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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 2

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अथ द्वितीयोऽध्याय



सञ्जय उवाच



तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन:।।1।।

संजय बोले - उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आंसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रोंवाले शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति भगवान् मधुसूदन ने यह वचन कहा।।1।। संजय, अर्जुन और भगवान के बीच होने वाले वार्तालाप के बारे में आगे धृतराष्ट्र को यह बताते हैं कि श्रीकृष्ण अर्जुन से आगे कहते हैं।


श्रीभगवानुवाच

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।2।।

श्रीभगवान् बोले - हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देनेवाला है और न कीर्ति को करनेवाला ही है।।2।।

अर्जुन के वाक्यों को सुनने पर भगवान् सबसे पहले आश्चर्य से पूछते हैं कि इस शोकाशोक का विचार युद्ध के आरंभ के समय उसे कैसे आया? अर्जुन के छत्रिय स्वभाव को देखते हुए तथा उसके इतिहास को जानते हुए कृष्ण आश्चर्य करते हैं कि वह इस समय ऐसा विचार कैसे कर सकता है! भगवान् कहते हैं कि आचार विचार में श्रेष्ठ पुरुष इस प्रकार का व्यवहार नहीं करते हैं। उदाहरण के रूप में आज के समय यदि हमें कोई अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य का शुभारंभ करना हो, कोई ऐसा कार्य जिसमें हमें मिलने वाली सफलता सुनिश्चित न हो, बल्कि इस कार्य में हमारे सम्मान अथवा जीवन हानि आदि की संभावना हो तब हमें अपने भविष्य के प्रति सहज शंका बनी रहती है, परंतु साधारण मनुष्यों की बात तो अलग है पर श्रेष्ठ पुरुष अथवा बुद्धिमानी पुरुष इस तरह का विचार कार्य आरंभ करने के पहले ही करते हैं, न कि जब वे कार्य करने को उद्दत हों।

क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।3।।


इसलिये हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिये खड़ा हो जा।।3।।

इस समय तक लगता है कि कृष्ण, अर्जुन की अवस्था को सहज ही मानकर उसे उसी तरह समझाते हैं, जैसे कि हम साधारण परिस्थितियों में अपने किसी मित्र को इस प्रकार का व्यवहार करते देख उसे उलाहना देते हैं। इस विचार से कृष्ण अर्जुन को परंतप अर्थात् ऐसा व्यक्ति जो कि अपने शत्रुओँ को बहुत पीड़ा देने वाला होता है, उन पर दृढ़ता से विजय प्राप्त कर लेता है, के नाम से बुलाते हैं। भगवान् अर्जुन को परंतप के नाम से कहकर यह स्मरण करवाते हैं कि वह परंतप है, नपुंसक नहीं!

अर्जुन उवाच



कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।।4।।


अर्जुन बोले - हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्मपितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूंगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं।।4।।

अर्जुन अपना पक्ष रखता है और क्योंकि वह अपने मन में सोच रहा है कि मैं परंतप हूँ, वह तो ठीक है, परंतु यह परंतप अपने प्रिय पितामह को और अपने आदरणीय गुरु पर कैसे बाण चलाएगा और वह भी इतने बाण की संभवतः वे मृत्यु को भी प्राप्त हो जायें। यहाँ पर बात यह आ जाती है कि हमें सिखाया जाता है कि अपने पूजनीयों का आदर करना चाहिए, उनकी सेवा करनी चाहिए, न कि उन पर बाण चलाये जायें। अर्जुन का विरोध दुर्योधन और उसे इस कार्य में इसका साथ देने वाले भाइयों से था, न कि पितामह और गुरु से! यह अलग बात है कि वे दोनों इस विरोध में अर्जुन का साथ देने की अपेक्षा दुर्योधन का साथ दे रहे थे। फिर भी अर्जुन के आदर्श उसे यह नहीं सिखाते कि वह अपने आदरणीय जनों पर घातक प्रहार करे।

गुरूनहत्वा हि महानुभावा-
ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्ममपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्।।5।।


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