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भूतनाथ - खण्ड 3

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

बारहवाँ बयान


खंजर की रोशनी करते और उसकी मदद से दारोगा के आदमियों को भुलावा देकर अपने पीछे ले जाते हुए जब भैयाराजा और भूतनाथ बहुत दूर निकल गए और उनके तथा दारोगा के आदमियों के बीच में लगभग आध कोस का अन्तर पड़ गया तो भैयाराजा भूतनाथ को लिए हुए सीधे जमानिया की तरफ रवाना हुए और दोनों में ये बातें होने लगीं :—

भैयाराजा : दो कामों में से एक काम तो हो गया कि दुश्मनों को घुमाते फिराते और धोखा देते अजायबघर से बहुत दूर ले आए। अब रहा दूसरा, वह जरा कठिन काम है, उसमें तुमको ज्यादा परिश्रम करना पड़ेगा।

भूत० : मैं तो हर तरह से मुस्तैद ही हूँ।

भैया० : हाँ सो तो ठीक ही है, खैर तो अब यह बताओ कि हम क्या करें और किस तरह जमना और सरस्वती को दारोगा की कैद से छुड़ावें?

भूत० : मैं तो यही मुनासिब समझता हूँ कि आप कहीं रुक कर स्नान-संध्या और भोजन इत्यादि से छुट्टी पावें और मैं इस बीच में जाकर जमना और सरस्वती का पता लगाने और बन पड़े तो उनको छुड़ाने की फिक्र में लगता हूँ, क्योंकि जहाँ तक मैं समझता हूँ, मैं इस काम को अकेला ही पूरा कर सकूँगा।

भैया० : भूतनाथ, मैं तुम्हारे साहस और जीवट को खूब जानता हूँ और निःसन्देह तुम अकेले ही बहुत कुछ कर सकते हो परन्तु मैं ऐसा चाहता हूँ कि इस काम में खुद भी तुम्हारा साथ दूं। हाँ इतना जरूर है कि मैं दिन में कोई काम नहीं करना चाहता क्योंकि तुम लोगों ने मेरी सूरत बदल दी है तथापि ऐयारी न जानने के कारण मुमकिन है कि मैं अपने को भली-भाँति छिपा न सकूँ और कहीं धोखा खाकर अपने को प्रकट कर दूँ।

भूत० : ठीक है, तो जैसी आप आज्ञा दें मैं वैसा करूँ।

भैया० : इस समय में तो भरथसिंह के मकान पर चलता हूँ और दिन-भर वहीं रहूँगा, तुम दारोगा की तरफ जाकर जमना, सरस्वती की टोह लगाओ, वे दोनों अगर दारोगा के ही कब्जे में पड़ गई हैं तो बहुत मुमकिन है कि उसी मकान में हों जिसमें एक बार पहिले इन्दुमति के साथ कैद की जा चुकी हैं।

‘‘आपका ख्याल ठीक हो सकता है, खैर मैं जाता और टोह लगाता हूँ।’’ कह कर नकली भूतनाथ भैयाराजा से अलग हो तेजी के साथ दारोगा के मकान की तरफ रवाना हुआ, परन्तु थोड़ी ही दूर जाकर जब उसने देखा कि भैयाराजा उसकी नजरों से बाहर हो गए तो वह आड़ देख कर एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गया और तरह-तरह की बातें सोचने लगा।

‘‘जमना और सरस्वती इस समय कहाँ होंगी? अगर दारोगा ही ने उन्हें पकड़ लिया है तो कहाँ रक्खा होगा? अगर अपने मकान ही में तो उसका मकान अन्दर कैसा है? जमना और सरस्वती किस कमरे में होंगी? मैं अन्दर क्योंकर जाऊँगा? क्या वहाँ पहरा न होगा? क्या मुझे देख कर कोई रोकेगा नहीं?’’इत्यादि तरह-तरह की बातें सोचते हुए भूतनाथ रूपी नन्दराम बहुत देर तक उस चट्टान पर बैठे रह गए परन्तु कोई बात उसकी समझ में न आई कि वह क्या करें और किस तरह जमना और सरस्वती को कैद से छुड़ावें। वह सिर झुकाए बहुत ही व्याकुलता के साथ इस तरह की बातें सोच रहे थे कि इतने ही में पीछे की तरफ से किसी के आने की आहट मिली। नन्दराम ने मुड़ कर देखा तो भूतनाथ को असली सूरत में अपनी तरफ आते पाया। वह खुश होकर उठ खड़े हुए और खुशी-भरे गले से बोले, ‘‘बड़े मौके पर आए।’’

भूतनाथ के पूछने पर नन्दराम ने कल से आज तक का सब हाल संक्षेप में कह सुनाया और यह भी कहा कि इस समय भैयाराजा की आज्ञानुसार जमना और सरस्वती की खोज में अलग हुआ हूँ और यहाँ बैठ कर यही सोच रहा था कि अब क्या करना चाहिए कि इतने में तुम पर निगाह पड़ी। चलो अच्छा हुआ नहीं तो अब मैं असली बात को अधिक छिपा न सकता और मुझे भैयाराजा पर अपने को प्रकट कर देना पड़ता।

भूत० : (मुस्करा कर) खैर अब मैं आ पहुँचा, सब कुछ देख सुन लूँगा, परन्तु आप यह बता दें कि भैयाराजा से कहाँ मिलने की बात हुई है।

नन्दराम : उन्होंने कहा था कि रात के वक्त दारोगा के मकान के आस-पास कहीं रहेंगे।

भूत० : अच्छा अब आप क्या करेंगे, मेरे साथ चलेंगे या...?

नन्द० : इस समय मैं दामोदरसिंह के पास जाऊँगा और उनसे मिलने के बाद अपने मकान चले जाने का इरादा है।

भूत० : मुझसे पुनः कब मिल सकेंगे?

नन्द० : यदि आवश्यकता हो तो तीन-चार दिन के बाद मैं पुनः मिल सकता हूँ।

भूत० : ठीक है, तो आप जायें परन्तु इतना करें कि भैयाराजा से अभी इस बात को छिपाये रक्खें कि आपने मेरी सूरत बनकर उन्हें किस प्रकार सहायता दी है, बल्कि जब तक मैं न कहूँ तब तक इस बात को उन पर प्रगट न करें।

नन्दराम ने यह बात मंजूर की। भूतनाथ ने उनके कपड़े उनके हवाले कर दिये तथा अपने कपड़ों को लेकर पहिनने के बाद उनसे बिदा हो दारोगा के मकान की तरफ रवाना हो गया।

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