श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3
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श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3।।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3।।
श्रीभगवान् बोले - हे निष्पाप! मैंने पहले भी कहा है कि इस लोक
में दो प्रकार की निष्ठाएं1 संभव है। इनमें से सांख्ययोगियों की निष्ठा
तो ज्ञानयोग से2 और योगियों की निष्ठा कर्मयोग3 से होती है।। 3।।
भगवान् के अनुसार लोगों को मुख्यतः दो प्रकार की प्रकृतियों में बाँटा जा सकता है। एक प्रकार की प्रकृति के लोग अधिकांशतः कर्मठ कहलाते हैं। उदाहरणस्वरूप इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है। जब किसी समाज के समक्ष अचानक कोई गंभीर समस्या आ खड़ी हो तो कुछ लोग उस समस्या के विभिन्न पहलुओं पर नाना प्रकार से विचार करते हैं। इस स्वभाव के लोगों की विशेषज्ञ भी कहा जाता है। गंभीर मंथन के बाद जो संभावनाएँ सामने आती है उनका प्रयोग करते हुए समाज में से कुछ लोग अत्यंत उत्साह और तत्परता से उठ खड़े होते हैं और इन विशेषज्ञों द्वारा सुझाये गये विचारों के कार्यान्वन में लग जाते हैं। इस उदाहरण में विशेषज्ञों को सांख्ययोगी और कार्यान्वन करने वाले लोगों को कर्मयोगी समझा जा सकता है। यहाँ इन दोनों प्रकार के लोगों में योग्यता से अधिक प्रभावी कारण होता है उनकी उस प्रकार के कार्य में स्वाभाविक रुचि। ऐसा नहीं है कि कर्मयोगी विशेषज्ञों की तरह सोचने वाली तीक्ष्ण बुद्धि नहीं रखते और ऐसा भी नहीं होता कि विशेषज्ञ उस कार्य को स्वयं पूरा करने की इच्छा नहीं रखते। होता केवल इतना है कि दोनों प्रकार के लोगों का स्वाभाविक रुझान ही अलग-अलग होता है। हाँ, यह अवश्य होता कि कभी-कभी इन लोगों की रुचियाँ बदल जाती है और कर्मयोगी ज्ञान में और सांख्ययोगी कर्म में रुचि लेने लगते हैं। आगे चलकर भगवान् इन अवस्थाओँ का क्रमशः विकास भी बतलाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि लोगों की साधन में निष्ठा उनकी प्रकृति के अनुसार ही होती है।
(1. साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात् पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा' है।
2. माया से उत्पन हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम 'ज्ञानयोग' है, इसीको 'संन्यास' 'सांख्ययोग' आदि नामों से कहा गया है।
3. फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम 'निष्काम कर्मयोग' है, इसीको 'समत्वयोग', 'बुद्धियोग', 'कर्मयोग', 'तदर्थकर्म', 'मदर्थकर्म', 'मत्कर्म' आदि नामों से कहा गया है।)
भगवान् के अनुसार लोगों को मुख्यतः दो प्रकार की प्रकृतियों में बाँटा जा सकता है। एक प्रकार की प्रकृति के लोग अधिकांशतः कर्मठ कहलाते हैं। उदाहरणस्वरूप इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है। जब किसी समाज के समक्ष अचानक कोई गंभीर समस्या आ खड़ी हो तो कुछ लोग उस समस्या के विभिन्न पहलुओं पर नाना प्रकार से विचार करते हैं। इस स्वभाव के लोगों की विशेषज्ञ भी कहा जाता है। गंभीर मंथन के बाद जो संभावनाएँ सामने आती है उनका प्रयोग करते हुए समाज में से कुछ लोग अत्यंत उत्साह और तत्परता से उठ खड़े होते हैं और इन विशेषज्ञों द्वारा सुझाये गये विचारों के कार्यान्वन में लग जाते हैं। इस उदाहरण में विशेषज्ञों को सांख्ययोगी और कार्यान्वन करने वाले लोगों को कर्मयोगी समझा जा सकता है। यहाँ इन दोनों प्रकार के लोगों में योग्यता से अधिक प्रभावी कारण होता है उनकी उस प्रकार के कार्य में स्वाभाविक रुचि। ऐसा नहीं है कि कर्मयोगी विशेषज्ञों की तरह सोचने वाली तीक्ष्ण बुद्धि नहीं रखते और ऐसा भी नहीं होता कि विशेषज्ञ उस कार्य को स्वयं पूरा करने की इच्छा नहीं रखते। होता केवल इतना है कि दोनों प्रकार के लोगों का स्वाभाविक रुझान ही अलग-अलग होता है। हाँ, यह अवश्य होता कि कभी-कभी इन लोगों की रुचियाँ बदल जाती है और कर्मयोगी ज्ञान में और सांख्ययोगी कर्म में रुचि लेने लगते हैं। आगे चलकर भगवान् इन अवस्थाओँ का क्रमशः विकास भी बतलाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि लोगों की साधन में निष्ठा उनकी प्रकृति के अनुसार ही होती है।
(1. साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात् पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा' है।
2. माया से उत्पन हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम 'ज्ञानयोग' है, इसीको 'संन्यास' 'सांख्ययोग' आदि नामों से कहा गया है।
3. फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम 'निष्काम कर्मयोग' है, इसीको 'समत्वयोग', 'बुद्धियोग', 'कर्मयोग', 'तदर्थकर्म', 'मदर्थकर्म', 'मत्कर्म' आदि नामों से कहा गया है।)
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