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भूतनाथ - खण्ड 1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

नौवाँ बयान

जमानिया में आधी रात के समय तिलिस्मी दारोगा १ अपने मकान में बैठा किसी विषय पर विचार कर रहा है। उसके सामने कई तरह के कागज और चीठियों के लिफ़ाफे फैले हुए हैं, जिनमें से एक चीठी को यह बार-बार उठ कर गौर से देखता और फिर जमीन पर रख कर सोचने लगता है। दारोगा के बगल में सट कर एक कमसिन खूबसूरत और हसीन औरत बैठी हुई है। उसके कपड़े और गहने के ढंग तथा भाव से मालूम होता है कि वह बाबाजी (दारोगा) की स्त्री या गृहस्थ औरत नहीं है बल्कि कोई वेश्या है जो कि तिलिस्मी दारोगा अर्थात् बाबाजी से कोई घना संबंध रखती है। (१. तिलिस्मी दारोगा का परिचय चन्द्रकान्ता सन्तति में दिया जा चुका है। इस समय बेईमान कुँअर गोपालसिंह के बाप राजा गिरधरसिंह का खास मुसाहब था और दीवानी के काम में भी दखल दिया करता था।)

एक चीठी पर कुछ देर तक विचार करने के बाद दारोगा ने उस औरत की तरफ देखा और कहा– ‘‘बीवी मनोरमा, वास्तव में यह चीठी गदाधरसिंह के हाथ जरूर लिखी हुई है। इस चीठी को देकर तुमने मुझ पर बड़ा अहसान किया, अब वह जरूर कब्जे में आ जायगा। मैं उसे अपना साथी बनाने के लिए बहुत दिनों से उद्योग कर रहा हूँ पर वह मेरे कब्जे में नहीं आता था, मगर अब उसे भागने की जगह न रहेगी।

मनोरमा : (मुस्कुराती हुई) ठीक है, मगर मैं अफसोस के साथ कहती हूँ कि इस चीठी को जो गदाधरसिंह के हाथ की लिखी हुई है बल्कि उसकी लिखी हुई और चीठियों को भी जो आपके सामने पड़ी हुई हैं और जबर्दस्ती नागर से ले आई हूँ आज ही वापस ले जाऊँगी क्योंकि नागर से तुरन्त ही वापस कर देने का वादा करके ये चीठियाँ आपको दिखाने के लिए मैं लाई थी।

दारोगा : (कुछ उदास चेहरा बना के) ऐसा करने से मेरा काम नहीं चलेगा।

मनोरमा : चाहे जो कुछ हो, आपने भी तो तुरन्त वापस देने का वादा किया था।

दारोगा : ठीक है, मगर अब जो मैं देखता हूँ तो इन चीठियों की बदौलत मेरा बहुत काम निकलता दिखाई देता है।

मनोरमा : तो आप क्या चाहते हैं कि मैं नागर से झूठी बनूँ और वह मुझे दगाबाज कह के दुश्मनी की निगाह से देखे जिसे मैं अपनी बहिन से भी ज्यादा बढ़ कर मानती हूँ।

दारोगा : नहीं नहीं, ऐसा क्यों होने लगा, जब तुम उसे बहिन से बढ़ कर मानती हो और वह भी तुम्हें ऐसा ही मानती है तो क्या वह दो-तीन चीठियाँ तुम्हारी खुशी के लिए नहीं दे सकती और तुम मेरी खुशी के लिए उन्हें मेरे पास नहीं छोड़ सकतीं?

मनोरमा : नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। गदाधरसिंह और नागर में बहुत गहरी मुहब्बत का बर्ताव है, क्या उसे आप मेरे ही हाथ से खराब कराना चाहते हैं?

दारोगा : नहीं नहीं, मैं ऐसा नहीं चाहता, अगर तुम और नागर चाहोगी तो गदाधरसिंह की मुहब्बत का सिलसिला ज्यों-का-त्यों कायम रहेगा।

मनोरमा : क्या खूब! आप भी कैसी भोली-भोली बातें करते हैं! इन्हीं चीठियों को दिखा कर तो आप गदाधरसिंह को अपने कब्जे में किया चाहते हैं और फिर कहते हैं कि इन चीठियों के बारे में गदाधरसिंह को कुछ भी खबर न होगी कि वे आपके कब्जे में आ गई हैं।

दारोगा : (शर्मिन्दा होकर) तुम जानती हो कि मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूँ और किस तरह तुम्हारे लिए जान तक देने को तैयार हूँ।

मनोरमा : मैं खूब जानती हूँ और इसीलिए आपकी खातिर इन चीठियों को थोड़ी देर के लिए नागर से माँग लाई हूँ नहीं तो क्या गदाधरसिंह की शैतानी और उद्दण्डता को नहीं जानती! वह बात-की-बात में बिगड़ खड़ा होगा और मुझको तथा नागर को जहन्नुम में मिला देगा, बल्कि मैं जहाँ तक समझती हूँ इन चीठियों का भेद खुलने से वह आपका दुश्मन हो जायगा।

दारोगा : नहीं, ऐसा नहीं है, इन चीठियों का भेद खुलने से यद्यपि वह हम लोगों का दुश्मन हो जायगा मगर वह हम लोगों को तब तक तकलीफ़ न दे सकेगा जब तक ये चीठियाँ पुन: लौट कर उसके कब्जे में न चली जायें। मगर ऐसा होना बिल्कुल ही असम्भव है, इन चीठियों को ऐसी जगह रक्खूँगा कि उसके देवता को भी पता न लगने पावेगा।

मनोरमा : यह सब आपका खयाल है। आपने सुना नहीं कि जब बिल्ली मजबूर होती तब कुत्ते के ऊपर हमला करती है। न-मालूम नागर के ऊपर गदाधरसिंह को कितना भरोसा है कि ये सब खबरें गदाधरसिंह ने नागर को लिखीं, नहीं तो भूतनाथ ऐसे होशियार आदमी को ऐसी भूल न करनी चाहिए थी। इन चीठियों को पढ़ करके एक अदना आदमी भी समझ सकता है कि दयाराम का घातक गदाधरसिंह ही है और वही अब उनकी जमना, सरस्वती नाम की दोनों स्त्रियों को मारना चाहता है।

क्या ऐसी चीठी का प्रकट हो जाना गदाधरसिंह के लिए कोई साधारण बात है? और ऐसा होने पर वह नागर को जीता छोड़ देगा?

कदापि नहीं। इसके अतिरिक्त अभी तो चीठियों का सिलसिला जारी ही है और वह जमना तथा सरस्वती को मारने के लिए तिलिस्म के अन्दर घुसी ही है, आगे चलकर देखिए कि कैसी-कैसी चीठियाँ आती हैं और उनमें क्या-क्या खबरें वह लिखता है। सिर्फ इन्हीं दो-चार चीठियों पर अभी आप क्यों इतना फूल रहे हैं?

दारोगा इसका जवाब कुछ दिया ही चाहता था कि दरवाजे की तरफ से घंटी बजने की आवाज आई। उसके जवाब में दारोगा ने भी एक घंटी बजाई जो उसके पास पहिले ही से रक्खी हुई थी। एक लड़का लपकता हुआ दारोगा के सामने आया और बोला, ‘‘गदाधरसिंह आये हैं, दरवाजे पर खड़े हैं।’’

लड़के की बात सुनकर दारोगा ने मनोरमा की तरफ देखा और कहा, ‘‘आया तो है बड़े मौके पर!’’

‘‘मौके पर नहीं बल्कि बेमौके!’’ इतना कह कर मनोरमा ने वे चीठियाँ दारोगा के सामने से उठा लीं जो गदाधरसिंह के हाथ की लिखी हुई थीं या जिनके बारे में बड़ी देर से बहस हो रही थी, और यह कहकर उठ खड़ी हुई कि, ‘‘मैं दूसरे कमरे में जाती हूँ, उसे बुलाइये मगर मेरे यहाँ रहने की उसे खबर न होने पावे!’

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