श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3
A PHP Error was encounteredSeverity: Notice Message: Undefined index: author_hindi Filename: views/read_books.php Line Number: 21 |
निःशुल्क ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3 |
(यह पुस्तक वेबसाइट पर पढ़ने के लिए उपलब्ध है।)
न हि कश्चितक्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवश: कर्मं सर्व: प्रकृतिजैर्गुणैः।।5।।
कार्यते ह्यवश: कर्मं सर्व: प्रकृतिजैर्गुणैः।।5।।
निसन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना
कर्म किये नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा
परवश हुआ कर्म करने के लिये बाध्य किया जाता है।।5।।
भगवान् कहते है कि जातु अर्थात् जिसने जन्म लिया है, उसके जीवन में ऐसा एक भी क्षण नहीं बीतता जब कि वह कोई कार्य न कर रहा हो। यह कार्य निद्रावस्था में सोना हो सकता है, स्वप्नावस्था में स्वप्न देखना हो सकता है, जिस समय आप जाग रहे होते हैं, उस समय आपका मन और बुद्धि सतत् सोचने और नई संभावनाओं के विषय में विचार कर रहे होते हैं, जबकि आपका शरीर लेटे, बैठे अथवा चलने फिरने की अवस्था में विभिन्न कार्य कर रहा होता है। हर चेतन प्राणी प्रकृति के विभिन्न नियमों के प्रभाव में इसी प्रकार विभिन्न कर्मों को करने के लिए विवश होता है। उदाहरण के लिए गाय अपने जीवन को चलाने के लिए घास अथवा चारा खाकर अथवा अपनी पूँछ से मक्खियों को उड़ाने का कार्य करके अपने स्वास्थ्य की रक्षा करती है। इसी प्रकार सभी प्राणी प्रकृति के नियमों में बंधे हुए अपने-अपने कार्य करते रहते हैं। मनुष्य जाति ने बुद्धि के विकास के साथ-साथ नये-नये कार्य करना सीखा है, और अन्य प्राणियों की तरह हम भी अपनी प्रकृति के अनुसार विभिन्न कार्यों को करने के लिए विवश हैं।
भगवान् कहते है कि जातु अर्थात् जिसने जन्म लिया है, उसके जीवन में ऐसा एक भी क्षण नहीं बीतता जब कि वह कोई कार्य न कर रहा हो। यह कार्य निद्रावस्था में सोना हो सकता है, स्वप्नावस्था में स्वप्न देखना हो सकता है, जिस समय आप जाग रहे होते हैं, उस समय आपका मन और बुद्धि सतत् सोचने और नई संभावनाओं के विषय में विचार कर रहे होते हैं, जबकि आपका शरीर लेटे, बैठे अथवा चलने फिरने की अवस्था में विभिन्न कार्य कर रहा होता है। हर चेतन प्राणी प्रकृति के विभिन्न नियमों के प्रभाव में इसी प्रकार विभिन्न कर्मों को करने के लिए विवश होता है। उदाहरण के लिए गाय अपने जीवन को चलाने के लिए घास अथवा चारा खाकर अथवा अपनी पूँछ से मक्खियों को उड़ाने का कार्य करके अपने स्वास्थ्य की रक्षा करती है। इसी प्रकार सभी प्राणी प्रकृति के नियमों में बंधे हुए अपने-अपने कार्य करते रहते हैं। मनुष्य जाति ने बुद्धि के विकास के साथ-साथ नये-नये कार्य करना सीखा है, और अन्य प्राणियों की तरह हम भी अपनी प्रकृति के अनुसार विभिन्न कार्यों को करने के लिए विवश हैं।
To give your reviews on this book, Please Login