श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3
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सहयज्ञाः प्रजा: सृष्टा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।10।।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।10।।
पुरो अर्थात् इस सृष्टि के सबसे पुराने, अर्थात् सृष्टि के
आरंभ में सबसे पहले उद्भूत होने वाले ब्रह्माजी ने कल्प के आदि में यज्ञसहित
प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त
होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करनेवाला हो।।10।।
कल्प के प्रारंभ में सृष्टि के नियमों के साथ ही ब्रह्मा जी ने प्रजा, अर्थात् विभिन्न प्रकार के जीवन वाली जातियों को उनके विकास और वृद्धि के लिए अलग-अलग प्रकार के यज्ञों का साधन दिये। उदाहरण के लिए विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ, जलचर, थलचर और नभचर आदि। यहाँ प्रजा शब्द में ‘ज’ के आगे ‘प्र’ प्रत्यय लगाकर प्रकृति में पायी जाने वाली नाना प्रकार की जातियों पर ध्यान आकृष्ट किया गया है। यहाँ विशेष रूप से यह समझना चाहिए कि नाना प्रकार की प्रजाओं के लिए यज्ञ भी नाना प्रकार के हैं, जो कि उनकी इच्छा पूर्ति में सहायता करते हैं। जैसे मिट्टी में रहने वाला केंचुआ वर्षा ऋतु में मिट्टी पत्तियों आदि को खाकर उनसे मिट्टी की प्राकृतिक गुड़ाई करता है। अर्थात् केंचुआ अपना यज्ञ कर रहा है और किसान अपना ताकि दोनों अपनी-अपनी वृद्धि कर सकें और अपनी इच्छित भोग पा सकें।
कल्प के प्रारंभ में सृष्टि के नियमों के साथ ही ब्रह्मा जी ने प्रजा, अर्थात् विभिन्न प्रकार के जीवन वाली जातियों को उनके विकास और वृद्धि के लिए अलग-अलग प्रकार के यज्ञों का साधन दिये। उदाहरण के लिए विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ, जलचर, थलचर और नभचर आदि। यहाँ प्रजा शब्द में ‘ज’ के आगे ‘प्र’ प्रत्यय लगाकर प्रकृति में पायी जाने वाली नाना प्रकार की जातियों पर ध्यान आकृष्ट किया गया है। यहाँ विशेष रूप से यह समझना चाहिए कि नाना प्रकार की प्रजाओं के लिए यज्ञ भी नाना प्रकार के हैं, जो कि उनकी इच्छा पूर्ति में सहायता करते हैं। जैसे मिट्टी में रहने वाला केंचुआ वर्षा ऋतु में मिट्टी पत्तियों आदि को खाकर उनसे मिट्टी की प्राकृतिक गुड़ाई करता है। अर्थात् केंचुआ अपना यज्ञ कर रहा है और किसान अपना ताकि दोनों अपनी-अपनी वृद्धि कर सकें और अपनी इच्छित भोग पा सकें।
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