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भूतनाथ - खण्ड 1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

पन्द्रहवाँ बयान

रात आधी से कुछ ज्यादे जा चुकी है बँगले के अन्दर जितने आदमी हैं सभी बेहोशी की नींद सो रहे हैं क्योंकि हरदेई ने जो बेहोशी की दवा खाने की वस्तुओं में मिला दी थी उसके सबब से सभी आदमी (उस अन्न के खाने से) बेहोश हो रहे हैं हरदेई एक विश्वासी लौंडी थी और जमना तथा सरस्वती उसे जी-जान से मानती थीं इसलिए कोई आदमी उस पर शक नहीं कर सकता था, परन्तु इस समय हमारे पाठक बखूबी समझ गये होंगे कि यह हरदेई नहीं हैं बल्कि जिस तरह भूतनाथ प्रभाकरसिंह का रूप धारण किये है उसी तरह भूतनाथ का शागिर्द रामदास हरदेई की सूरत में काम कर रहा है, असली हरदेई को तो वह गिरफ्तार करके ले गया था, और सभों की तरह नकली प्रभाकरसिंह भी अपनी चारपाई पर बेहोश पड़े हुए हैं- हरदेई ने आकर प्रभाकरसिंह को लखलखा सुँघाया और जब वे होश में आ गए तो उनसे कहा, ‘‘अब उठिए, काम करने का समय आ गया’’।

प्रभा० : कितनी रात जा चुकी है?

हरदेई : आधी से ज्यादे।

प्रभा० : सभों के साथ मुझे भी वही अन्न खाना पड़ा, यद्यपि मैंने बहुत कम भोजन किया था तथापि बेहोशी का असर ज्यादे रहा।

इतना कह प्रभाकरसिंह उठ खड़े हुए और सब तरफ घूम कर देखने लगे कि कहाँ कौन सोया हुआ है, जमना सरस्वती, और इन्दुमति तो उसी कमरे में फर्श के ऊपर सोई हुई थीं जिसमें प्रभाकरसिंह थे और बाकी की सब लौंडियाँ तथा ऐयार दूसरे कमरे में पडे हुए थे।

प्रभाकरसिंह ने जमना और सरस्वती की तरफ देख कर हरदेई से कहा, ‘‘पहिले तो मुझे यह देखना है कि इन लोगों ने किस ढंग पर अपना चेहरा रंगा हुआ है।’’

हरदेई : मैं आपसे कह चुका हूँ कि इन लोगों ने एक प्रकार की झिल्ली चेहरे पर चढ़ाई हुई है जिस पर पानी का असर नहीं होता।

प्रभा० : (जमना और सरस्वती के चेहरे पर से झिल्ली उतार कर) बेशक यह एक अनूठी चीज है, इसे मैं अपने पास रक्खूँगा।

हरदेई : (अथवा रामदास) बेशक यह चीज रखने योग्य है।

प्रभा० : इन लोगों ने भी बड़ा ही उत्पात मचा रक्खा था, आज इनकी चाल-बाजियों का अन्त हुआ। अब इन्हें शीघ्र ही दुनिया से उठा देना चाहिए नहीं तो एक-न-एक इन दोनों की बदौलत बड़ा ही अनर्थ हो जायगा और मैं किसी को अपना मुँह दिखाने लायक न रहूँगा। (कुछ सोचकर) मगर मुझसे इनके गले पर छुरी न चलाई जायेगी, यद्यपि मैं इनकी जान लेने के लिए तैयार हूँ मगर लाचारी से।

हरदेई : यदि दया आती हो तो इन्हें किसी कुएँ में ढकेल कर निश्चिन्त हो जाइये। इस जंगल के पीछे की तरफ पहाड़ी के कुछ ऊपर चढ़ के एक कुआँ है जो इस काम के लिए बहुत ही मुनासिब होगा, मैं अच्छी तरह जाँच कर चुका हूँ कि वह बहुत गहरा और अँधेरा है, उसमें गया हुआ आदमी फिर नहीं निकल सकता।

प्रभा० : अच्छी बात हैं, दोनों को ले चल कर उसी कूँए में डाल दो, मगर इन्दुमति को मैं अपने घर अर्थात लामाघाटी में ले जाऊँगा क्योंकि इसकी जुबानी बहुत-सी बातों का पता लगाना है।

हरदेई : मैं इस रायको पसन्द नहीं करता, मैं इन्दुमति को भी उसी कुएँ में पहुँचाना मुनासिब समझता हूँ।

प्रभा० : (कुछ सोच कर) अच्छा खैर इसे भी उसी में दाखिल करो।

इतना कह कर नकली प्रभाकरसिंह ने जमना को और रामदास ने सरस्वती को उठा कर पीठ पर लाद लिया और उस कुएँ पर चले गये जिसका पता रामदास ने दिया था।

यह कुआँ बँगले के पश्चिम तरफ पहाड़ी के कुछ ऊपर चढ़ कर पड़ता था। कुआँ बहुत प्रशस्त और गहरा था मगर इसका मुँह इतना छोटा था कि वहाँ के रहने वालों ने एक मामूली पत्थर की चट्टान से उसे ढाँक रक्खा था। कदाचित रामदास को इसका पता अच्छी तरह लग चुका था इसलिए वह नकली प्रभाकरसिंह को लिए हुए बहुत जल्द वहाँ जा पहुँचा जमना और सरस्वती को जमीन पर रख दोनों ने मिल कर उस कुएँ का मुँह खोला और फिर उन दोनों औरतों को एक-एक करके उसके अन्दर फेंक दिया अफसोस! अफसोस! अफसोस! भूतनाथ को इस दुष्कर्म का क्या नतीजा भोगना पड़ेगा इस पर उसके कुछ भी ध्यान न दिया!

दोनों बेचारियों को कुएँ में ढकेल कर भूतनाथ ने ध्यान देकर और कान लगा कर सुना कि नीचे गिरने की आवाज आती हैं या नहीं मगर किसी तरह की आवाज उसके कान में न गई जिससे उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ।

उन दोनों को कुएँ में ढकेलने के बाद रामदास दौड़ा हुआ गया और इन्दुमति को उठा लाया। भूतनाथ ने उसे भी कुएँ के अन्दर ढकेल दिया और फिर पत्थर से उसका मुँह उसी तरह ढांक दिया जैसा पहिले था।

इस काम से छुट्टी पाकर भूतनाथ और रामदास ने यह सोचा कि अब बाकी की औरतें जो इस घाटी में मौजूद हैं उन्हें भी मार कर बखेड़ा तय कर देना चाहिए क्योंकि इनमें से अगर एक भी जीती रह जायगी तो भण्डा फूटने का डर लगा ही रह जायगा अस्तु यह निश्चय किया गया कि उन सभों के लिये कोई दूसरा कुआँ खोजना चाहिए, क्योंकि जिस कुएँ में जमना और सरस्वती तथा इन्दु को डाला है उसके अन्दर घुस कर देखना उचित है कि उसमें पानी हैं कि नहीं अथवा उसके अन्दर का क्या हाल है।

आखिर ऐसा ही हुआ, उस कुएँ से थोड़ी दूर पहाड़ के कुछ ऊपर चढ़ कर एक कुआँ और था जिसका मुँह बहुत चौड़ा था। भूतनाथ और रामदास दोनों आदमी सब बेहोश लौंडियों को बँगले के अन्दर और बाहर से उठा लाये और एक-एक करके उस कुएँ के अन्दर डाल दिया। आह, भूतनाथ का कैसा कड़ा कलेजा था और यह कैसा घृणित काम उसने किया! अब उस घाटी के अन्दर कोई भी न रहा जो इन दोनों की खबर ले।

अब सबेरा हो गया बल्कि सूर्य भगवान भी उदयाचल से निकल कर अपनी आँखों से भूतनाथ और रामदास के कुकर्म देखने लगे।

भूतनाथ और रामदास उस कुएँ पर आये जिसमें जमना, सरस्वती और इन्दुमति को ढकेल दिया था। भूतनाथ ने रामदास से कहा कि तू कमन्द के सहारे इस कुएँ के अन्दर उतर जा और देख कि इसमें पानी है या नहीं।

भूतनाथ की आज्ञानुसार रामदास कमन्द थाम कर उसके अन्दर उतर गया। कमन्द का दूसरा सिरा भूतनाथ ने एक पत्थर से मजबूती के साथ अड़ा दिया था, रामदास ने नीचे आकर आवाज दी- ‘‘गुरुजी, यह कुआँ इस लायक नहीं था कि इसके अन्दर दुश्मनों को डाला जाता बल्कि यह तो स्वर्ग से भी बढ़ कर सुख देने वाला है। लीजिए अब कमन्द को छोड़ता हूँ लीजिये, क्योंकि अब मैं बाहर आने से रहा।

रामदास की बात सुन कर भूतनाथ को बड़ा आश्चर्य हुआ और जब उसने कमन्द खैंच कर देखा तो वास्तव में उसे ढीला पाया।

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