श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2
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और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे।।35।।
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्।।36।।
तेरे वैरी तेरे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए तुझे बहुत-से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे; उससे अधिक दुःख और क्या होगा?।।36।।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्।।36।।
हतो वा प्राप्स्यसिस्वर्गंजित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।37।।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।37।।
या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिये निश्चय करके खड़ा हो जा।।37।।
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।38।।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।38।।
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिये तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा।।38।।
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रुणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थं कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।39।।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थं कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।39।।
हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोग1 के विषय में कही गयी और अब तू इसको कर्मयोग2 के विषय में सुन - जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बन्धन को भलीभांति त्याग देगा अर्थात् सर्वथा नष्ट कर डालेगा।।31।।
(1-2 अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखना चाहिये।)
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।40।।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।40।।
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