प्रभाकरसिंह वह चिट्ठी पढ़ने लगे। यह लिखा हुआ था :-
‘‘पूज्यपाद,
बहुत बड़ी-बड़ी आशाएँ लेकर तिलिस्म के तोड़ने में आपका अनुसरण कर रही थी पर वह सब आशाएं मिट गईं। अब आपके दर्शन फिर कभी हो सकेंगे यह तो सम्भावना ही नहीं है, जीती बचूंगी कि नहीं, नहीं जानती!
बड़ी-बड़ी कोशिशों के बाद यह चिट्ठी आपको लिखने की इजाजत उसने दी है जिसकी मैं कैदी हूँ। बस यही मेरा-आपका आखिरी मिलन होगा। खैर भगवान् की इच्छा!
बात यह है कि यहाँ तिलिस्म में जहाँ आप हैं उसमें कुछ ही दूर पर हमारे कुछ प्रेमी कैद में सड़ रहे हैं। आप उन्हें देख चुके हैं और मैं भी उनका जिक्र आपसे कर चुकी हूँ। उनमें मेरी सहेलियों और आपके भी कई लड़कपन के साथी हैं उनकी जान बचाने की गरज से मैंने इस तिलिस्म की महारानी का एक हुक्म मानने की प्रतिज्ञा कर अपने को उसके हाथों बेच दिया था मगर उन कैदियों को छोड़ देने का वचन ले लिया था। पर अब सुनने में आया है कि मैं तो गई ही, उन कैदियों की भी जान न बचेगी जिनको बचाने की नीयत से मैंने इतना बड़ा त्याग किया क्योंकि आपने शायद महारानी की कोई बात मानने से इन्कार कर दिया है जिस पर रुष्ट हो उन्होंने उन कैदियों के साथ ही मुझे भी जान से मार डालने का हुक्म दिया है।
आपने जो किया उचित और सोच-विचार कर ही किया होगा, अस्तु मेरा आखिरी प्रणाम स्वीकार करें। इस दासी को सदा के लिए विदा दीजिए।
किसी समय में आपकी- पर अब?
केवल- मालती।
प्रभाकरसिंह ताज्जुब और अफसोस के साथ वह विचित्र चिट्ठी पढ़ गए जिसके शब्दों के अन्दर छिपी हुई व्यथा उनकी निगाह के सामने स्पष्ट नजर आ रही थी। इसके बाद उन्होंने पत्र लाने वाली की तरफ सवाल की आँखें उठाई। उसने हाथ जोड़कर इनकी तरफ देखा जिस पर इन्होंने पूछा, ‘‘मालती अब कहाँ हैं?’’
औरत : वे हम लोगों की महारानी के पास हैं।
प्रभाकर० : कैद में हैं या स्वतन्त्र?
औरत : यों तो हाथ-पांव खुले हुए हैं मगर स्वतन्त्र नहीं कहीं जा सकतीं, क्योंकि तिलिस्म के बाहर होने की उनकी ताकत नहीं और अब तो शायद हाथ-पांव भी बेकाबू हो चुके होंगे क्योंकि महारानी उन्हें समझा-बुझाकर हार चुकी थीं और उन्हें शेरों की गुफा में फेंकने की धमकी दे रही थीं जब मैं इधर के लिए चली।
प्रभाकर० : सो क्यों?
औरत : क्योंकि महारानी जिस मजमून की चिट्ठी लिखवाना चाहती थीं वैसा लिखने से उन्होंने इन्कार कर दिया था। महारानी चाहती थीं कि वे आप पर जोर दें कि आप उनकी बातें मान लें और वे कहती थीं कि मैं आपकी (प्रभाकरसिंह की) इच्छा के विरुद्ध कुछ करने की बात लिख नहीं सकती।
प्रभाकर० : क्या वे जानती हैं कि महारानी ने मुझसे क्या काम करने को कहा है जिससे कि मैंने इन्कार किया?
औरत : जी नहीं, महारानी ने उनसे कहा नहीं और हम लोगों को भी वह मालूम नहीं जो उनसे कहें, हाँ आप ही से उन्हें कुछ मालूम हो गया हो तो मैं नहीं कह सकती।
प्रभाकरसिंह ने इसका कोई जवाब न दिया और सिर नीचा कर कुछ सोचने लगे। हम नहीं जानते कि महारानी ने कौन-सी बात उनसे कही थी या क्या काम करने को कहा था कि जिससे इन्कार कर वे अपनी और अपने प्रेमियों की जान जोखिम में डाल रहे थे, पर उनको गहरी चिन्ता में डूबा देख कुछ देर बाद वह औरत हाथ जोड़कर बोली, ‘‘मैं एक बेवकूफ औरत की जात और मामूली लौंडी हूँ, आपको कुछ कहने, बताने या समझाने की बात भी जबान पर ला नहीं सकती मगर फिर भी अगर मेरी एक अर्ज सुन ली जाए तो कुछ हर्ज न होगा!’’
प्रभाकरसिंह ने सिर उठाकर उसकी तरफ देखा। उसने फिर कहा, ‘‘मैं अभी-अभी महारानी का हुक्म सुनाने के लिए उन कैदियों के पास गई थी जो पास ही में बन्द हैं। उनमें से एक ने जिसका नाम तो मैं नहीं जानती पर जिन्हें उनके साथी ‘इन्दु’ कहकर पुकारते हैं आपसे कहने के लिए एक सन्देश बड़ी गुप्त रीति से मुझे दे दिया!’’
प्रभाकरसिंह चौंककर बोले, ‘‘इन्दु! क्या वह भी तुम्हारी कैद में है?’’
औरत : मेरी या हम लोगों की नहीं, बल्कि इस तिलिस्म की कैद में कहिए।
प्रभाकर : हाँ, हाँ, वही बात है जल्दी कहो उसने क्या कहा है?
उस औरत ने झुककर कोई बात प्रभाकरसिंह के कान में कहीं, न-जाने वह क्या बात थी कि प्रभाकरसिंह चौंक पड़े और बोल उठे, ‘‘उसे यह कैसे मालूम हुआ?’’ औरत बोली, ‘‘सो तो मैं नहीं कह सकती!’’ प्रभाकरसिंह ने पूछा, ‘‘क्या तुम मेरी भेंट उससे करा सकती हो?’’ औरत ने जवाब दिया, ‘‘जी भेंट तो नहीं करा सकती मगर आपका संदेश उन तक ले जा और उनका जवाब आप तक जरूर पहुंचा सकती हूँ,’’ प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘अच्छा, अगर यही कर सको तो बहुत है।’’ औरत ने कहा, ‘‘कहिए क्या हुक्म है?’’ प्रभाकरसिंह ने झुककर उसके कान में कोई बात कहीं।
औरत ने गौर से उनकी बात सुनी और तब कहा, ‘‘बहुत अच्छा, मैं अभी इसका जवाब लेकर आती हूँ।’’ प्रभाकरसिंह ने पूछा, ‘‘कितनी देर तुम्हें लगेगी?’’ उसने जवाब दिया, ‘‘घड़ी-भर से कम ही!’’ और उनके देखते-देखते उस झूले पर बैठ ऊपर को चली गई मगर अपनी मशाल उसी जगह छोड़ती गई।
तरह-तरह की चिन्ताओं में डूबे हुए प्रभाकरसिंह न-जाने क्या-क्या सोच ही रहे थे कि ऊपर की तरफ से पुन: आहट मिली और देखते-देखते वही औरत फिर उनके सामने आ मौजूद हुई। इस समय उसके हाथ में एक मोड़ा हुआ कागज था जिसे उसने यह कहते हुए प्रभाकरसिंह की तरफ बढ़ा दिया, ‘‘लीजिए, उन्होंने अपने हाथ से लिखकर यह चिट्ठी आपके पास भेजी है!’’
उत्कंठा और आश्चर्य के साथ प्रभाकरसिंह ने वह कागज ले लिया। पहले तो उन्होंने उसकी लिखावट पर गौर किया तब धीरे से यह कहकर कि ‘‘बेशक इन्दे, तेरी ही लिखावट है’! उसे गौर से पढ़ने लगे।
एक बार, दो बार, तीन बार, वे उस कागज के छोटे मजमून को पढ़ गए, इसके बाद एक लम्बी सांस लेकर उन्होंने उस औरत से कहा, ‘‘अच्छा, जाओ अपनी रानी से कह दो कि मुझे उसकी बात मंजूर है!’’
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