लोगों की राय

भूतनाथ - खण्ड 7

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: author_hindi

Filename: views/read_books.php

Line Number: 21

निःशुल्क ई-पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 7

भूतनाथ - खण्ड 7 पुस्तक का ई-संस्करण

सातवाँ बयान


रामशिला पहाड़ी के पूरब की तरफ फलगू नदी के बीचोबीच के जिस भयानक टीले का हाल चन्द्रकांता सन्तति में लिखा जा चुका है उसी तरफ अब हम पाठकों को ले चलते हैं क्योंकि किस्से का सिलसिला हमें उधर ही चलने को मजबूर कर रहा है।

यह स्थान कितना भयानक है इसका हाल हमारे वे पाठक अच्छी तरह जानते हैं जो हमारे साथ पहले कभी इस जगह ही आये हैं, यहाँ, उस कुटिया और समाधि के चारों तरफ जिसमें पहले तो कोई सिद्ध महापुरुष रहा करते थे पर आजकल तो भूतनाथ उन्हीं के रूप में बना हुआ बिराज रहा है, न-जाने किस जमाने की अनगिनत हड्डियाँ पड़ी हुई हैं। चाहे जिधर से आप जाना चाहें छोटी-बड़ी, टूटी और साबुत हजारों ही खोपड़ियां, हाथों और पैरों की नलियां, पिंजर और धड़ चारों तरफ फैले आपको इस बहुतायत से मिलेंगे कि उन पर पैर रखे बिना कुटिया तक किसी तरह पहुँच ही न सकेंगे। मगर खैर जैसे भी हो इस वक्त तो आप किसी तरह हमारे साथ-साथ चले ही आइए और उस कुटिया तक पहुंचिए जो वह देखिए अब ज्यादा दूर नहीं रह गई है।

मोटे-मोटे पत्थरों के ढोंकों से बनी दीवारों और लदाब की छत वाली यह कुटी जिसमें आजकल साधु-महात्मा बने हुए भूतनाथ का डेरा पड़ा हुआ है इस समय एकदम सन्नाटा है। नाममात्र के लिए भी किसी चिराग की रोशनी उसके अन्दर नहीं हो रही है जो यह बतावे कि इसके अन्दर कोई इस वक्त है या नहीं, मगर उन दो आदमियों को इस विषय में कुछ भी सन्देह नहीं है जो बेधड़क हड्डियों पर पैर रखते इसी तरफ बढ़े आ रहे हैं और जिनमें से एक ने आगे बढ़कर मजबूत दरवाजे पर हल्की थपकी मारी है।

थपकी की आवाज के साथ भीतर से किसी ने पूछा, ‘‘कौन?’’ वह आदमी बोला, ‘‘रमेश!’’ जिसके साथ ही भीतर से आवाज आयी, ‘‘अच्छा ठहरो!’’ और तब चिराग के बाले जाने की आहट और रोशनी मिली, किसी ने आकर दरवाजा खोला और इन दोनों के भीतर चले जाने पर फिर बन्द कर लिया, इन दोनों के अन्दर होते ही भीतर से किसी की आवाज आई, ‘‘नारायण, कौन है!’’ कोठरी की सामने वाली दीवार में एक छोटा दरवाजा दिखाई पड़ रहा था जो भिड़काया हुआ था, आवाज इसी के अन्दर से आई थी जिसे सुनते ही जवाब में वह आदमी जिसने अभी दरवाजा खोला था बोल उठा, ‘‘गुरुजी, रामेश्वर और रामगोविन्द हैं,’’ कुछ ठहरकर भीतर से आवाज आई, ‘‘अच्छा, भेज दो, मगर पहले आकर रोशनी कर जाओ।’’

दोनों आने वाले उस दरवाजे की तरफ बढ़े दरवाजा बहुत ही छोटा और तंग था। ऊँचाई मुश्किल से दो-ढाई हाथ और चौड़ाई में हाथ-भर होगी और उसके भीतर जाने पर जो कोठरी मिलती थी वह भी छोटी और नीची थी, सीधा तो कोई उसमें मुश्किल से हो सकता था और लम्बी-चौंड़ी इतनी कि मुश्किल से दस-बारह आदमी उसमें अंट सकते थे।

उसी कोठरी या गुफा में साधु बने हुए भूतनाथ का आसन था। हाथ-भर ऊंचे पत्थरों के बड़े चबूतरे पर, जिसके सामने धूनी लगी हुई थी, बाघचर्म बिछाये पद्मासन बांधे एक वृद्ध महापुरुष बैठे हुए थे जिन्हें एकाएक देखकर कोई भी न कह सकता था कि यह कोई ऐयार होगा, मगर हमें उस सफेद नामी तक की दाढ़ी और सन जैसे बालों से धोखा नहीं हो सकता और हम खूब जानते हैं कि यह भूतनाथ ही है जिसने सर्वसाधारण को धोखा देकर अपने को मरा हुआ मशहूर कर रखा है और खुद इस साधु के बाने में छिपा बैठा है।मगर साधु के भेष में रहते हुए भी उसका चंचल मन उसके काबू में नहीं आया है और वह अपने शागिर्दों और जासूसों को चारों तरफ दौड़ाता हुआ बराबर दुनिया की खबरें लेता रहा है।

इन दोनों आने वालों ने भूतनाथ के चरण छुए और उसने आशीर्वाद देकर उन्हें उन आसनों पर बैठ जाने का इशारा किया जो उसके चेले नारायण ने धूनी के बगल में बिछा दिये थे। भूतनाथ ने उन दोनों का कुशल-मंगल पूछा तब कहा। ‘‘अच्छा, अब कहो क्या समाचार है? तुम लोग इस वक्त किधर से आ रहे हो?’’

रामेश्वर समाचार सब अच्छा ही है। मैं तो मिर्जापुर से आ रहा हूँ और (साथी की तरफ बताकर) यह जमानिया से-रास्ते ही में हम दोनों की भेंट हुई!

भूत० : मिर्जापुर में सब शान्ति है? रणधीरसिंहजी कुशल से है?

रामे० : जी हाँ, कुशल से ही है, आजकल कहीं दूसरी जगह गये हुए हैं।

कमला की मां भी आजकल उनके यहाँ नहीं है, अपनी बहिन के यहाँ है, जो उन्हें देखने आई थीं और जबरदस्ती उन्हें अपने घर ले गई है।

भूत० : बहिन कौन? क्या दलीपशाह की स्त्री।

रामे० : जी हाँ!

भूत० : तुम उनसे मिले नहीं?

रामे० : जी हाँ, मैं मिलता हुआ ही आ रहा हूँ, उनकी हालत बहुत खराब हो रही है, सच तो यह है कि मुझे उन पर बड़ी दया आती है। आपके मरने की खबर जब से उन्होंने सुनी है खाना-पीना सब छोड़ दिया है और दिन-रात रोती रहती है। मैं तो उन्हें सच-सच कह दिये होता मगर आपके डर से चुप रह गया, मैं समझता हूँ कि अगर यही हालत रही तो उनका बचना मुश्किल हो जायेगा। कम-से-कम उन्हें तो आपको कहला ही भेजना चाहिए कि आप मरे नहीं जीते हैं।

भूत० : नहीं-नहीं, अभी मौका नहीं आया है। मगर तुम बराबर उस पर ध्यान रखना और उसके हालचाल की खबर मुझे देते रहना। अच्छा नानक का क्या हाल है? उसकी मां की कुछ खबर लगी?

रामे० : जी, कुछ नहीं, नानक वहीं घर पर रहते हैं और अच्छे ही हैं।

भूत० : जमानिया की क्या खबर है? दारोगा साहब का क्या रंग-ढंग है?

रामे० : (अपने साथी की तरफ देखकर) इनकी जुबानी सुना कि राजा गोपालसिंह की शादी कल ही परसों में होने वाली है। दारोगा साहब ने राजा गोपालसिंह पर भी वही रंग जमा लिया है जैसा उनका बड़े महाराज पर था। सुनते हैं राजा साहब आजकल उनसे योग की शिक्षा ले रहे हैं।

भूत० : (हंसकर) वाह-वाह, खुब गुरु चुना! मालूम होता है कि गोपालसिंह भी पूरा बेवकूफ ही है जो दारोगा का हाल जानकर भी उस पर भरोसा करता और उसे अपना पूज्य समझता है!

रामे० : मुमकिन है उन्हें उसके असल हाल-चाल की खबर ही न हो।

भूत० : ऐसा हो नहीं सकता। भैया राजा और दारोगा की नोंक-झोंक का हाल उन्हें अच्छी तरह मालूम है और खुद इन्द्रदेव उन्हें सब बातों से होशियार कर चुके हैं। खैर, (गोविन्द से) क्यों जी रामगोविन्द, जैपाल का कुछ पता लगा?

रामे० : जी हाँ, वह काशी में उसी बेगम के यहाँ है, कुछ पता नहीं लगा कि लामा घाटी से कैसे निकल भागा, इतने दिन कहाँ छिपा रहा या अब कैसे प्रकट हो गया।

भूत० : असल में उसे लामा घाटी भेजना ही गलती हुई। (कुछ देर तक चुपचाप कुछ सोचने के बाद) उसके बारे में मुझे कुछ दूसरा ही शक है।

रामे० : सो क्या?

भूत० : यही कि नानक की मां के गायब होने में भी कुछ उसी कम्बख्त का हाथ है। खैर, देखा जायेगा, यह कहो कि राजा गोपालसिंह की शादी के सम्बन्ध में क्या हो रहा है?

राम०: परसों शादी है, धूमधाम कुछ विशेष नहीं है, मगर दारोगा साहब के ही हाथ में कुल इन्तजाम है और वे बड़े टीमटाम से काम कर रहे हैं।

रामे० : मगर मैंने सुना है कि ब्याह राजा साहब के खास बाग में ही होगा। बलभद्रसिंह लक्ष्मीदेवी को लेकर वहीं जायेंगे और वहीं कन्यादान करेंगे, न-जाने यह राय क्यों की गई।

भूत० : शायद दुश्मनों के ख्याल से ऐसा किया गया होगा। मगर इसकी जरूरत न थी। अब जब मुन्दर ही न रही तो फिर डर क्या क्योंकि उसकी सूरत लक्ष्मीदेवी से मिलती-जुलती थी और वही एक ऐसी चतुर औरत थी जिसको दारोगा साहब लक्ष्मीदेवी की जगह पर बैठा सकते थे। मगर फिर भी तुम लोगों को होशियार रहना चाहिए क्योंकि दारोगा कम्बख्त बड़ा कांइया है, न-जाने वह क्या कर बैठे। मुन्दर की जगह मुमकिन है कोई दूसरी औरत उसने ठीक कर रखी हो।

रामे० : मैं सोचता था कि इस ब्याह के मौके पर आप खुद अगर जमानिया में मौजूद रहते तो अच्छा था।

भूत० : नहीं-नहीं, रामेश्वरचन्द्र। इसकी कोई जरूरत नहीं, तुम और रामगोविन्द पूरे होशियार हो और अपने सब भेद भी मैंने तुम लोगों से पूरे-पूरे कह दिए हैं जिससे तुम लोगों से कोई बात छिपी रह नहीं गई है तुम लोग अपने साथियों समेत वहाँ मौजूद रहना और दारोगा तथा जैपाल की कार्रवाई पर निगाह रखना। मैं अब इस भेष को छोड़ना नहीं चाहता, कम-से-कम तब तक जब तक कि कामेश्वर और भुवनमोहिनी वाला कलंक मेरे सिर से दूर नहीं हो जाता। हाँ, यह कहो उस मामले में तुम लोगों ने कुछ पता लगाया?

रामे० : जहाँ तक मालूम हो सका आपसे कह चुका हूँ, उसके बाद कोई नई बात मालूम नहीं हुई। हाँ, दलीपशाह को कई बार कुएं तक जाते हम लोगों ने जरूर देखा है जिसके अन्दर वह ताली....

भूत० : बेशक वह वहाँ जाता-आता होगा क्योंकि अगर मेरा शक सही है और कामेश्वर जीता है तो उसने जरूर दलीपशाह को अपनी तरफ मिलाया होगा, (लम्बी सांस लेकर) अब सिवाय इसके और क्या कहूँ कि तुम लोग पता लगाने की कोशिश करते रहो। अगर चाहते हो कि तुम्हारा गुरु किसी दिन आजादी की दुनिया में घूमने लायक बने तो ये दो काम तुम्हें करने ही होंगे। एक तो कामेश्वर को पुनः कब्जे में करना, दूसरे शिवगढ़ी की ताली का पता लगाना। (कुछ रुककर) अच्छा। इसका पता लगा कि मुझे कुएं में ढकेलकर मेरा बटुआ ले लेने वाला कौन था?

रामे० : नहीं, इसका भी कुछ पता न लगा।

भूत० : गोपालसिंह और मुन्दर के मामले वाली दारोगा जैपाल और हेलासिंह की चिट्ठियों की नकल मेरे उसी बटुए में थी जिसकी मुझे सबसे ज्यादा फिक्र है, क्योंकि अगर मेरे किसी दुश्मन के हाथ में वह चीज लग गई तो वह मुझे पूरी तरह से चौपट कर देगा। मगर इस बारे में मुझे ख्याल और होता है।

रामे० : वह क्या?

भूत० : इधर बढ़ आओ और गौर से सुनो कि मैं क्या चाहता हूँ। गोविन्द, तुम भी आगे आ जाओ क्योंकि यह बड़ी गुप्त और साथ ही बड़े मार्के की बात है।

रामेश्वर और रामगोविन्द आगे बढ़ आये और भूतनाथ देर तक उनसे न-जाने क्या-क्या कहता रहा, मगर इसमें कोई शक नहीं कि बात आश्चर्य की जरूर थी क्योंकि उसके दोनों शागिर्दों के चेहरे इस बात को प्रकट कर रहे थे कि वे कोई विचित्र बात सुन रहे हैं।

बहुत देर बाद भूतनाथ की बातें खत्म हुईं और तब रामेश्वर और गोविन्द उठ खड़े हुए। चलते-चलते भूतनाथ के एक सवाल के जवाब में रामेश्वरचन्द्र ने कहा, ‘‘मैं जरूर ख्याल रखूँगा!’’ और तब भूतनाथ के चरण छू-छूकर दोनों आदमी उस गुफा के बाहर निकल गये।

भूतनाथ कुछ देर तक अपने स्थान पर बैठा न-जाने क्या सोचता रहा, इसके बाद एक लम्बी सांस के साथ उसने आवाज दी-‘‘नारायण!’’ ‘‘जी हाँ, गुरुजी’’ कहता हुआ उसका वही चेला भीतर आया जिसने रामेश्वर और रामगोविन्द को कुटिया के अन्दर किया था और जो खुद भी अपने जटाजूट भस्म और गेरुए कपड़ों से एक पहुंचा हुआ साधु ही जान पड़ता था। भूतनाथ ने इससे कहा, ‘‘नारायण, मैं अब सोऊँगा, बहुत थक गया हूँ, रात भी बहुत चली गई है, अब और कोई अगर आवे तो रात को मेरे पास न लाना, कल सुबह मुलाकात करूँगा!’’नारायण हाथ जोड़कर बोला। ‘‘बहुत अच्छा, गुरुजी! आप बेफिक्र हो आराम करें। मैं किसी को आने न दूँगा!’’ तब उसने उसी चबूतरे पर भूतनाथ का बिस्तरा ठीक कर दिया सिरहाने की तरफ पानी इत्यादि रखा और दीया बुझाता हुआ कोठरी के बाहर निकल गया जिसका भारी दरवाजा उसने बाहर से खींच लिया, भूतनाथ ने उठकर उस दरवाजे की सांकल भीतर से लगा ली और आकर बिछावन पर पड़ गया मगर ज्यादा देर तक लेटा न रहा, जैसे ही बाहर से आने वाली आहटों से उसने समझा कि नारायण भी अपने बिछावन पर गया वैसे ही वह अपनी जगह से उठ बैठा। पत्थर के जिस चबूतरे पर उसका बिस्तर या आसन था उसके सिरहाने की तरफ गया और झुककर कुछ करने लगा, एक हल्की आवाज हुई और पत्थर की एक सिल्ली हट गई। भीतर शायद सीढ़ियों का एक लम्बा सिलसिला था क्योंकि अंधेरे ही में अन्दाज से टटोलता हुआ भूतनाथ नीचे उतरने लगा। उसके जाते ही वह सिल्ली पुनः अपने ठिकाने पर इस तरह बैठ गई कि दिन की रोशनी में बहुत गौर के साथ देखकर भी कोई समझ न सकता था कि यहाँ पर कोई गुप्त रास्ता या सुरंग है।

कई खंड सीढ़ियां उतर जाने के बाद भूतनाथ रुका और उसने रोशनी की। यह एक छोटी कोठरी थी जिसमें तरह-तरह के सामानों से भरे कितने ही सन्दूक कायदे से रखे हुए थे। यहाँ भूतनाथ ने अपना साधु का बाना उतारकर रख दिया और एक सन्दूक से सामान निकालकर अपना भेष बदलना शुरू किया। कुछ ही देर में वह एक नौजवान और आशिक-मिजाज जमींदार की सूरत बनकर तैयार हो गया। एक बड़े शीशे में जो एक तरफ टंगा था उसने अपनी सूरत गौर से देखी और तब ‘बस ठीक है’ कहता हुआ उठ खड़ा हुआ। बाकी सामान कायदे से रखा, ऐयारी का बटुआ और खंजर कपड़े के अन्दर छिपाया। एक छोटे सन्दूक से कुछ निकाल कर कमर में खोंसा और कोठरी की पूरब की तरफ दीवार के पास पहुंचा। इस जगह पैर से कई ठोकरें देकर उसने एक रास्ता पैदा किया और उसके अन्दर घुस गया, उसके जाते ही वह राह ज्यों-की-त्यों हो गई।

यह रास्ता कोठरी और सुरंग भूतनाथ की बनाई हुई न थी बल्कि इस कुटिया में पहले ही से मौजूद थी मगर किसी को इसके होने का गुमान तक न था। भूतनाथ की तेज निगाह और कारीगरी ने ही उसका पता लगाया था और उसी ने यहाँ पर यह सब सामान इकट्ठा किया था। इसी रास्ते से वह बराबर बाहरी दुनिया में आता-जाता और खोज-खबर लेता रहता था। इस सुरंग का दूसरा हिस्सा फलगू नदी को नीचे-ही-नीचे तय करता हुआ एक भयानक जंगल के बीच ऐसी जगह निकला था जहाँ किसी को इसका पता न लग सकता था।

...Prev | Next...

To give your reviews on this book, Please Login