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भूतनाथ - खण्ड 2

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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण

पाँचवाँ बयान


बहुरानी के फंसे जाने के घंटे-भर बाद असली भैयाराजा उसी राह से बहुरानी के कमरे में दाखिल हुए जिस राह से दारोगा उन्हें धोखा देकर ले गया था। बहुरानी की मसहरी खाली देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ और यह सोचकर कि कोई दुर्घटना जरूर हुई है उनका कलेजा धड़कने लगा। वे इधर-उधर की चीजों पर निगाह दौड़ाते हुए सदर दरवाजे पर गये तो दरवाजे को अन्दर से बन्द पाया जिससे उनका शक और भी मजबूत हो गया और वे सोचने लगे कि जरूर बहुरानी इसी कमरे में थी। अगर यहाँ न होती तो दरवाजा अन्दर से क्योंकर बन्द होता! तो क्या वह अपनी खुशी से कहीं बाहर चली गई? नहीं, बाहर जाने का यह तिलिस्मी रास्ता तो उसे मालूम ही न था। वह क्योंकर बाहर गई होगी! तब वह जरूर किसी धोखे में डाली गई।

इसी प्रकार से कुछ देर सोचने के बाद पुनः भैयाराजा सदर दरवाजे के पास गये और उसकी कुण्डी जो अन्दर से बन्द थी खोल कर उसी तिलिस्मी राह से दरवाजे खोलते और बन्द करते हुए मकान और बाग के बाहर निकल गये और उस जगह पर पहुँचे जहाँ दारोगा ने बहुरानी को रथ पर चढ़ाया था। वहाँ भूतनाथ खड़ा उनका इन्तजार कर रहा था जिसे वे बाहर चले आए।

भूत० :(आश्चर्य से) आप बहुत जल्द बाहर चले आए।

भैया० : हाँ, जिस काम के लिए मैं गया था वह काम नहीं हुआ अर्थात मेरी स्त्री उस कमरे में मुझे नहीं मिली जो उसके रहने का स्थान था। मैं वहाँ कुछ देर तक ठहर कर उसका इन्तजार करता अगर उस कमरे का दरवाजा खुला हुआ देखता मगर आश्चर्य तो यह है कि कमरे का दरवाजा अन्दर से बन्द था।

भूत० : अगर दरवाजा अन्दर से बन्द था तो वे जरूर कमरे के अन्दर ही रही होंगी। अस्तु ताज्जुब नहीं किसी मुसीबत में फँस गई हों।

भैया० : मैं भी तुम्हारे दूसरे खयाल का पक्षपाती हूँ, वह जरूर किसी मुसीबत में फँस गई हैं क्योंकि एक तो उसे वहाँ से बाहर निकल जाने का तिलिस्मी रास्ता मालूम न था, दूसरे..।

भूत० : तो जरूर कोई दुश्मन वहाँ पहुँचा जिसने उन्हें धोखा दिया।

भैया० : यह काम दारोगा के सिवाय और कौन कर सकता है? अगर वास्तव में वह कहीं गायब हो गई या उसे किसी दुश्मन ने फँसा लिया है तो कल मेरे जासूस इस बात की खबर देंगे।

भूत० : मैं तो इस समय भी पता लगाने की कुछ कोशिश करूँगा।

इतना कह कर भूतनाथ ने अपने ऐयारी के बटुए में से सामान निकाल कर बत्ती जलाई और वहाँ की जमीन को गौर से देखने लगा। रथ के दोहरे पहिए का निशान जमीन पर देखकर वह चौंका और बोला, ‘‘देखिए यह चार पहिये के रथ का निशान यहाँ मौजूद है। जरूर वह यहाँ तक लाई गई हैं और यहाँ से रथ पर बैठाकर उन्हें कोई ले गया है। अब आप अपने डेरे पर जाइये और मुझे पता लगाने के लिए इसी जगह पर छोड़ दीजिए, मैं इसी निशान से दुश्मन का पता लगा लूँगा!’’

भैया० : अगर मैं भी तुम्हारे साथ रहूँ तो क्या हर्ज है?

भूत० : नहीं, मुझे इस काम में रोशनी का सहारा लेना पड़ेगा चाहे वह रोशनी किसी चिराग या मोमबत्ती की हो या चमकते हुए सूर्य भगवान के किरणों की। अगर मुझे कोई देख भी लेगा तो कुछ चिन्ता नहीं मगर आपको कोई देख ले तो आपकी इच्छा के विरुद्ध होगा।

भैया० : हाँ यह तो ठीक है, खैर-तुम अपना काम करो, मैं कुछ देर तक तुम्हारे साथ रह फिर मौका पा हट जाऊँगा और सवेरा होते-होते तक भाई साहब के पास पहुँचूँगा तथा मुकाबले में देखूँगा कि ईश्वर की तरफ से हमारा क्या फैसला होता है।

भूत० : बहुत खूब, इसमें कोई मुजायका नहीं उस रथ के पहियों का निशान बिना कहीं से बिगड़े या खराब हुए दारोगा के मकान तक चला गया था क्योंकि अभी तक उस रास्ते पर आमदरफ्त नहीं हुई थी जिससे कि वह निशान बिगड़ता और नष्ट होता, अस्तु भूतनाथ और भैयाराजा को विश्वास हो गया कि बहुरानी को मुसीबत में डालने वाला यह दारोगा ही है।

भैया० : लो गदाधरसिंह, हमलोगों का गुमान बहुत ठीक निकला, अब तुमको चाहिये कि उस दुष्ट के कब्जे से मेरी स्त्री की जान बचाओ।

भूत० : आप इस काम का बोझ मुझ पर डाल कर जाइये और राजासाहब से मिलने की फिक्र कीजिये, वहाँ जाने पर आपको महल के अन्दर का हाल-चाल भी मालूम हो जायेगा जो आपकी स्त्री के गायब होने के बाद वहां पैदा हुआ होगा तथा घटना की सच्चाई जानी जायगी।

‘‘अच्छा’’ कह कर भैयाराजा वहाँ से चले गए और सूर्य उदय होने के पहिले ही बिना रोकटोक खासबाग में दाखिल होकर राजा साहब के पास पहुँचे जो कि नजरबाग के सामने एक चन्दन की चौकी पर बैठे हाथ-मुँहधो रहे थे, अभी तक बहुरानी के गायब होने का हाल उन्हें मालूम नहीं हुआ था मगर महल के अन्दर लौंडियों में कानाफूसी मची हुई थी।

भैयाराजा पर निगाह पड़ते ही राजा साहब अपना काम छोड़ उठ खड़े हुए और चौकी से नीचे कूद कर नंगे ही पाँव उनकी तरफ झपटे जो राजा साहब को उठते देख तेजी के साथ उनकी तरफ बढ़ते जा रहे थे।

राजा साहब ने बड़े प्रेम से भैयाराजा को गले लगा लिया और दोनों की आँखों से प्रेम के आँसू बहने लगे। कई आदमी दौड़े हुए कुँअर गोपालसिंह के पास चले गए और उन्हें भैयाराजा के आने की खबर दी।

कुछ देर बाद भैयाराजा का हाथ पकड़े हुए राजा साहब दालान में आए जहाँ बहुत-सी कुर्सियों के अतिरिक्त चाँदी-सोने की भी दो कुर्सियाँ रखी हुई थीं जिन पर हाँ, नहीं करते हुए दोनों भाई बैठ गए और इस तरह बातचीत करने लगेः-

राजा : क्यों भाई, हमने क्या कसूर किया जो तुम इस तरह हमें छोड़ कर चले गए थे?

भैयाराजा : मैं तो सदा ही आपके चरणों का दास हूँ और जितना प्रेम आप मेरे साथ रखते हैं उसे भी मैं खूब जानता हूँ, फिर यह कब हो सकता है कि मैं आपको कसूरवार समझूँ और रंज होकर चला जाऊँ। मगर इतना जरूर है कि आपने दारोगा के फेर में पड़ कर मेरी जान का कुछ खयाल न किया। मैंने आपके कमरे में पहुँचकर यह प्रकट कर दिया कि दारोगा ने मुझे मार डाला है। मगर आपने इस पर कुछ भी ध्यान न दिया यद्यपि यह बात बहुत ही ठीक थी और वास्तव में दारोगा ने मुझे मार डाला था परन्तु ईश्वर ने एक मददगार पहुँचा दिया जिसने मेरी जान बचा ली और अपने घर ले जाकर मुझे आराम से रक्खा। मैं कई दिनों तक इस बात का इन्तजार करता रहा कि देखें आप मेरे लिए क्या करते हैं मगर जब मैंने देखा कि मेरी बनिस्बत दारोगा पर आप ज्यादे मुहब्बत रखते हैं तब मैं लाचार और हताश होकर रह गया।

राजा: मेरे सोने वाले कमरे में पहुंचकर जो कुछ तुमने किया और जमीन पर लिख कर बताया उस पर मुझे कैसे विश्वास हो सकता था? मैं तो भूत प्रेत का तमाशा समझकर चुप रहा। फिर आश्चर्य है कि तुम दारोगा की शिकायत करते हो कि ‘उसने मुझे मार डालने का प्रयत्न किया’ मगर मेरी समझ में नहीं आया कि उसने तुम्हारे साथ ऐसा सलूक करने में अपना क्या फायदा समझ रक्खा था? आखिर यह भी कहो कि उसने ऐसा क्यों किया? मैं समझता हूँ कि इस मामले में तुम्हें धोखा हुआ है और इसी धोखे में पड़कर तुमने दारोगा के साथ बड़ी बेइन्साफी की। उनका कान काट डाला और मुँह काला करके जूतों का हार गले में डालकर सरे बाजार छोड़ दिया।

भैया० : जी नहीं, मुझे धोखा नहीं हुआ और दारोगा के साथ जो मैंने यह कार्रवाई की वह भी बेजा नहीं की। असल में तो वह मार डालने के लायक था मगर इस खयाल से मैंने उसकी जान न ली थी कि आप उसे अपना दोस्त समझते हैं और मैं आपका दिल दुखाना नहीं चाहता।

केवल थोड़ी-सी सजा देकर छोड़ दिया, सो भी ऐसी हालत में जब कि आपने मेरे बारे में उसकी करतूतों पर कुछ ध्यान नहीं दिया।

इसी बीच में कुँअर गोपालसिंह भी आ गये और अपने पिता और चाचा को प्रणाम करके आश्चर्य करते हुए एक कुर्सी पर बैठ गये।

राजाः फिर भी मैं यही कहता हूँ कि तुमको दारोगा के बारे में धोखा हुआ जबकि इतने दिनों तक उसने तुम्हारे साथ कोई बुरा बर्ताव नहीं किया तो अब उसे ऐसा कौन-सी जरूरत आ पड़ी थी कि तुम्हें..।

भैया० : (बात काट कर) जी उस दिन की घटना ही ऐसी बेढब थी कि दारोगा के लिए मुझे मार डालने की जरूरत आ पड़ी। मैं वह घटना बयान करता हूँ, आप सुनिये।

इतना कह कर भैयाराजा ने उस दिन का सब हाल बयान किया और जमना, सरस्वती और प्रभाकरसिंह का हाल भी कह सुनाया मगर यह नहीं कहा कि भूतनाथ को इस मामले से क्या सम्बन्ध था अर्थात् भूतनाथ को इस मामले से बिल्कुल ही अछूता रक्खा। यहाँ तक कि इस किस्से में उसका नाम भी नहीं लिया।

भैयाराजा की जुबानी सब हाल सुन कर राजा साहब को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। वे सिर झुका कर कुछ सोचते रहे और तब बोले-

राजा : इस समय जमना, सरस्वती और प्रभाकरसिंह कहाँ है?

भैया० : वे अपने उसी दोस्त के यहाँ हैं जिसने उनकी और उनके साथ ही साथ हमारी भी रक्षा की थी। उन्हें आपके सामने बुला कर उनकी गवाही दिला सकता हूँ।

राजा : नहीं-नहीं, गवाही की क्या जरूरत? अगर मैं तुम्हें झूठा समझूँगा तो उन्हें सच्चा क्यों समझूँगा? मगर तुमने बड़े ही आश्चर्य की बात कही। दारोगा ने तो तुम्हारी दुश्मनी का कारण मुझसे कुछ और ही बयान किया था।

भैया० : उसने क्या कहा था?

इसके जवाब में सीधे-सादे राजा साहब ने वह सब हाल कह सुनाया जो दारोगा ने गढ़ कर राजा साहब से कहा था अर्थात भैयाराजा आपको और कुँअर गोपालसिंह को मार कर स्वयं जमानिया के राजा बनना चाहते हैं और इसी काम में मदद माँगते थे, देने से इनकार किया तब मेरी वह दुर्दशा की गई इत्यादि।

भैया० : (क्रोध में आकर) क्या उस दुष्ट ने आपसे ऐसा कहा! और आपके दिल में यह बात बैठ भी गई?

इसका जवाब राजा साहब ने कुछ भी न दिया जिससे भैयाराजा समझ गये कि दारोगा की बातों पर भाई साहब को विश्वास हो गया है।

भैया० : खैर आप दारोगा को यहाँ बुलाइये, मैं जरा उससे पूछूँ तो सही।

राजा : हमारी-तुम्हारी बातों में उसे बुलाने की जरूरत ही क्या है?

ऐसा जवाब राजा साहब ने इस खयाल से दिया कि उन्हें इस बात का शक हो गया कि दारोगा यहाँ आवेगा तो भैयाराजा उसे जरूर मारेगें मगर भैयाराजा को यह जवाब बहुत बुरा लगा और वह राजा साहब का मतलब समझ गए। भैयाराजा कुछ और कहा ही चाहते थे कि लौंडियों का कोलाहल सुन कर सब कोई चौंक पड़े और उस तरफ देखने लगे जिधर तीन-चार लौंडियाँ घबराई हुई आकर खड़ी हो गई थीं, बहुरानी के गायब हो जाने से महल में कोलाहल मच चुका था और वही खबर सुनाने के लिए लौंडियाँ आई थीं।

राजा साहब ने बड़े ही आश्चर्य के साथ यह खबर सुनी और भैयाराजा की तरफ देखकर कहा, ‘‘मैं समझता हूँ कि वह तुम्हारी ही इच्छानुसार यहाँ से चली गई होगी क्योंकि मैंने यह सुना है कि तुम कई दफे महल में उससे मिलने के लिए आये थे। पहिले तो मुझे यह बात मालूम न थी और महल में आने वाले को चोर या बदमाश समझता था मगर जब वह तुम्हारी भावज ने तुम्हारी स्त्री से सुन कर मुझसे कहा तब मुझे मालूम हुआ कि महल में आने वाले तुम्हीं हो और तब मैं एक तरह पर निश्चिन्त-सा हो गया।’’

भैया० : (कुछ क्रोध में आकर) बेशक यह काम भी आपके दारोगा साहब ही का है। जब तक अपने लिए कोई ठिकाना नहीं बना लेता तब तक मैं उसे यहाँ से क्योंकर ले जा सकता था? आप दारोगा को जरूर बुलाइये, बिना उसके आए मेरी बातों का कोई नतीजा नहीं निकलेगा। मुझे आपका और बेचारे गोपालसिंह का दुश्मन बनाया और आपने भी उस पर विश्वास कर लिया! जरूर मेरी स्त्री का चोर वही दुष्ट है। आप इस बात से निश्चिन्त रहिए, मैं कदापि जमानिया का राजा नहीं बनना चाहता। यदि आपको इस बात का विश्वास न होगा तो मैं अपने को आपके सामने ही मार कर आपके दिल से यह खुटका दूर कर दूँगा मगर अपने मरने से दारोगा को सुखी न होने दूँगा। पहिले दारोगा और अपनी स्त्री को मार कर निश्चिन्त हो जाऊँगा तब आपके चरणों में अपना सर अर्पण करूँगा। अपनी स्त्री को इसलिए मारूँगा कि मेरे बाद उसे किसी तरह का दुःख न भोगना पड़े।

राजा० : नहीं-नहीं-नहीं, ऐसा न करो, मैं इस खूनखराबे को पसन्द नहीं करता, मैं खुशी से तुम्हें यहाँ का राजा बनाने के लिए तैयार हूँ और मुझे विश्वास है कि गोपाल को भी इसमें कोई उज्र न होगा क्योंकि वह बड़ा ही पितृ-भक्त है और मेरी आज्ञा को ईश्वर की आज्ञा के समान मानता है, साथ ही इसके दारोगा को भी इस राज्य से अलग करके तुम्हें बेफिक्र कर दूँगा और उसे अपने साथ जंगल में ले जाकर किसी ठिकाने निवास करूँगा क्योंकि वह मेरा साथ छोड़ना पसन्द न करेगा!

भैया० : अफसोस, आपकी सभी बातों से दारोगा की तरफदारी टपकती है। उसके सामने आपके दिल में मेरी कुछ भी कद्र नहीं है और उसकी बातों के आगे मेरी बातें सच्ची नहीं समझी जाती हैं, अस्तु मैं वही करूँगा जो कह चुका हूँ क्योंकि इतना कह जाने पर भी मैं आपको ईश्वर के समान मानता हूं।

मैं इस बात को साबित करके दिखा दूँगा कि मेरी स्त्री का चोर भी वही है। बेशक मुझसे भूल हुई कि इतने दिनों तक गायब रह कर आपकी मुहब्बत की जाँच करता रहा! आज मुझे मालूम हो गया कि दारोगा के सामने मेरी कितनी इज्जत है। मैं अब एक क्षण भी यहाँ रहना पसन्द नहीं करता और आपका चरण छूकर बिदा होता हूँ।

इतना कह कर भैयाराजा उठ खड़े हुए और राजा साहब का चरण छूकर वहाँ से रवाना हुए। राजा साहब कितना ही, ‘‘हाँ-हाँ, सुनों-सुनों!’’ कहते रहे मगर भैयाराजा ने एक भी न सुनी लाचार राजा साहब बैठे-के-बैठे रह गये मगर कुँअर गोपालसिंह उठ खड़े हुए और भैयाराजा के पीछे-पीछे बाग के बाहर निकल गये।

वहाँ पर गोपालसिंह ने भैयाराजा का पैर पकड़ लिया और कहा, ‘‘आप जहाँ जी चाहे जाइये मगर मेरी दो-चार बातें सुनते जाइये! मैंने आपका कोई कसूर नहीं किया है और न मैं आपको अपना दुश्मन समझता हूँ, अस्तु मुझ पर जो आपका प्रेम है उसका खून मत कीजिये!’’

भैयाराजा अटक गये, उन्होंने गोपालसिंह को उठा कर छाती के साथ लगा लिया और बोले, ‘‘नहीं बेटा, मुझे तुमसे रंज नहीं बल्कि तुम्हारे मिजाज और तुम्हारी लायकी से मैं बहुत ही प्रसन्न हूँ, तुम्हें होनहार समझता हूँ और तुम पर भरोसा रखता हूँ, कहो क्या कहते हो?’’

गोपालः मुझे जो कुछ कहना है एकान्त में कहूँगा, यहाँ बहुत से आदमी हैं।

भैया० : अच्छा मैं तुम्हारे साथ एकान्त में चलता हूँ।

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