श्रीमद्भगवद्गीता भाग 1
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भगवद्गीता की पृष्ठभूमि। मानसिक समस्याओं की उहापोह से छुटकारा पाने के लिए आरंभ यहीं से किया जाता है।
संजय उवाच
दृष्ट्रा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसडग्म्य राजा वचनमब्रवीत्।।
आचार्यमुपसडग्म्य राजा वचनमब्रवीत्।।
संजय बोले- उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा ।। 2।।
आजकल के समय में क्रिकेट या फुटबाल का मैच आरंभ होने के समय टॉस निर्धारण अथवा दोनों टीमों के कोच और कप्तान आदि जिस प्रकार खेल आरंभ होने के समय मंत्रणा करते हैं उसी प्रकार दुर्योधन युद्ध आरंभ होने के समय द्रोणाचार्य से एक बार पुनः मंत्रणा करने जाता है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि उसे युद्धक्षेत्र में द्रोणाचार्य पर भीष्म की अपेक्षा अधिक विश्वास है। इसका कारण संभवतः यही है कि उसने अपने जीवन में द्रोणाचार्य को शिक्षा देते देखा है और उनसे, उसका स्वयं का व्यक्तिगत अनुभव जुड़ा हुआ है। भीष्म उसके लिए ऐतिहासिक पुरुष हैं, भीष्म कुरुवंश के संरक्षक तो हैं, परंतु उसे स्वयं भीष्म के शौर्य को देखने का कोई अनुभव नहीं है। यहाँ हमें ध्यान रखना होगा कि दुर्योधन के दादा आदि भी भीष्म के पुत्रों की आयु के थे। कुरुवंश के सम्मान अथवा रक्षा हेतु भीष्म ने इसके पूर्व जब भी अपना रण कौशल दिखाया था, वह समय दुर्योधन से दो पीढ़ी पहले का था। इसके विपरीत द्रोणाचार्य तो उसके अध्यापक ही थे, उसने और उसके समकक्ष सभी लोगों ने द्रोणाचार्य की देखरेख में शिक्षा ग्रहण की थी। पाठक समझ ही सकते हैं कि द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र के समकक्ष हैं, जबकि भीष्म उसके प्रपितामह की आयु के। दुर्योधन के लिए भीष्म पितामह एक ध्वज की तरह हैं जिसकी रक्षा करनी आवश्यक है, न कि एक योद्धा जो कि युद्ध के निर्णय को बदलने की क्षमता रखता है। यदि पाठक ध्यान दें तो यह समझना बहुत कठिन नहीं है कि लगभग चालीस वर्ष की आयु का दुर्योधन अभी इतना अशक्त भी नहीं है कि वह अपनी इच्छाओं को पूरा करने में स्वयं को शारीरिक रूप से अशक्त मानता हो। हाँ, हम अपने जीवन में इतनी आयु वाले कई लोगों को देखते हैं जो अपनी हठधर्मिता के आगे दिग्रभ्रमित हो जाते हैं। ऐसे लोग अपनी शारीरिक शक्ति और उर्जा का उपयोग अपनी मनमानी करने में ही लगाते हैं। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में लगभग ऐसी ही आयु वाले विश्व नेता ऐसे ही लोग सिद्ध हुए हैं।
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