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भूतनाथ - खण्ड 2

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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण

तेरहवाँ बयान


बेशक भूतनाथ ने मेघराज और भैयाराजा को बुरा धोखा दिया। उसे इस बात की प्रबल इच्छा थी कि किसी तरह मेघराज और उसके साथी का परिचय मिले परन्तु फिर यह सोच कर छोड़ दिया कि ऐसी झिल्ली तो मेरे पास मौजूद ही है। फिर भैयाराजा से बुराई लेने की जरूरत ही क्या है। अस्तु वह भैयाराजा को छोड़ कर मेघराज की तरफ झुका और चाहा कि किसी तरह उन्हें पहिचाने परन्तु इस बात का विश्वास हो जाने पर कि उनके चेहरे पर तिलिस्मी झिल्ली नहीं है वह रुका और इधर-उधर देख कर धीरे से बोला। ‘‘यहाँ तो नजदीक में कोई कूँआ भी नहीं है कि मैं जल भर लाऊँ और इसका चेहरा धोकर पहिचानने का उद्योग करूँ!

खैर जाने दो, इन दोनों को यहीं पड़ा रहने दो और पहले उस दुष्ट पर कब्जा करो जो मुझे नीचा दिखा चुका है और जिसे अपने साथियों के साथ छोड़ कर मैं यहाँ भाग आया हूँ। ये दोनों अभी कई घण्टे तक होश में न आवेंगे और न यहाँ कोई मुसाफिर ही पहुँच कर दोनों की मदद कर सकेगा।’’

भूतनाथ ने अपने बटुए में से आग पैदा करने वाला सामान निकाला और सूखे पत्ते बटोर कर आग सुलगाने के बाद उस पर अपने ऐयारी के बटुए को सेंक कर सुखाया तथा उस बेहोशी वाली दवा के असर को दूर किया और उस बटुए का सामान भी जो बहुत छितर-बितर हो गया था अपने कायदे के साथ ठीक करके पुनः सोचने लगा कि क्या करना चाहिए, एक दफे उसका ध्यान पुनः अपने शागिर्दों और उस दुश्मन की तरफ गया जिससे लड़ता हुआ हार कर वह इस तरफ भाग आया था और वह उस पर कब्जा करने का ढंग सोचने लगा मगर फिर विचार किया कि कदाचित् इस समय वह मेरे ढंग पर न चढ़ा या पुनः मुझ ही को नीचा देखना पड़ा तो इधर की मेहनत बिल्कुल बर्बाद हो जायेगी और अगर ये होश में आकर चले जायेंगे तो भैयाराजा से गहरी दुश्मनी पैदा हो जायगी और मेघराज पर भी पुनः कब्जा करना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव हो जायगा।

मुझे इस बात का पता लगाना बहुत ही जरूरी है कि यह मेघराज वास्तव में कौन है और भैयाराजा से इसका क्या सम्बन्ध है। साथ ही इसके भैयाराजा को भी मैं किसी तरह का नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता, मेघराज को पहिचान लेने के बाद मैं भैयाराजा से माफी माँग लूँगा और यदि वे माफी न देंगे तो मैं उनकी खिदमत करके उन्हें खुश कर लूँगा। मगर क्या मेरे शागिर्द उस जगह फँसे ही रह जायेंगे और वह दुश्मन इस समय मेरे कब्जे में न आवेगा। मेरे पास और भी कई तरह की दवाइयाँ हैं जिनसे मैं इन दोनों को कई दिनों तक बेहोश रख सकता हूँ।

तो इनकी बेहोशी बढ़ा कर और इन्हें इसी जगह छोड़ कर उस दुश्मन की तरफ मेरा इस समय जाना उचित होगा? नहीं, अब दिन बहुत कम रह गया है, थोड़ी ही देर में अंधकार अपना दखल जमा लेगा, इतने थोड़े ही समय में वह काम नहीं हो सकता, इन दोनों को भी इस जगह पड़े रहने देना ठीक न होगा अस्तु भैयाराजा को तो उनकी बेहोशी कम करके इसी जगह छोड़ दिया जाय जिसमें घण्टे-भर के अन्दर ही वे होश में आकर जहाँ जो चाहें चले जायें और इस मेघराज को घोड़े पर लाद कर अपने अड्डे पर ले चलें। फिर जो कुछ होगा देखा जायगा।

इसी तरह की बातें कुछ देर तक भूतनाथ सोचता रहा, अन्त में वह मेघराज के पास और गौर से उनकी सूरत देख कर आप-ही-आप बोला, ‘‘मगर पानी का यहाँ बिलकुल ही अभाव है, खैर अपने डेरे पर ही चल कर इनका चेहरा साफ करें। अब इन्हें घोड़े पर लादना चाहिए!’’ इतना सोच कर भूतनाथ एक घोड़ा खोल लाया और उस पर मेघराज को लादने की फिक्र करने लगा मगर अफसोस, भूतनाथ का इरादा पूरा नहीं हुआ। जैसे ही भूतनाथ ने मेघराज के बदन पर हाथ रक्खा वैसे ही उसके बदन में एक बिजली-सी दौड़ गई। उसका तमाम शरीर काँप गया और वह बेहोश जमीन पर गिर पड़ा।

भूतनाथ की यह बेहोशी बहुत देर तक कायम नहीं रही आधी घड़ी के अन्दर ही वह होश में आ गया और उठ कर बड़े गौर और आश्चर्य से मेघराज को देखने लगा। उसने देखा कि मेघराज ने सिर से पैर तक एक अजीब किस्म का कपड़ा पहिरा हुआ है जो कि बहुत ही बारीक तार का बुना हुआ है और वह सुनहरा तार इतना पतला और मुलायम है कि सूत की तरह से उसका कपड़ा बुना गया है।

उस कपड़े के ऊपर से सूत का एक बारीक कपड़ा मेघराज पहिरे हुए है जिसके अन्दर से उस तार के कपड़े की चमक छन कर बाहर निकलती और बहुत ही भली मालूम होती है। आश्चर्य के साथ भूतनाथ ने कुछ देर तक उस कपड़े को देखा और पुनः उसे छुआ। छूने के साथ ही वह फिर बेहोश हो गया और आधी घड़ी तक बेहोश रहा।

जब भूतनाथ होश में आकर उठा तो धीरे से बोला, ‘‘अफसोस, मैं इसे किसी तरह भी अपने कब्जे में नहीं कर सकता। मेरी तमाम मेहनत ही व्यर्थ हो गई। अब मुझे भैयाराजा और इन्द्रदेव के सामने भी शर्मिन्दी उठानी पड़ेगी। तो क्या मैं भैयाराजा और इस मेघराज दोनों ही को इस दुनिया से उठा दूँ? इन्द्रदेव को क्या मालूम हो सकता है कि मैंने इन दोनों को मार डाला!!’’

इतने ही में भूतनाथ ने सामने से अपने उस दुश्मन को आते हुए देखा जिससे लड़ कर और भाग कर वह यहाँ तक चला आया था।

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