श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2
A PHP Error was encounteredSeverity: Notice Message: Undefined index: author_hindi Filename: views/read_books.php Line Number: 21 |
निःशुल्क ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2 |
|
(यह पुस्तक वेबसाइट पर पढ़ने के लिए उपलब्ध है।)
समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात् उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योग में लग जा; यह समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्मबन्धन से छूटने का उपाय है।।50।।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।51।।
क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त हो जाते हैं।।51।।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।52।।
जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भलीभांति पार कर जायगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आनेवाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जायगा।।52।।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।53।।
भांति-भांति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जायगी, तब तू योग को प्राप्त हो जायगा अर्थात् तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जायगा।।53।।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।54।।
अर्जुन बोले - हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?।।54।।
श्रीभगवानुवाच
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।55।।
To give your reviews on this book, Please Login