श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3
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यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।21।।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।21।।
श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही
आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के
अनुसार बरतने लग जाता है1।।21।।
जब हम कर्मेंद्रियों तथा मन, बुद्धि के द्वारा जीवन के विभिन्न अनुभव करते हैं, तो हमें हमारे प्रकृति प्रदत्त स्वभाव के अनुसार कुछ अनुभव रुचिकर लगते हैं, वहीं कुछ अरुचिकर। इन रुचिकर अनुभवों को जब हम अन्य व्यक्तियों में देखते हैं, तो स्वाभाविक है कि हम उनका अनुसरण करने लगते हैं। इस प्रक्रिया में हम अन्य व्यक्तियों के अन्य गुणों का भी अनुसरण करते हैं। हमारे आस-पास के साधारण लोगों के लिए यह प्रक्रिया तो दिखती ही है, पर विशेष गुणों वाले लोगों के लिए हम पर यह प्रक्रिया अधिक स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। भगवान् मनुष्यों में उद्भूत इस विशेष गुण के बारे ध्यान दिलाकर हमें चेताते हैं कि श्रेष्ठ पुरुषों को अपना आचरण सावधानी से करना चाहिए। क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष के प्रमाणों को आधार मानकर सामान्यजन उसके आचरण में वास्तविक तत्त्व को देखते हैं और उसके कर्मों का अनुसरण करने लगते हैं।
जब हम कर्मेंद्रियों तथा मन, बुद्धि के द्वारा जीवन के विभिन्न अनुभव करते हैं, तो हमें हमारे प्रकृति प्रदत्त स्वभाव के अनुसार कुछ अनुभव रुचिकर लगते हैं, वहीं कुछ अरुचिकर। इन रुचिकर अनुभवों को जब हम अन्य व्यक्तियों में देखते हैं, तो स्वाभाविक है कि हम उनका अनुसरण करने लगते हैं। इस प्रक्रिया में हम अन्य व्यक्तियों के अन्य गुणों का भी अनुसरण करते हैं। हमारे आस-पास के साधारण लोगों के लिए यह प्रक्रिया तो दिखती ही है, पर विशेष गुणों वाले लोगों के लिए हम पर यह प्रक्रिया अधिक स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। भगवान् मनुष्यों में उद्भूत इस विशेष गुण के बारे ध्यान दिलाकर हमें चेताते हैं कि श्रेष्ठ पुरुषों को अपना आचरण सावधानी से करना चाहिए। क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष के प्रमाणों को आधार मानकर सामान्यजन उसके आचरण में वास्तविक तत्त्व को देखते हैं और उसके कर्मों का अनुसरण करने लगते हैं।
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