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भूतनाथ - खण्ड 7

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भूतनाथ - खण्ड 7 पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान


इन्द्रदेव की अद्भुद और जादू का-सा असर करने वाली दवाओं और उनके अद्भुद निवास-स्थान की दिल को कूबत और फरहत पहुंचाने वाली आबहवा की बदौलत दलीपशाह, अर्जुनसिंह और गिरिजाकुमार बहुत जल्दी ही तन्दुरुस्त हो गये और कुछ ही दिन बाद तो उन तकलीफदेह चोटों का कोई नाम-निशान भी उनके बदन पर बाकी न रहा जो लोहगढ़ी में भूतनाथ की बदौलत उन्हें खानी पड़ी थीं।

हमारे लेखक यह तो समझ ही गये होंगे कि लोहगढ़ी में से निकालकर इन्द्रदेव इन तीनों को अपने साथ ले गये थे और इन्हें अपने मकान और अपनी देखरेख में रखा था मगर जिस बात पर इन तीनों को बहुत ही ज्यादा अचम्भा हो रहा था वह यह थी कि उस दिन के बाद से आज तक इन्द्रदेव की एक बार भी उन लोगों ने शक्ल तक न देखी थी। न जाने वे किस काम में मशगूल थे या किस झंझट में पड़े हुए थे कि अपने इन मरीजों के हाल-चाल की पूरी खबर रखते और दवा का पूरा बन्दोबस्त करते हुए भी उन्हें उनके सामने आने की मोहलत नहीं मिल रही थी। शायद कभी रात-बिरात जबकि उनके मरीज गहरी निद्रा में पड़े हों वे आकर देख गये हों तो दूसरी बात है नहीं तो इन तीनों ने उस दिन के बाद से आज तक एक बार भी उनकी शक्ल देखी न थी। आज अपने हवादार कमरे की खिड़की के सामने मसनद पर गावतकिये के सहारे उठकर बैठे दलीप शाह अपने सामने बैठे अर्जुनसिंह से इसी विषय पर बातें कर रहे थे।

दलीप० : मेरी समझ में नहीं आता कि इन्द्रदेव किस जरूरी काम में लगे हुए हैं जो उन्हें आधी घड़ी के लिए भी इतनी फुरसत नहीं मिलती कि यहाँ आवें और हम लोगों से दो बातें तो कर जाएं!

अर्जुन० : और दिल्लगी तो यह है कि जब उनसे पुछवाया जाता है कि हम लोग बाहर जाना चाहते हैं तो कहला भेजते हैं कि अभी आप लोग बाहर जाने लायक नहीं हुए, अभी कुछ दिन और रहकर पूरी तरह से अच्छे हो जाइये तब बाहर जाने का ख्याल कीजिए।

दलीप० : और इस कमरे, दालान और बाहर वाली दोनों कोठरियों की हद से दूर जाने की हम लोगों को इजाजत नहीं है, मानो हम लोगों को कैदी बना रखा हो।

गिरिजा० : (जो वहाँ से कुछ दूर पर बैठा खरल में कोई दवा घोंट रहा है) मुझे तो गुरुजी, कुछ ऐसा जान पड़ता है कि वे किसी खास सबब से हम लोगों को यहाँ रोके हुए हैं और बाहरी दुनिया में जाने नहीं देना चाहते।

दलीप० : कैसे तुम यह सोचते हो?

गिरिजा० : एक दिन रात के समय किसी तरह की आहट पाकर मेरी नींद उचट गई। बाहर से किसी के बोलने की आवाज आ रही थी मगर जब तक मैं उठूं और कमरे के बाहर होऊं तब तक वह आवाज बंद हो गई।

दलीप० : हाँ, यह बात तुमने हम लोगों से कही थी!

गिरिजा० : उसी दिन से रात को कई दफे बाहर वाली छत तक का चक्कर लगा आने का मैंने नियम बना लिया है और इसलिए वह दरवाजा (हाथ से कोठरी की तरफ बताकर) मैं सोते समय बन्द नहीं करता बल्कि खुला ही छोड़ देता हूँ कि जिसमें आहट किये बगैर जब चाहूँ बाहर निकल जा सकूं। अब तक मेरी इस कार्रवाई का कोई नतीजा न निकला था पर आज मुझे एक अजीब-सी बात जान पड़ी जिसे आपसे कहूँ या न कहूँ, यही मैं सोच रहा था।

दलीप० : वह क्या?

गिरिजा० : रात आधी से ज्यादा जा चुकी होगी। मैं छत पर घूम-फिरकर कोठरी की राह भीतर वापस आना ही चाहता था कि नीचे कुछ आहट सुनाई पड़ी ठिठककर सुनने लगा तो कोई कह रहा था, ‘‘देखो खबरदार, चाहे जो कुछ भी हो पर ये लोग यहाँ से बाहर न होने पावें, अभी बाहर खतरा है! जवाब में किसी ने कहा, ‘‘क्या आप उन लोगों को देखियेगा भी नहीं?’’ जिसे सुनकर वह बोला, ‘‘यद्यपि इसकी जरूरत नहीं क्योंकि वे लोग अब बिल्कुल ठीक हो गये हैं फिर भी मैं उन्हें एक बार देखूंगा जरूर!’’इस पर दूसरे आदमी ने पूछा, ‘‘मगर आप फिर व्यर्थ इन लोगों को यहाँ रोके हुए क्यों हैं?’’ इस बात का जवाब इतना धीरे से दिया गया कि मैं सुन न सका मगर उसी समय सीढ़ी वाले दरवाजे के खुलने की आहट आई जिससे मैं समझ गया कि वे बात करने वाले, चाहे जो भी हों, ऊपर आना चाहते हैं, इसलिए मैं चुपचाप जाकर अपनी खाट पर पड़ा रहा और कुछ ही देर बाद मैंने दो आदमियों को कमरे में आता पाया। मैं जान-बूझकर आंखें बन्द कर खुर्राटे लेने लगा फिर भी छिपी निगाहों से मैंने देख लिया कि उन्होंने आप लोगों को अच्छी तरह देखा।

दलीप० : तुमने पहचाना नहीं कि वे लोग कौन थे?

गिरिजा० : एक तो इन्द्रदेवजी ही थे मगर दूसरा कौन था सो मैं जान न सका क्योंकि उसने नकाब से अपनी सूरत छिपाई हुई थी। आप लोगों को देख वह नकाबपोश मेरी तरफ बढ़ा पर इन्द्रदेवजी ने कहा, ‘‘उधर जाने की जरूरत नहीं, वह लड़का पूरा मक्कार है, कौन ठिकाना जागा हुआ पड़ा हो और आपको पहचान ले!’’ इसके बाद दोनों निकल गये। रामा नौकर दरवाजे पर खड़ा था उसे कुछ खाने-पीने के बारे में बताया और तब नीचे उतर गये।

दलीप० : यह तो तुमने बड़े ताज्जुब की बात सुनाई! इसका मतलब तो फिर यह हुआ कि इन्द्रदेव छिपकर आते, हम लोगों को देखते और हमारी फिक्र करते हैं, फिर भी हमारे सामने नहीं होना चाहते!!

गिरिजा० : जी हाँ और इसी से मैंने कहा कि जरूर वे किसी खास सबब से हम लोगों को यहाँ रोके हुए हैं।

अर्जुन० : मगर यह खास सबब हो क्या सकता है! (रुककर और बाहर की तरफ देखकर) रामा नौकर आ रहा है और उसके हाथ में कोई चिट्ठी जान पड़ती है, शायद हम लोगों के लिए हो।

इन्द्रदेव का खास खिदमतगार रामा जिसे इन लोगों की सेवा-सुश्रूषा के लिए उन्होंने दिया हुआ था कमरे के अन्दर आया और सलाम कर एक चिट्ठी दलीपशाह की तरफ बढ़ाकर बोला, ‘‘इसका जवाब अभी मांगा गया है,’’ दलीपशाह ने चिट्ठी ली और लिफाफा खोलकर पढ़ने के साथ ही उनके मुंह से ताज्जुब की एक आवाज निकल पड़ी और चिट्ठी अर्जुनसिंह की तरफ बढ़ाते हुए उन्होंने रामा से पूछा, ‘‘इन्द्रदेवजी कहाँ हैं? रामा ने जवाब दिया, ‘वे जमानिया गये हैं और नौकर को हुकुम दे गए हैं कि चिट्ठी का आप लोग जो जवाब दें वह तुरन्त उनके पास जमानिया पहुंचाया जाय।’’

गिरिजाकुमार ने देखा कि अर्जुनसिंह ज्यों-ज्यों चिट्ठी पढ़ रहे हैं उनके चेहरे पर भी ताज्जुब की झलक पड़ती जा रही है यहाँ तक कि पूरी चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते उनके मुंह से आश्चर्य की आवाज निकल पड़ी और उन्होंने दलीपशाह की तरफ सवाल की निगाह से देखा। दलीपशाह ने मतलब-भरी निगाह उनकी तरफ उठाई और कहा, ‘‘इस चिट्ठी का जवाब तो खुद हमीं लोग हो सकते हैं!’’ अर्जुनसिंह बोले, ‘‘इसमें भी कोई शक है!’’

दलीपशाह ने रामा की तरफ देखकर कहा, ‘‘हम लोग अभी जमानिया जाना चाहते हैं, क्या तुम हमारे लिए सवारी का इन्तजाम कर सकते हो?’’

रामा : सरकार के हुक्म से एक रथ फाटक पर तैयार है और उन्होंने जुबानी कहलाया है कि अगर आप लोग आना चाहें तो उसी पर आ सकते हैं।

अर्जुन० : (दलीपशाह से) इसके माने तो यह कि खुद उन्हें भी यही उम्मीद थी कि यह खत पाते ही हम लोग उतावले हो जाएंगे और तुरन्त उस तरफ को रवाना हो जाना चाहेंगे !

दलीप : जरूर यही बात है, तो बस हम लोगों को तैयार हो जाना चाहिए।

अर्जुन : बेशक, और तैयार होने ही को क्या है? सिर्फ कपड़े पहनने की देर है! (रामा से) बस हम लोग तैयार ही हैं, तुमको और कोई इन्तजाम करना हो तो कर लो।

रामा : जी सरकार का हुक्म है कि मैं भी आप लोगों के साथ-ही-साथ आऊं अगर आप लोग आना चाहें, मगर कुछ सामान भी साथ लाने का हुक्म हुआ है जिसे ठीक करने में कुछ समय लगेगा।

दलीप० : तो तुम जल्दी करो, ज्यादा देरी हम लोग नहीं सह सकते।

रामा : मैं बहुत जल्दी करूँगा, जलपान का सामान उस कोठरी में रखा है। कहता हुआ रामा कमरे के बाहर चला गया और इसी समय गिरिजाकुमार ने कहा तो मुझे कितने दिनों तक यहाँ रहने का हुक्म होता है?’’

दलीप० : (ताज्जुब से) यहाँ रहने का हुक्म! क्यों, यहाँ रहकर तुम क्या करोगे?

गिरिजा० : आप लोगों ने मुझे उस गुप्त भेद में शामिल नहीं किया जो आपके चेहरे से प्रकट हो रहा है इससे मैंने समझा कि शायद मुझे यहीं रहने का हुक्म दिया जाय।

अर्जुन० : (बहुत जोर से हंसकर) यानी तुम्हें वह चिट्ठी पढ़ने को नहीं दी गई--यही तो!

दलीपशाह ने हंसकर कहा, ‘‘बड़ा बदमाश लड़का है!’’ यह कहते हुए उन्होंने वह चिट्ठी गिरिजाकुमार की तरफ फेंक दी जिसने लपककर उसे उठा लिया और उत्कंठा के साथ पढ़ने लगा। चिट्ठी का मजमून यह थाः--

‘‘प्रिय बन्धु,

कानों को विश्वास नहीं होता न मन को भरोसा, फिर भी हमारा प्रेम विश्वास दिलाता है कि ‘आंचल पर गुलामी की दास्तावेज’ के लिखने वाले प्रकट हो रहे हैं। इसी खबर को सुन दौड़ादौ़ड़ा जमानिया जा रहा हूँ।

तुम लोगों से बहुत मदद मिलने की उम्मीद थी पर मालूम नहीं तकलीफों ने तुम्हारा साथ कहाँ तक छोड़ा है।

तुम्हारा जल्दी में-

इन्द्र

गिरिजाकुमार एक नहीं बल्कि दो बार इस चिट्ठी को पढ़ गया जिसने दलीपशाह और अर्जुनसिंह को कदर ताज्जुब और खुशी में डुबा दिया था मगर उनकी समझ में कुछ भी न आया कि इस चिट्ठी का मतलब क्या है, आखिर उसने पूछा, ‘‘गुरुजी, मुझे तो इस चिट्ठी का मतलब कुछ समझ में नहीं आया!’’

दलीपशाह ने हंसकर जवाब दिया, ‘‘ और न हम लोग अभी तुम्हें कुछ समझाएंगे ही, इसलिए तो यह चिट्ठी तुम्हें दी नहीं गई थी जिसका तुम कोई दूसरा अर्थ लगाने लगे, अब जो कुछ होता है या होने वाला है उसे चुपचाप मुंह बन्द करके देखते चलो और तुरन्त कूच की तैयारी करो, अब एक सायत की भी देर मुझे अच्छी नहीं लग रही है।’’

गिरिजा० : बहुत खूब, बस आप सिर्फ इतना बतला दीजिए कि ‘आंचल पर गुलामी का दस्तावेज’ से क्या मतलब है, बस मैं और कुछ नहीं पूछूंगा।

दलीप० : (बिगड़कर) मैं कुछ भी न बताऊंगा और अगर तुम देर करोगे तो तुम्हें इसी जगह छोड़कर चला जाऊंगा। लाओ चिट्ठी इधर।

लाचार गिरिजाकुमार को अपनी इच्छा मन ही में दबानी पड़ी और अपनी जगह से उठना ही पड़ा। तीनों आदमी सफर की तैयारी करने लगे और इतनी फुर्ती-फुर्ती सब सामान ठीक कर लिया कि रामा अपने हाथ में एक बड़ी गठरी लिए वहाँ पर आया तो उसने इन लोगों को कपड़े-लत्ते से एकदम लैस पाया। उसने देखते ही कहा, ‘‘मालूम होता है आप लोगों ने चलने की जल्दी में जलपान भी नहीं किया!’’

दलीपशाह ने जवाब दिया, ‘‘नहीं, मगर साथ में कुछ सामान रख जरूर लिया है जो अगर जरूरत पड़ी तो रास्ते में काम आवेगा। तुम यह बताओ कि चलने का सब बन्दोबस्त हो गया या अभी कुछ कसर है?’’

रामा बोला, ‘‘जी सब तैयारी पूरी है, आप लोग आइए।’’

कुछ ऐसी सीढ़ियों और राहों से जो मकान के भीतरी हिस्से से कोई संबंध नहीं रखते थे रामा इन तीनों को मकान के बाहर ले आया जहाँ सदर दरवाजे पर एक हल्का रथ जिसमें बैलों की मजबूत जोड़ी जुती हुई थी इनकी राह देख रहा था। पास में दो रथ और भी तैयार खड़े थे जिन्हें देख दलीपशाह ने पूछा, ‘‘क्या ये रथ भी हमारे साथ ही चल रहे हैं?’’ जिसके जवाब में रामा ने कहा, ‘‘जी हाँ, कुछ भारी सामान जो सरकार ने मांगा था इन पर जा रहा है, मगर ये जमानिया न जाकर किसी दूसरी ही जगह जायेंगे।’’ दलीपशाह ने फिर कुछ न पूछा, तीनों आदमी रथ पर सवार हुए, रामा बहलवान के बगल में बैठ गया और सवारियां तेजी से रवाना हुईं।

इसमें कोई शक नहीं कि रथों के बैल बहुत ही मजबूत और तेज जाने वाले थे क्योंकि दोपहर होते-होते उन्होंने जमानिया का आधे से ज्यादा रास्ता तय कर लिया।दलीपशाह वगैरह की मर्जी तो रास्ते में भी कहीं रुकने की न थी मगर रामा के यह कहने पर कि ‘सरकार का हुक्म है कि बहुत लम्बा सफर न किया जाय और रास्ते में आराम करते हुए आया जाय’ लाचार होकर उन लोगों को एक बड़े तालाब के किनारे जहाँ किसी पुराने जमाने का एक मन्दिर और कुआं तथा छोटा-सा धर्मशाला के ढंग का एक मकान भी था, थोड़े समय के लिए रुकना ही पड़ा। कुछ देर के लिए ये लोग बिछावन पर जा बैठे जो रामा ने इनके लिए बिछा दिया था, बैलों के कंधों पर से जुआ हटा दिया गया और साथ के बहलवान तथा नौकर-चाकर वगैरह भी इधर-उधर हो गये। किसी काम से गिरिजाकुमार भी वहाँ से हट गया और तब एकदम निराला पाकर दिलीपशाह और अर्जुनसिंह में बातें होने लगीं।

अर्जुन० : क्यों भाई, क्या इन्द्रदेव की खबर सही हो सकती है? क्या सचमुच हम लोग अपने पुराने प्रेमियों को देख पाएंगे?

दलीप० : यकायक विश्वास नहीं होता मगर इन्द्रदेव की खबर झूठ भी नहीं हो सकती, इसी से उम्मीद होती है कि शायद असम्भव सम्भव होना चाहता है।

अर्जुन० : मगर क्या मरा हुआ आदमी भी जीता हो सकता है? जिनको हम लोग गया गुजरा और पंचतत्व में मिला हुआ समझे बैठे हैं और सो भी आज से नहीं इन कितने ही बरसों से वे भी क्या पुन: प्रकट हो सकते हैं?

दलीप० : दुनिया में सभी कुछ सम्भव है। क्या दयाराम और उनके माता-पिता के जीते रहने की कोई उम्मीद थी? उन लोगों को हम भी तो मिटा हुआ ही समझा करते थे! वे आखिर जीते-जागते प्रकट ही हो गये।

अर्जुन० : बेशक यह बात सही है, मगर यह तो कहिये कि उस चिट्ठी में जो इशारा दिया गया है उससे क्या एक से अधिक का भी मतलब हो सकता है? अभी तक कई दफे मेरा मन इस बात के पूछने का हुआ मगर रास्ते में इस कारण यह जिक्र न उठाया कि नौकर-चाकरों के कान तक न जाने पाए। कुछ गिरिजाकुमार का भी ख्याल था कि शायद आप उसके सामने इस मामले को छेड़ना पसन्द न करते हों।

दलीप० : गिरिजाकुमार से तो खैर उतना बचाव करने की जरूरत नहीं यद्यपि अभी मैं उसे इस भेद में शामिल करना नहीं चाहता क्योंकि हजार होशियार हो फिर भी वह आखिर लड़का ही है, न-जाने कब कैसी भूल कर बैठे, मगर नौकर-चाकरों का ख्याल जरूर था और इसी से मैंने भी अभी तक इस बारे में कोई जिक्र नहीं उठाया पर यह ख्याल बराबर मेरे मन में भी दौड़ रहा है। (कमर से इन्द्रदेव वाली चिट्ठी निकालकर) यह देखो इस पत्र में वह लिखते हैं- ‘आंचल पर गुलामी की दस्तावेज के लिखने वाले प्रकट हो रहे हैं।’ बस इतने से ही जो कुछ भी मतलब हम लोग चाहे निकाल सकते हैं।

अर्जुन० : जरूर इन्द्रदेव जी ने जान-बूझकर इस मामले को अस्पष्ट छोड़ दिया और केवल इशारा मात्र कर दिया है जिसके दो कारण हो सकते हैं, या तो दूसरे के सामने कुछ भेद प्रकट न हो जाय इस ख्याल से ऐसा किया हो और या शायद उन्हें भी अभी ठीक पता न लगा हो कि कौन-कौन-से लोग प्रकट हुए या होने वाले हैं।

दलीप० : दोनों ही बातें हो सकती हैं, कुछ ठीक-ठीक निश्चय करना तो कठिन है जब तक कि उनसे भेंट न हो जाए, या फिर भी मेरा दिल कहता है कि इससे सम्बन्ध रखनेवाले भी लोगों से उनका मतलब है।

अर्जुन० : (धीरे से) यानी कामेश्वर और अहिल्या दोनों?

दलीप० : केवल वे ही दोनों नहीं, बल्कि तीसरी भुवनमोहिनी भी!

अर्जुन० : (चौंककर) भुवनमोहिनी भी! क्या वह भी अभी तक जीती रह सकती है! भगवान, क्या यह सम्भव है!!

दलीप० : मेरा दिल तो यही कहता है और इसका एक खास सबब और भी है जो भूतनाथ से संबंध रखता है।

अर्जुन० : वह क्या?

दलीप० : बहुत दिन की बात है जब भूतनाथ एक दफे इन्द्रदेवजी के पास आया जो उससे किसी बात पर बहुत ही ज्यादा नाराज हो गये थे। इनकी लानत-मलामत के जवाब में जिसमें उस घटना की तरफ भी इशारा था जिसका जिक्र यह जुमला कर रहा है या जिसने हमारे-तुम्हारे दिलों पर एक न मिटने वाली लकीर खींच दी है, भूतनाथ के मुंह से कुछ ऐसी बातें निकलीं जिनका अर्थ यह निकलता था कि वह इस मामले में उतना दोषी नहीं जितना हम लोग उसे समझते हैं।

अर्जुन० : (चौंककर) इसका क्या मतलब है? क्या उसने अहिल्या को नहीं मारा या क्या कामेश्वर और भुवनमोहिनी के सत्यानाश का कारण वह नहीं हुआ?

दलीप० : अहिल्या के बारे में तो कुछ बोला नहीं मगर कामेश्वर और भुवनमोहिनी के बारे में जो कुछ उसने कहा उसका मतलब यह था कि वे मरे नहीं बल्कि किसी तरह की घटना ऐसी हो गई जिससे अछूते ही बच गए।

अर्जुन० : भला यह भी कभी सम्भव है? हम लोग जिस बात को अच्छी तरह जानते हैं उसके बारे में क्या कभी इतना बड़ा धोखा हो सकता है? हमें अच्छी तरह मालूम है कि भुवनमोहिनी को बड़ी महारानी की आज्ञा से भूतनाथ ने जहर दे दिया और कामेश्वर को भी उसी ने गिरफ्तार करके यमलोक पहुंचाया अगर इस बारे में वह कुछ कहता था तो बिल्कुल झूठ बोलता था और इन्द्रदेवजी को धोखा देने की कोशिश करता रहा होगा!

दलीप० : मगर उसकी बातें सुन कम-से-कम इन्द्रदेवजी का ख्याल तो बदल गया।

अर्जुन० : अर्थात् वे समझने लगे कि भूतनाथ ने इन दोनों की जान नहीं ली!

दलीप० : भूतनाथ ने जो कुछ उनसे कहा उसका मतलब कुछ-कुछ इस तरह था कि उसने भुवनमोहिनी को जहर तो जरूर दिया मगर वह जहर जान से मार डालने वाला नहीं था बल्कि गहरी बेहोशी से मौत की-सी हालत पैदा करने वाला था। तुम जानते ही हो कि उस वक्त यह मशहूर हुआ था कि भुवनमोहिनी को सांप ने काट लिया है।

अर्जुन० : हाँ मशहूर यही हुआ था मगर वास्तव में उसे जहर दिया गया था और जहर को देने वाला यह भूतनाथ ही था, यह बात मैं अपनी तरफ से बहुत अच्छी तरह जानता हूँ!

दलीप० : बहुत ठीक है मगर भूतनाथ उस मौके पर जो कुछ बोला उसका मतलब यह था कि उसने भुवनमोहिनी को जान से नहीं मारा। उसके लिए जहर से वह मौत की-सी हालत में पहुंच गई बल्कि मुर्दा समझ के जंगल में गाड़ दी गई, क्योंकि सांप के काटने से मरे हुए लोगों को अक्सर जलाते नहीं है, जहाँ से भूतनाथ ने पुन: उसे निकाल लिया और तब जिन्दा ही शिवदत्त के हवाले कर दिया।

अर्जुन० : क्या भूतनाथ ने ऐसा कहा?

दलीप० : हाँ, साफ शब्दों में तो नहीं, मगर उसके मुंह से जो कुछ निकला उसका यही तात्पर्य इन्द्रदेवजी ने निकाला और तभी से अपनी तरफ से इस बात की जांच शुरू कर दी।

अर्जुन० : उस जांच से क्या कुछ पता लगा?

दलीप० : हाँ, वही बात मालूम हुई जो मैंने कही, अर्थात् भुवनमोहिनी मरी नहीं बल्कि शिवदत्त के सुपुर्द कर दी गई और कामेश्वर भी मरा नहीं बल्कि दारोगा के हवाले कर दिया गया। यद्यपि इन बातों से भूतनाथ की कोई बेकसूरी साबित नहीं होती बल्कि उसकी लालच और दगाबाजी ही जाहिर होती है फिर भी यह पता लगता है कि कम-से-कम भूतनाथ के हाथों उनकी जान नहीं गई।

अर्जुन० : अफसोस कि तुमने इस बारे में मुझसे कुछ नहीं कहा!

दलीप० : मैं तुम्हारे मन में किसी तरह की झूठी आशा पैदा करते डरता था और दूसरे इन्द्रदेव जी ने भी मना कर दिया था। उनका कहना यह था कि भले ही भूतनाथ के हाथों ये दोनों मारे न गए हों मगर इसी बात का क्या विश्वास कि शिवदत्त और दारोगा ने उनको जीता छोड़ा होगा! आखिर उनका मरना तो मशहूर है ही, अब चाहे भूतनाथ ने उन्हें मारा हो या शिवदत्त और दारोगा ने।

अर्जुन० : ठीक है मगर यदि तुम मुझसे इस बात की खबर कर देते तो मैं कम-से-कम कुछ छानबीन तो करता।

दलीप० : इन्द्रदेवजी से बढ़कर इस मामले में तुम या हम कुछ नहीं कर सकते और वे उस दिन भूतनाथ की जुबानी इतना सुन के ही दिलोजान से इस भेद का पता लगाने में लग गए थे जिसका सबूत आज की उनकी चिट्ठी है।

अर्जुन० : खैर अब उनसे भेंट होने पर ही पूरी-पूरी खबर लगेगी। मगर हाँ यह तो बताओ कि अगर कामेश्वर और भुवनमोहिनी के जीते रहने में कोई सन्देह हो भी जाए तो अहिल्या के बारे में क्या शक रह सकता है? उसे तो जरूर ही भूतनाथ ने मारा और अपने हाथों से मारा!

दलीप० : नहीं, उस बारे में भी कुछ भेद है, भूतनाथ ने....

कहते-कहते दलीपशाह रुक गए क्योंकि उनकी निगाह गिरिजाकुमार पर पड़ी जो बेतहाशा दौड़ता हुआ उनकी तरफ आ रहा था। बात-की-बात में वह पास आ पहुंचा और हाँफता-हाँफता बोला, ‘‘गुरुजी, गुरुजी! मैंने अभी-अभी भूतनाथ को इधर से भागते हुए देखा है! एकदम बदहवास की तरह भागा जा रहा था और कुछ जख्मी भी मालूम होता था क्योंकि उसके बदन पर जगह-जगह पट्टियां चढ़ी हुई थीं!’’

दलीपशाह उनकी बात सुन चौंककर उठ खड़े हुए और बोले, ‘‘हैं, भूतनाथ को भागते देखा है!! नहीं, नहीं! वह तो लोहगढ़ी के अन्दर अपनी जान दे चुका है, मगर तुम्हें धोखा हुआ!’’

गिरिजाकुमार अपनी बात पर जोर देकर बोला, ‘‘नहीं, मुझे कोई धोखा नहीं हुआ, वह जरूर भूतनाथ ही था। सिर्फ यही नहीं, बल्कि मेरी समझ में उसका पीछा करने की भी जरूरत है क्योंकि उसके हाथ में एक लम्बा-सा पुलिंदा और बगल में एक पीतल की सन्दूकड़ी है जिसे वह बड़ी हिफाजत से दबाए बेतहाशा भागा जा रहा है। जरूर कोई मतलब की चीज उसके हाथ लगी है या फिर वह कुछ करके भागा है। आप मुझे इजाजत दीजिए तो मैं उसके पीछे जाऊं।’’

दलीप० : तुम क्या दौड़ने से उसका मुकाबला कर सकोगे?

गिरिजा० : क्यों नहीं, फिर एक तो वह जख्मी है दूसरे दूर से दौड़ते आने के कारण थक गया है और तीसरे आप लोगों की सवारियों को इधर-उधर खड़ा देख चक्कर खाकर घूमता हुआ उधर से गया है, अगर मैं सीधा इस महुए के जंगल में से होता हुआ निकल जाऊं तो जरूर उसे पा लूंगा। वह बहुत दूर किसी तरह नहीं जा सकता।

दलीप० : मगर मैं अकेले तुम्हें उसका पीछा करने जाने देते डरता हूँ। तुम ताकत या चालाकी में उसका किसी तरह मुकाबला नहीं कर सकते, चाहे वह जख्मी ही क्यों न हो, मगर साथ ही मैं इसका भी पता जरूर लगाना चाहता हूँ कि वह जीता कैसे बच गया और इस वक्त कहाँ जा रहा है।

अर्जुन० : (खड़े होकर) तुम यहाँ रहो कोई फिक्र न करो, मैं गिरिजाकुमार के साथ जाता हूँ और सब बातों का पता लगाकर अभी लौटता हूँ।

दलीपशाह बोले, ‘‘तो क्यों न मैं भी तुम दोनों के साथ चलूं।’’ मगर अर्जुनसिंह के इस कहने पर कि ‘ज्यादा आदमी पीछा करेंगे तो उसे जरूर आहट लग जाएगी और वह चौकन्ना हो जाएगा’ वे लाचार रुक गए। अर्जुनसिंह और गिरिजाकुमार घूम पड़े और लपकते हुए बात-की-बात में दलीपशाह की आँखों की ओट हो गए। दलीपशाह कुछ देर तक इन्हीं दोनों की तरफ देखते रहे, इसके बाद पुन: अपनी जगह पर बैठ गए और कुछ सोचने लगे।

बहुत काफी देर तक दिलीपशाह उसी तरह बैठे रहे यहाँ तक कि सब तरह के कामों में निपटकर रामा उनके पास आ पहुंचा और बोला, ‘‘बैलों ने आराम कर लिया है और नौकरों ने भी खाना-पीना खत्म कर लिया अब अगर हुक्म हो तो सफर शुरू कर दिया जाए।’’ दलीपशाह उसकी बात सुन चिन्ता के साथ बोले, ‘‘मैं तो चलने को बिल्कुल तैयार हूँ मगर मेरे साथी किसी काम से चले गए हैं जिनकी राह देखना जरूरी है।’’

इसी समय पीछे से आवाज आई, ‘‘हम लोग भी आ पहुंचे!’’ जिसे सुन उन्होंने चौंककर पीछे देखा और अर्जुनसिंह को गिरिजाकुमार के साथ आते देख खुश होकर बोले, ‘‘अब आप लोग आए तो सही, मैं तो देर होते देख तरह-तरह की बातें सोचने लगा था!’’

अर्जुनसिंह ने कहा, ‘‘किसी फिक्र की जरूरत न थी’’ और तब रामा की तरफ देखकर बोले, ‘‘तुम बैल जुतवाओ, हम लोग सब तरह से तैयार हैं।’’

रामा ‘जो हुक्म’ कहकर चला गया और दलीपशाह बोले, ‘‘कहिए गिरिजाकुमार का कहना कहाँ तक ठीक था और उस पुलिन्दे तथा गठरी में क्या है जो आप लिए हैं।’’

अर्जुन० : गिरिजाकुमार ने भूतनाथ को वास्तव में ठीक-ठीक ही नहीं पहचाना बल्कि बहुत मौके पर देखा और यह सब सामान भी उसी के पास से मुझे मिला है जिसे आप देखेंगे तो ताज्जुब करेंगे!

अर्जुनसिंह ने हाथ की गठरी जमीन पर रखकर खोली। उसके अन्दर एक पीतल की सन्दूकड़ी, एक मुट्ठा लपेटे हुए कागजों का तथा कुछ और भी सामान था जिन पर दलीपशाह की निगाह गई, मगर सबसे ज्यादा जिसने उन्हें चौंकाया वह वही पीतल की सन्दूकड़ी थी। अर्जुनसिंह की तरफ देख उन्होंने कहा, ‘‘क्या यह सन्दूकड़ी वही है, या मेरी आँखें धोखा खा रही हैं?’’ जवाब में अर्जुनसिंह बोले, ‘‘नहीं, यह वह सन्दूकड़ी है और यह कागजों का मुट्ठा भी भेद से खाली नहीं है, मगर जिस चीज ने मुझे व्याकुल कर दिया वह तस्वीर यह है।’’

अर्जुनसिंह ने यह लपेटा हुए पुलिन्दा उठाकर दिलीपशाह के हाथ में दे दिया। यह वही तस्वीर थी जिसे भूतनाथ शेरसिंह के सामने से उठाकर भागा था और दलीपशाह उसे खोलकर देखते ही चौंक पड़े।

उस तस्वीर में एक भयानक दृश्य बना हुआ था। लाल रंग की एक बड़ी ही विकराल मूर्ति थी जिसके सामने एक आदमी काले नकाब से अपनी सूरत छिपाये और काले ही कपड़ों से अपना बदन ढांके खड़ा था। इस आदमी के दाहिने हाथ में खून से सनी नंगी तलवार थी और बाएं हाथ में किसी कमसिन खूबसूरत औरत का ताजा कटा हुआ सिर जिसमें से खून की बूंदे टपक रही थीं। उसके भाव से ऐसा जान पड़ता था मानों इन बूंदों को उस मूरत के मुंह में टपकाने की कोशिश कर रहा हो। पीछे के तरफ एक औरत की सिर कटी नंगी लाश पड़ी हुई थी। जिसकी गर्दन से निकला हुआ लहू चारों तरफ फैल रहा था।

एक निगाह से ज्यादा दिलीपशाह इस तस्वीर को देख न सके। पुलिन्दा उनके हाथ से छूटकर गिर पड़ा और वे आंखें बन्द कर लम्बी-लम्बी सांस लेने लगे बड़ी मुश्किल से कुछ देर के बाद उन्होंने अपने को सम्भाला और अर्जुनसिंह से बोले, ‘‘इतने दिनों तक यह तस्वीर कहाँ थी और आज एकाएक इसका प्रकट होना क्या कहता है!’’

इसके पहिले कि अर्जुनसिंह कुछ जवाब दें किसी ने पीछे से कहा- ‘‘यही कि भूतनाथ की मौत आ गई!!’’

चौंककर सब लोग पीछे की तरफ घूमे और देखा कि इन्द्रदेव हैं जो इन लोगों की हालत देखकर मुस्करा रहे थे। उनको देखते ही दलीपशाह के मुंह से एक चीख निकल पड़ी और वे बेतहाशा उनके गले से चिमटकर बोले, ‘‘प्यारे भाई, यह सब क्या तमाशा है?’’

इन्द्रदेव ने सबको शान्त करते हुए कहा, ‘‘तमाशा नहीं, यह बिल्कुल, सही बात है मगर ताज्तुब की जरूर है। क्या तुम उस तस्वीर को पहचानते हो?’’

इसके पहले कि दलीपशाह कुछ कहें अर्जुनसिंह बोल उठे, ‘‘यह बात तो मुझसे पूछिए जो इसका बनाने वाला है! मैंने इसको बहुत अच्छी तरह पहचान लिया और सिर्फ इतना जानना चाहता हूँ कि यह तस्वीर इतने दिनों तक कहा रहीं और अब कैसे प्रकट हो गई?’’

इन्द्रदेव ने यह सुनकर कहा, ‘‘इस तस्वीर के प्रकट होने का हाल सुनकर ही मुझे पहले-पहल यह विश्वास हुआ कि हमारे वे प्रेमी अभी तक जीते हैं जिन्हें हम मुर्दा समझ रहे थे। अगर वे मर गए होते तो यह तस्वीर भी नष्ट हो गई होती!’’

अर्जुनसिंह ने कहा, ‘‘इसमें क्या शक है, मगर अब आप देरी न कीजिए और यह बताइए कि आपने किन-किन बातों का पता लगाया और हमारे कौन-कौन-से प्रेमी पुन: हमारे सामने आना चाहते हैं?’’

इन्द्रदेव ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘यही बात बताने और इस मामले में आप लोगों की मदद लेने के लिए ही तो मैंने आप लोगों को बुलाया था मगर इस तरह खड़े-खड़े बात करने से काम न चलेगा। आइए, बैठ जाइए तब गौर से मेरी बात सुनिए।’’

इन्द्रदेव उसी जगह बिछावन पर बैठ गए और ताज्जुब, उत्कण्ठा और खुशी में डूबते-उतराते हुए दलीपशाह और अर्जुनसिंह उनके सामने जा बैठे। गिरिजाकुमार भी कुछ हटकर एक तरफ बैठ गया और ताज्जुब करता हुआ राह देखने लगा कि देखें कौन-सा आश्चर्यजनक भेद उसे सुनाई पड़ता है।

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