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भूतनाथ - खण्ड 3

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

सोलहवाँ बयान


दोपहर की टनटनाती धूप में भी भूतनाथ को चैन नहीं है। वह न-मालूम किस फिक्र में ऐसे समय में भी एक मामूली नकाब से अपना मुंह ढाँके उसी जंगल में इधर-उधर घूम रहा है जहां कभी छिप कर उसने छन्नों को देखा या उसके साथी दोनों सवारों को गिरफ्तार किया था।

इधर-उधर घूमते-फिरते भूतनाथ को बहुत देर हो गई और वह घबड़ा कर धीरे-से बोल उठा, ‘‘न-मालूम वह कहाँ रह गया! मैंने उसे इसी जगह आने के लिए कहा था, कहीं किसी झंझट में तो नहीं पड़ गया।’’

इतना कहने के साथ ही भूतनाथ के कान में सूखे पत्ते के चरमराहट की आवाज ने पड़ कर इस बात की सूचना दी कि कोई उसी तरफ आ रहा है। वह उत्कण्ठा और प्रसन्नता के साथ उधर देखने लगा और थोड़ी ही देर में उसे मालूम हो गया कि यह आनेवाला रामेश्वरचन्द्र है जिसकी राह वह इतनी देर से देख रहा था।

भूतनाथ पर निगाह पड़ते ही रामेश्वचन्द्र तेजी के साथ चल कर उसके पास आ गया और बोला, ‘‘क्षमा कीजिएगा, मेरे आने में कुछ देर हो गई।’’

भूत० : बेशक, और मैं घबड़ा रहा था कि कोई झमेला तो नहीं पैदा हो गया! खैर यह बतलाओ कि सब काम ठीक तरह से हो गया तो?

रामे० : जी हां, आपकी दया से कोई झमेला नहीं हुआ और सब काम निर्विघ्न हो गया। दूकान की चीजें लामाघाटी में पहुँचा दी गईं और उस मकान की ताली दामोदरसिंह के हवाले कर मैं सीधा चला आ रहा हूँ।

भूत० : दारोगा या उसके साथियों को किसी प्रकार का सन्देह तो नहीं हुआ?

रामे० : जहाँ तक मैं समझता हूँ उन्हें अभी इस बात की खबर भी नहीं होगी, हाँ थोड़ी देर बाद वे लोग सब हाल जान जाएँ तो ताज्जुब नहीं।

भूत० : खैर तब यदि दारोगा को मालूम भी हो जाएगा तो कोई हर्ज नहीं, वह मेरा कुछ नहीं कर सकेगा। अच्छा तो फिर चलो, जिस काम के लिए तुम्हें यहां बुलाया था अब उसको भी निपटा ही देना चाहिए।

रामे० : वह कौन काम है?

भूत० : चलो रास्ते में बताऊँगा। इतना कह रामेश्वरचन्द्र को साथ लिए भूतनाथ वहाँ से उठा और एक तरफ को रवाना हुआ।

कुछ देर तक चुपचाप चले जाने बाद भूतनाथ ने एक लम्बी साँस लेकर रामेश्वरचन्द्र की तरफ देखा और कहा, ‘‘अच्छा अब सुनो कि मैं क्या चाहता हूँ और तुम्हें मैंने किसलिए यहाँ बुलाया है। इधर जो कुछ बातें हो गई हैं उसकी तुम्हें पूरी खबर तो शायद न होगी!’’

रामे० : जी नहीं, कहाँ से? उस दिन भी जो आप मुझसे मिले तो इधर का कोई हाल मुझसे न कह पाए और सिर्फ...

भूत० : मैं उस समय जल्दी में था, तुमने मुझसे शिवदत्तगढ़ के विषय की जो बात सुनाई उसे सुनकर मेरा वहाँ जाना जरूरी हो गया और इसीलिए मैं इधर के हाल-चाल की पूरी खबर तुम्हें न दे पाया।

रामे० : तो क्या आप शिवदत्तगढ़ गए थे?

भूत० : हाँ गया था और वहाँ बहुत-सी नई-नई बातों का पता लगा जिसका हाल किसी दूसरे समय तुम्हें मालूम हो जाएगा।

रामे० :खैर कोई चिन्ता नहीं, मैं केवल यही जानना चाहता था कि जो कुछ मैंने आपसे कहा वह ठीक था या मुझे गलत खबर लगी थी।

भूत० : नहीं, तुम्हारी खबर बिल्कुल ठीक थी और तुम्हारे साथी ने कोई बात गलत नहीं कही थी।

रामे० : अच्छा आप क्या कह रहे थे सो कहिए।

भूत० : दयाराम वाले मामले की तो तुम्हें खबर हो ही चुकी है।

रामे० : हाँ अच्छी तरह से—आपने खुद ही तो वह सब हाल पूरा-पूरा मुझे सुनाया था और कहा था।

कि उनकी दोनों स्त्रियाँ जमना और सरस्वती अभी तक जीती हैं और अपने पति के खून का बदला लिया चाहती हैं, मगर वह सब तो बहुत पुराना किस्सा है।

भूत० : हाँ तो जमना और सरस्वती को पहले मैं अपना दुश्मन समझता था—पहिले क्यों अभी तक उन्हें अपना शत्रु ही समझता हूँ मगर लाचार हूँ कुछ कर नहीं पाता क्योंकि उनकी मदद पर बड़े-बड़े लोग उठे हुए हैं।

रामे० : हाँ प्रभाकरसिंह और भैयाराजा वगैरह सब उनका साथ दे रहे हैं।

भूत० : केवल वे ही नहीं बल्कि इन्द्रदेव भी उनकी मदद पर हैं।

रामे० : (आश्चर्य से) क्या सचमुच! इन्द्रदेव जमना और सरस्वती की मदद कर रहे हैं यह आपको कैसे मालूम हुआ?

भूत० : पहले तो मुझे इस बात का केवल शक था बल्कि एक दफे जब उनसे मिला तो बात चलने पर वे साफ इनकार कर गए थे और मुझ पर बिगड़ कर बोले थे कि तुम्हारे पास इस बात का क्या सबूत है कि मैं उन सभों की मदद कर रहा हूँ। उस समय मेरे पास इस बात का कोई सबूत था भी नहीं, इससे मैं चुप रह गया पर आज इस बात का पूरा पता लग गया और मालूम हो गया कि यदि इन्द्रदेव खुलासा तौर पर उन सभों की मदद नहीं करते तो कम-से-कम गुप्त रीति से उनकी सहायता जरूर करते रहते हैं।

रामे० : सो कैसे मालूम हुआ?

भूत० : सुनो मैं कहता हूँ। उस दिन जब मैं तुम्हारी दुकान ही में था उसी समय भैयाराजा के दोस्त नन्दराम जी वहाँ आ पहुँचे थे। उनको मैं अपने काम के लिए लेता गया था और उन्हें अपनी सूरत बना अजायबघर की ताली उनके हवाले कर स्वयं शिवदत्तगढ़ चला गया था।

रामे० : ठीक है, मुझे मालूम है, अच्छा तब?

भूत० : अजयाबघर में और किसी कैदी का पता तो न लगा मगर थोड़ी ही मेहनत में बहुरानी, प्रभाकरसिंह के पिता दिवाकरसिंह तथा उनकी स्त्री नन्दरानी मिल गईं जिनकी हम लोगों को जरूरत थी। इन तीनों कैदियों को लेकर हम लोग बाहर निकल ही रहे थे कि दारोगा ने बहुत-से सिपाहियों के साथ आकर वह जगह घेर ली। उस समय जमना और सरस्वती किसी कारण से, जिसकी मुझे खबर नहीं, वहाँ आई हुई थीं और एक पेड़ की आड़ में खड़ी थीं जिन पर दारोगा इत्यादि की निगाह पड़ गई और दारोगा ने उन दोनों को गिरफ्तार कर लिया।

रामे० : प्रभाकरसिंह इत्यादि को यह बात नहीं मालूम थी कि जमना-सरस्वती भी वहाँ मौजूद हैं?

भूत० : पहिले शायद उन्हें यह बात नहीं मालूम थी पर बाद में इसका उन्हें पता लगा और मेरी सूरत बने हुए नन्दराम तथा भैयाराजा को उन लोगों ने जमना तथा सरस्वती को छुड़ाने और दारोगा के आदमियों को धोखा देने के लिए भेजा। भैयाराजा और नन्दराम दारोगा के आदमियों को धोखा देकर अपने साथ लिए हुए वहाँ से दूर हटा ले गये और जब जमना और सरस्वती को छुड़ाने की फिक्र में लगे।

भैयाराजा दिन के समय खुले आम तो जमानिया में घूम-फिर नहीं सकते थे, इस कारण वे तो भरथसिंह के मकान पर चले गए और नन्दराम अकेले रह गये। भाग्य से उसी समय मैं उनके पास पहुंच गया अस्तु उन्हें बिदा कर खुद जमना और सरस्वती का पता लगाने लगा जो दारोगा के मकान में कैद थीं। यह मालूम हो जाने पर कि दारोगा ने उन सभों को अपने मकान में रक्खा है, मैं भैयाराजा के साथ रात के वक्त उसके मकान में घुसा। दारोगा उस समय वहाँ न था इससे हम लोगों को अपने काम में बहुत सुभीता हुआ और मैं भैयाराजा के साथ शीघ्र ही उस कोठरी में जा पहुँचा जहाँ वे दोनों बन्द थीं, मगर उसी समय न-जाने किस तरह से खबर पाकर दारोगा भी बिहारी-हरनाम तथा जैपाल के साथ वहाँ आ पहुँचा और एक तरह की गोली चलाकर उसने हम सभों को बेहोश कर दिया। मगर वह जैपाल असल में इन्द्रदेव थे जो जमना और सरस्वती को छुड़ाने की नीयत से उसके साथ वहाँ पहुँचे थे।

रामे० : तो उन्होंने आप लोगों को छुड़ाया?

भूत० : हाँ, दारोगा को वहाँ से बिदा कर उन्होंने हरनाम और बिहारी को बेहोश कर दिया और तब हम लोगों की बेहोशी दूर की। हरनामसिंह और बिहारी सिंह को भी जमना और सरस्वती के साथ ही लिए हम तीनों आदमी दारोगा के मकान से बाहर निकले और इन्द्रदेव के घर की तरफ चले।

रामे० : तो क्या आप इस समय इन्द्रदेव के मकान से आ रहे हैं?

भूत० : नहीं, रास्ते में ही मेरे एक शिष्य ने हेलासिंह और दारोगा के बारे में कुछ बहुत जरूरी खबरें सुनाईं जिससे मुझे उनका साथ छोड़ देना पड़ा।

रामे० : तो आपने इन्द्रदेव को भी इन बातों को खबर दे दी होगी?

भूत० : नही भाई, सच तो यह है कि अब मुझे इन्द्रदेव से कुछ डर-सा मालूम होने लगा है। जब से मुझे इस बात का विश्वास हुआ है कि वे जमना और सरस्वती की मदद कर रहे हैं और मैं उन सभों से दुश्मनी कर रहा हूँ तब से मुझे इन्द्रदेव के नाराज हो जाने का खौफ हो गया है। इन्द्रदेव के आगे मेरी कुछ भी हकीकत नहीं है और अगर वे मुझसे बिगड़ जायँ तो मैं किसी लायक न रहूँगा! अब तो मैंने यही सोचा है कि जमना इत्यादि की तरफ से बिल्कुल हाथ खींच लूँ और दयाराम के विषय में अपने को भाग्य तथा इन्द्रदेव के भरोसे पर छोड़ दूँ।

वे कई दफे मुझसे कह चुके हैं कि अगर मैं जमना और सरस्वती इत्यादि के साथ शत्रुता न करता तो यह भेद जितने आदमियों को मालूम हुआ है उनसे आधे भी इसको न जानते, और मुझे विश्वास होता है कि अब भी मैं यदि जमना और सरस्वती से अपना हाथ खींच लूँ और उनसे दुश्मनी करने का खयाल छोड़ दूँ तो वे भेद को छिपाने में अवश्य मेरी मदद करेंगे, अस्तु यही सोच-विचार कर मैंने अपने उसी शागिर्द के हाथ जिसने मुझे यह खबर दी थी हरनाम और बिहारी को इन्द्रदेव के मकान की तरफ भेज दिया और स्वयं उनसे कुछ बहाना करके अलग हो गया।

रामे० : ठीक है मगर मेरी समझ में यह न आया कि आपने अपनी ऐयारी वाली दूकान क्या सोचकर उठवा दी?

भूत० : दारोगा को यह बात मालूम हो चुकी है कि इस दूकान का कर्ताधर्ता मैं ही हूँ और मैंने ही उसका तथा उसके साथियों का भेद लेने के लिए यह दूकान खोली है, अस्तु इसमें भी शक नहीं कि वह इस दूकान को नष्ट करने की प्राणपण से चेष्टा करेगा और उस हालत में ताज्जुब नहीं कि उसके सबब से मुझे या मेरे शागिर्दों को तकलीफ उठानी पड़े, इसी से मैंने पहिले ही से दूकान को उठा लेना उत्तम समझा यद्यपि उस दूकान की बदौलत तरह-तरह की बातों का पता लगा करता था और भविष्य में लगने की आशा भी थी तथापि दारोगा की दुश्मनी तथा अपने शागिर्दों के खयाल से मैंने तुम्हें वह दूकान उठा देने के लिए...

भूतनाथ ने अपनी बात समाप्त नहीं की थी कि यकायक पीछे की तरफ से घोड़े के टापों की आवाज आई जिसे सुन वह ठिठक गया। गौर के साथ कान लगा कर सुनने से उसे मालूम हो गया कि ये आने वाले उसी की तरफ आ रहे हैं अस्तु उसने धीमे स्वर में रामेश्वरचन्द्र से कहा, ‘‘कहीं पेड़ की आड़ में छिपकर देखना चाहिए कि ये सवार कौन हैं!’’ जिसके जवाब में उसने ‘बहुत अच्छा’ कहा और तब दोनों आदमी एक मोटे पेड़ की आड़ में खड़े होकर उन सवारों के आने की राह देखने लगे।

थोड़ी ही देर में भूतनाथ को मालूम हो गया कि वे सवार गिनती में तीन हैं जो तेज घोड़ों पर सवार उसी तरफ जा रहे हैं जिधर भूतनाथ को जाना था। आगे-आगे मुश्की रंग के घोड़े पर सवार सत्रह-अठारह बरस का एक लड़का था और उसके पीछे दो सवार थे जो नौकर या सिपाही मालूम होते थे, मगर भूतनाथ की तेज आँखों ने शीघ्र ही पहिचान लिया कि आगे-आगे जाने वाला कोई लड़का नहीं बल्कि औरत है जो अचकन तथा पजामा पहिने और मुड़ासा बाँधे मर्दानी सूरत में जा रही है। इसके साथ-साथ भूतनाथ को यह देखकर और भी आश्चर्य हुआ कि दोनों पीछे-पीछे जाने वाले सवार वास्तव में दोनों ऐयार हैं जिन्हें उसने छन्नों के साथ बातें करता देखा था या जिन्हें गिरफ्तार कर और जिनकी सूरत बन वह छन्नों से मिला था।  (१. देखिए भूतनाथ पाँचवाँ भाग, दूसरा और तीसरा बयान।)

भूतनाथ का इरादा हुआ कि इन तीनों का पीछा करे, पर उसी समय न मालूम किस तरह की आहट पाकर उस आगे जाने वाली औरत ने अपना घोड़ा तेज किया और वे पीछे वाले सवार भी घोड़ा तेज करके बात–की-बात में आँखों की ओट हो गये। सवारों के निकल जाने के बाद भूतनाथ रामेश्वरचन्द्र के साथ पेड़ की आड़ से निकला और फिर अपने पहिले रास्ते पर चलता हुआ रामेश्वरचन्द्र से बोला, ‘‘तुमको उस छन्नों वाली बात तो याद होगी?’’

रामे० : कौन छन्नो?

भूत० : वही जमना-सरस्वती की सहेली जिसकी बातें सुन मुझे पहिले-पहिल दयाराम के जीते रहने का गुमान हुआ था।

रामे० : हां ठीक है, आपके शागिर्द ने मुझसे वह सब हाल कहा था।

भूत० : वे दोनों ऐयार जिन्हें मैंने गिरफ्तार किया था ये ही दोनों हैं जो पीछे-पीछे जा रहे थे।

रामे० : (आश्चर्य से) सो क्या, उन्हें तो आपने गिरफ्तार कर लिया था, फिर क्यों छोड़ दिया?

भूत० : मैंने इन दोनों को गिरफ्तार करके लामाघाटी में भेजवा दिया था पर इस समय वे यहाँ दिखाई पड़ रहे हैं, जरूर किसी तरह छूट आए हैं।

रामे० : लामाघाटी में से कैसे छूट आए!

भूत० : कुछ समझ में नहीं आता, कोई दुश्मन तो वहाँ तक नहीं जा पहुँचा! तुम जब दूकान का असबाब पहुँचाने वहां गये थे उस समय ये लोग वहाँ थे!

रामे० : सो मैं कुछ ठीक नहीं कह सकता क्योंकि मेरा ध्यान इनकी तरफ नहीं गया और न किसी ने इनकेबारे में कोई जिक्र ही मुझसे किया।

भूतनाथ कुछ देर चुप रहा इसके बाद बोला, ‘‘खैर इस बात का पता भी लग ही जायगा कि ये लोग आपसे-आप छूटकर भाग आये हैं या किसी ने इन्हें छुड़ाया है। अब तुम यह सुनो कि मैं तुमसे क्या काम लिया चाहता हूँ।’’

रामे० : बतलाइए?

भूत० : यह तो मैंने अभी तुमसे कहा ही है कि मैं अब इस दयाराम तथा जमना और सरस्वती वाले मामले से अपना हाथ बिल्कुल खींच लूँगा और अपने को इन्द्रदेव की कृपा पर छोड़ दूँगा मगर इसके साथ ही मैं अब यह भी चाहता हूँ कि रणधीरसिंह जी के यहाँ चला जाऊँ और कुछ दिन वहाँ रहकर उनकी नाराजगी को दूर करने की कोशिश करूँ।

रामे० : तो इसमें रुकावट क्या है? आप जब चाहें वहाँ जा सकते हैं।

भूत० : हाँ जा सकता हूँ पर मैं यह चाहता हूँ कि दारोगा इत्यादि के सब मामलों का पता भी मुझे लगता रहे और यह भी मालूम होता रहे कि वे साहब क्या कर रहे या किया चाहते हैं।

रामे० : अपने शागिर्दों की जुबानी वह सब हाल आप बराबर जानते रह सकते हैं।

भूत० : नहीं, सिर्फ शागिर्दों की मदद से मैं सब बातों को न जान सकूँगा। इधर दो-तीन नई घटनाओं का मुझे पता लगा है जिनके बारे में बिना स्वयम् कोई कार्रवाई किये ठीक पता नहीं लगेगा।

रामे० : वे घटनाएँ क्या हैं?

भूत० : दारोगा वाली कमेटी का हाल तुमने सुना ही होगा?

रामे० : हाँ अच्छी तरह।

भूत० : उस गुप्त कमेटी के मुखिया यानी दारोगा और जैपाल बगैरह का मतलब तो कुछ दूसरा ही है पर उस सभा में कुछ भले आदमी भी हैं जिन्हें दारोगा और जैपाल की चालें पसन्द नहीं आतीं यद्यपि लाचारी के कारण उन्हें उनका साथ देना पड़ता है। दारोगा के मित्रों में एक हेलासिंह भी हैं।

रामे० : हाँ-हाँ हेलासिंह को बखूबी जानता हूँ, वही तो जिसकी लड़की मुन्दर हाल में विधवा हो गई है?

भूत० : हाँ वही, तो वह हेलासिंह यह चाहता है कि गोपालसिंह की शादी बलभद्रसिंह की लड़की लक्ष्मीदेवी से न होकर मुन्दर से हो जिससे वह राजरानी बने और मायारानी कहलावे। पिछली मायारानी की जान इसीलिए गई कि उन्हें गोपालसिंह का विवाह लक्ष्मीदेवी के साथ करने की जिद्द पड़ गई थी।

रामे० : तो क्या दारोगा ही यहाँ की मायारानी की मृत्यु का कारण है?

भूत० : हाँ मुझे शक तो पहिले ही था पर आज दो-तीन बातें ऐसी मालूम हुईं जिनसे निश्चय हो गया कि दारोगा ही मायारानी की मृत्यु का कारण है और उसने यह काम हेलासिंह और मुन्दर के लिए किया है।

रामे० : आप यह बार-बार मायारानी किसको कहते हैं? यह मायारानी कौन है?

भूत० : मायारानी जमानिया की महारानी का तिलिस्मी नाम है, जमानिया की महारानियाँ मायारानी कहलाती हैं।

रामे० : अच्छा मुझे यह बात नहीं मालूम थी, आपको यह...

भूत० : मुझे यह बात मालूम है, मुझे ही क्यों जमानिया राज्य के सभी मुख्य-मुख्य आदमी इस बात को जानते हैं और मुझे तो यह बात और भी अच्छी तरह इसलिए मालूम है कि दारोगा का साथी बनकर एक मौके पर मायारानी का भी कुछ काम मैं कर चुका हूँ।

रामे० : अच्छा, आप जमानिया का रानी का कुछ काम कर चुके हैं! मगर यह कब की बात है?

भूत० : यह इधर की नहीं कई बरस पहिले की बात है, फिर किसी समय तुम्हें सुनाऊँगा। यद्यपि वास्तव में पूछा जाय तो उस समय भी मैंने ऐसा काम नहीं किया था कि जिससे लोगों को मुझ पर ऐब लगाने अथवा ताना मारने की जगह मिले पर तो भी इसी बात को लेकर जमना, सरस्वती तथा प्रभाकरसिंह वगैरह ने मुझ पर आवाज कसी थी।

रामे० : सो क्या? मुझसे यह हाल आपने नहीं कहा।

भूत० : शायद तुमसे न कहा हो, मेरी उस तिलिस्मी घाटी के पास ही में एक अगस्ताश्रम नामक स्थान...

रामे० :हां है, एक छोटे-से मन्दिर में अगस्त मुनि की मूर्ति है, आपकी उस घाटी के पास ही में यह स्थान है जिसके बगल में जमना और सरस्वती रहती थीं।

भूत० : हाँ, तो वह मूर्ति असल में एक तिलिस्मी रास्ता है। यद्यपि उसका पूरा-पूरा हाल मुझे नहीं मालूम पर जब मैं प्रभाकरसिंह बनकर जमना और सरस्वती वाली उस घाटी में गया था तो इतना पता लगा था कि उस मूर्ति और उस घाटी में कोई सम्बन्ध है। उसी मूर्ति की जुबानी जमना और सरस्वती ने एक दफे मुझे और गुलाबसिंह को कई विचित्र ढंग की बातें सुनाई थीं और गुलाबसिंह को मुझसे अलग करा दिया था।  पर वह सब बहुत पुरानी बातें हैं उनका जिक्र छोड़ो और मैं जो कहता था सो सुनो। दारोगा को विश्वास था कि महारानी के मरने पर राजा साहब उसकी बात मानकर लक्ष्मीदेवी से गोपालसिंह का ब्याह करने की इच्छा छोड़ देंगे और किसी दूसरी लड़की से गोपालसिंह की शादी करने पर तैयार हो जायेंगे, उस समय हेलासिंह की मुन्दर के साथ उनकी शादी कराने को मौका मिलेगा। पर अब दारोगा को मालूम हुआ कि उसका ख्याल गलत है और राजा साहब भी लक्ष्मीदेवी के ही साथ गोपालसिंह की शादी करने पर तुले हुए हैं। पहिले तो भैयाराजा के ख्याल से शादी रुक गई थी पर अब राजा साहब ने इसी बरस यह शादी कर डालने का निश्चय कर लिया है जो दारोगा की मर्जी के बिल्कुल विरुद्ध है, अस्तु अब दारोगा यह चाहता है कि राजा साहब इस दुनिया से उठा दिये जायँ। (१. देखिये भूतनाथ पहिला भाग, दसवाँ बयान।)

रामे० : अरे, उसने यहाँ तक करने का निश्चय कर लिया!

भूत० : हाँ, और इस विषय तथा मुन्दर के साथ गोपालसिंह की शादी के विषय में इस समय हेलासिंह और दारोगा के बीच में तरह-तरह की बातचीत तथा चिट्ठी-पत्री चल रही है। इस मामले का पूरा-पूरा हाल मैं जानना चाहता हूँ और साथ ही महाराज के विषय में दारोगा और उसकी गुप्त कमेटी क्या करती है, इसका भी पता रखना चाहता हूँ।

रामे० : और साथ ही साथ अपने मालिक की खिदमत में भी रहना चाहते हैं। (हँस कर) भला अब ये तीनो बातें एक ही साथ कैसे निभें? अब या तो आप अपने मालिक के साथ रहिए या इन्हीं बातों का पता लगाइए।

भूत० : नहीं, मैं यह चाहता हूँ कि ये सभी काम साथ ही साथ हों और इसी लिए तुम्हारी सहायता लिया चाहता हूँ।

रामे० : मैं तो सब तरह से तैयार हूँ, कहिए क्या कहते हैं?

भूत० : मैं यह चाहता हूँ कि तुम इस समय मेरी सूरत बना रणधीरसिंह जी के यहाँ चले जाओ तथा उनकी ताबेदारी में हाजिर रहो, और मैं यहाँ रहकर इन बातों का पता लगाऊँ। मैं अपने हाल की बराबर तुम्हें खबर देता रहूँगा और तुम्हें जब कभी मिलने की जरूरत आ पड़े मुझसे मिल सकते हो बल्कि यों भी अपनी खबर बराबर मुझे देते ही रहना।

रामे० : बहुत खूब।

भूत० : तो बस तुम इसी समय अपनी सूरत बदल लो और वहाँ चले जाओ, शान्ता के नाम की चीठी मैं लिखे देता हूँ सो दे देना जिससे वह सब मामला समझ जायगी। इतना कह भूतनाथ रामेश्वरचन्द्र के साथ एक झाड़ी में चला गया। रामेश्वरचन्द्र अपनी सूरत भूतनाथ की तरह बनाने लगा और तब तक भूतनाथ ने वह चीठी लिखकर तैयार कर डाली।

थोड़ी ही देर में रामेश्वरचन्द्र भूतनाथ बनकर तैयार हो गया और भूतनाथ ने भी अपनी सूरत मामूली ढंग पर बदल ली। इसके बाद दोनों आदमी झाड़ी के बाहर निकले और दो तरफ रवाना हो गये।

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