लोगों की राय

श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: author_hindi

Filename: views/read_books.php

Line Number: 21

निःशुल्क ई-पुस्तकें >> श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)

वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।


चौ.-एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई।।
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं।।1।

हे भाई ! इस शरीर को प्राप्त होने का फल विषयभोग नहीं है। [इस जगत् के भोगों की तो बात ही क्या] स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अन्त में दुःख देने वाला है। अतः जो लोग मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगा देते हैं, वे मूर्ख अमृत को बदलकर विष ले लेते हैं।।1।।

ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई।।
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी।।2।।

जो पारसमणि को खोकर बदलेमें घुँघची ले लेता है, उसको कभी कोई भला (बुद्धिमान्) नहीं कहता। यह अविनाशी जीव [अण्डज, स्वेदज, जरायुज और उद्भिज्ज] चार खानों और चौरासी लाख योनियों में चक्कर लगाता रहता है।।2।।

फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही।।3।।

माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और गुण से घिरा हुआ (इनके वशमें हुआ) यह सदा भटकता रहता है। बिना ही कारण स्नेह करनेवाले ईश्वर कभी विरले ही दया करके इसे मनुष्यका शरीर देते हैं।।3।।

नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।
करनधार सद्गुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।4।।

यह मनुष्य का शरीर भवसागर [से तारने] के लिये (जहाज) है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है। सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेनेवाले) हैं। इस प्रकार दुर्लभ (कठिनतासे मिलनेवाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपासे सहज ही) उसे प्राप्त हो गये हैं,।।4।।

दो.-जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ।।44।।

जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतध्न और मन्द-बुद्धि है और आत्महत्या करनेवाले की गति को प्राप्त होता है।।44।।

चौ.-जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन हृदयँ दृढ़ गहहू।।
सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई।।1।।

यदि परलोक में और [यहाँ दोनों] सुख जगह चाहते हो, तो मेरे वचन सुनकर उन्हें हृदय में दृढ़तासे पकड़ रक्खो। हे भाई ! यह मेरी भक्ति का मार्ग सुलभ और सुखदायक है, पुराणों और वदोंने इसे गाया है।।1।।

ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका।।
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ।।2।।

ज्ञान अगम (दुर्गम) है, [और] उसकी प्राप्ति में अनेकों विघ्न हैं। उसका साधन कठिन है और उसमें मनके लिये कोई आधार नहीं है। बहुत कष्ट करनेपर कोई उसे पा भी लेता है, तो वह भी भक्तिरहित होनेसे मुझको प्रिय नहीं होता।।2।।

भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।।
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं संता। सतसंगति संसृति कर अंता।।3।।

भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है। परन्तु सत्संग (संतोके संग) के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते। और पुण्यसमूहके बिना संत नहीं मिलते। सत्संगति ही संसृति (जन्म-मरणके चक्र) का अन्त करती है।।3।।

पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा।।
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा।।4।।

जगत् में पुण्य एक ही है, [उसके समान] दूसरा नहीं। वह है-मन, कर्म और वचन से ब्राह्मणों के चरणोंकी पूजा करना। जो कपटका त्याग करके ब्राह्मणों की सेवा करता है उस पर मुनि और देवता प्रसन्न रहते हैं।।4।।

दो.-औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।।45।।

और भी एक गुप्त मत है, मैं सबसे हाथ जोड़कर कहता हूँ कि शंकरजी के भजन बिना मनुष्य मेरी भक्ति नहीं पाता।।45।।

चौ.-कहहु भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा।।
सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई।।1।।

कहो तो, भक्तिमार्गमें कौन-सा परिश्रम है ? इसमें न योगकी आवश्यकता है, न यज्ञ जप तप और उपवास की ! [यहाँ इतना ही आवश्यक है कि] सरल स्वभाव हो, मनमें कुटिलता न हो जो कुछ मिले उसीमें सदा सन्तोष रक्खे।।1।।

मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा।।
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई। एहि आचरन बस्य मैं भाई।।2।।

मेरा दास कहलाकर यदि कोई मनुष्यों की आशा करता है, तो तुम्हीं कहो, उसका क्या विश्वास है ? (अर्थात् उसकी मुझपर आस्था बहुत ही निर्बल है)। बहुत बात बढ़ाकर क्या कहूँ ? भाइयों ! मैं तो इसी आचरण के वश में हूँ।।2।।

बैर न बिग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा।।
अनारंभ अनिकेत अमानी।। अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी।।3।।

न किसी से वैर करे, न लड़ाई-झगड़ा करे, न आशा रक्खे, न भय ही करे। उसके लिये सभी दिशाएँ सदा सुखमयी हैं। जो कोई भी आरम्भ (फलकी इच्छासे कर्म) नहीं करता, जिसका कोई अपना घर नहीं है (जिसकी घरमें ममता नहीं है); जो मानहीन पापहीन और क्रोधहीन है, जो [भक्ति करनेमें] निपुण और विज्ञानवान् है।।3।।

प्रीति सदा सज्जन संसर्गा। तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा।।
भगति पच्छ हठ नहिं सठताई। दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई।।4।।

संतजनो के संसर्ग (सत्संग) से जिसे सदा प्रेम है, जिसके मन में सब विषय यहाँतक कि स्वर्ग और मुक्तितक [भक्तिके समाने] तृणके समान हैं, जो भक्तिके पक्षमें हठ करता है, पर [दूसरेके मतका खण्डन करनेकी] मूर्खता नहीं करता तथा जिसने सब कुतर्कों को दूर बहा दिया है।।4।।

दो.-मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह।
ता कर सुख सोइ जानइ परमानंद संदोह।।46।।

जो मेरे गुणसमूहों के और मेरे नाम के परायण है, एवं ममता, मद और मोहसे रहित है, उसका सुख वही जानता है, जो [परमात्मारूप परमानन्दराशिको प्राप्त है।।46।।

चौ.-सुनत सुधासम बचन राम के। गहे सबनि पद कृपाधाम के।।
जननि जनक गुर बंधु हमारे। कृपा निधान प्रान ते प्यारे।।1।।

श्रीरामचन्द्रजीके अमृत के समान वचन सुनकर सबने कृपाधामके चरण पकड़ लिये। [और कहा-] हे कृपानिधान ! आप हमारे माता, पिता, गुरु, भाई सब कुछ हैं और प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं।।1।।

तनु धनु धाम राम हितकारी। सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी।
असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ। मातु पिता स्वारथ रत ओऊ।।2।।

और हे शरणागत के दुःख हरने वाले रामजी ! आप ही हमारे शरीर, धन, घर-द्वार और सभी प्रकार के हित करनेवाले हैं। ऐसी शिक्षा आपके अतिरिक्त कोई नहीं दे सकता। माता-पिता [हितैषी हैं औऱ शिक्षा नहीं देते] ।।2।।

हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।।
स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं।।3।।

हे असुरों के शत्रु ! जगत् में बिना हेतु के (निःस्वार्थ) उपकार करनेवाले तो दो ही हैं-एक आप, दूसरे आपके सेवक। जगत् में [शेष] सभी स्वार्थ मित्र हैं। हे प्रभो ! उनमें स्वप्न में भी परमार्थ का भाव नहीं है।।3।।

सब के बचन प्रेम रस साने। सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने।।
निजद निज गृह गए आयसु पाई। बरनत प्रभु बतकही सुहाई।।4।।

सबके प्रेमरस में सने हुए वचन सुनकर श्रीरघुनाथजी हृदय में हर्षित हुए। फिर आज्ञा पाकर सब प्रभु की सुन्दर बातचीत का वर्णन करते हुए अपने-अपने घर गये।।4।।

दो.-उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप।।
ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप।।47।।

[शिव जी कहते हैं-] हे उमा ! अयोध्यामें रहनेवाले पुरुष और स्त्री सभी कृतार्थस्व रूप हैं; जहाँ स्वयं सच्चिदानन्दघन ब्रह्म श्रीरघुनाथजी राजा हैं।।47।।

चौ.-एक बार बसिष्ट मुनि आए। जहाँ राम सुखधाम सुहाए।।
अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा।।1।।

एक बार मुनि वसिष्ठजी वहाँ आये जहाँ सुन्दर सुखके धाम श्रीरामजी थे। श्रीरघुनाथजी ने उनका बहुत ही आदर-सत्कार किया और उनके चरण धोकर चरणाममृत लिया।।1।।

राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी।।
देखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हिदय अपारा।।2।।

मुनिने हाथ जोड़कर कहा-हे कृपासागर श्रीरामजी! मेरी विनती सुनिये ! आपके आचरणों (मुनुष्योचित चरित्रों) को देख-देखकर मेरे हृदय में अपार मोह (भ्रम) होता है।।2।।

महिमा अमिति बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना।।
उपरोहित्य कर्म अति मंदा। बेद पुरान सुमृति कर निंदा।।3।।

हे भगवान् ! आपकी महिमा की सीमा नहीं है, उसे वेद भी नहीं जानते। फिर मैं किस प्रकार कह सकता हूँ ? पुरोहिति का कर्म (पेशा) बहुत ही नीचा है। वेद, पुराण और स्मृति सभी इसकी निन्दा करते हैं।।3।।

जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही। कहा लाभ आगें सुत तोही।।
परमातमा ब्रह्म नर रूपा। होइहि रघुकुल भूषन भूपा।।4।।

जब मैं उसे (सूर्यवंश की पुरोहितीका काम) नहीं लेता था, तब ब्रह्माजीने मुझे कहा था-हे पुत्र ! इससे तुमको आगे चलकर बहुत लाभ होगा। स्वयं ब्रह्म परमात्मा मनुष्य रूप धारण कर रघुकुलके भूषण राजा होंगे।।4।।

दो.-तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान।
जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन।।48।।

तब मैंने हृदय में विचार किया कि जिसके लिये योग, यज्ञ, व्रत और दान किये जाते हैं उसे मैं इसी कर्म से पा जाऊँगा; तब तो इसके समान दूसरा कोई धर्म ही नहीं है।।48।।

चौ.-जप तप नियम जोग निज धर्मा। श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा।।
ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन।।1।।

जप, तप, नियम, योग, अपने-अपने [वर्णाश्रमके] धर्म श्रुतियोंसे उत्पन्न (वेदविहित) बहुत-से शुभ कर्म, ज्ञान, दया, दम (इन्द्रियनिग्रह), तीर्थस्नान आदि जहाँतक वेद और संतजनों ने धर्म कहे हैं [उनके करनेका]-।।1।।

आगम निगम पुरान अनेका। पढ़े सुने कर फल प्रभु एका।।
तव पद पंकज प्रीति निरंतर। सब साधन कर यह फल सुंदर।।2।।

[तथा] हे प्रभो ! अनेक, तन्त्र वेद और पुराणोंके पढ़ने और सुनने का सर्वोतम फल एक ही है और सब साधनों का भी यही एक सुन्दर फल हैं कि आपके चरणकमलों में सदा-सर्वदा प्रेम हो।।2।।

छूटइ मल कि मलहि के धोएँ। घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ।।
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।।3।।

मैलसे धोनेसे क्या मैल छूटता है ? जल के मथने ये क्या कोई घी पा सकता है ? [उसी प्रकार] हे रघुनाथजी ! प्रेम-भक्तिरूपी [निर्मल] जलके बिना अन्तःकरण का मल कभी नहीं जाता।।3।।

सोइ सर्बग्य तग्य सोई पंडित। सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित।।
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई। जाकें पद सरोज रति होई।।4।।

वही सर्वज्ञ है, वही तत्त्वज्ञ और पण्डित है, वही गुणोंका घर और अखण्ड विज्ञानवान् हैं; वही चतुर और सब सुलक्षणोंसे युक्त है, जिसका आपके चरणकमलों में प्रेम हैं।।4।।

दो.-नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु।।49।।

हे नाथ ! हे श्रीरामजी ! मैं आपसे एक वर माँगता हूँ, कृपा करके दीजिये। प्रभु (आप) के चऱणकमलों में मेरा प्रेम जन्म-जन्मान्तर में भी कभी न घटे।।49।।

चौ.-अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए। कृपासिंधु के मन अति भाए।।
हनूमान भरतादिक भ्राता। संग लिए सेवक सुखदाता।।1।।
ऐसा कहकर मुनि वसिष्ठ जी घर आये। वे कृपासागर श्रीरामजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। तदनन्तर सेवकों सुख देनेवाले श्रीरामजी ने हनुमान् जी तथा भरतजी भाइयों को साथ लिया।।1।।

पुनि कृपाल पुर बाहेर गए। गज रथ तुरग मगावत भए।।
देखि कृपा करि सकल सराहे। दिए उचित जिन्ह तिन्ह तेइ चाहे।।2।।

और फिर कृपालु श्रीरामजी नगर के बाहर गये और वहाँ उन्होंने हाथी, रथ और घो़ड़े मँगवाये। उन्हें देखकर, कृपा करके प्रभुने सबकी सराहना की और उनको जिस-जिसने चाहा, उस-उसको उचित जानकर दिया।।2।।

हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई। गए जहाँ सीतल अवँराई।।
भरत दीन्ह निज बसन डसाई। बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई।।3।।

संसार के सभी श्रमों को हरनेवाले प्रभु ने [हाथी, घोड़े आदि बाँटनेमें] श्रमका अनुभव किया और [श्रम मिटाने को] वहाँ गये जहाँ शीतल अमराई (आमोंका बगीचा) थी। वहाँ भरत जी ने अपना वस्त्र बिछा दिया। प्रभु उसपर बैठ गये और सब भाई उनकी सेवा करने लगे।।3।।

मारुतसुत तब मारुत करई। पुलक बपुष लोचन जल भरई।।
हनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कोऊ राम चरन अनुरागी।।4।।
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई। बार बार प्रभु निज मुख गाई।।5।।

उस समय पवन पुत्र हनुमान् जी पवन (पंखा) करने लगे। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रोंमे [प्रेमाश्रुओंका] जल भर आया। [शिवजी कहने लगे-] हे गिरिजे ! हनुमान् जी के समान न तो कोई बड़भागी है और न कोई श्रीरामजी के चरणों का प्रेमी ही है, जिनके प्रेम और सेवा की [स्वयं] प्रभुने अपने श्रीमुख से बार-बार बड़ाई की है।।4-5।।

दो.-तेहिं अवसर मुनि नारद आए करतल बीन।
गावन लगे राम कल कीरति सदा नबीन।।50।।

उसी अवसर पर नारद मुनि हाथ में वीणा लिये हुए आये। वे श्रीरामजी की सुन्दर और नित्य नवीन रहनेवाली कीर्ति गाने लगे।।50।।

चौ.-मामवलोकय पंकज लोचन। कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन।।
नील तामरस स्याम काम अरि। हृदय कंज मकरंद मधुप हरि।।1।।

कृपापूर्वक देख लेनेमात्र से शोक के छुड़ानेवाले हे कमलनयन ! मेरी ओर देखिये (मुझपर भी कृपादृष्टि कीजिये) हे हरि ! आप नीलकमल के समान श्यामवर्ण और कामदेवके शत्रु महादेवजीके हृदयकमल के मकरन्द (प्रेम-रस) के पान करनेवाले भ्रमर हैं।।1।।

जातुधान बरुथ बल भंजन। मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन।।
भूसुर ससि नव बृंद बलाहक। असरन सरन दीन जन गाहक।।2।।

आप राक्षसों की सेना के बल को तोड़नेवाले हैं। मुनियों और संतजनों को आनन्द देनेवाले और पापों के नाश करनेवाले हैं। ब्राह्मणरूपी खेती के लिये आप नये मेघसमूह हैं और शरणहीनों को शरण देनेवाले तथा दीन जनों को अपने आश्रय में ग्रहण करनेवाले हैं।।2।।

भुज बल बिपुल भार महि खंडित। खर दूषन बिराध बध पंडित।।
रावनारि सुखरूप भूपबर। जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर।।3।।

अपने बाहुबल से पृथ्वी के बड़े भारी बोझ को नष्ट करनेवाले, खर-दूषन और विराधके वध करने में कुशल, रावण के शत्रु, आनन्दस्वरूप, राजाओं में श्रेष्ठ और दशरथजी के कुलरूपी कुमुदिनी के चन्द्रमा श्रीरामजी ! आपकी जय हो।।3।।

सुजस पुरान बिदित निगमागम। गावत सुर मुनि संत समागम।।
कारुनीक ब्यलीक मद खंडन। सब बिधि कुसल कोसला मंडन।।4।।

आपका सुन्दर यश पुराणों, वेदों में और तन्त्रादि शास्त्रों में प्रकट है ! देवता, मुनि और संतों के समुदाय उसे गाते हैं। आप करुणा करनेवाले और झूठे मद का नाश करनेवाले, सब प्रकार से कुशल (निपुण) और श्रीअयोध्याजी के भूषण ही है।।4।।

कलि मल मथन नाम ममताहन। तुलसिदास प्रभु पाहि प्रनत जन।।5।।

आपका नाम कलियुग के पापों को मथ डालनेवाला और ममता को मारनेवाला है। हे तुलसीदासके प्रभु ! शरणागतकी रक्षा कीजिये।।5।।

दो.-प्रेम सहित मुनि नारद बरनि राम गुन ग्राम।
सोभासिंधु हृदयँ धरि गए जहाँ बिधि धाम।।51।।

श्रीरामचन्द्रजी गुणसमूहों का प्रेमपूर्वक वर्णन करके मुनि नारदजी शोभारके समुद्र प्रभुको हृदय में धरकर जहाँ ब्रह्मलोक है, वहाँ चले गये।51।।

चौ.-गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा। मैं सब कही मोरि मति जथा।।
राम चरित सत कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरनै पारा।।1।।

[शिवजी कहते हैं-] हे गिरिजे ! सुनो, मैंने यह उज्ज्वल कथा जैसी मेरी बुद्धि थी, वैसी पूरी कह डाली। श्रीरामजी के चरित्र सौ करोड़ [अथवा] अपार हैं। श्रुति और शारदा भी उनका वर्णन नहीं कर सकते।।1।।

राम अनंत अनंत गुनानी। जन्म कर्म अनंत नामानी।।
जल सीकर महि रज गनि जाहीं। रघुपति चरित न बरनि सिराहीं।।2।।

भगवान् श्रीराम अनन्त हैं; उनके गुण अनन्त हैं; जन्म कर्म और नाम भी अनन्त हैं। जलकी बूँदे और पृथ्वीके रज-कण चाहे गिने जा सकते हों, पर श्रीरघुनाथजी के चरित्र वर्णन करने से नहीं चुकते।।2।।

बिमल कथा हरि पद दायनी। भगति होई सुनि अनपायनी।।
उमा कहिउँ सब कथा सुहाई। जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई।।3।।

यह पवित्र कथा भगवान् के परमपद को देने वाली है। इसके सुनने से अविचल भक्ति प्राप्त होती है। हे उमा ! मैंने वह सब सुन्दर कथा कही जो काकभुशुण्डिजीने गरुड़जी को सुनायी थी।।3।।

कछुक राम गुन कहेउँ बखानी। अब का कहौं सो कहहु भवानी।।
सुनि सुभ कथा उमा हरषानी। बोली अति बिनीत मृदु बानी।।4।।

मैंने श्रीरामजी के कुछ थोड़े-से गुण बखानकर कहे हैं। हे भवानी ! सो कहो, अब और क्या कहूँ ? श्रीरामजी की मंगलमयी कथा सुनकर पार्वतीजी हर्षित हुईं और अत्यन्त विनम्र तथा कोमल वाणी बोलीं।।4।।

धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी। सुनेउँ राम गुन भव भय हारी।।5।।

हे त्रिपुरारि ! मै धन्य हूँ, धन्य-धन्य हूँ, जो मैंने जन्म-मृत्यु के हरण करनेवाले श्रीरामजी के गुण (चरित्र) सुने।।5।।

दो.-तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह।
जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह।।52क।।

हे कृपाधाम ! अब आपकी कृपा से मैं कृतकृत्य हो गयी। अब मुझे मोह नहीं रह गया। हे प्रभु ! मैं सच्चिदानन्दघन प्रभु श्रीरामजी के प्रताप को जान गयी।।52(क)।।

नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर।
श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर।।52ख।।

हे नाथ ! आपकी मुखरूपी चन्द्रमा श्रीरघुवीरकी कथारूपी अमृत बरसाता है। हे मतिधीर ! मेरा मन कर्णपुटोंसे उसे पीकर तृप्त नहीं होता।।52(ख)।।

चौ.-राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं।।
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहिं निरंतर तेऊ।।1।।

श्रीरामजी के चरित्र सुनते-सुनते जो तृप्त हो जाते हैं (बस कर देते हैं), उन्होंने तो उसका विशेष रस जाना ही नहीं। जो जीवन्मुक्त महामुनि हैं, वे भी भगवान् के गुण निरन्तर सुनते रहते हैं।।1।।

भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा।।
बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा।।2।।

जो संसाररूपी सागर का पार पाना चाहता है, उसके लिये तो श्रीरामजी की कथा दृढ़ नौका के समान है। श्रीहरि के गुणसमूह तो विषयी लोगों के लिये भी कानों को सुख देनेवाले और मनको आनन्द देनेवाले हैं।।2।।

श्रवनवंत अस को जग माहीं। जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं।।
ते जड़ जीव निजात्मक घाती। जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती।।3।।

जगत् में कान वाला ऐसा कौन है जिसे श्रीरघुनाथजी के चरित्र न सुहाते हों। जिन्हें श्रीरघुनाथजी की कथा नहीं सुहाती, वे मूर्ख जीव तो अपनी आत्मा की हत्या करनेवाले हैं।।3।।

हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा। सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा।।
तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई। कागभुसुंडि गरुड़ प्रति गाई।।4।।

हे नाथ ! आपने श्रीरामचरितमानस का गान किया, उसे सुनकर मैंने अपार सुख पाया। आपने जो यह कहा कि यह सुन्दर कथा काकभुशुण्डिजी ने गरुड़जी से कहीं थी-।।4।।

दो.-बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह।
बायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह।।53।।

सौ कौए का शरीर पाकर भी काकभुशुण्डि वैराग्य, ज्ञान और विज्ञान में दृढ़ हैं, उनका श्रीरामजीके चरणोंमें अत्यन्त प्रेम है और उन्हें श्रीरघुनाथजी की भक्ति भी प्राप्त है, इस बात का मुझे परम सन्देह हो रहा है।।53।।

चौ.-नर सहस्त्र महँ सुनहु पुरारी। कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी।।
धर्मसील कोटिक महँ कोई। बिषय बिमुख बिराग रत होई।।1।।

हे त्रिपुरारि ! सुनिये, हजारों मनुष्योंमें कोई एक धर्म के व्रत का धारण करनेवाला होता है और करोड़ों धर्मात्माओं में कोई एक विषय से विमुख (विषयोंका त्यागी) और वैराग्यपरायण होता है।।1।।

कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई। सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई।।
ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ। जीवमुक्त सकृत जग सोऊ।।2।।

श्रुति कहती है कि करोड़ों विरक्तों में कोई एक ही सम्यक् (यथार्थ) ज्ञान को प्राप्त करता है और करोड़ों ज्ञानियों में कोई एक ही जीवन्मुक्त होता है। जगत् में कोई विरला ही ऐसा (जीवन्मुक्त) होगा।।2।।

तिन्ह सहस्त्र महुँ सब सुख खानी। दुर्लभ ब्रह्म लीन बिग्यानी।।
धर्मशील बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी।।3।।

हजारों जीवन्मुक्त में भी सब सुखों की खान, ब्रह्म में लीन विज्ञानवान् पुरुष और भी दुर्लभ है। धर्मात्मा, वैराग्यवान्, ज्ञानी, जीवन्मुक्त और ब्रह्मलीन।।3।।

सब ते सो दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया।।
सो हरिभगति काग किमि पाई। बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई।।4।।

इन सबमें भी हे देवाधिदेव महादेवजी ! वह प्राणी अत्यन्त दुर्लभ है जो मद और मायासे रहित होकर श्रीरामजी की भक्तिके परायण हो। विश्वनाथ ! ऐसी दुर्लभ हरिभक्त को कौआ कैसे पा गया, मुझे समझाकर कहिये।।4।।

दो.-राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर।
नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर।।54।।

हे नाथ ! कहिये, [ऐसे] श्रीरामपरायण, ज्ञानरहित, गुणधाम और धीरबुद्धि भुशुण्डिजी ने कौए का शरीर किस कारण पाया ?।।54।।

चौ.-यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा। कहहु कृपाल काग कहँ पावा।।
तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी।।1।।

हे कृपालु ! बताइये, उस कौएने प्रभु का यह पवित्र और सुन्दर चरित्र कहाँ पाया ! और हे कामदेव के शत्रु ! यह भी बताइये, आपने इसे किस प्रकार ? मुझे बड़ा भारी कौतूहल हो रहा है।।1।।

गरुड़ महाग्यनी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी।
तेहिं केहि हेतु काग सन जाई। सुनी कथा मुनि निकर बिहाई।।2।।

गरुड़जी तो महानज्ञानी, सद्गुणोंकी राशि श्रीहरिके सेवक और उनके अत्यन्त निकट रहनेवाले (उनके वाहन ही) हैं। उन्होंने मुनियों के समूह को छोड़कर, कौए से जाकर हरिकथा किस कारण सुनी ?।।2।।

कहहु कवन बिधि भा संबादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा।।
गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर सुख पाई।।3।।

कहिये, काकभुशुण्डि और गरुड़ इन दोनों हरिभक्तों की बातचीत किस प्रकार हुई? पार्वतीजी की सरल, सुन्दर वाणी सुनकर शिवजी सुख पाकर आदरके साथ बोले-।।3।।

धन्य सती पावन मति तोरी। रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी।।
सुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा।।4।।

हे सती ! तुम धन्य हो; तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त पवित्र है। श्रीरघुनाथजी के चरणों में तुम्हारा कम प्रेम नहीं है (अत्याधिक प्रेम है)। अब वह परम पवित्र इतिहास सुनो, जिसे सुनने से सारे लोक के भ्रम का नाश हो जाता है।।4।।

उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा।।5।।

तथा श्रीरामजीके चरणोंमें विश्वास उत्पन्न होता है और मनुष्य बिना ही परिश्रम संसाररूपी समुद्र से तर जाता है।।5।।

दो.-एसिअ प्रस्र बिहंगपति कीन्हि काग सन जाइ।
सो सब सादर कहिहउँ सुनहु उमा मन लाइ।।55।।

पक्षिराज गरुड़जीने भी जाकर काकभुशुण्डिजीसे प्रायः ऐसे ही प्रश्न किये थे। हे उमा ! मैं वह सब आदरसहित कहूँगा, तुम मन लगाकर सुनो।।55।।

चौ.-मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि। सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि।।
प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा। सती नाम तब रहा तुम्हारा।।1।।

मैंने जिस प्रकार वह भव (जन्म-मृत्यु) से छुड़ानेवाली कथा सुनी, हे सुमुखी! हे सुलोचनी ! वह प्रसंग सुनो। पहले तुम्हारा अवतार दक्ष के घर हुआ था। तब तुम्हारा नाम सती था।।1।।

दच्छ जग्य तव भा अपमाना। तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना।।
मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा। जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा।।2।।

दक्ष के यज्ञ में तुम्हारा अपमान हुआ। तब तुमने अत्यन्त क्रोध करके प्राण त्याग दिये थे और फिर मेरे सेवकों ने यज्ञ विध्वंस कर दिया था। वह सारा प्रसंग तुम जानती ही हो।।2।।

तब अति सोच भयउ मन मोरें। दुखी भय़उँ बियोग प्रिय तोरें।।
सुंदर बन गिरि सरित तड़ागा। कौतुक देखत फिरउँ बेरागा।।3।।

तब मेरे मन में बड़ा सोच हुआ और हे प्रिये ! मैं तुम्हारे वियोग से दुखी हो गया। मैं विरक्तभाव से सुन्दर वन, पर्वत, नदी, और तालाबों का कौतुक (दृश्य) देखता फिरता था।।3।।

गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी। नील सैल एक सुंदर भूरी।।
तासु कनकमय सिखर सुहाए। चारि चारु मोरे मन भाए।।4।।

सुमेरु पर्वत की उत्तर दिशा में, और भी दूर, एक बहुत ही सुन्दर नील पर्वत हैं। उसके सुन्दर सुवर्णमय शिखर हैं, [उनमेंसे] चार सुन्दर शिखर मेरे मन को बहुत ही अच्छे लगे।।4।।

तिन्ह पर एक बिटप बिसाला। बट पीपर पाकरी रसाला।।
सैलोपरि सर सुंदर सोहा। मनि सोपान देखि मन मोहा।।5।।

उन शिखरों में एक-एक पर बरगद, पीपल, पाकर और आम का एक-एक विशाल वृक्ष है। पर्वत के ऊपर एक सुन्दर तालाब शोभित है; जिसकी सीढ़ियाँ देखकर मन मोहित हो जाता है।।5।।

दो.-सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग।।
कूजत कल रव हंस गन गुंजत मंजुल भृंग।।56।।

उसका जल शीतल, निर्मल और मीठा है; उसमें रंग-बिरंगे बहुत-से कमल खिले हुए हैं। हंसगण मधुर स्वर से बोल रहे हैं और भौंरे सुन्दर गुंजार कर रहे रहे हैं।।56।।

चौ.-तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पांत न होई।।
माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका।।1।।

उस सुन्दर पर्वत पर वही पक्षी (काकभुशुण्डि) बसता है। उसका नाश कल्प के अन्त में भी नहीं होता। मायारचित अनेकों गुण-दोष, मोह, काम आदि अविवेक।।1।।

रहे ब्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं।।
तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा।।2।।

जो सारे जगत् में छा रहे हैं, उस पर्वत के पास भी कभी नहीं फटकते। वहाँ बसकर जिस प्रकार वह काक हरि को भजता है, हे उमा ! उसे प्रेमसहित सुनो।।2।।

पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई।।
आँब छाँह कर मानस पूजा। तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा।।3।।

वह पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान धरता है। पाकर के नीचे जपयज्ञ करता है। आम की छाया में मानसिक पूजा करता है। श्रीहरि के भजन को छोड़कर उसे दूसरा कोई काम नहीं है।।3।।

बर तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहि अनेक बिहंगा।।
राम चरित बिचित्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना।।4।।

बरगद के नीचे वह श्री हरि की कथाओं के प्रसंग कहता है। वहाँ अनेकों पक्षी आते और कथा सुनते हैं। वह विचित्र रामचरित्र को अनेकों प्रकार से प्रेमसहित आदरपूर्वक गान करता है।।4।।

सुनहिं सकल मति बिमल मराला। बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला।।
जब मैं जाइ सो कौतुक देखा। उर उपजा आनंद बिसेषा।।5।।

सब निर्मल बुद्धिवाले हंस, जो सदा उस तालाब पर बसते हैं, उसे सुनते हैं। जब मैंने वहाँ जाकर यह कौतुक (दृश्य) देखा, तब मेरे हृदय में विशेष आनन्द उत्पन्न हुआ।।5।।

दो.-तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास।
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास।।57।।

तब मैंने हंस का शरीर धारण कर कुछ समय वहाँ निवास किया और श्रीरघुनाथजी के गुणों को आदरसहित सुनकर फिर कैलास को लौट आया।।57।।

चौ.-गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा। मैं जेहि समय गयउँ खग पासा।।
अस सो कथा सुनहु जेहि हेतू। गयउ काग पहिं खग कुल केतू।।1।।

हे गिरिजे ! मैंने वह सब इतिहास कहा कि जिस समय मैं काकभुशुण्डि के पास गया था। अब वह कथा सुनो जिस कारण से पक्षिकुलके ध्वजा गरुड़जी उस काक के पास गये थे।।1।।

जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा।।
इंद्रजीत कर आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड़ पठायो।।2।।

जब श्रीरघुनाथजी ने ऐसी रणलीला की जिस लीला का स्मरण करनेसे मुझे लज्जा होती है-मेघनाद के हाथों अपने को बँधा लिया- तब नारद मुनि ने गरुड़ को भेजा।।2।।

बंधन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा।।
प्रभु बंधन समुझत बहु भाँती। करत बिचार उरग आराती।।3।।

सर्पों के भक्षक गरुड़जी बन्धन काटकर गये, तब उनके हृदय में बड़ा भारी विषाद उत्पन्न हुआ। प्रभु के बन्धन को स्मरण करके सर्पों के शुभ गरुड़जी बहुत प्रकार से विचार करने लगे-।।3।।

ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा।।
सो अवतार सुनेउँ जग माहीं। देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं।।4।।

जो व्यापक, विकाररहित, वाणी के पति और माया-मोहसे परे ब्रह्म परमेश्वर हैं, मैंने सुना था कि जगत् में उन्हीं का अवतार है। पर मैंने उस (अवतार) का प्रभाव कुछ भी नहीं देखा।।5।।

दो.-भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम।
खर्ब निसाचर बाँधेउ नागपास सोई राम।।58।।

जिनका नाम जयकर मनुष्य संसार के बन्धन से छूट जाते हैं उन्हीं राम को एक तुच्छ राक्षस ने नागपाश से बाँध लिया।।58।।

चौ.-नाना भाँति मनहि समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा।।
खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई। भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई।।1।।

गरुड़जी ने अनेक प्रकार से अपने मन को समझाया। पर उन्हें ज्ञान नहीं हुआ, हृदय में भ्रम और भी अधिक छा गया। [सन्देहजनित] दुःखसे दुखी होकर, मनमें कुतर्क बढ़ाकर वे तुम्हारी ही भाँति मोहवश हो गये।।1।।

ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं।।
सुनि नारदहि लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम कै माया।।2।।

व्याकुल होकर वे देवर्षि नारदजीके पास गये और मनमें जो सन्देह था, वह उनसे कहा। उसे सुनकर नारदको अत्यन्त दया आयी। [उन्होंने कहा-] हे गरुड़ ! सुनिये ! श्रीरामजी की माया बड़ी ही बलवती है।।2।।

जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई। बरिआईं बिमोह मन करई।।
जेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही।।3।।

जो ज्ञानियों के चित्त को भी भलीभाँति हरण कर लेती है और उनके मन में जबर्दस्ती बड़ा भारी मोह उत्पन्न कर देती है तथा जिसने मुझको भी बहुत बार नचाया है, हे पक्षिराज ! वही माया आपको भी व्याप गयी है।।3।।

महामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें।।
चतुरानन पहिं जाहु खगेसा। सोइ करेहु जेहि होइ निदेसा।।4।।

हे गरुड़ ! आपके हृदय में बड़ा भारी मोह उत्पन्न हो गया है। यह मेरे समझाने से तुरंत नहीं मिटेगा अतः हे पक्षिराज ! आप ब्रह्माजीके पास जाइये और वहाँ जिस काम के लिये आदेश मिले, वही कीजियेगा।।4।।

दो.-अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान।
हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान।।59।।

ऐसा कहकर परम सुजान देवर्षि नारदजी श्रीरामजीका गुणगान करते हुए और बारंबार श्रीहरि की मायाका बल वर्णन करते हुए चले।।59।।

चौ.-तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ। निज संदेह सुनावत भयऊ।।
सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा।।1।।

तब पक्षिराज गरुड़ ब्रह्माजीके पास गये और अपना सन्देह उन्हें कह सुनाया। उसे सुनकर ब्रह्माजी ने श्रीरामचन्द्रजी को सिर नवाया और उनके प्रताप को समझकर उनके अत्यन्त प्रेम छा गया।।1।।

मन महुँ करइ बिचार बिधाता। माया बस कबि कोबिद ग्याता।।
हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा।।2।।

ब्रह्माजी मन में विचार करने लगे कि कवि, कोविद और ज्ञानी सभी मायाके वश हैं। भगवान् की माया का प्रभाव असीम है, जिसने मुझतक को अनेकों बार नचाया है।।2।।

अग जगमय जग मम उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा।
तब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई।।3।।

यह सार चराचर जगत् तो मेरा रचा हुआ है। जब मैं ही मायावश नाचने लगता हूँ, तब पक्षिराज गरुड़को मोह होना कोई आश्चर्य [की बात] नहीं है। तदनन्तर ब्रह्माजी सुन्दर वाणी बोले-श्रीरामजीकी महिमाको महादेवजी जानते हैं।।3।।

बैनतेय संकर पहिं जाहू। तात अनत पूछहु जनि काहू।।
तहँ होइहि तव संसय हानी। चलेउ बिहंग सुनत बिधि बानी।।4।।

हे गरुड़ ! तुम शंकरजीके पास जाओ। हे तात ! और कहीं किसी से न पूछना। तुम्हारे सन्देहका नाश वहीं होगा। ब्रह्माजीका वचन सुनते ही गरुड़ चल दिये।।4।।

दो.-परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास।
जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास।।60।।

तब बड़ी आतुरता (उतावली) से पक्षिराज गरुड़ मेरे पाय आये। हे उमा ! उस समय मैं कुबेर के घर जा रहा था और तुम कैलासपर थीं।।60।।

चौ.-तेहिं मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन संदेह सुनावा।।
सुनि ता करि बिनती मृदु बानी। प्रेम सहित मैं कहेउँ भवानी।।1।।

गरुड़जी ने आदरपूर्वक मेरे चरणों में सिर नवाया और फिर मुझको अपना सन्देह सुनाया। हे भवानी ! उनकी विनती और कोमल वाणी सुनकर मैंने प्रेमसहित उनसे कहा-।।1।।

मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही।।
तबहिं होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा।।2।।

हे गरुड़ ! तुम मुझे रास्ते में मिले हो। राह चलते मैं तुम्हें किस प्रकार समझाऊँ ? सब सन्देहों का तो तभी नाश हो जब दीर्घ कालतक सत्संग किया जाय।।2।।

सुनिअ तहाँ हरिकथा सुहाई। नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई।।
जेहिं महुँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना।।3।।

और वहां (सत्संग में) सुन्दर हरि कथा सुनी जाय, जिसे मुनियोंने अनेकों प्रकारसे गाया है और जिसके आदि, मध्य और अन्त में भगवान् श्रीरामचन्द्रजी ही प्रतिपाद्य प्रभु हैं।।3।।

नित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवउँ तहाँ सुनहु तुम्ह जाई।।
जाइहि सुनत सकल संदेहा। राम चरन होइहि अति नेहा।।4।।

हे भाई ! जहाँ प्रतिदिन हरिकथा होती है, तुमको मैं वहीं भेजता हूँ, तुम जाकर उसे सुनो। उसे सुनते ही तुम्हारा सब सन्देह दूर हो जायगा और तुम्हें श्रीरामजीके चरणोंमें अत्यन्त प्रेम होगा।।4।।

दो.-बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग।।61।।

सत्संगके बिना हरि की कथा सुननेको नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोह के गये बिना श्रीरामचन्द्रजी के चरणोंमें दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता।।61।।

चौ.-मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा।।
उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला।।1।।

बिना प्रेम के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्यादिके करनेसे श्रीरधुनाथजी नहीं मिलते। [अतएव तुम सत्संग के लिये वहाँ जाओ जहाँ] उत्तर दिशा में एक सुन्दर नील पर्वत है। वहाँ परम सुशील काकभुशुण्डिजी रहते हैं।।1।।

राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना।।
राम कथा सो कहइ निरंतर। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर।।2।।

वे रामभक्ति के मार्ग में परम प्रवीण हैं, ज्ञानी हैं, गुणों के धाम हैं, और बहुत कालके हैं। वे निरन्तर श्रीरामचन्द्रजी की कथा कहते रहते हैं, जिसे भाँति-भाँति के श्रेष्ठ पक्षी आदरसहित सुनते हैं।।2।।

जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी। होइहि मोह जनित दुख दूरी।।
मैं जब तेहि सब कहा बुझाई। चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई।।3।।

वहाँ जाकर श्रीहरि के गुण समूहों को सुनो। उनके सुनने से मोह से उत्पन्न तुम्हारा दुःख दूर हो जायगा। मैंने उसे जब सब समझाकर कहा, तब वह मेरे चरणों में सिर नवाकर हर्षित होकर चला गया।।3।।

ताते उमा न मैं समुझावा। रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा।।
होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खौवै चह कृपानिधाना।।4।।

हे उमा ! मैंने उसको इसीलिये नहीं समझाया कि मैं श्रीरघुनाथजीकी कृपासे उसका मर्म (भेद) पा गया था। उसने कभी अभिमान किया होगा, जिसको कृपानिधान श्रीरामजी नष्ट करना चाहते हैं।।4।।

कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा।।
प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी।।5।।

फिर कुछ इस कारण भी मैंने उसको अपने पास नहीं रक्खा कि पक्षी पक्षी की हो बोली समझते हैं। हे भवानी ! प्रभु की माया [बड़ी ही] बलवती है, ऐसा कौन ज्ञानी है, जिसे वह न मोह ले ?।।5।।

दो.-ग्यानी भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान।
ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान।।62क।।

जो ज्ञानीयोंमें और भक्तोंमें शिरोमणि हैं एवं त्रिभुवनपति भगवान् के वाहन हैं, उन गरुड़ को भी माया ने मोह लिया। फिर भी नीच मनुष्य मूर्खतावश घमंड किया करते हैं।।62(क)।।

मासपारायण, अट्ठाईसवाँ विश्राम


सिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन।
अस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान।।62ख।।

यह माया जब शिव जी और ब्रह्माजी को भी मोह लेती है, तब दूसरा बेचारा क्या चीज है ? जी में ऐसा जानकर ही मुनिलोग उस माया के स्वामी भगवान् का भजन करते हैं।।62(ख)।।

चौ.-गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडा। मति अकुंठ हरि भगति अखंडा।।
देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ। माया मोह सोच सब गयऊ।।1।।

गरुड़जी वहाँ गये जहाँ निर्बाध बुद्धि और पूर्ण भक्तिवाले काकभुशुण्डि बसते थे। उस पर्वत को देखकर उनका मन प्रसन्न हो गया और [उसके दर्शनसे ही] सबसे माया, मोह तथा सोच जाता रहा।।1।।

करि तड़ाग मज्जन जलपाना। बट तर गयउ हृदयँ हरषाना।।
बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए। सुनै राम के चरित सुहाए।।2।।

तालाब में स्नान और जलपान करके वे प्रसन्नचित्त से वटवृक्ष के नीचे गये। वहाँ श्रीरामजी के सुन्दर चरित्र सुनने के लिये बूढ़े-बूढ़े पक्षी आये हुए थे।।2।।

कथा अरंभ करै सोइ चाहा। तेही समय गयउ खगनाहा।।
आवत देखि सकल खगराजा। हरषेउ बायस सहित समाजा।।3।।

भुशुण्डिजी कथा आरम्भ करना ही चाहते थे कि उस समय पक्षिराज गरुड़जी वहाँ जा पहुँचे। पक्षियों के राजा गरुड़जी को आते देखकर काकभुशुण्डिजीसहित सारा पक्षिसमाज हर्षित हुआ।।3।।

अति आदर खगपति कर कीन्हा। स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा।।
करि पूजा समेत अनुरागा। मधुर बचन तब बोलेउ कागा।।4।।।

उन्होंने पक्षिराज गरुड़जी का बहुत ही आदर-सत्कार किया और स्वागत (कुशल) पूछकर बैठने के लिये सुन्दर आसन दिया फिर प्रेमसहित पूजा करके काकभुशुण्डिजी मधुर वचन बोले-।।4।।

दो.-नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज।
आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहिं काज।।63क।।

हे नाथ ! हे पक्षिराज ! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हो गया। आप जो आज्ञा दें, मैं अब वही करूँ। हे प्रभो ! आप किस कार्य के लिये आये हैं?।।63(क)।।

सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस।
जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस।।63ख।।

पक्षिराज गरुड़जीने कोमल वचन कहे-आप तो सदा ही कृतार्थरूप हैं, जिनकी बड़ाई स्वयं महादेवजी ने आदरपूर्वक अपने श्रीमुख से की है।।63(ख)।।

चौ.-सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ।।
देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम।।1।।

हे तात ! सुनिये, मैं जिस कारणसे आया था, वह सब कार्य तो यहाँ आते ही पूरा हो गया। फिर आपके दर्शन भी प्राप्त हो गये। आपका परम पवित्र आश्रम देखकर ही मेरा मोह, सन्देह और अनेक प्रकारके भ्रम सब जाते रहे।।1।।

अब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नसावनि।।
सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनयउँ प्रभु तोही।।2।।

अब हे तात ! आप मुझे श्रीरामजीकी अत्यन्त पवित्र करने वाली, सदा सुख देनेवाली और दुःखसमूह का नाश करनेवाली कथा आदरसहित सुनाइये। हे प्रभो ! मैं बार-बार आपसे यही विनती करता हूँ।।2।।

सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता। सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता।।
भयउ तासु मन परम उछाहा। लाग कहै रघुपति गुन गाहा।।3।।

गरुड़जी की विनम्र, सरल, सुन्दर, प्रेमयुक्त, सुख, प्रद और अत्यन्त पवित्रवाणी सुनते ही भुशुण्डिजी के मनमें परम उत्साह हुआ और वे श्रीरघुनाथजी के गुणों की कथा कहने लगे।।3।।

प्रथमहिं अति अनुराग भवानी। रामचरित सर कहेसि बखानी।।
पुनि नारद कर मोह अपारा। कहेसि बहुरि रावन अवतारा।।4।।

हे भवानी ! पहले तो उन्होंने बड़े ही प्रेम से रामचरितमानस सरोवर का रूपक समझाकर कहा। फिर नारद जी का अपार मोह और फिर रावण का अवतार कहा।।4।।

प्रभु अवतार कथा पुनि गाई। तब सिसु चरित कहेसि मन लाई।।5।।

फिर प्रभु के अवतारकी कथा वर्णन की। तदनन्तर मन लगाकर श्रीरामजीकी बाललीलाएँ कहीं।।5।।

दो.-बालचरित कहि बिबिधि बिधि मन महँ परम उछाह।।
रिषि आवगन कहेसि पुनि श्रीरघुबीर बिबाह।।64।।

मनमें परम उत्साह भरकर अनेकों प्रकारकी बाललीलाएँ कहकर, फिर ऋषि विश्वामित्रजी का अयोध्या आना और श्रीरघुवीरका विवाह वर्णन किया।।64।।

चौ.-बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा। पुनि नृप बचन राज रस भंगा।।
पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा।।1।।

फिर श्रीरामजीके राज्याभिषेक का प्रसंग, फिर राजा दशरथजी के वचन से राजरस (राज्याभिषेकके आनन्द) में भंग पड़ना, फिर नगर निवासियों का विरह, विषाद और श्रीराम-लक्ष्मण का संवाद (बातचीत) कहा।।1।।

बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा।।
बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना।।2।।

श्रीराम का वनगमन, केवट का प्रेम, गंगाजी से पार उतरकर प्रयाग में निवास, वाल्मीकिजी और प्रभु श्रीरामजीका मिलन और जैसे भगवान् चित्रकूटमें बसे, वह सब कहा।।2।।

सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना।।
करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी।।3।।

फिर मन्त्री सुमन्त्रजी का नगर में लौटना, राजा दशरथजी का मरण, भरतजी का [ननिहालसे] अयोध्या में आना और उनके प्रेम का बहुत वर्णन किया। राजाकी अन्त्येष्टि क्रिया करके नगरवासियों को साथ लेकर भरतजी वहाँ गये, जहाँ सुख की राशि प्रभु श्रीरामचन्द्रजी थे।।3।।

पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए।।
भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट बरनी।।4।।

फिर श्रीरघुनाथजी ने उनको बहुत प्रकार से समझाया; जिससे वे खड़ाऊँ लेकर अयोध्यापुरी लौट आये, यह सब कथा कही। भरतजी की नन्दिग्राम में रहने की रीति, इन्द्रपुत्र जयन्त की नीच करनी और फिर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी और आत्रिजी का मिलाप वर्णन किया।।4।।

दो.-कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग।।
बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सत्संग।।65।।

जिस प्रकार विराध का वध हुआ और शरभंगजीने शरीर त्याग किया, वह प्रसंग कह-कर, फिर सुतीक्ष्णजी का प्रेम वर्णन करके प्रभु और अगस्त्यजीका सत्संग वृत्तान्त कहा।।65।।

चौ.-कहि दंडक बन पावनताई। गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई।।
पुनि प्रभु पंचबटीं कृत बासा। भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा।।1।।

दण्डकवन का पवित्र करना कहकर फिर भुशुण्डिजी ने गृध्रराज के साथ मित्रता का वर्णन किया। फिर जिस प्रकार प्रभुने पंचवटी में निवास किया और सब मुनियों के भय का नाश किया।।1।।

पुनि लछिमन उपदेस अनूपा। सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा।।
खर दूषन बध बहुरि बखाना। जिमि सब मरमु दसानन जाना।।2।।

और फिर जैसे लक्ष्मणजीको अनुपम उपदेश दिया और शूर्पणखा को कुरूप किया, वह सब वर्णन किया। फिर खर-दूषण-वध और जिस प्रकार रावण ने सब समाचार जाना, वह बखानकर कहा।।2।।

दसकंधर मारीच बतकही। जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही।।
पुनि माया सीता कर हरना। श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना।।3।।

तथा जिस प्रकार रावण और मारीच की बातचीत हुई, वह सब उन्होंने कही। फिर मायासीता का हरण और श्रीरघुवीर के विरह का कुछ वर्णन किया।।3।।

पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही। बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही।।
बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा। जेहि बिधि गए सरोबर तीरा।।4।।

फिर प्रभुने गिद्ध जटायुकी जिस प्रकार क्रिया की, कबन्ध का बध करके शबरी को परमगति दी और फिर जिस प्रकार विरह-वर्णन करते हुए श्रीरघुवीरजी पंपासर के तीरपर गये, वह सब कहा।।4।।

दो.-प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग।
पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग।।66क।।

प्रभु और नारद जी का संवाद और मारुतिके मिलने का प्रसंग कहकर फिर सुग्रीवसे मित्रता और बालि के प्राणनाश का वर्णन किया।।66(क)।।

कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास।
बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास।।66ख।।

सुग्रीव का राज तिलक करके प्रभु ने प्रवर्षण पर्वतपर निवास किया, तथा वर्षा और शरद् का वर्णन, श्रीरामजीका सुग्रीवपर रोष और सुग्रीव का भय आदि प्रसंग कहे।।66(ख)।।

चौ.-जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए। सीता खोज सकल दिसि धाए।।
बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँती। कपिन्ह बहोरि मिला संपाती।।1।।

जिस प्रकार वानर राज सुग्रीव ने वानरों को भेजा और वे सीता जी की खोज में जिस प्रकार सब दिशाओं में गये, जिस प्रकार उन्होंने बिल में प्रवेश किया और फिर जैसे वानरों को सम्पाती मिला, वह कथा कही।।1।।

सुनि सब कथा समीरकुमारा। नाघत भयउ पयोधि अपारा।।
लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा। पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा।।2।।

संपातीसे सब कथा सुनकर पवनपुत्र हनुमान् जी जिस तरह अपार समुद्र को लाँघ गये, फिर हनुमान् जी ने जैसे लंका में प्रवेश किया और फिर जैसे सीताजी को धीरज दिया सो सब कहा।।2।।

बन उजारि रावनहि प्रबोधी। पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी।।
आए कपि सब जहँ रघुराई। बैदेही की कुसल सुनाई।।3।।

अशोकवन को उजाड़कर, रावण को समझाकर, लंकापुरी को जलाकर फिर जैसे उन्होंने समुद्रको लाँघा और जिस प्रकार सब वानर वहाँ आये, जहाँ श्रीरघुनाथजी थे और आकर श्रीजानकीजी की कुशल सुनायी,।।3।।

सेन समेति सथा रघुबीरा। उतरे जाइ बारिनिधि तीरा।।
मिला बिभीषन जेहि बिधि आई। सागर निग्रह कथा सुनाई।।4।।

फिर जिस प्रकार सेनासहित श्रीरघुवीर जाकर समुद्रको तटपर उतरे और जिस प्रकार विभीषण जी आकर उनसे मिले, वह सब और समुद्रकी बाँधनेकी कथा उसने सुनायी।।4।।

दो.-सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार।
गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार।।67क।।

पुल बाँधकर जिस प्रकार वानरों की सेना समुद्र के पार उतरी और जिस प्रकार वीरश्रेष्ठ बालिपुत्र अंगद दूत बनकर गये, वह सब कहा।।67(क)।।

निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार।
कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार।।67ख।।

फिर राक्षसों और वानरोंके युद्धका अनेकों प्रकारसे वर्णन किया। फिर कुम्भकर्ण और मेघनाद के बल, पुरुषार्थ और संहारकी कथा कही।।67(ख)।।

चौ.-निसिचर निकर मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना।।
रावन बध मंदोदरि सोका। राज बिभीषन देव असोका।।1।।

नाना प्रकार के राक्षस समूहों के मरण तथा श्रीरघुनाथजी और रावण के अनेक प्रकार के युद्धा का वर्णन किया। रावणवध, मंदोदरी का शोक, विभीषण का राज्यभिषेक और देवताओं का शोकरहित होना कहकर,।।1।।

सीता रघुपति मिलन बहोरी। सुरन्ह कीन्हि अस्तुति कर जोरी।।
पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता। अवध चले प्रभु कृपा निकेता।।2।।

फिर सीताजी और श्रीरघुनाथजीका मिलाप कहा। जिस प्रकार देवताओंने हाथ जोड़कर स्तुति की और फिर जैसे वानरोंसमेत पुष्पकविमानपर चढ़कर कृपाधाम प्रभु अवधपुरी को चले, वह कहा।।2।।

जेहि बिधि राम नगर निज आए। बायस बिसद चरित सब गाए।।
कहेसि बहोरि राम अभिषेका। पुर बरनत नृपनीति अनेका।।3।।

जिस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी अपने नगर (अयोध्या) में आये, वे सब उज्ज्वल चरित्र काकभुशुण्डिजीने विस्तारपूर्वक वर्णन किये। फिर उन्होंने श्रीरामजीका राज्यभिषेक कहा। [शिवजी कहते हैं-] अयोध्यापुरीका और अनेक प्रकारकी राजनीतिका वर्णन करते हुए-।।3।।

कथा समस्त भुसुंड बखानी। जो मैं तुम्ह सन कही भवानी।।
सुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा।।4।।

भुशुण्डिजीने वह सब कथा कही जो हे भवानी ! मैंने तुमसे कही ! सारी रामकथा सुनकर पक्षिराज गरुड़जी मनमें बहुत उत्साहित (आनन्दित) होकर वचन कहने लगे।।4।।

सो.-गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित।।
भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक।।68क।।

श्रीरघुनाथजीके सब चरित्र मैंने सुने, जिससे मेरा सन्देह जाता रहा। हे काकशिरोमणि ! आपके अनुग्रह से श्रीरामजीके चरणोंमें मेरा प्रेम हो गया।।68(क)।।

मोहि भयउ अति मोह प्रभु बंधन रन महुँ निरखि।
चिदानंद संदोह राम बिकल कारन कवन।।68ख।।

युद्धमें प्रभुका नागपाशसे बन्धन देखकर मुझे अत्यन्त मोह हो गया था कि श्रीरामजी तो सच्चिदानन्दघन हैं, वे किस कारण व्याकुल हैं।।68(ख)।।

चौ.-देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी।।
सोइ भ्रम अब हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना।।1।।

बिल्कुल ही लौकिक मनुष्योंका-सा चरित्र देखकर मेरे हृदय में सन्देह हो गया। मैं अब उस भ्रम (सन्देह) को अपने लिये हित करके समझता हूँ। कृपानिधान ने मुझपर यह बड़ा अनुग्रह किया।।1।।

जो अति आतप ब्याकुल होई। तरु छाया सुख जानइ सोई।।
जौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही।।2।।

जो धूप से अत्यन्त व्याकुल होता है, वही वृक्ष की छाया का सुख जानता है। हे तात ! यदि मुझे अत्यन्त मोह न होता तो मैं आपसे किस प्रकार मिलता?।।2।।

सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई। अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई।।
निगमागम पुरान मत एहा। कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा।।3।।

और कैसे अत्यन्त विचित्र यह सुन्दर हरिकथा सुनाता; जो आपने बहुत प्रकार से गायी है ? वेद, शास्त्र और पुराणोंका यही मत है; सिद्ध और मुनि भी यही कहते हैं, इसमें सन्देह नहीं कि-।।3।।

संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही।।
राम कृपाँ तव दरसन भयऊ। तव प्रसाद सब संसय गयऊ।।4।।

शुद्ध (सच्चे) संत उसी को मिलते हैं, जिसे श्रीरामजी कृपा करके देखते हैं। श्रीरामजीकी कृपासे मुझे आपके दर्शन हुए और आपकी कृपासे मेरा सन्देह चला गया।।4।।

दो.-सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग।
पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग।।69क।।

पक्षिराज गरुड़जी का विनय और प्रेम युक्त वाणी सुनकर काकभुशुण्डिजीका शरीर पुलकित हो गया, उनके नेत्रोंमें जल भर आया और वे मन में अत्यन्त हर्षित हुए।।69(क)।।

श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास।
पाइ उमा पति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास।।69ख।।

हे उमा ! सुन्दर बुद्धिवाले, सुशील, पवित्र कथा के प्रेमी और हरि के सेवक श्रोता को पाकर सज्जन अत्यन्त गोपनीय (सबके सामने प्रकट न करने योग्य) रहस्य को प्रकट कर देते हैं।।69(ख)।।

चौ.-बोलेउ काकभुसंड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी।।
सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे।।1।।

काकभुशुण्डिजीने कहा-पक्षिराजपर उनका प्रेम कम न था (अर्थात् बहुत था)- हे नाथ ! आप सब प्रकार से मेरे पूज्य हैं और श्रीरघुनाथजीके कृपापात्र हैं।।1।।

तुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्हि तुम्ह दाया।।
पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही।।2।।

आपको न सन्देह है और न मोह अथवा माया ही है। हे नाथ ! आपने तो मुझपर दया की है। पक्षिराज ! मोह के बहाने श्रीरघुनाथजीने आपको यहाँ भेजकर मुझे बड़ाई दी है।।2।।

तुम्ह निज मोह कही खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईं।।
नारद भव बिरंचि सनकादी। जे मुनिनायक आमतबादी।।3।।

हे पक्षियों के स्वामी ! आपने अपना मोह कहा, सो हे गोसाईं ! यह कुछ आश्चर्य नहीं है। नारदजी, शिवजी, बह्माजी और सनकादि जो आत्मतत्त्वके मर्मज्ञ और उसका उपदेश करनेवाले श्रेष्ठ मुनि हैं।।3।।

मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही।।
तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा।।4।।

उनमें से भी किस-किसको मोह ने अंधा (विवेकशून्य) नहीं किया ? जगत् में ऐसा कौन है जिसे काम ने न नचाया हो ? तृष्णा ने किसको मतवाला नहीं बनाया ? क्रोध ने किसका हृदय न जलाया ?।।4।।

दो.-ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।
केहि कै लोभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार।।70क।।

इस संसार में ऐसा कौन सा ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कपि, विद्वान और गुणों का धाम है, जिसकी लोभने बिडम्बना (मिट्टी पलीद) न की हो।।70(क)।।

श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि।।70ख।।

लक्ष्मी के मदने किसको टेढ़ा और प्रभुताने किसको बहरा नहीं कर दिया ? ऐसा कौन है, जिसे मृगनयनी (युवती स्त्री) के नेत्र-बाण न लगे हों।।70(ख)।।

चौ.-गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही।।
जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा।।1।।

[रज, तम आदि] गुणों का किया हुआ सन्निपात किसे नहीं हुआ ? ऐसा कोई नहीं है जिसे मान और मद ने अछूता छोड़ा हो। यौवन के ज्वर ने किसे आपे से बाहर नहीं किया ? ममता ने किसके यश का नाश नहीं किया ?।।1।।

मच्छर काहि कलंक न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा।।
चिंता साँपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया।।2।।

मत्सर (डाह) ने किसको कलंक नहीं लगाया ? शोकरूपी पवन ने किसे नहीं हिला दिया ? चिन्तारूपी साँपिन ने किसे नहीं खा लिया ? जगत् में ऐसा कौन है, जिसे माया ने व्यापी हो ?।।2।।

कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा।।
सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी।।3।।

मनोरथ कीड़ा है, शरीर लकड़ी है। ऐसा धैर्यवान कौन है, जिसके शरीर में यह कीड़ा न लगा हो ? पुत्र की, धन की और लोक प्रतिष्ठा की-इन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलिन नहीं कर दिया (बिगाड़ नहीं दिया) ?।।3।।

यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरनै पारा।।
सिव चतुरानन जाहि डेराही। अपर जीव केहि लेखे माहीं।।4।।

यह सब माया का बड़ा बलवान् परिवार है। यह अपार है, इसका वर्णन कौन कर सकता है ? शिवजी और ब्रह्माजी भी जिससे डरते हैं, तब दूसरे जीव तो किस गिनती में है?।।4।।

दो.-ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड।
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड।।71क।।

मायाकी प्रचण्ड सेना संसारभर में छायी हई है। कामादि (काम, क्रोध और लोभ) उसके सेना पति हैं और दम्भ, कपट और पाखण्ड योद्धा हैं।।71(क)।।

सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि।।
छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि।।71ख।।

वह माया श्रीरघुवीर की दासी है। यद्यपि समझ लेने पर वह मिथ्या ही है, किन्तु वह श्रीरामजीकी कृपाके बिनी छूटती नहीं। हे नाथ ! यह मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ।।71(ख)।।
चौ.-जो माया सब जागहि नचावा। जासु चरित लखि काहुँ न पावा।।
सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।1।।

जो माया सारे जगत् को नचाती है और जिसका चरित्र (करनी) किसी ने नहीं लख पाया, हे खगराज गरुड़जी ! वही माया प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की भ्रकुटीके इशारेपर अपने समाज (परिवार) सहित नटी की तरह नाचती है।।1।।

सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज बिग्यान रूप बल धामा।।
ब्यापक ब्याप्प अखंड अनंता। अखिल अमोघसक्ति भगवंता।।2।।

श्रीरामजी वही सच्चिदानन्दघन हैं जो अजन्मा, विज्ञानस्वरूप, रूप और बलके धाम, सर्वव्यापक एवं व्याप्य (सर्वरूप) अखण्ड, अनन्त, सम्पूर्ण अमोघशक्ति (जिसकी शक्ति कभी व्यर्थ नहीं होती) और छः ऐशर्यों से युक्त भगवान् हैं।।2।।

अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सबदरसी अनवद्य अजीता।।
निर्मम निराकार निरमोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा।।3।।

वे निर्गुण (माया के गणों से रहित), महान् वाणी और इन्दियोंसे परे सब कुछ देखनेवाले, निर्दोष, अजेय, ममतारहित, निराकार (मायिक आकारसे रहित), मोहरहित, नित्य, मायारहित, सुख की राशि,।।3।।

प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी।।
इहाँ मोह कर कारन नाहीं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं।।4।।

प्रकृति से परे, प्रभु (सर्वसमर्थ) सदा सबके हृदय में बसने वाले, इच्छारहित, विकाररहित, अविनाशी ब्रह्म हैं। यहाँ (श्रीराम में) मोह का कारण ही नहीं है। क्या अन्धकार का समूह कभी सूर्य के सामने जा सकता है ?।।4।।

दो.-भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप।
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप।।72क।।

भगवान् प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने भक्तोंके लिये राजाका शरीर धारण किया और साधारण मनुष्योंके-से अनेकों परम पावन चरित्र किये।।72(क)।।

जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ।
सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ।।72ख।।

जैसे कोई नट (खेल करनेवाला) अनेक वेष धारण करके नृत्य करता है, और वही-वही (जैसा वेष होता है, उसीके अनुकूल) भाव दिखलाता है; पर स्वयं वह उनमेंसे कोई हो नहीं जाता।।72(ख)।।

चौ.-असि रघुपति लीला उरगारी। दनुज बिमोहनि जन सुखकारी।।
जे मति मलिन बिषय बस कामी। प्रभु पर मोह धरहिं इमि स्वामी।।1।।

हे गरुड़जी ! ऐसी ही श्रीरघुनाथजी की यह लीला है, जो राक्षसों को विशेष मोहित करनेवाली और भक्तों को सुख देनेवाली है। हे स्वामी ! जो मनुष्य मलिन बुद्धि, विषयों के वश और कामी हैं, वे ही प्रभु पर इस प्रकार मोह का आरोप करते हैं।।1।।

नयन दोष जा कहँ जब होई। पीत बरन ससि कहुँ कह सोई।।
जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा। सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा।।2।।

जब जिसको [कँवल आदि] नेत्र दोष होता है, तब वह चन्द्रमा को पीले रंग का कहता है। हे पक्षिराज ! जब जिसे दिशाभ्रम होता है, तब वह कहता है कि सूर्य पश्चिम में उदय हुआ है।।2।।

नौकारूढ़ चलत जग देखा। अचल मोह बस आपुहि लेखा।।
बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी। कहहिं परस्पर मिथ्याबादी।।3।।

नौका पर चढ़ा हुआ मनुष्य जगत् को चलता हुआ देखता है और मोह वश अपने को अचल समझता है।।3।।

हरि बिषइक अस मोह बिहंगा। सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसंगा।।
मायाबस मतिमंद अभागी। हृदयँ जमनिका बहुबिधि लागी।।4।।

हे गरुड़जी ! श्रीहरिके बिषय में मोह की कल्पना भी ऐसी ही है, भगवान् में तो स्वप्नमें भी अज्ञानका प्रसंग (अवसर) नहीं है। किन्तु जो माया के वश, मन्दबुद्धि और भाग्यहीन हैं और जिनके हृदय पर अनेकों प्रकारके परदे पड़े हैं।।4।।

ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अग्यान राम पर धरहीं।।5।।

वे मूर्ख हठ के वश होकर सन्देह करते हैं और अपना अज्ञान श्रीरामजी पर आरोपित करते हैं।।5।।

दो.-काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप।।73क।।

जो काम, क्रोध, मद और लोभ में रत हैं और दुःखरूप घरमें आसक्त हैं, वे श्रीरघुनाथजी को कैसे जान सकते हैं ? वे मूर्ख तो अन्धकार रूपी कुएँ में पड़े हुए हैं।।73(क)।।

निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोई।
सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ।।73ख।।

निर्गुण रूप अत्यन्त सुलभ (सहज ही समझ में आ जाने वाला) है, परंतु [गुणातीत दिव्य] सगुण रूपको कोई नहीं जानता। इसलिये उन सगुण भगवान् को अनेक प्रकार के सुगम और अगम चरित्रोंको सुनकर मुनियों के भी मन को भ्रम हो जाता है।।73(ख)।।

चौ.-सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई। कहउँ जथामति कथा सुहाई।
जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही।।1।।

हे पक्षीराज गरुड़जी ! श्रीरघुनाथजी की प्रभुता सुनिये। मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वह सुहावनी कथा कहता हूँ। हे प्रभो ! मुझे जिस प्रकार मोह हुआ है, वह सब कथा भी आपको सुनाता हूँ।।1।।

राम कृपा भाजन तुम्ह ताता। हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता।।
ताते नहिं कछु तुम्हहिं दुरावउँ। परम रहस्य मनोहर गावउँ।।2।।

हे तात ! आप श्रीरामजीके कृपा पात्र है। श्रीहरिके गुणों में आपकी प्रीति है, इसीलिये आप मुझे सुख देनेवाले हैं। इसी से मैं आपसे कुछ भी नहीं छिपाता और अत्यन्त रहस्य की बातें आपको गाकर सुनाता हूँ।।2।।

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ।।
संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना।।3।।

श्रीरामचन्द्रजीका सहज स्वभाव सुनिये; वे भक्तों में अभिमान कभी नहीं रहने देते। क्योंकि अभिमान जन्म-मरणरूप संसारका मूल है और अनेक प्रकार के क्लेशों तथा समस्त शोकों को देनेवाला है।।3।।

ताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरि।।
जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाईं। मातु चिराव कठिन की नाईं।।4।।

इसीलिये कृपानिधि उसे दूर कर देते हैं; क्योंकि सेवक पर उनकी बहुत ही अधिक ममता है। हे गोसाईं ! जैसे बच्चे के शरीर में फोड़ा हो जाता है, तो माता उसे कठोर हृदय की भाँति चिरा डालती है।।4।।

दो.-जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर।
ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर।।74क।।

यद्यपि बच्चा पहले (फोड़ा चिराते समय) दुःख पाता है और अधीर होकर रोता है, तो भी रोगके नाश के लिये माता बच्चे की उस पीड़ा को कुछ भी नहीं गिनती (उसकी परवा नहीं करती और फोड़े कों चिरवा ही डालती है)।।74(क)।।

तिमि रघुपति निज दास कर हरहिं मान हित लागि।
तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि।।74ख।।

उसी प्रकार श्रीरघुनाथजी अपने दास का अभिमान उसके हितके लिये हर लेते हैं तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसे प्रभुको भ्रम त्यागकर क्यों नहीं भजते।।74(ख)।।

चौ.-राम कृपा आपनि जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई।।
जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लीला बहु करहीं।।1।।

हे पक्षिराज गरुड़जी ! श्रीरामजीकी कृपा और अपनी जड़ता (मूर्खता) की बात कहता हूँ, मन लगाकर सुनिये। जब-जब श्रीरामचन्द्रजी मनुष्य शरीर धारण करते हैं और भक्तों के लिये बहुत-सी लीलाएँ करते हैं,।।1।।

तब तब अवधपुरी मैं जाऊँ। बालचरित बिलोकि हरषाऊँ।
जन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई।।2।।

तब-तब मैं अयोध्यापुरी जाता हूँ और उनकी बाल लीला देखकर हर्षित होता हूँ। वहाँ जाकर मैं जन्म महोत्व देखता हूँ और [भगवान् की शिशुलीलामें] लुभाकर पाँच वर्ष तक वहीं रहता हूँ।।2।।

इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा।।
निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी।।3।।

बालक रूप श्रीरामचन्द्रजी मेरे इष्ट देव हैं, जिनके शरीर में अरबों कामदेवों की शोभा है। हे गरुड़जी ! अपने प्रभु का मुख देख-देखकर मैं नेत्रों को सफल करता हूँ।।3।।

लघु बायस बपु धरि हरि संगा। देखउँ बालचरित बहु रंगा।।4।।

छोटे-से कौए का शरीर धरकर और भगवान् के साथ-साथ फिर कर मैं उनके भाँति-भाँति के बालचरित्रों को देखा करता हूँ।।4।।

दो.-लरिकाई जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ।
जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाइ करि खाउँ।।75क।।

लड़कपन में वे जहाँ-जहाँ फिरते हैं, वहाँ-वहाँ मैं साथ-साथ उड़ता हूँ और आँगन में उनकी जो जूठन पड़ती है, वही उठाकर खाता हूँ।।75(क)।।

एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर।
सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर।।75ख।।

एक बार श्रीरघुबीर जी ने सब चरित्र बहुत अधिकता से किये। प्रभु की उस लीला का स्मरण करते ही काकभुशुण्डिजी का शरीर [प्रेमानन्दवश] पुलकित हो गया।।75(ख)।।

चौ.-कहइ भुसुंड सुनहु खगनायक। राम चरित सेवक सुखदायक।।
नृप मंदिर सुंदर सब भाँती। खचित कनक मनि नाना जाती।।1।।

भुशुण्डिजी कहने लगे-हे पक्षिराज ! सुनिये, श्रीरामजी का चरित्र सेवकोंको सुख देनेवाला है। [अयोध्याका] राजमहल सब प्रकारसे सुन्दर है। सोने के महल में नाना प्रकार के रत्न जड़े हुए हैं।।1।।

बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई। जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई।।
बालबिनोद करत रघुराई। बिचरत अजिर जननि सुखदाई।।2।।

सुन्दर आँगन का वर्णन नही किया जा सकता, जहाँ चारो भाई नित्य खेलते हैं। माताको सुख देनेवाले बाल-विनोद करते हुए श्रीरघुनाथजी आँगनमें विचर रहे हैं।2।।

मरकत मृदुल कलेवर स्यामा। अंग अंग प्रति छबि बहु कामा।।
नव राजीव अरुन मृदु चरना। पदज रुचिर नख ससि दुति हरना।।3।।

मरकत मणि के समान हरिताभ श्याम और कोमल शरीर है। अंग-अंग में बहुत से काम देवों की शोभा छायी हुई है। नवीन [लाल] कमलके समान लाल-लाल कोमल चरण है। सुन्दर अँगुलियाँ हैं और नख अपनी ज्योति से चन्द्रमा की कान्ति को हरने वाले हैं।।3।।

ललित अंक कुलिसादिक चारी। नूपुर चारु मधुर रवकारी।।
चारु पुरट मनि रचित बनाई। कटि किंकिन कल मुखर सुहाई।।4।।

[तलवे में] वज्रादि (वज्र, अंकुश, ध्वजा और कमल) के चार सुन्दर चिह्न है। चरणों में मधुर शब्द करनेवाले सुन्दर नुपूर हैं। मणियों (रत्नों) से जड़ी हुई सोने की बनी हुई सुन्दर करधनीका शब्द सुहावना लग रहा है।।4।।

दो.-रेखा त्रय सुंदर उदर नाभी रुचिर गँभीर।।
उर आयत भ्राजत बिबिधि बाल बिभूषन चीर।।76।।

उदरपर सुन्दर तीन रेखाएँ (त्रिवली) हैं, नाभि सुन्दर और गहरी है। विशाल वक्षःस्थल पर अनेकों प्रकार के बच्चों के आभूषण और वस्त्र सुभोभित हैं।।76।।

चौ.-अरुन पानि नख करज मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर।।
कंध बाल केहरि दर ग्रीवा। चारु चिबुक आनन छबि सींवा।।1।।

लाल-लाल हथेलियाँ, नख और अँगुलियाँ मनको हरने वाले है और विशाल भुजाओं पर सुन्दर आभूषण हैं। बालसिंह (सिंहके बच्चे) के-से कंधे और शंख के समान (तीन रेखाओं से युक्त) गला है। सुन्दर ठुड्डी है और मुख तो छवि की सीमा है।।1।।

कलबल बचन अधर अरुनारे। दुइ दुई दसन बिसद बर बारे।।
ललित कपोल मनोहर नासा। सकल सुखद ससि कर सम हासा।।2।।

कलबल (तोतले) वचन हैं, लाल-लाल ओंठ हैं। उज्ज्वल, सुन्दर और छोटी-छोटी [ऊपर और नीचे] दो दो दँतुलियाँ हैं, सुन्दर गाल, मनोहर नासिका और सब सुखों को देनेवाली चन्द्रमा की [अथवा सुख देने वाली समस्त कलाओं से पूर्ण चन्द्रमा की] किरणों के समान मधुर मुसकान है।।2।।

नील कंज लोचन भव मोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन।।
बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए। कुंचित कच मेचक छबि छाए।।3।।

नीले कमलके समान नेत्र जन्म-मृत्यु [के बन्धन] से छुड़ानेवाले हैं। ललाटपर गोरोचनका तिलक सुशोभित है। भौंहे टेढ़ी हैं। कान सम और सुन्दर हैं। काले और घुँघराले केशोंकी छवि छा रही है।।3।।

पीत झीनि झगुली तन सोही। किलकनि चितवनि भावति मोही।।
रूप रासि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रति बिंब निहारी।।4।।

पीली और महीन झुँगली शरीर पर शोभा दे रही है। उनकी किलकारी और चितवन मुझे बहुत ही प्रिय लगती है। राजा दशरथजी के आँगन में विहार करनेवाली रूप की राशि श्रीरामचन्द्रजी अपनी परछाहीं देखकर नाचते हैं।।4।।

मोहि सन करहिं बिबिधि बिधि क्रीड़ा। बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा।।
किलकत मोहि धरन जब धावहिं। चलउँ भागि तब पूप देखावहिं।।5।।

और मुझसे बहुत प्रकार के खेल करते हैं, जिन चरित्रों का वर्णन करते मुझे लज्जी आती है। किलकारी मारते हुए जब वे मुझे पकड़ने दौड़ते और मैं भाग चलता तब मुझे पुआ दिखलाते थे।।5।।

दो.-आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं।।
जाउँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं।।77क।।

मेरे निकट आने पर प्रभु हँसते हैं और भाग जाने पर रोते हैं। और जब मैं उनका चरण स्पर्श करने के लिये पास जाता हूँ, तब वे पीछे फिर-फिरकर मेरी ओर देखते हैं हुए भाग जाते हैं।।77(क)।।

प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह।
कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह।।77ख।।

साधारण बच्चों जैसी लीला देखकर मुझे (शंका) हुआ कि सच्चिदानन्दघन प्रभु यह कौन [महत्त्व का] चरित्र (लीला) कर रहे हैं।।77(ख)।।

चौ.-एतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया।।
सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं।।1।।

हे पक्षिराज ! मन में इतनी (शंका) लाते ही श्रीरघुनाथजी के द्वारा प्रेरित माया मुझपर छा गयी है। परंतु वह माया न तो मुझे दुःख देने वाली हुई और न दूसरे जीवों की भाँति संसार में डालने वाली हुई।।1।।

नाथ इहाँ कछु कारन आना। सुनहु सो सावधान हरिजाना।।
ग्यान अखंड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर।।2।।

हे नाथ ! यहाँ कुछ दूसरा ही कारण है। हे भगवान् के वाहन गरुड़जी ! उसे सावधान होकर सुनिये। एक सीतापति श्रीरामजी ही अखण्ड ज्ञानस्वरुप हैं और जड़-चेतन सभी जीव माया के वश हैं।।2।।

जौं सब कें रह ग्यान एकरस। ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस।।
माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुन खानी।।3।।

यदि जीवों को एकरस (अखण्ड) ज्ञान रहे तो कहिये, फिर ईश्वर और जीवमें भेद ही कैसा ? अभिमानी जीव मायाके वश है और वह [सत्त्व, रज, तम-इन] तीनों गुणों की खान माया ईश्वर के वशमें है।।3।।

परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता।।
मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया।।4।।

जीव परतंत्र है, भगवान् स्वतत्र हैं। जीव अनेक हैं, श्रीपति भगवान् एक हैं। यद्यपि माया का किया हुआ यह भेद असत् है तथापि वह भगवान् के भजन के बिना करोड़ों उपाय करनेपर भी नहीं जा सकता।।4।।

दो.-रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।।
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान।।78क।।

श्रीरामचन्द्रजी के भजन बिना जो मोक्षपद चाहता है, वह मनुष्य ज्ञानवान् होनेपर भी बिना पूँछ और सींग का पशु है।।78(क)।।

राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ।
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ।।78ख।।

सभी तारागणों के साथ सोलह कलाओं से पूर्ण चन्द्रमा उदय हो और जितने पर्वत हैं, उन सबमें दावाग्नि लगा दी जाय, तो भी सूर्य के उदय हुए बिना रात्रि नहीं जा सकती।।78(ख)।।

चौ.-ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा।।
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या।।1।।

हे पक्षिराज ! इसी प्रकार श्री हरि के भजन बिना जीवोंका क्लेश नहीं मिटता। श्रीहरि के सेवक को अविद्या नहीं व्यापती। प्रभु की प्रेरणा से उसे विद्या व्यापती है।।1।।

ताते नास न होइ दास कर। भेद भगति बाढ़इ बिहंगबर।।
भ्रम तें चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा।।2।।

हे पक्षिराज ! इसी से दास का नाष नहीं होता और भेद-भक्ति बढ़ती है। श्रीरामजीने मुझे जब भ्रम से चकित देखा, तब वे हँसे। वह विशेष चरित्र सुनिये।।2।।

तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ।।
जानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना।।3।।

उस खेल का मर्म किसी ने नहीं जाना, न छोटे भाइयों ने और न माता पिता ने ही। वे श्याम शरीर और लाल-लाल हथेली और चरणतल वाले बालरूप श्रीरामजी घुटने और हाथों के बल मुझे पकड़ने को दौड़े।।3।।

तब मैं भागि चलेउँ उरगारी। राम गहन कहँ भुजा पसारी।।
जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा।।4।।

हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी ! तब मैं भाग चला। श्रीरामजी ने मुझे पकड़ने के लिये भुजा फैलायी। मैं जैसे-जैसे आकाशमें दूर उड़ता, वैसे-वैसे ही वहाँ श्रीहरि की भुजा को अपने पास देखता था।।4।।

दो.-ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात।
जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात।।79क।।

मैं ब्रह्मलोक तक गया और जब उड़ते हुए मैंने पीछे की ओर देखा, तो हे तात ! श्रीरामजी की भुजा में और मुझमें केवल दो अंगुल का बीच था।।79(क)।।

सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि।
गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि।।79ख।।

सातों आवरणों को भेदकर जहाँतक मेरी गति थी वहाँतक मैं गया। पर वहाँ भी प्रभुकी भुजा को [अपने पीछे] देखकर व्याकुल हो गया।।79(ख)।।

चौ.-मूदेउँ नयन त्रसित जब भयऊँ। पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ।।
मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं।।1।।

जब मैं भयभीत हो गया, तब मैंने आँखें मूँद लीं। फिर आँखे खोलकर देखते ही अवधपुरी में पहुँच गया। मुझे देखकर श्रीरामजी मुसकाने लगे। उनके हँसते ही मैं तुरंत उनके मुख में चला गया।।1।।

उदर माझ सुनु अंडज राया। देखेउँ बहु ब्रह्मांड निकाया।।
अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका।।2।।

हे पक्षिराज ! सुनिये, मैंने उनके पेट में बहुत से ब्रह्माण्डोंके समूह देखे। वहाँ उन (ब्रह्माण्डों में) अनेकों विचित्र लोक थे, जिनकी रचना एक-से-एक बढ़कर थी।।2।।

कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा।।
अगनित लोकपाल मन काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला।।3।।

करोड़ों ब्रह्मा जी और शिवजी, अनगिनत तारागण, सूर्य और चन्द्रमा, अनगिनत लोकपाल, यम और काल, अनगिनत विशाल पर्वत और भूमि।।3।।

सागर सरि सर बिपिन अपारा। नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा।।
सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर। चारि प्रकार जीव सचराचर।।4।।

असंख्य समुद्रस नदीस तालाब और वन तथा और भी नाना प्रकार की सृष्टि का विस्तार देखा। देवता, मुनि, सिद्ध, नाग, मनुष्य, किन्नर, तथा चारों प्रकार के जड़ और चेतन जीव देखे।।4।।

दो.-जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ।
सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ।।80क।।

जो कभी न देखा था, न सुना था और जो मन में भी नहीं समा सकता था (अर्थात् जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी), वही सभी अद्भुत सृष्टि मैंने देखी। तब उनका किस प्रकार वर्णन किया जाय !।।80(क)।।

एक एक ब्रह्मांड महुँ रहउँ बरष सत एक।
एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक।।80ख।।

मैं एक-एक ब्रह्माड में एक-एक सौ वर्षतक रहता। इस प्रकार मैं अनेकों ब्रह्माण्ड देखता फिरा।।80(ख)।।

चौ.-लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता। भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता।।
नर गंधर्ब भूत बेताला। किंनर निसिचर पसु खग ब्याला।।1।।

प्रत्येक लोक में भिन्न-भिन्न ब्रह्मा, भिन्न-भिन्न बिष्णु, शिव, मनु, दिक्पल, मनुष्य गन्धर्व, भूत, वैताल, किन्नर, राक्षस, पशु, पक्षी, सर्प।।1।।

देव दनुज गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनहि भाँती।।
महि सरि सागर सर गिरि नाना। सब पंच तहँ आनइ आना।।2।।

तथा नाना जाति के देवता एवं दैत्यगण थे। सभी जीव वहाँ दूसरे ही प्रकार के थे। अनेक पृथ्वी, नदी, समुद्र, तालाब, पर्वत तथा सब सृष्टि वहाँ दूसरी-ही-दूसरी प्रकार की थी।।2।।

अंडकोस प्रति प्रति निज रूपा। देखेउँ जिनस अनेक अनूपा।।
अवधपुरी प्रति भुवन निनारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी।।3।।

प्रत्येक ब्रह्माण्ड-ब्रह्माण्ड में मैंने अपना रूप देखा तथा अनेकों अनुपम वस्तुएँ देखीं। प्रत्येक भुवन में न्यारी ही अवधपुरी, भिन्न ही सरयूजी और भिन्न प्रकार के नर-नारी थे।।3।।

दसरथ कौसल्या सुनु ताता। बिबिध रूप भरतादिक भ्राता।।
प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा। देखउँ बालबिनोद अपारा।।4।।

हे तात ! सुनिये, दशरथजी, कौसल्याजी और भरतजी आदि भाई भी भिन्न-भिन्न रूपोंके थे। मैंने प्रत्येक ब्रहाण्डमें रामावतार और उनकी अपार बाललीलाएँ देखता फिरता।।4।।

दो.-भिन्न भिन्न मैं दीख सबु अति बिचित्र हरिजान।।
अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन।।81क।।

हे हरिवाहन ! मैंने सभी कुछ भिन्न-भिन्न और अत्यन्त विचित्र देखा। मैं अनगिनत ब्रह्माण्डोंमें फिरा, पर प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको मैंने दूसरी तरह का नहीं देखा।।81(क)।।

सोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर।
भुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर।।81ख।।

सर्वत्र वही शिशुपन, वही शोभा और वही कृपालु श्रीरघुवीर ! इस प्रकार मोह रूपी पवन प्रेरणा से मैं भुवन-भुवन में देखता-फिरता था।।81(ख)।।

चौ.-भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका। बीते मनहुँ कल्प सत एका।।
फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ। तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ।।1।।

अनेक ब्रह्माण्डों में भटकते हुए मानो एक सौ कल्प बीत गये फिरता-फिरता मैं अपने आश्रम में आया और कुछ काल वहाँ रहकर बिताया।।1।।

निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ। निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ।।
देखउँ जन्म महोत्सव जाई। जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई।।2।

फिर जब अपने प्रभु का अवधपुरी में जन्म (अवतार) सुन पाया, तब प्रेम से परिपूर्ण होकर मैं हर्षपूर्वक उठ दौड़ा। जाकर मैंने जन्म-महोत्सव देखा, जिस प्रकार मैं पहले वर्णन कर चुका हूँ।।2।।

राम उदर देखेउँ जग नाना। देखत बनइ न जाइ बखाना।।
तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना। माया पति कृपाल भगवाना।।3।।

श्रीरामचन्द्रजी के पेट में मैंने बहुत-से जगत् देखे, जो देखते ही बनते थे, वर्णन नहीं किये जा सकते। वहाँ फिर मैंने सुजान मायाके स्वामी कृपालु भगवान् श्रीरामजी को देखा।।3।।

करउँ बिचार बहोरि बहोरी। मोह कलिल ब्यापित मति मोरी।।
उभय घरी महँ मैं सब देखा। भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा।।4।।

मैं बार-बार विचार करता था। मेरी बुद्धि मोह रूपी कीचड़ से व्याप्त थी। यह सब मैंने दो ही घड़ीमें देखा। मनमें विशेष मोह होने से मैं भ्रमित हो गया था।।4।।

दो.-देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर।
बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर।।82क।।

मुझे व्याकुल देखकर तब कृपालु श्रीरघुवीर हँस दिये। हे धीरबुद्धि गरुड़जी! सुनिये, उनके हँसते ही मैं मुँहसे बाहर आ गया।।82(क)।।

सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम।।
कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम।।82ख।।

श्रीरामचन्द्रजी मेरे साथ फिर वही लड़कपन करने लगे। मैं करोड़ों (असंख्य) प्रकारसे मन को समझता था, पर वह शान्ति नहीं पाता था।।82(ख)।।

चौ.-देखि चरित यह सो प्रभुताई। समुझत देह दसा बिसराई।।
धरनि परेउँ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता।।1।।

यह [बाल] चरित्र देखकर और [पेटके अंदर देखी हुई] उस प्रभुता का स्मरण कर शरीरकी सुध भूल गया और ‘हे आर्तजनोंके रक्षक ! रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये, पुकारता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। मुख से बात नहीं निकलती थी!।।1।

प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी। निज माया प्रभुता तब रोकी।।
कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ।।2।।

तदनन्तर प्रभुने मुझे प्रेमविह्वय देखकर अपनी मायाकी प्रभुता (प्रभाव) को रोक लिया। प्रभुने अपना कर-कमल मेरे सिर पर रक्खा। दीनदयालु ने मेरा सम्पूर्ण दुःख हर लिया।।2।।

कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा। सेवक सुखद कृपा संदोहा।।
प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी।।3।।

सेवकों को सुख देने वाले, कृपा के समूह (कृपामय) श्रीरामजीने मुझे मोह से सर्वथा रहित कर दिया। उनकी पहले वाली प्रभुता को विचार-विचारकर (याद कर-करके) मेरे मन में बड़ा भारी हर्ष हुआ।।3।।

भगत बछलता प्रभु कै देखी। उपजी मम उर प्रीति बिसेषी।।
सजल नयन पुलकित कर जोरी। कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बिहोरी।।4।।

प्रभु की भक्तवत्सलता देखकर मेरे हृदय में बहुत ही प्रेम उत्पन्न हुआ। फिर मैंने [आनन्दसे] नेत्रों जल भरकर, पुलकित होकर और हाथ जोड़कर बहुत प्रकार से विनती की।।4।।

दो.-सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास।
बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास।।83क।।

मेरी युक्त वाणी सुनकर और अपने दासको दीन देखकर रमानिवास श्रीरामजी सुखदायक गम्भीर और कोमल वचन बोले-।।83(क)।।

काकभुसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि।
अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि।।83ख।।

हे काकभुशुण्डि ! तू मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर वर माँग। अणिमा आदि अष्ट सिद्धियाँ, दूसरी ऋद्धियाँ तथा सम्पूर्ण सुखों की खान मोक्ष।।83(ख)।।

चौ.-ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना।।
आजु देउँ सब संसय नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीं।।1।।

ज्ञान, विवेक, वैराग्य, विज्ञान, (तत्त्वज्ञान) और वे अनेकों गुण जो जगत् में मुनियों के लिये भी दुर्लभ हैं, ये सब मैं आज तुझे दूँगा, इसमें सन्देह नहीं। जो तेरे मन भावे, सो माँग ले।।1।।

सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ। मन अनुमान करन तब लागेउँ।।
प्रभु कह देनसकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही।।2।।

प्रभु के वचन सुनकर मैं बहुत ही प्रेममें भर गया। तब मन में अनुमान करने लगा कि प्रभुने सब सुखों के देनेकी बात कही, यह तो सत्य है; पर अपनी भक्ति देने की बात नहीं कही।।2।।

भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे।।
भजन हीन सुख कवने काजा। अस बिचारि बोलेउँ खगराजा।।3।।

भक्तिसे रहित सब गुण और सब सुख वैसे ही (फीके) हैं, जैसे नमकके बिना बहुत प्रकारके भोजन के पदार्थ ! भजन से रहित सुख किस काम के ? हे पक्षिराज ! ऐसा विचारकर मैं बोला-।।3।।

जौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू। मो पर करहु कृपा अरु नेहू।।
मन भावत बर मागउँ स्वामी। तुम्ह उदार उर अंतरजामी।।4।।

हे प्रभो ! यदि आप प्रसन्न होकर मुझे वर देते हैं और मुझपर कृपा और स्नेह करते हैं, तो हे स्वामी ! मैं अपना मन-भाया वर माँगता हूँ। आप उदार हैं और हृदय के भीतरकी जाननेवाले हैं।।4।।

दो.-अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव।
जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव।।84क।।

आपकी जिस अविरल (प्रगाढ़) एवं विशुद्ध (अनन्य निष्काम) भक्तिको श्रुति और पुराण गाते हैं, जिसे योगीश्वर मुनि खोते हैं और प्रभु की कृपा से कोई विरला ही जिसे पाता है।।84(क)।।

भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम।।84ख।।

हे भक्तोंके [मन-इच्छित फल देनेवाले] कल्पवृक्ष ! हे शरणागतके हितकारी ! हे कृपा सागर। हे सुखधाम श्रीरामजी ! दया करके मुझे अपनी वही भक्ति दीजिये ।।84(ख)।।

चौ.-एवमस्तु कहि रघुकुलनायक। बोले बचन परम सुखदायाक।।
सुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना।।1।।

‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) कहकर रघुकुल के स्वामी परम सुख देनेवाले वचन बोले-हे काक ! सुन, तू स्वाभव से ही बुद्धिमान् है। ऐसा वरदान कैसे न माँगता ?।।1।।

सब सुख खानि भगति तैं मागी। नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी।।
जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं।।2।।

तूने सब सुखों की खान भक्ति माँग ली, जगत् में तेरे समान बड़भागी कोई नहीं है। वे मुनि जो जप और योगकी अग्निसे शरीर जलाते रहते हैं, करोड़ों यत्न करके भी जिसको (जिस भक्तिको नहीं) पाते।।2।।

रीझेउँ देखि तोरि चतुराई। मागेहु भगति मोहि अति भाई।।
सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें।। सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें।।3।।

वही भक्ति तूने माँगी। तेरी चतुरता देखकर मैं रीझ गया। यह चतुरता मुझे बहुत अच्छी लगी। हे पक्षी ! सुन, मेरी कृपासे अब समस्त शुभ गुण तेरे हृदय में बसेंगे।।3।।

भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा।।
जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा।।4।।

भक्ति, ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य, योग, मेरी लीलाएँ और उसके रहस्य तथा विभाग-इन सबके भेदको तू मेरी कृपासे ही जान जायगा। तुझे साधन का कष्ट नहीं होगा।।4।।

दो.-माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि।।
जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि।।85क।।

माया से उत्पन्न सब भ्रम अब तुझको नहीं व्यापेंगे। मुझे अनादि, अजन्मा, अगुण, (प्रकृतिके गुणोंसे रहित) और [गुणातीत दिव्य] गुणों की खान ब्रह्म जानना।।85(क)।।

मोहि भगति प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग।
कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग।।85ख।।

हे काक ! सुन, मुझे भक्ति निरंतर प्रिय हैं, ऐसा विचारकर शरीर, वचन और मन से मेरे चरणों में अटल प्रेम करना।।85(ख)।।

चौ.-अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी।।
निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही।।1।।

अब मेरी सत्य, सुगम, वेदादि के द्वारा वर्णित परम निर्मल वाणी सुन। मैं तुझको यह ‘निज सिद्धान्त’ सुनाता हूँ। सुनकर मन में धारण कर और सब तजकर मेरा भजन कर।।1।।

मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए।।2।।

यह सारा संसार मेरी माया से उत्पन्न है। [इसमें] अनेकों प्रकार के चराचर जीव हैं। वे सभी मुझे प्रिय हैं; क्यों कि सभी मेरे उत्पन्न किये हुए हैं। [किन्तु] मनुष्य मुझको सबसे अधिक अच्छ लगते हैं।।2।।

तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी।।
तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी।।3।।

उन मनुष्यों में भी द्विज, द्विजों में भी वेदों को [कण्ठमें] धारण करने वाले, उनमें भी वेदान्त धर्मपर चलने वाले, उनमें भी विरक्त (वैराग्यवान्) मुझे प्रिय हैं। वैराग्यवानोंमें फिर ज्ञानी और ज्ञानियों से भी अत्यन्त प्रिय विज्ञानी हैं।।3।।

तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा।।
पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं।।4।।

विज्ञानियों से भी प्रिय मुझे अपना दास है, जिसे मेरी ही गति (आश्रय) है, कोई दूसरी आशा नहीं है। मैं तुमसे बार-बार सत्य (‘निज सिद्धात’) कहता हूँ कि मुझे अपने सेवकके समान प्रिय कोई नहीं है।।4।।

भगति हीन बिरंचि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई।।
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी।।5।।

भक्तिहीन बह्मा ही क्यों न हो, वह मुझे सब जीवों के समान ही प्रिय है। परन्तु भक्ति मान् अत्यन्त नीच भी प्राणी मुझे प्राणोंके समान प्रिय है, यह मेरी घोषणा है।।5।।

दो.-सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग।
श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग।।86।।

पवित्र, सुशील और सुन्दर बुद्धिवाला सेवक, बता किसको प्यारा नहीं लगता ? वेद और पुराण ऐसी ही नीति कहते हैं। हे काक ! सावधान होकर सुन।।86।।

चौ.-एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा।।
कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता।।1।।

एक पिता के बहुत-से पुत्र पृथक्-पृथक् गुण, स्वभाव और आचरण वाले होते हैं। कोई पण्डित होता है, कोई तपस्वी, कोई ज्ञानी, कोई धनी, कोई शूरवीर, कोई दानी।।1।।

कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई।।
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा। सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा।।2।।

कोई सर्वज्ञ और कोई धर्मपरायण होता है। पिताका प्रेम इन सभी पर समान होता है। परंतु इनमें से यदि कोई मन, वचन और कर्म से पिता का ही भक्त होता है, स्वप्न में भी दूसरा धर्म नहीं जानता।।2।।

सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। जद्यपि सो सब भाँति अयाना।
एहि बिधि जीव चराचर जेते। त्रिजग देव नर असुर समेते।।3।।

वह पुत्र पिता को प्राणों के समान होता है, यद्यपि (चाहे) वह सब प्रकार से अज्ञान (मूर्ख) ही हो इस प्रकार तिर्यक् (पशु-पक्षी), देव, मनुष्य और असुरोंसमेत जितने भी चेतन और जड़ जीव हैं।।3।।

अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहिं बराबरि दाया।।
तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरु काया।।4।।

[उनसे भरा हुआ] यह सम्पूर्ण विश्व मेरा ही पैदा किया हुआ है। अतः सब पर मेरी बराबर दया है। परंतु इनमेंसे जो मद और माया छोड़कर मन, वचन और शरीरसे मुझको भजता है।।4।।

दो.-पुरुष नपुसंक नारि वा जीव चराचर कोइ।।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ।।87क।।

वह पुरुष नपुसंक हो, स्त्री हो अथवा चर-अचर कोई भी जीव हो, कपट छोड़कर जो भी सर्वभाव से मुझे भाजता है वह मुझे परम प्रिय है।।87(क)।।

सौ.-सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय।।
अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब।।87ख।।

हे पक्षी ! मैं तुझसे सत्य कहता हूँ, पवित्र (अनन्य एवं निष्काम) सेवक मुझे प्राणों के समान प्यारा है। ऐसा विचार कर सब आशा-भरोसा छोड़कर मुझीको भज।।87(ख)।।

चौ.-कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही।।
प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ। तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ।।1।।

तुझे काल भी नहीं व्यापेगा। निरन्तर मेरा स्मरण और भजन करते रहना। प्रभुके वचनामृत सुनकर मैं तृप्त नहीं होता था। मेरा शरीर पुलकित था और मनमें मैं अत्यन्त, हर्षित हो रहा था।।1।।

सो सुख जानइ मन अरु काना। नहिं रसना पहिं जाइ बखाना।।
प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना। कहि किमि सकहिं तिन्हहिं नहिं बयना।।2।।

वह सुख मन और कान ही जानते हैं। जीभ से उसका बखान नहीं किया जा सकता। प्रभु की शोभा का वह सुख नेत्र ही जानते हैं। पर वे कह कैसे सकते हैं ? उनके वाणी तो ही नहीं है।।2।

बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई। लगे करन सिसु कौतुक तेई।।
सजल नयन कछु मुख करि रूखा। चितइ मातु लागी अति भूखा।।3।

मुझे बहुत प्रकार से भली भाँति समझाकर और सुख देकर प्रभु फिर वही बालकों के खेल करने लगे। नेत्रों में जल भरकर और मुख को कुछ रूखा [-सा] बनाकर उन्होंने माताकी ओर देखा- [और मुखाकृति तथा चितवनसे माताको समझा दिया कि] बहुत भूख लगी है।।3।।

देखि मातु आतुर उठि धाई। कहि मृदु बचन लिए उर लाई।।
गोद राखि कराव पय पाना। रघुपति चरित ललित कर गाना।।4।।

यह देखकर माता तुरंत उठ दौड़ी और कोमल वचन कहकर उन्होंने श्रीरामजीको छाती से लगा लिया। वे गोद में लेकर उन्हें दूध पिलाने लगीं और श्रीरघुनाथजी (उन्हीं) की ललित लीलाएँ गाने लगीं।।4।।

सो.-जेहि सुख लागि पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद।
अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन।।88क।।

जिस सुख के लिये [सबको] सुख देनेवाले कल्याणरूप त्रिपुरारि शिवजी ने अशुभ वेष धारण किया, उस सुख में अवधपुरी के नर-नारी निरन्तर निमग्न रहते हैं।।88(क)।।

सोई सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ।
ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति।।88ख।।

उस सुख का लवलेशमात्र जिन्होंने एक बार स्वप्नमें भी प्राप्त कर लिया, हे पक्षिराज ! वे सुन्दर बुद्धि वाले सज्जन पुरुष उसके सामने ब्रह्मसुखको भी कुछ नहीं गिनते।।88(ख)।।

चौ.-मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला। देखेउँ बालबिनोद रसाला।।
राम प्रसाद भगति बर पायउँ। प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ।।1।।

मैं और कुछ समय तक अवधपुरी में रहा और मैंने श्रीरामजी की रसीली बाललीलाएँ देखीं। श्रीरामजी की कृपा से मैंने भक्ति का वरदान पाया। तदनन्तर प्रभु के चरणों की वन्दना करके मैं अपने आश्रमपर लौट गया।।1।।

तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया।।
यब सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा।।2।।

इस प्रकार जब से श्रीरघुनाथजी ने मुझको अपनाया, तबसे मुझे माया कभी नहीं व्यापी। श्रीहरि की माया ने मुझे जैसे नचाया, वह सब गुप्त चरित्र मैंने कहा।।2।।

निज अनुभव अब कहउँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा।।
राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई।।3।।

हे पक्षिराज गरुड़ ! अब मैं आपसे अपना निज अनुभव कहता हूँ। [वह यह है कि] भगवान् के भजन के बिना क्लेश दूर नहीं होते। हे पक्षिराज ! सुनिये, श्रीरामजी की कृपा बिना श्रीरामजी की प्रभुता नहीं जानी जाती।।3।।

जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीति।।
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई।।4।।

प्रभुता जाने बिना उनपर विश्वास नहीं जमता, विश्वास के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना भक्ति वैसे ही दृढ़ नहीं होती जैसे हे पक्षिराज ! जलकी चिकनाई ठहरती नहीं।।4।।

सो.-बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।।
हावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु।।89क।।

गुरु के बिना कहीं ज्ञान हो सकता है ? अथवा वैराग्य के बिना कहीं ज्ञान हो सकता है ? इसी तरह वेद और पुराण कहते हैं कि श्रीहरिकी भक्तिके बिना क्या सुख मिल सकता है ?।।89(क)।।

कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु।
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ।।89ख।।

हे तात ! स्वाभाविक सन्तोष के बिना क्या कोई शान्ति पा सकता है ? [चाहे] करोड़ों उपाय करके पच-पच मरिये; [फिर भी] क्या कभी जलके बिना नाव चल सकती है ?।।89(ख)।।

चौ.-बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं।।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा।।1।।

सन्तोष के बिना कामना का नाश नहीं होता और कामनाओं के रहते स्वप्न में भी सुख नहीं हो सकता। और श्रीराम के भजन बिना कामनाएँ कहीं मिट सकती हैं ? बिना धरती के भी कहीं पेड़ उग सकते हैं ?।।1।।

बिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ।।
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावइ कोई।।2।।

विज्ञान (तत्त्वज्ञान) के बिना क्या समभाव आ सकता है ? आकाश के बिना क्या कोई अवकाश (पोल) पा सकता है ? श्रद्धा के बिना धर्म [का आचरण] नहीं होता। क्या पृथ्वीतत्त्व के बिना कोई गन्ध पा सकता है ?।।2।।

बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा।।
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाँईं।।3।।

तप के बिना क्या तेज फैल सकता है ? जल-तत्त्वके बिना संसारमें क्या रस हो सकता है ? पण्डितजनोंकी सेवा बिना क्या शील (सदाचार) प्राप्त हो सकता है ? हे गोसाईं ! जैसे बिना तेज (अग्नि-तत्त्व) के रूप नहीं मिलता।।3।।

निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा।।
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनुहरि भजन न भव भय नासा।।4।।

निज-सुख (आत्मानन्द) के बिना क्या मन स्थिर हो सकता है? वायु-तत्त्वके बिना क्या स्पर्श हो सकता है ? क्या विश्वास के विना कोई भी सिद्धि हो सकती है ? इसी प्रकार श्रीहरि के भजन बिना जन्म-मृत्यु के भय का नाश नहीं होता।।4।।

दो.-बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु।।90क।।

बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, भक्तिके बिना श्रीरामजी पिघलते (ढरते) नहीं और श्रीरामजी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शान्ति नहीं पाता।।90(क)।।

सो.-अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।
भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद।।90ख।।

हे धीरबुद्धि ! ऐसा विचार कर सम्पूर्ण कुतर्कों और सन्देहों को छोड़कर करुणा की खान सुन्दर और सुख देनेवाले श्रीरघुवीर का भजन कीजिये।।90(ख)।।

चौ.-निज मति सरिस नाथ मैं गाई। प्रभु प्रताप महिमा खगराई।।
कहउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी।।1।।

हे पक्षिराज ! हे नाथ ! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार प्रभुके प्रताप और महिमाका गान किया। मैंने इसमें कोई बात युक्ति से बढ़ाकर नहीं कहीं है यह सब अपनी आँखों देखी कही है।।1।।

महिमा नाम रुप गुन गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा।।
निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं।।2।।

श्रीरघुनाथजी की महिमा, नाम, रुप और गुणों की कथा सभी अपार और अनन्त है तथा श्रीरघुनाथजी स्वयं अनन्त हैं। मुनिगण अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार श्रीहरि के गुण गाते हैं। वेद, और शिवजी भी उनका पार नहीं पाते।।2।।

तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता।।
तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा।।3।।

आपसे लेकर मच्छरपर्यन्त सभी छोटे-बड़े जीव आकाशमें उड़ते हैं, किन्तु आकाश का अन्त कोई नहीं पाते। इसी प्रकार हे तात ! श्रीरघुनाथजीकी महिमा भी अथाह है। क्या कभी कोई उसकी थाह पा सकता है ?।।3।।

रामु काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन।।
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा।।4।।

श्रीरामजीका अरबों कामदेवोंके समान सुन्दर शरीर है। वे अनन्त कोटि दुर्गाओंके समान शत्रुनाशक हैं। अरबों इन्द्र के समान उनका विलास (ऐश्वर्य) है। अरबों आकाशोंके समान उनमें अनन्त अवकाश (स्थान) है।।4।।

दो.-मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास।
ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास।।91क।।

अरबों पवन के समान उनमें महान् बल है और अरबों सूर्यों के समान प्रकाश है। अरबों चन्द्रमाओं के समान वे शीतल और संसारके समस्त भयों का नाश करनेवाले हैं।।91(क)।।

काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत।
धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत।।91ख।।

अरबों कालों के समान वे अत्यन्त दुस्तर, दुर्गम और दुरन्त हैं। वे भगवान् अरबों धूमकेतुओं (पुच्छल तारों) के समान अत्यन्त प्रबल हैं।।91(ख)।।

चौ.-प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला।।
तीरथ अमित कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन।।1।।

अरबों पतालों के समान प्रभु अथाह हैं। अरबों यमराजोंके समान भयानक हैं। अनन्तकोटि तीर्थों के समान वे पवित्र करनेवाले हैं। उनका नाम सम्पूर्ण पापसमूह का नाश करनेवाला है।।1।।

हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा।।
कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना।।2।

श्रीरघुवीर करोड़ों हिमालयोंके समान अचल (स्थिर) हैं और अरबों समुद्रों के समान गहरे हैं। भगवान् अरबों कामधेनुओं के समान सब कामनाओं (इच्छि पदार्थों) के देनेवाले हैं।।2।।

सारद कोटि अमित चतुराई। बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई।।
बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता। रुद्र कोटि सत सम संहर्ता।।3।।

उनमें अनन्तकोटि सरस्वतियोंके समान चतुरता हैं। अरबों ब्रह्माओं के समान सृष्टिरचनाकी निपुणता है। वे करोड़ों विष्णुओं के समान पालन करनेवाले और अरबों रुद्रों के समान संहार करनेवाले हैं।।3।।

धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना।।
भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा।।4।।

वे अरबों कुबेरों के समान सृष्टि धनवान और करोड़ों मायाओं के समान के खजाने हैं। बोझ उठाने में वे अरबों शेषोंके समान हैं [अधिक क्या] जगदीश्वर प्रभु श्रीरामजी [सभी बातोंमें] सीमारहित और उपमारहित हैं।।4।।

छं.-निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै।।
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनीस हरिहि बखानहीं।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं।।

श्रीरामजी उपमारहित हैं, उनकी कोई दूसरी उपमा है ही नहीं। श्रीरामके समान श्रीराम ही हैं, ऐसा वेद कहते हैं। जैसे अरबों जुगुनुओंके समान कहने से सूर्य [प्रशंसाको नहीं वरं] अत्यन्त लघुता को ही प्राप्त होता है (सूर्य की निन्दा ही होती है)। इसी प्रकार अपनी-अपनी बुद्धिके विकासके अनुसार मुनीश्वर श्रीहरिका वर्णन करते हैं किन्तु प्रभु भक्तों के भावमात्र को ग्रहण करनेवाले और अत्यन्त कृपालु हैं। वे उस वर्णनको प्रेमसहित सुनकर सुख मानते हैं।

दो.-रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।
संतन्ह सन जस किछु सनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ।।92क।।

श्रीरामजी अपार गुणोंके समुद्र हैं, क्या उनकी कोई थाह पा सकता है ? संतों से मैंने जैसा कुछ सुना था, वही आपको सुनाया।।92(क)।।

सो.-भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन।।92ख।।

सुख के भण्डार, करुणाधाम भगवान् (प्रेम) के वश हैं। [अतएव] ममता, मद और मनको छोड़कर सदा श्रीजानकीनाथजी का ही भजन करना चाहिये।।92(ख)।।

चौ.-सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पंख फुलाए।।
नयन नीर मन अती हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना।।1।।

भुशुण्डिजीके सुन्दर वचन सुनकर पक्षिराजने हर्षित होकर अपने पंख फुला लिये। उनके नेत्रोंमें [प्रेमानन्द के आँसुओं का] जल आ गया और मन अत्यन्त हर्षित हो गया। उन्होंने श्रीरघुनाथजी का प्रताप हृदय में धारण किया।।1।।

पाछिल मोह समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना।।
पुनि पुनि काग चस सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढ़ावा।।2।।

वे अपने पिछले मोहको समझकर (याद करके) पछताने लगे कि मैंने आनादि ब्रह्मको मनुष्य करके माना। गरुड़जी बार बार काकभुशुण्डिजी के चरणों पर सिर नवाया और उन्होंने श्रीरामजी के ही समान जानकर प्रेम बढ़ाया।।2।।

गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई।।
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता।।3।।

गुरु के बिना कोई भवसागर नहीं तर सकता, चाहे वह ब्रह्मा जी और शंकरजीके समान ही क्यों न हो। [गरुड़जीने कहा-] हे तात ! मुझे सन्देहरूपी सर्पने डस लिया था और [साँपके डसनेपर जैसे विष चढ़नेसे लहरें आती है वैसे ही] बहुत-सी कुतर्करूपी दुःख देने वाली लहरें आ रही थीं।।3।।

तव सरूप गारुड़ि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक।।
तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना।।4।।

आपके स्वरुप रूपी गारुड़ी (साँपका विष उतारनेवाले) के द्वारा भक्तोंको सुख देनेवाले श्रीरघुनाथजीने मुझे जिला लिया। आपकी कृपा से मेरा मोह नाश हो गया और मैंने श्रीरामजी का अनुपम रहस्य जाना।।4।।

दो.-ताहि प्रसंसि बिबिधि बिधि सीस नाइ कर जोरि।।
बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि।।93क।।

उनकी (भुशुण्डिजीकी) बहुत प्रकार से प्रशंसा करके, सिर नवाकर और हाथ जोड़कर फिर गरुड़जी प्रेमपूर्वक विनम्र और कोमल वचन बोले-।।93(क)।।

प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि।
कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि।।93ख।।

हे प्रभो ! हे स्वामी ! मैं अपने अविवेकके कारण आपसे पूछता हूँ। हे कृपाके समुद्र ! मुझे अपना ‘निज दास’ जानकर आदरपूर्वक (विचारपूर्वक) मेरे प्रश्न का उत्तर कहिये।।93(ख)।।

चौ.-तुम्ह सर्बग्य तग्य तम पारा। सुमति सुसील सरल आचारा।।
ग्यान बिरति बिग्यान निवासा। रघुनायकके तुम्ह प्रिय दासा।।1।।

आप सब कुछ जानने वाले हैं, तत्त्वके ज्ञाता है, अन्धकार (माया) से परे, उत्तम बुद्धि से युक्ति, सुशील, सरल, आचरणवाले, ज्ञान, वैराग्य और विज्ञान करके धाम और श्रीरघुनाथीजी के प्रिय दास हैं।।1।।

कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई।
राम चरित सर सुंदर स्वामी। पायहु कहाँ कहहु नभगामी।।2।।

आपने यह काक शरीर किस कारण से पाया ? हे तात ! सब समझाकर मुझसे कहिये। हे स्वामी ! हे आकाशगामी ! यह सुन्दर रामचरित मानस आपने कहाँ पाया, सो कहिये।।2।।

नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं। महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं।।
मुधा बचन नहिं ईश्वर कहई। सोउ मोरें मन संसय अहई।।3।।

हे नाथ ! मैंने शिवजीसे ऐसा सुना है कि महाप्रलयमें आपका नाश नहीं होता और ईश्वर् (शिवजी) कभी मिथ्या वचन कहते नहीं। वह भी मेरे मन में संदेह है।।3।।

अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा।।
अंड कटाह अमित लय कारी। कालु सदा दुरतिक्रम भारी।।4।।

[क्योंकि] हे नाथ ! नाग, मनुष्य, देवता आदि चर-अचर जीव तथा यह सारा जगत् कालका कलेवा है। असंख्य ब्रह्माण्डोंका नाश करनेवाला काल सदा बड़ा ही अनिवार्य है।।4।।

सो.-तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन।
मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल।।94क।।

[ऐसा वह] अत्यन्त भयंकर काल आपको नहीं व्यापता (आपपर प्रभाव नहीं दिखलाता)- इसका कारण क्या है ? हे कृपालु ! मुझे कहिये, यह ज्ञान का प्रभाव है या योग का बल है ?।।94(क)।।

दो.-प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग।।
कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग।।94ख।।

हे प्रभो ! आपके आश्रममें आते ही मेरा मोह और भ्रम भाग गया। इसका क्या कारण है ? हे नाथ ! यह सब प्रेमसहित कहिये।।94(ख)।।

चौ.- गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा। बोलेउ उमा परम अनुरागा।।
धन्य धन्य तव मति उरगारी। प्रस्र तुम्हारि मोहि अति प्यारी।।1।।

हे उमा ! गरुड़जी की वाणी सुनकर काकभुशुण्डिजी हर्षित हुए और परम प्रेम से बोले-हे सर्पों के शत्रु ! आपकी बुद्धि धन्य है ! धन्य है ! आपके प्रश्न मुझे बहुत ही प्यारे लगे।।1।।

सुनि तव प्रस्र सप्रेम सुहाई। बहुत जनम कै सुधि मोहि आई।।
सब निज कथा कहउँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई।।2।।

आपके प्रेम युक्त सुन्दर प्रश्न सुनकर मुझे अपने बहुत जन्मोंकी याद आ गयी। मैं अपनी सब कथा विस्तार से कहता हूँ। हे तात ! आदरसहित मन लगाकर सुनिये।।2।।

जप तप मख सम दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना।।
सब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा।।3।।

अनेक जप, तप, यज्ञ, शम (मनको रोकना), दम (इन्द्रियों के रोकना), व्रत, दान, वैराग्य, विवेक, योग, विज्ञान आदि सबका फल श्रीरघुनाथजी के चरणोंमें प्रेम होना है। इसके बिना कोई कल्याण नहीं पा सकता।।3।।

एहिं तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई।।
जेहि तें कछु निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई।।4।।

मैंने इसी शरीर से श्रीरामजी की भक्ति प्राप्त की है। इसी से इसपर मेरी ममता अधिक है। जिससे अपना कुछ स्वार्थ होता है, उस पर सभी कोई प्रेम करते हैं।।4।।

सौ.-पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं।।
अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित।।95क।।

हे गरुड़जी ! वेदों में मानी हुई ऐसी नीति है और सज्जन भी कहते हैं कि अपना परम हित जानकर अत्यन्त नीच से भी प्रेम करना चाहिये।।95(क)।।

पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर।
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम।।95ख।।

रेशम कीड़े से होता है, उससे सुन्दर रेशमी वस्त्र बनते हैं। इसी से उस परम अपवित्र कीड़े को भी सब कोई प्राणों के समान पालते हैं।।95(ख)।।

चौ.-स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा।।
सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा। जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा।।1।।

जीव के लिये सच्चा स्वार्थ यही है कि मन, वचन और कर्म से श्रीरामजी के चरणोंमें प्रेम हो। वही शरीर पवित्र और सुन्दर है जिस शरीर को पाकर श्रीरघुवीर का भजन किया जाय।।1।।

राम बिमुख लहि बिधि सम देही। कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही।।
राम भगति एहिं तन उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी।।2।।

जो श्रीरामजीके विमुख है वह यदि ब्रह्माजी के समान शरीर पा जाय तो भी कवि और पण्डित उसकी प्रशंसा नहीं करते । इसी शरीर से मेरे हृदय में रामभक्ति उत्पन्न हुई। इसी से हे स्वामी ! यह मुझे परम प्रिय है।।2।।

तजउँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना।।
प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा।।3।।

मेरा मरण अपनी इच्छा पर है, परन्तु फिर भी मैं यह शरीर नहीं छोड़ता; क्योंकि वेदोंने वर्णन किया है कि शरीरके बिना भजन नहीं होता। पहले मोहने मेरी बड़ी दुर्दशा की। श्रीरामजीके विमुख होकर मैं कभी सुख से नहीं सोया।।3।।

नाना जनम कर्म पुनि नाना। किए जोग जप तप मख दाना।।
कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं।।4।।

अनेकों जन्मों में मैंने अनेकों प्रकार के योग जप तप यज्ञ और दान आदि कर्म किये। हे गरुड़जी ! जगत् में ऐसी कौन योनि है, जिसमें मैंने [बार-बार ] घूम फिरकर जन्म न लिया हो।।4।।

देखउँ करि सब करम गोसाईं। सुखी न भयउँ अबहिं की नाईं।।
सुधि मोहि नाथ जनम बहु केरी। सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी।।5।।

हे गोसाईं ! मैंने सब कर्म करके देख लिये, पर अब (इस जन्म) की तरह मैं कभी सुखी नहीं हुआ। हे नाथ ! मुझे बहुत-से जन्मों की याद है। [क्योंकि] श्रीशिवजी की कृपा से मेरी बुद्धि मोहने नहीं घेरा।।5।।

दो.-प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस।
सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस।।96क।।

हे पक्षिराज ! सुनिये, अब मैं अपने प्रथम जन्म के चरित्र कहता हूँ, जिन्हें सुनकर प्रभु के चरणों में प्रीति उत्पन्न होती है, जिससे सब क्लेश मिट जाते हैं।।96(क)।।

पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलियुग मल मूल।
नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल।।96ख।।

हे प्रभो ! पूर्वके एक कल्प में पापोंका मूल युग कलियुग था, जिसमें पुरुष और स्त्री सभी अधर्मपरायण और वेद के विरोधी थे।।96(ख)।।

चौ.-तेहिं कलिजुग कोलसपुर जाई। जमन्त भयउँ सूद्र तनु पाई।।
सिव सेवक मन क्रम अरु बानी। आन देव निदंक अभिमानी।।1।।

उस कलियुग में मैं अयोध्या पुरी में जाकर शूद्र का शरीर पाकर जन्मा। मैं मन वचन और कर्म से शिवजीका सेवक और दूसरे देवताओंकी निन्दा करनेवाला अभिमानी था।।1।।

धन मद मत्त परम बाचाला। उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला।।
जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी। तदपि न कछु महिमा तब जानी।।2।।

मैं धन के मदसे मतवाला बहुत ही बकवादी और उग्रबुद्धिवाला था; मेरे हृदय में बड़ा भारी दम्भ था। यद्यपि मैं श्रीरघुनाथजी की राजधानीमें रहता था, तथापि मैंने उस समय उसकी महिमा कुछ भी नहीं जानी।।2।।

अब जाना मैं अवध प्रभावा। निगमागम पुरान अस गावा।।
कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई। राम परायन सो परि होई।।3।।

अब मैंने अवध का प्रभाव जाना। वेद शास्त्र और पुराणों ने ऐसा गाया है कि किसी भी जन्म में जो कोई भी अयोध्या में बस जाता है, वह अवश्य ही श्रीरामजी के परायण हो जायगा।।3।।

अवध प्रभाव जान तब प्रानी। जब उर बसहिं रामु धनुपानी।।
सो कलिकाल कठिन उरगारी। पाप परायन सब नर नारी।।4।।

अवधका प्रभाव जीव तभी जानता है, जब हाथ में धनुष धारण करनेवाले श्रीरामजी उसके हृदय में निवास करते हैं। हे गरुड़जी ! वह कलिकाल बड़ा कठिन था। उसमें सभी नर-नारी पापपरायण (पापोंमें लिप्त) थे।।4।।

दो.- कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।।
दंभिन्ह निज गति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ।।97क।।

कलियुग के पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया, सद्ग्रन्थ लुप्त हो गये। दम्भियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर-करके बहुत-से पंथ प्रकट कर दिये।।97(क)।।

भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म।।
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म।।97ख।।

सभी लोग मोह के वश हो गये, शुभकर्मों को लोभ ने हड़प लिया। हे ज्ञान के भण्डार ! हे श्रीहरिके वाहन ! सुनिये, अब मैं कलि के कुछ धर्म कहता हूँ।।97(ख)।।

चौ.-बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।।
द्विज श्रुति बेचक भूपप्रजालन कोउ नहिं मान निगम अनुसासन।।1।।

कलियुग में न वर्ण धर्म रहता है, न चारों आश्रम रहते हैं। सब स्त्री पुरुष वेद के विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों के बेचने वाले और राजा प्रजा को खा डालने वाले होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता।।1।।

मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा।।
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहु संत कहइ सब कोई।।2।।

जिसको जो अच्छा लग जाय, वही मार्ग है। जो डींग मारता है, वही पण्डित है। जो मिथ्या आरम्भ करता (आडम्बर रचता) है और जो दम्भमें रत हैं, उसीको सब कोई संत कहते हैं।।2।।

सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी।।
जो कह झूँठ मसखरी जाना। कलियुजु सोई गुनवंत बखाना।।3।।

जो [जिस किसी प्रकार से] दूसरे का धन हरण करले, वही बुद्धिमान् है। जो दम्भ करता है, वही बड़ा आचारी है। जो झूठ बोलता है और हँसी-दिल्लगी करना जानता है, कलियुग में वही गुणवान् कहा जाता है।।3।।

निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी।।
जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला।।4।।

जो आचारहीन है और वेदमार्ग के छोड़े हुए है, कलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान् है। जिसके बड़े-बड़े नख और लम्बी-लम्बी जटाएँ हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है।।4।।

दो.-असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं।।98क।।

जो अमंगल वेष और अमंगल भूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-अभक्ष्य (खाने योग्य और न खाने योग्य) सब कुछ खा लेते हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य हैं।।98(क)।।

सो.-जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ।।98ख।।

जिनके आचरण दूसरों का अपकार (अहित) करनेवाले हैं, उन्हें ही बड़ा गौरव होता है। और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं। जो मन, वचन और कर्म से लबार (झूठ बकनेवाले) है, वे ही कलियुग में वक्ता माने जाते हैं।।98(ख)।।

नारि बिबस नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं।।
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेलि जनेऊँ लेहिं कुदाना।।1।।

हे गोसाईं ! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बंदर की तरह [उनके नचाये] नाचते हैं। ब्रह्माणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं।।1।।

सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी।।
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी।।2।।

सभी पुरुष काम और लोभ में तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवता, ब्राह्मण, वेद और संतों के विरोधी होते हैं। अभागिनी स्त्रियाँ गुणों के धाम सुन्दर पति को छोड़कर परपुरुष का सेवन करती हैं।।2।।

सौभागिनीं बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिंगार नबीना।।
गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा।।3।।

सुहागिनी स्त्रियाँ तो आभूषणों से रहित होती हैं, पर विधवाओं के नित्य नये श्रृंगार होते हैं। शिष्य और गुरु में बहरे और अंधे का-सा हिसाब होता है। एक (शिष्य) गुरुके उपदेश को सुनता नहीं, एक (गुरु) देखता नहीं, (उसे ज्ञानदृष्टि प्राप्त नहीं है)।।3।।

हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई।।
मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं।।4।।

जो गुरु शिष्य का धन हरण करता है, पर शोक नहीं हरण करता, वह घोर नरक में पड़ता है। माता-पिता बालकोंको बुलाकर वहीं धर्म सिखलाते हैं, जिससे पेट भरे।।4।।

दो.-ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहि न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात।।99क।।

स्त्री-पुरुष ब्रह्म ज्ञान के सिवा दूसरी बात नहीं करते, पर वे लोभवश कौड़ियों (बहुत थोड़े लाभ) के लिये ब्राह्मण और गुरुओं की हत्या कर डालते हैं ।।99(क)।।

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि।।99ख।।

शूद्र ब्राह्मणों से विवाद करते हैं [और कहते हैं] कि हम क्या तुमसे कुछ कम हैं ? जो ब्रह्म को जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है। [ऐसा कहकर] वे उन्हें डाँटकर आँखें दिखलाते हैं।।99(ख)।।

चौ.-पर त्रिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने।।
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा मैं चरित्र कलिजुग कर।।1।

जो परायी स्त्री में आसक्त, कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह और ममता में लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेद वादी (ब्रह्म और जीवको एक बतानेवाले) ज्ञानी हैं। मैंने उस कलियुग का यह चरित्र देखा।।1।।

आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं।।
कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका।।2।।

वे स्वयं तो नष्ट हुए ही रहते हैं; जो कहीं सन्मार्ग का प्रतिपालन करते हैं, उनको भी वे नष्ट कर देते हैं। जो तर्क करके वेद भी निन्दा करते हैं, वे लोग कल्प-कल्पभर एक-एक नरक में पड़े रहते हैं।।2।।

जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।।
नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी।।3।।

तेली, कुम्हार, चाण्डाल भील कोल और कलवार आदि जो वर्णमें नीचे हैं, स्त्री के मरने पर अथवा घर की सम्पत्ति नष्ट हो जाने पर सिर मुँड़ाकर संन्यासी हो जाते हैं।।3।।

ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं।।
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी।।4।।

वे अपने को ब्राह्मणों से पुजवाते हैं और अपने ही हाथों दोनों लोक नष्ट करते हैं। ब्राह्मण, अनपढ़, लोभी, कामी, आचारहीन, मूर्ख और नीची जाति की व्याभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं।।4।।

सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना।।
सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा।।5।।

शूद्र नाना प्रकार के जप, तप और व्रत करते हैं तथा ऊँचे आसन (व्यासगद्दी) पर बैठकर पुराण करते हैं। सब मनुष्य मनमाना आचरण करते हैं। अपार अनीतिकी वर्णन नहीं किया जा सकता।।5।।

दो.-भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग।।
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग।।100क।।

कलियुग में सब लोग वर्णसंकर और मर्यादा से च्युत हो गये। वे पाप करते हैं और [उनके फलस्वरुप] दुःख, भय, रोग, शोक और [प्रिय वस्तुका] वियोग पाते हैं।।100(क)।।

श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक।
तेहिं न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक।।100ख।।

वेद तथा सम्मत वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है, मोहवश मनुष्य उसपर नहीं चलते और अनेकों नये-नये पंथोंकी कल्पना करते हैं।।100(ख)।।

छं.-बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती।।
तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही।।1।।

संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान् हो गये और गृहस्थ दरिद्र । हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती।।1।।

कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनहिं चेरि निबेरि गती।।
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं।।2।।

कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी चाल को छोड़कर घरमें दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक स्त्री का मुँह नहीं दिखायी पड़ा।।2।।

ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपुरूप कुटुंब भए तब तें।।
नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं।।3।।

जब से ससुराल प्यारी लगने लगी, तबसे कुटुम्बी शत्रुरूप हो गये। राजा लोग पापपरायण हो गये, उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही [बिना अपराध] दण्ड देकर उसकी विडम्बना (दुर्दशा) किया करते हैं।।3।।

धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी।।
नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो।।4।।

धनी लोग मलिन (नीच जाति के होनेपर भी कुलीन माने जाते हैं। द्विजका चिह्न जनेऊमात्र रह गया और नंगे बदन रहना तपस्वी का। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं।।4।।

कबि बृंद उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी।।
कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै।।5।।

कवियों के तो झुंड हो गये, पर दुनिया में उदार (कवियोंका आश्रय-दाता)सुनायी नहीं पड़ता। गुण में दोष लगाने वाले बहुत हैं, पर गुणी कोई भी नहीं है। कलियुग में बार-बार अकाल पड़ते हैं। अन्न के बिना सब लोग दुखी होकर मरते हैं।।5।।

दो.-सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड।।101क।।

हे पक्षिराज गरुड़जी ! सुनिये, कलियुग में कपट, हठ (दुराग्रह), दम्भ, द्वेष, पाखण्ड, मान, मोह और काम आदि (अर्थात् काम क्रोध और लोभ) और मद ब्रह्माण्डभरमें व्याप्त हो गये (छा गये)।।101(क)।।

तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनीं बए न जामहिं धान।।101ख।।

मनुष्य जप, तप, यज्ञ, व्रत और दान आदि मर्म तामसी भाव से करने लगे। देवता (इन्द्र) पृथ्वी पर जल नहीं बरसाते और बोया हुआ अन्न उगता नहीं।।101(ख)।।

छं.-अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा।।
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता।1।।

स्त्रियों के बाल ही भूषण है (उनके शरीरपर कोई आभूषण नहीं रह गया) और उनको भूख बहुत लगती है (अर्थात् वे सदा अतृप्त ही रहती हैं)। वे धनहीन और बहुत प्रकार की ममता होने के कारण दुखी रहती हैं। वे मूर्ख सुख चाहती हैं, पर धर्म में उनका प्रेम नहीं है। बुद्धि थोड़ी है और कठोर है; उनमें कोमलता नहीं है।।1।।

नर पीड़ित रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीं।।
लघु जीवन संबतु पंच दसा। कलपांत न नास गुमानु असा।।2।।

मनुष्य रोगों से पीड़ित है, भोग (सुख) कहीं नहीं है। बिना ही कारण अभिमान और विरोध करते हैं। दस-पाँच वर्षका थोड़ा-सा जीवन है; परन्तु घमंड ऐसा है मानो कल्पान्त (प्रलय) होनेपर भी उनका नाश नहीं होगा।।2।।

कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा।।
नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता।।3।।

कलिकालने मनुष्य को बेहाल (अस्त-व्यस्त) कर डाला । कोई बहिन-बेटी का भी विचार नहीं करता। [लोगोंमें] न सन्तोष है, न विवेक है और न शीतलता है। जाति, कुजाति सभी लोग भीख माँगनेवाले हो गये।।3।।

इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता।।
सब लोग बियोग बिसोक हए। बरनाश्रम धर्म अचार गए।।4।।

ईर्ष्या (डाह) कड़वे वचन और लालच भरपूर हो रहे हैं, समता चली गयी। सब लोग वियोग और विशेष शोक से मरे पड़े हैं। वर्णाश्रम-धर्मके आचारण नष्ट हो गये।।4।।

दम दान दया नहिं जानपनी। जड़ता परबंचनताति घनी।।
तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिंदक जे जग मो बगरे।।5।।

इन्द्रियों का दमन, दान, दया और समझदारी किसी में नहीं रही। ‘मूर्खता और दूसरों को ठगना यह बहुत अधिक बढ़ गया। स्त्री-पुरुष सभी शरीर के ही पालन-पोषण में लगे रहते हैं। जो परायी निन्दा करने वाले हैं, जगत् में वे ही फैले हैं।।5।।

दो.-सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार।
गुनउ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार।।102क।।

हे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी ! सुनिये, कलिकाल पाप और अवगुणों का घर है। किन्तु कलियुग में एक गुण भी बड़ा है कि उसमें बिना ही परिश्रम भवबन्धनसे छुटकारा मिल जाता है।।102(क)।।

कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग।।102ख।।

सतयुग, त्रेता और द्वापरमें जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान् के नाम से पा जाते हैं।।102(ख)।।

चौ.-कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी।।
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहिं समर्पि कर्म भव तरहीं।।1।।

सतयुगमें सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके सब प्राणी भवसागर से तर जाते हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सब कर्मों को प्रभु के समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं।।1।।

द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा।।
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा।।2।।

द्वापर में श्रीरघुनाथजी के चरणों की पूजा करके मनुष्य संसार से तर जाते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है और कलियुग में तो केवल श्रीहरि की गुणगाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं।।2।।

कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना।।
सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि।।3।।

कलियुग में न तो योग यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्रीरामजी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्रीरामजी को भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है।।3।।

सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं।।
कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा।।4।।

वही भवसागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। नामका प्रताप कलियुगमें प्रत्यक्ष है। कलियुगका एक पवित्र प्रताप (महिमा) है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं, पर [मानसिक] पाप नहीं होते।।4।।

दो.-कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास।।103क।।

यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है। [क्योंकि] इस युगमें श्रीरामजीके निर्मल गुणोंसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार [रूपी समुद्र] से तर जाता है।।103(क)।।

प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान।।103ख।।

धर्म के चार चरण (सत्य, दया तप और दान) प्रसिद्ध हैं, जिनमें से कलि में एक [दानरूपी] चरण ही प्रधान है। जिस-किसी प्रकारसे भी दिये जानेपर दान कल्याण ही करता है।।103(ख)।।

चौ.-नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदयँ राम माया के प्रेरे।।
सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना।।1।।

श्रीरामजी की माया से प्रेरित होकर सबके हृदयों में सभी युगों के धर्म नित्य होते रहते हैं। शुद्ध सत्त्वगुण, समता, विज्ञान और मनका प्रसन्न होना, इसे सत्यसुग का प्रभाव जाने।।1।।

सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा।।
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस।।2।।

सत्त्वगुण अधिक हो, कुछ रजो गुण हो, कर्मों में प्रीति हो, सब प्रकार से सुख हो, यह त्रेता का धर्म है। रजोगुण बहुत हो, सत्त्वगुण बहुत ही थोड़ा हो, कुछ तमों गुण हो, मनमें हर्ष और भय हों, यह द्वापर का धर्म है।।2।।

तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा।।
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं।।3।।

तमोगुण बहुत हो, रजोगुण थोड़ा हो, चारों ओर वैर विरोध हो, यह कलियुग का प्रभाव है। पण्डित लोग युगों के धर्म को मन में जान (पहिचान) कर, अधर्म छोड़कर धर्म से प्रीति करते हैं।।3।।

काल धर्म नहिं व्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही।।
नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया।।4।।

जिसका श्रीरघुनाथजी के चरणों में अत्यन्त प्रेम है, उसको कालधर्म (युगधर्म) नहीं व्यापते। हे पक्षिराज ! नट (बाजीगर) का किया हुआ कपट चरित्र (इन्द्रजाल) देखनेवालों हैं के लिये बड़ा विकट (दुर्गम) होता है, पर नट के सेवक (जंभूरे) को उसकी माया नहीं व्यापती है।।4।।

दो.-हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं।।104क।।

श्रीहरि की माया द्वारा रचे हुए दोष और गुण श्रीहरि के भजन के बिना नहीं जाते। मन में ऐसा विचारकर, सब कामनाओं को छोड़कर (निष्कामभावसे) श्रीहरि का भजन करना चाहिये।।104(क)।।

तेहिं कलिकाल बरस बहु बसेउँ अवध बिहगेस।
परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस।।104ख।।

हे पक्षिराज ! उस कलिकाल में मैं बहुत वर्षोंतक अयोध्या में रहा। एक बार वहाँ अकाल पड़ा, तब मैं बिपत्ति का मारा विदेश चला गया।।104(ख)।।

चौ.-गयउँ उजेनी सुनु उरगारी। दीन मलीन दरिद्र दुखारी।।
गएँ काल कछु संपति पाई। तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई।।1।।

हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी ! सुनिये, मैं दीन, मलिन (उदास), दरिद्र और दुखी होकर उज्जैन गया। कुछ काल बीतने पर कुछ सम्पत्ति पाकर फिर म वहीं भगवान् शंकर की आराधना करने लगा।।1।।

बिप्र एक बैदिक सिव पूजा। करइ सदा तेहिं काजु न दूजा।।
परम साधु परमारथ बिंदक। संभु उपासक नहिं हरि निंदक।।2।।

एक ब्राह्मण देवविधिसे सदा शिवजीकी पूजा करते, उन्हें दूसरा कोई काम न था। वे परम साधु और परमार्थके ज्ञाता थे। वे शम्भुके उपासक थे, पर श्रीहरिकी निन्दा करनेवाले न थे।।2।।

तेहि सेवउँ मैं कपट समेता। द्विज दयाल अति नीति निकेता।।
बाहिज नम्र देखि मोहि साईं। बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं।।3।।

मैं कपटपूर्वक उनकी सेवा करता। ब्राह्मण बड़े ही दयालु और नीति के घर थे। हे स्वामी ! बाहर से नम्र देखकर ब्राह्मण मुझे पुत्र की भाँति मानकर पढ़ाते थे।।3।

संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा। सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हा।।
जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई। हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई।।4।।

उन ब्राह्मणश्रेष्ठ ने मुझको शिवजी का मन्त्र दिया और अनेकों प्रकार के शुभ उपदेश किये। मैं शिवजी के मन्दिर में जाकर मन्त्र जपता। मेरे हृदय में दम्भ और अहंकार बढ़ गया।।4।।

दो.-मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह।
हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह।।105क।।

मैं दुष्ट, नीच जाति और पापमयी मलिन बुद्धिवाला मोहवश श्रीहरिके भक्तों और द्विजों को देखते ही जल उठता और विष्णुभगवान् से द्रोह करता था।।105(क)।।

सो.-गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम।।
मोहि उपजइ अति क्रोध दंभिहि नीति की भावई।।105ख।।

गुरुजी मेरे आचरण देखकर दुखित थे। वे मुझे नित्य ही भलीभाँति समझाते, पर [मैं कुछ भी नहीं समझता] उलट् मुझे अत्यन्त क्रोध उत्पन्न होता। दम्भीको कभी नीति अच्छी लगती है ?।।105(ख)।।

चौ.-एक बार गुर लीन्ह बोलाई। मोहि नीति बहु भाँति सिखाई।।
सिव सेवा कर फल सुत सोई। अबिरल भगति राम पद होई।।1।।

एक बार गुरु जी ने मुझे बुला लिया और बहुत प्रकार से [परमार्थ] नीतिकी शिक्षा दी कि हे पुत्र ! शिवजीकी सेवा का फल यही है कि श्रीरामजीके चरणों में प्रगाढ़ भक्ति हो।।1।।

रामहि भजहिं तात सिव धाता। नर पावँर कै केतिक बाता।।
जासु चरन अज सिव अनुरागी। तासु द्रोहँ सुख चहसि अभागी।।2।।

हे तात ! शिवजी और ब्रह्माजी भी श्रीरामजी को भजते हैं, [फिर] नीच मनुष्य की तो बात ही कितनी है ? ब्रह्माजी और शिव जी जिनके चरणों के प्रेमी हैं, अरे अभागे ! उनसे द्रोह करके तू सुख चाहता है ?।।2।।

हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊ। सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ।।
अधम जाति मैं बिद्या पाएँ। भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ।।3।।

गुरुजीने शिवजी को हरि का सेवक कहा। यह सुनकर हे पक्षिराज ! मेरा हृदय जल उठा। नीच जाति का विद्या पाकर ऐसा हो गया जैसे दूध पिलाने से साँप।।3।।

मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती। गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती।।
अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा। पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा।।4।।

अभिमानी, कुटिल, दुर्भाग्य और कुजाति मैं दिन-रात गुरुजीसे द्रोह करता। गुरुजी अत्यन्त दयालु थे। उनको थोड़ा-सा भी क्रोध नहीं आता। [मेरे द्रोह करने पर भी] वे बार-बार मुझे उत्तम ज्ञानकी शिक्षा देते थे।।4।।

जेहि ते नीच बड़ाई पावा। सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा।।
धूम अनल संभव सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई।।5।।

नीच मनुष्य जिससे बड़ाई पाता है, वह सबसे पहले उसी को मारकर उसी का नाश करता है। हे भाई ! सुनिये, आगसे उत्पन्न हुआ धुआँ मेघकी पदवी पाकर उसी अग्नि को बुझा देता है।।5।।

रज मग परी निरादर रहई। सब कर पद प्रहार नित सहई।।
मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई। पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई।।6।।

धूल रास्ते में निरादर से पड़ी रहती है और सदा सब [राह चलने वालों] के लातों की मार सहती है पर जब पवन उसे उड़ाता (ऊँचा उठाता) है, तो सबसे पहले वह उसी (पवन) को भर देती है और फिर राजाओं के नेत्रों और किरीटों (मुकुटों) पर पड़ती है।।6।।

सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिंअधम कर संगा।।
कबि कोबिद गावहिं असि नीति। खल सन कलह न भल नहिं प्रीती।।7।।

हे पक्षिराज गरुड़जी ! सुनिये, बात समझकर बुद्धिमान् लोग अधम (नीच) का संग नहीं करते। कवि और पण्डित ऐसी नीति कहते हैं कि दुष्ट से न कलह ही अच्छा है, न प्रेम ही।।7।।

उदासीन नित रहिअ गोसाईं। खल परिहरिअ स्वान की नाईं।।
मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई। गुर हित कहइ न मोहि सोहाई।।8।।

हे गोसाईं ! उससे तो सदा उदासीन ही रहना चाहिये। दुष्ट को कुत्ते की तरह दूरसे ही त्याग देना चाहिये। मैं दुष्ट था, हृदय में कपट और कुटिलता भरी थी। [इसलिये यद्यपि] गुरु जी हित की बात कहते थे, पर मुझे वह सुहाती न थी।।8।।

दो.-एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम।
गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम।।106क।।

एक दिन मैं शिव जी के मन्दिर में शिवनाम जप कर रहा था। उसी समय गुरुजी वहाँ आये, पर अभिमानके मारे मैंने उठकर उनको प्रणाम नहीं किया।।106(क)।।

सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस।।
अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस।।106ख।।

गुरुजी दयालु थे, [मेरा दोष देखकर भी] उन्होंने कुछ नहीं कहा; उनके हृदय में लेश मात्र भी क्रोध नहीं हुआ। पर गुरु का अपमान बहुत बड़ा पाप है; अतः महादेवजी उसे नहीं सह सके ।।106(ख)।।

चौ.-मंदिर माझ भई नभ बानी। रे हतभाग्य अग्य अभिमानी।।
जद्यपि तव गुर कें नहिं क्रोधा। अति कृपाल चित सम्यक बोधा।।1।।

मन्दिर में आकाश वाणी हुई कि अरे हतभाग्य ! मूर्ख ! अभिमानी ! यद्यपि तेरे गुरु को क्रोध नहीं है, वे अत्यन्त कृपालु चित्त के हैं और उन्हें [पूर्ण तथा] यथार्थ ज्ञान हैं, ।।1।।

तदपि साप सठ दैहउँ तोही। नीति बिरोध सोहाइ न मोही।।
जौं नहिं दंड करौं खल तोरा। भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा।।2।।

तो भी हे मूर्ख ! तुझको मैं शाप दूँगा। [क्योंकि] नीति का विरोध मुझे अच्छा नहीं लगता। अरे दुष्ट ! यदि मैं तुझे दण्ड न दूँ, तो मेरा वेद मार्ग ही भ्रष्ट हो जाय।।2।।

जे सठ गुर सन इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीं।।
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा। अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा।।3।।

जो मूर्ख गुरु से ईर्ष्या करते हैं, वे करोड़ों युगों तक रौरव नरक में पड़े रहते हैं। फिर (वहाँ से निकल कर) वे तिर्यग् (पशु, पक्षी आदि) योनियों में शरीर धारण करते हैं और दस हजार जन्मों तक दुःख पाते रहते हैं।।3।।
बैठ रहेसि अजगर इव पापी। सर्प होहि खल मल मति ब्यापी।।
महा बिटप कोटर महुँ जाई। रहु अधमाधम अधगति पाई।।4।।

अरे पापी ! तू गुरु के सामने अजगर की भाँति बैठा रहा ! रे दुष्ट ! तेरी बुद्धि पाप से ढक गयी है, [अतः] तू सर्प हो जा। और, अरे अधम से भी अधम ! इस अद्योगति (सर्प की नीची योनि) को पाकर किसे बड़े भारी पेड़ के खोखले में जाकर रह।।4।।

दो.-हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप।
कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप।।107क।।

शिवजी का भयानक शाप सुनकर गुरुजीने हाहाकार किया। मुझे काँपता हुआ देखकर उनके हृदय में बड़ा संताप उत्पन्न हुआ।।107(क)।।

करिं दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि।।
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि।।107ख।।

प्रेम सहित दण्डवत् करके वे ब्राह्मण श्रीशिवजी के सामने हाथ जोड़कर मेरी भयंकर गति (दण्ड) का विचार कर गद्गद वाणी से विनती करने लगे।।107(ख)।।

छं.-नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरुपं।।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।।1।।

हे मोक्षस्वरुप, विभु, व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरुप, ईशान दिशाके ईश्वर तथा सबके स्वामी श्रीशिवजी ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरुप में स्थित (अर्थात् मायादिरहित) [मायिकि] गुणोंसे रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन, आकाशरुप एवं आकाशको ही वस्त्ररूपमें धारण करनेवाले दिम्बर [अथवा आकाशको भी आच्छादित करनेवाले] आपको मैं भजता हूँ।।1।।

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं।।2।।

निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।।2।।

तुषाराद्रि संकाश गौरं गमीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। तसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा।।3।।

जो हिमालय के समान गौर वर्ण तथा गम्भीर हैं, जिसके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुन्दर नदी गंगाजी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा और गले में सर्प सुशोभित हैं।।3।।

चलत्कुंलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नानं नीलकंठं दयालं।।
मृगाधीशचरमाम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।4।।

जिनके कानों के कुण्डल हिल रहे हैं, सुन्दर भृकुटी और विशाल नेत्र हैं; जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं; सिंहचर्म का वस्त्र धारण किये और मुण्डमाला पहने हैं; उन सबके प्यारे और सबके नाथ [कल्याण करनेवाले] श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ।।4।।

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलषाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं।।5।।

प्रचण्ड (रुद्ररूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मा, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशवाले, तीनों प्रकार के शूलों (दुःखों) को निर्मूल करनेवाले, हाथमें त्रिशूल धारण किये, भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होनेवाले भवानी के पति श्रीशंकरजी को मैं भजता हूँ।।5।।

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।।
चिदानंद संदोह मोहापहारी। प्रसीद पसीद प्रभो मन्मथारी।।6।।

कलाओं से परे, कल्याण, स्वरुप, कल्प का अन्त (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनन्द देने वाले, त्रिपुर के शत्रु, सच्चिदानन्दघन, मोह को हरनेवाले, मनको मथ डालनेवाले कामदेव के शत्रु हे प्रभो ! प्रसन्न हूजिये प्रसन्न हूजिये।।6।।

न यावद् उमानाथ पादारविन्द। भजंतीह लोके परे वा नराणां।।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।।7।।

जबतक पार्वती के पति आपके चरणकमलों से मनुष्य नहीं भजते, तबतक उन्हें न तो इहलोक और परलोक में सुख-शान्ति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करनेवाले प्रभो ! प्रसन्न हूजिये।।7।।

न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो।।8।।

मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो ! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो ! बुढा़पा तथा जन्म [मृत्यु] के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखीको दुःखसे रक्षा करिये। हे ईश्वर ! हे शम्भो ! मैं नमस्कार करता हूँ।।8।।

श्लोक-रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति।।9।।

भगवान् रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकर जी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिये ब्राह्मणद्वारा कहा गया। जो मनुष्य इसे भक्ति पूर्वक पढ़ते हैं, उनपर भगवान् शम्भु प्रसन्न हो जाते हैं।।9।।

दो.-सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि बिप्र अनुरागु।
पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर बर मागु।।108क।।

सर्वज्ञ शिवजीने विनती सुनी और ब्राह्मण का प्रेम देखा। तब मन्दिर में आकाशवाणी हुई कि हे द्विजश्रेष्ठ ! वर माँगो।।108(क)।।

जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु।
निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु।।108ख।।

[ब्राह्मणने कहा-] हे प्रभो ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और हे नाथ ! यदि इस दीनपर आपका स्नेह है, तो पहले अपने चरणों की भक्ति देकर फिर दूसरा वर दीजिये।।108(ख)।।

तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान।।
तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपा सिंधु भगवान।।108ग।।

हे प्रभों !यह अज्ञानी जीव आपकी माया के वश होकर निरन्तर भूला फिरता है। हे कृपा के समुद्र भगवान् ! उसपर क्रोध न कीजिये।।108(ग)।।

संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल।
साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल।।108घ।।

हे दीनों पर दया करने वाले (कल्याणकारी) शंकर ! अब इसपर कृपालु होइये (कृपा कीजिये), जिससे हे नाथ ! थोड़े ही समय में इसपर शापके बाद अनुग्रह (शाप से मुक्ति) हो जाय।।108(घ)।।

चौ.-एहि कर होइ परम कल्याना। सोइ करहु अब कृपानिधाना।।
बिप्रगिरा सुनि परहित सानी। एवमस्तु इति भइ नभबानी।।

हे कृपा के निधान ! अब वही कीजिये, जिससे इसका परम कल्याण हो। दूसरेके हितसे सनी हुई ब्राह्मणकी वाणी सुनकर फिर आकाश वाणी हुई-एवमस्तु (ऐसा ही हो)।।1।।

जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा। मैं पुनि दीन्हि कोप करि सापा।।
तदपि तुम्हारि साधुता देखी। करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी।।2।।

यद्यपि इसने भयानक पाप किया है और मैंने भी इसे क्रोध करके शाप दिया है, तो भी तुम्हारी साधुता देखकर मैं इसपर विशेष कृपा करूँगा।।2।।

छमासील जे पर उपकारी। ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी।।
मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि। जन्म सहस अवस्य यह पाइहि।।3।।

हे द्विज ! जो क्षमाशील एवं परोपकारी होते हैं, वे मुझे वैसे ही प्रिय हैं जैसे खरारि श्रीरामचन्द्रजी । हे द्विज ! मेरा शाप व्यर्थ नहीं जायगा यह हजार जन्म अवश्य पावेगे।।3।।

जनमत मरत दुसह दुख होई। एहि स्वल्पउ नहिं ब्यपिहि सोई।।
कवनेउ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना। सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना।।4।।

परन्तु जन्मने में और मरने में जो दुःसह दुःख होता है, इसको वह दुःख जरा भी न व्यापेगा और किसी भी जन्म में इसका ज्ञान नहीं मिटेगा। हे शूद्र ! मेरा प्रमाणिक (सत्य) बचन सुन ।।4।।

रघुपति पुरी जन्म तव भयऊ। पुनि तैं मम सेवाँ मन दयऊ।।
पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें। राम भगति उपजिहि उर तोरें।।5।।

[प्रथम जो] तेरा जन्म श्रीरघुनाथजी की पुरी में हुआ। फिर तूने मेरी सेवा में मन लगाया। पुरी के प्रभाव और मेरी कृपासे तेरे हृदय में रामभक्ति होगी।।5।।

सुनु मम बचन सत्य अब भाई। हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई।।
अब जनि करहि बिप्र अपमाना। जानेसु संत अनंत समाना।।6।।

हे भाई ! अब मेरा सत्य वचन सुन। द्विजोंकी सेवा ही भगवान् को प्रसन्न करने वाला व्रत है। अब कभी ब्राह्मण का अपमान न करना। संतों को अनन्त श्रीभगवान् ही के समान जानना।।6।।

इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला। कालदंड हरि चक्र कराला।।
जो इन्ह कर मारा नहिं मरई। बिप्रद्रोह पावक सो जरई।।7।।

इन्द्र के वज्र, मेरा विशाल त्रिशूल, कालके दण्ड और श्रीहरिके विकराल चक्रके मारे भी जो नहीं मरता, वह भी विप्रद्रोहीरूपी अग्नि से भस्म हो जाता है।।7।।

अस बिबेक राखेहु मन माहीं। तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं।।
औरउ एक आसिषा मोरी। अप्रतिहत गति होइहि तोरी।।8।।

ऐसा विवेक मन में रखना। फिर तुम्हारे लिये जगत् में कुछ भी दुर्लभ न होगा। मेरा एक और भी आशीर्वाद है कि तुम्हारी सर्वत्र अबाध गति होगी (अर्थात् तुम जहाँ जाना चाहोगे, वहीं बिना रोक-टोक के जा सकोगे।।8।।

दो.-सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि ।।
मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि।।109क।।

[आकाशवाणीके द्वारा] शिवजी के वचन गुरुजी सुनकर हर्षित होकर ऐसा ही हो यह कहकर मुझे बहुत समझाकर और शिवजी के चरणोको हृदय में रखकर अपने घर गये।।109(क)।।

प्रेरित काल बिंधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल।
पुनि प्रयास बिनु सो तनु तजेउँ गएँ कछु काल।।109ख।।

काल की प्रेरणासे मैं विन्ध्याचलमें जाकर सर्प हुआ। फिर कुछ काल बीतने पर बिना ही परिश्रम (कष्ट) के मैंने वह शरीर त्याग दिया।।109(ख)।।

जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान।।
जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान।।109ग।।

हे हरिवाहन ! मैं जो भी शरीर धारण करता, उसे बिना ही परिश्रम वैसे ही सुखपूर्वक त्याग देता था जैसे मनुष्य पुराना वस्त्र त्याग देता है और नया पहिन लेता है।।109(ग)।

सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस।
एहि बिधि धरेउँ बिबिधि तनु ग्यान न गयउ खगेस।।109घ।।

शिवजीने वेदकी मर्यादा की रक्षा की और मैंने क्लेश भी नहीं पाया। इस प्रकार हे पक्षिराज ! मैंने बहुत-से शरीर धारण किये, पर मेरा ज्ञान नहीं गया।।109(घ)।।

चौ.-त्रिजग देव नर जोइ तनु धरऊँ। तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ।।
एक सूल मोहि बिसर न काऊ। गुर कर कोमल सील सुभाऊ।।1।।

तिर्यक् योनि (पशु-पक्षी) देवता या मनुष्य का, जो भी शरीर धारण करता, वहाँ-वहाँ (उस-उस शरीरमें) मैं श्रीरामजी का भदजन जारी रखता। [इस प्रकार मैं सुखी हो गया ] परन्तु एक शूल मुझे बना रहा। गुरुजी का कोमल, सुशील स्वभाव मुझे कभी नहीं भूलता (अर्थात् मैंने ऐसा कोमल स्वभाव दयालु गुरुका अपमान किया, यह दुःख मुझे सदा बना रहा)।1।।

चरम देह द्विज कै मैं पाई। सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई।।
खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला। करउँ सकल रघुनायक लीला।।2।।

मैंने अन्तिम शरीर ब्राह्मण का पाया, जिसे पुराण और वेद देवताओं को भी दुर्लभ बताते हैं। मैं वहाँ (ब्राह्मण-शरीरमें) भी बालकोंमें मिलकर खेलता तो श्रीरघुनाथजीकी ही सब लीलाएँ किया करता।।2।।

प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा। समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा।।
मन ते सकल बासना भागी। केवल राम चरन लय लागी।।3।।

सयाना होनेपर पिता जी मुझे पढ़ाने लगे। मैं समझता, सुनता और विचारता, पर मुझे पढ़ना अच्छा नहीं लगता था। मेरे मन से सारी वासनाएँ भाग गयीं। केवल श्रीरामजी के चरणों में लव लग गयी।।3।।

कहु खगेस अस कवन अभागी। खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी।।
प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई। हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई।।4।।

हे गरुड़जी ! कहिये, ऐसा कौन अभागा होगा जो कामधेनु को छोड़कर गदहीकी सेवा करेगा ? प्रेममें मग्न रहने के कारण मुझे कुछ भी नहीं सुहाता। पिताजी पढ़ा-पढ़ाकर हार गये।।4।।

भए कालबस जब पितु माता। मैं बन गयउँ भजन जनत्राता।।
जहँ तहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ। आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ।।5।।

जब पिता-माता कालवाश हो गये (मर गये), तब मैं भक्तों की रक्षा करनेवाले श्रीरामजीका भजन करने के लिये वन में चलता गया। वन में जहाँ-जहाँ मुनीश्वरों के आश्रम पाता वहाँ-वहाँ जा-जाकर उन्हें सिर नवाता।।5।।

बूझउँ तिन्हहि राम गुन गाहा। कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा।।
सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा। अब्याहत गति संभु प्रसादा।।6।।

उनसे मैं श्रीरामजीके गुणों की कथाएँ पूछता। वे कहते और मैं हर्षित होकर सुनता। इस प्रकार मैं सदा-सर्वदा श्रीहरि के गुणानुवाद सुनता फिरता। शिवजी की कृपासे मेरी सर्वत्र अबाधित गति थी (अर्थात् मैं जहाँ चाहता वहीं जा सकता था)।।6।।

छूटी त्रिबिधि ईषना गाढ़ी। एक लालसा उर अति बाढ़ी।
राम चरन बारिज जब देखौं। तब निज जन्म सफल करि लेखौं।।7।।

मेरी तीनों प्रकार की (पुत्रकी, धनकी और मानकी) गहरी प्रबल वासनाएँ छूट गयीं। और हृदय में एक ही लालसा अत्यन्त बढ़ गयी कि जब श्रीरामजीके चरणकमलों के दर्शन करूँ तब अपना जन्म सफल हुआ समझूँ।।7।।

जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई। ईस्वर सर्ब भूतमय अहई।।
निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई। सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई।।8।।

जिनसे मैं पूछता, वे ही मुनि ऐसा कहते कि ईश्वर सर्वभूतमय है। यह निर्गुण मत मुझे नहीं सुहाता था। हृदय में सगुण ब्रह्मपर प्रीति बढ़ रही थी।।8।।

दो.-गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग।
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग।।110क।।

गुरुजीके वचनों का स्मरण करके मेरा मन श्रीरामजीके चरणों में लग गया। मैं क्षण-क्षण नया-नया प्रेम प्राप्त करता हुआ श्रीरघुनाथजीका यश गाता फिरता था।।110(क)।।

मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन।
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन।।110ख।।

सुमेरुपर्वतके शिखरपर बड़ी छाया में लोमश मुनि बैठे थे। उन्हें देखकर मैंने उनके चरणों में सिर नवाया और अत्यन्त दीन वचन कहे।।110(ख)।।

सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज।
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज।।110ग।।

हे पक्षिराज ! मेरे अत्यन्त नम्र और कोमल वचन सुनकर कृपालु मुनि मुझसे आदरके साथ पूछने लगे-हे ब्राह्मण ! आप किस कार्य से यहाँ आये हैं।।110(ग)।।

तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान।।
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान।।11घ।।

तब मैंने कहा हे कृपानिधि ! आप सर्वज्ञ हैं और सुजान है। हे भगवान् ! मुझे सगुण ब्रह्मकी आराधना [की प्रक्रिया] कहिये।110(घ)।।

चौ.-तब मुनीस रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा।।
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानी। मोहि परम अधिकारी जानी।।1।।

तब हे पक्षिराज ! मुनीश्वर ने श्रीरघुनाथजी के गुणों की कुछ कथाएँ आदर सहित कहीं। फिर वे ब्रह्मज्ञानपरायण विज्ञानवान् मुनि मुझे परम अधिकारी जानकर-।।1।।

लागे करन ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वैत अगुन हृदयेसा।।
अकल अनीह अनाम अरूपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा।।2।।

ब्रह्मका उपदेश करने लगे कि वह अजन्मा है, अद्वैत है, निर्गुण है और हृदय का स्वामी (अन्तर्यामी) है। उसे कोई बुद्धि के द्वारा माप नहीं सकता, वह इच्छारहित, नामरहित, रूपरहित, अनुभवसे जानने योग्य, अखण्ड और उपमारहित है,।।2।।

मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी।।
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहिं बेदा।।3।।

वह मन और इन्द्रियों से परे, निर्मल, विनाशरहित, निर्विकार, सीमारहित और सुख की राशि है। वेद ऐसा गाते हैं कि वही तू है (तत्त्वमसि), जल और जल की लहर की भाँति उसमें और तुझमें कोई भेद नहीं है।।3।।

बिबिधि भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा।।
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा।।4।।

मुनिने मुझे अनेकों प्रकार से समझाया, पर निर्गुण मत मेरे हृदय में नहीं बैठा। मैंने फिर मुनि के चरणों में सिर नवाकर कहा-हे मुनीश्वर ! मुझे सगुण ब्रह्म की उपासना कहिये।।4।।

राम भगति जन मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना।।
सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया।।5।।

मेरा मन राम भक्तिरूपी जलमें मछली हो रहा है [उसीमें रम रहा है]। हे चतुर मुनीश्वर ! ऐसी दशा में वह उससे अलग कैसे हो सकता है ? आप दया करके मुझे वही उपदेश (उपाय) कहिये जिससे मैं श्रीरघुनाथजीको अपनी आँखोंसे देख सकूँ।।5।।

भरि लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा।।
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खंडि सगुन मत अगुन निरूपा।।6।।

[पहले] नेत्र भरकर श्रीअयोध्यानाथ को देखकर, तब निर्गुणका उपदेश सुनूँगा। मुनिने फिर अनुपम हरिकथा कहकर, सगुण मतका खण्डन करके निर्गुण का निरूपण किया।।6।।

तब मैं निर्गुन मत कर दूरी। सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी।।
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा।।7।।

तब मैं निर्गुण मत को हटाकर (काटकर) बहुत हठ करके सगुणका निरूपण करने लगा। मैंने उत्तर-प्रत्युत्तर किया, इससे मुनिके शरीरमें क्रोध के चिह्न उत्पन्न हो गये।।7।।

सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ। उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ।।
अति संघरषन जौं कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई।।8।।

हे प्रभो ! सुनिये, बहुत अपमान करने पर ज्ञानी के भी हृदय में क्रोध उत्पन्न हो जाता है यदि कोई चन्दन की लकड़ी को बहुत अधिक रगड़े, तो उससे भी अग्नि प्रकट हो जायगी।।8।।

दो.-बारंबार सकोप मुनि करइ निरुपन ग्यान।
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिधि अनुमान।।111क।।

मुनि बार-बार क्रोध सहित ज्ञानका निरूपण करने लगे। तब मैं बैठा-बैठा अपने मनमें अनेकों प्रकारके अनुमान करने लगा।।111(क)।।

क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान।।111ख।।

बिना द्वैतबुद्धिके क्रोध कैसा और बिना अज्ञानके क्या द्वैतबुद्धि हो सकती है ?माया के वश रहने वाला परिच्छिन्न जड़ जीव क्या ईश्वर के समान हो सकता है ?।।111(ख)।।

चौ.-कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें।।
परद्रोही की होहिं निसंका। कामी पुनि कि रहहिं अकलंका।।1।।

सबका हित चाहने से क्या कभी दुःख हो सकता है ? जिसके पास पारसमणि है, उसके पास क्या दरिद्रता रह सकती है ? दूसरे से द्रोह करनेवाले क्या निर्भय हो सकते हैं ? और कामी क्या कलंकरहित (बेदाग) रह सकते हैं ?।।1।।

बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें। कर्म कि होहिं स्वरुपहिं चीन्हें।।
काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी।।2।।

ब्राह्मण का बुरा करने से क्या वंश रह सकता है ? स्वरूपकी पहिचान (आत्मज्ञान) होने पर क्या [आसक्तिपूर्वक] कर्म हो सकते हैं ? दुष्टोंके संगसे क्या किसीके सुबुद्धि उत्पन्न हुई है ? परस्त्रीगामी क्या उत्तम गति पा सकता है ?।।2।।

भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक।।
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें।।3।।

परमात्मा को जानने वाले कहीं जन्म-मरण [के चक्कर] में पड़ सकते हैं ? भगवान् की निन्दा करनेवाले कभी सुखी हो सकते हैं ? नीति बिना जाने क्या राज्य रह सकता है ? श्रीहरिके चरित्र वर्णन करनेपर क्या पाप रह सकते हैं ?।।3।।

पावन जस कि पुन्य होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई।।
लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना।।4।।

बिना पुण्य के क्या पवित्र यश [प्राप्त] हो सकता है ? बिना पापके भी क्या कोई अपयश पा सकता है ? जिसकी महिमा वंद संत और पुराण गाते हैं उस हरि-भक्ति के समान क्या कोई दूसरा भी है ?।।4।।

हानि कि जग एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई।।
अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना।।5।।

हे भाई ! जगत् में क्या इसके समान दूसरी भी कोई हानि है कि मनुष्य का शरीर पाकर भी श्रीरामजीका भजन न किया जाय ? चुगलखोरी के समान क्या कोई दूसरा पाप है ? और हे गरुड़जी ! दया के समान क्या कोई दूसरा धर्म है ?।।5।।

एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ। मुनि उपदेस न सादर सुनऊँ।।
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा।।6।।

इस प्रकार मैं अनगिनत युक्तियाँ मन में विचारता था और आदर के साथ मुनिका उपदेश नहीं सुनता था। जब मैंने बार-बार सगुण का पक्ष स्थापित किया, तब मुनि क्रोधयुक्त वचन बोले-।।6।।

मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि।।
सत्य बचन बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही।।7।।

अरे मूढ़ ! मैं तुझे सर्वोत्तम शिक्षा देता हूँ, तू भी तो उसे हीं मानता और बहुत-से उत्तर प्रत्युत्तर (दलीलें) लाकर रखता है। मेरे सत्य वचन पर विस्वास नहीं करता ! कौए की भाँति सभी से डरता है।।7।।

सठ स्वपच्छ तव हृदयँ बिसाला। सपदि होहि पच्छी चंडाला।।
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई। नहिं कछु भय न दीनता आई।।8।।

अरे मूर्ख ! तेरे हृदय में अपने पक्ष का बड़ा भारी हठ है अतः तू शीघ्र चाण्डाल पक्षी (कौआ) हो जा। मैंने आनन्द के साथ मुनि के श्राप को सिर पर चढ़ा लिया। उससे मुझे न कुछ भय हुआ, न दीनता ही आयी।।8।।

दो.-तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ।।
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ।।112क।।

तब मैं तुरन्त ही कौआ हो गया। फिर मुनि के चरणों में सिर नवाकर और रघुकुलशिरोमणि श्रीरामजीका स्मरण करके मैं हर्षित होकर उड़ चला।।112(क)।।

उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।।112ख।।

[शिव जी कहते है-] हे उमा ! जो श्रीहरिके चरणों के प्रेमी हैं, और काम, अभिमान तथा क्रोध से रहित हैं, वे जगत् को अपने प्रभु से भरा हुआ देखते हैं, फिर वे किससे वैर करें।।112(ख)।।

चौ.-सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन। उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन।।
कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी। लीन्ही प्रेम परिच्छा मोरी।।1।।

[काकभुशुण्डिजीने कहा-] हे पक्षिराज गरुड़जी ! सुनिये, इसमें ऋषिका कुछ भी दोष नहीं था। रघुवंशके विभूषण श्रीरामजी ही सबके हृदय में प्रेरणा करनेवाले हैं। कृपासागर प्रभु ने मुनिकी बुद्धिको भोली करके (भुलावा देकर) मेरे प्रेम की परीक्षा ली।।1।।

मन बच क्रम मोहि जन जाना। मुनि मति पुनि फेरी भगवाना।।
रिषि मम महत सीलता देखी। राम चरन बिस्वास बिसेषी।।2।।

मन, वचन और कर्म से जब प्रभु ने मुझे अपना दास जान लिया तब भगवान् ने मुनि की बुद्धि फिर से पलट दी। ऋषिने मेरा महान् पुरुषोंको-सा स्वभाव (धैर्य, अक्रोध विनय आदि) और श्रीरामजीके चरणोंमें विशेष विश्वास देखा।।2।।

अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई। सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई।।
मम परितोष बिबिधि बिधि कीन्हा। हरषित राममंत्र तब दीन्हा।।3।।

तब मुनि ने बहुत दुःख के साथ बार-बार पछताकर मुझे आदरपूर्वक बुला लिया। उन्होंने अनेकों प्रकार से मेरा सन्तोष किया और तब हर्षित होकर मुझे राममन्त्र दिया।।3।।

बालकरूप राम कर ध्याना। कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना।।
सुंदर सुखद मोहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा।।4।।

कृपानिधान मुनि ने मुझे बालकरूप श्रीरामजीका ध्यान (ध्यान की विधि) बतलाया। सुन्दर और सुख देनेवाला यह ध्यान मुझे बहुत ही अच्छा लगा। वह ध्यान मैं आपको पहले ही सुना चुका हूँ।।4।।

मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा। रामचरितमानस तब भाषा।।
सादर मोहि यह कथा सुनाई। पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई।।5।।

मुनि ने कुछ समय तक मुझको वहाँ (अपने पास) रक्खा। तब उन्होंने रामचरित मानस वर्णन किया। आदरपूर्वक मुझे यह कथा सुनाकर फिर मुनि मुझसे सुन्दर वाणी बोले।।5।।

रामचरित सर गुप्त सुहावा। संभु प्रसाद तात मैं पावा।।
तोहि निज भगत राम कर जानी। ताते मैं सब कहेउँ बखानी।।6।।

हे तात ! यह सुन्दर और गुप्त रामचरितमानस मैंने शिवजी की कृपा से पाया था। तुम्हें श्रीरामजी का ‘निज भक्त’ जाना, इसीसे मैंने तुमसे सब चरित्र विस्तार के साथ कहा।।6।।

राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं। कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं।।
मुनि मोहि बिबिधि भाँति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा।।7।।

हे तात ! जिनके हृदय में श्रीरामजी का भक्ति नहीं है, उनके सामने इसे कभी नहीं कहना चाहिये। मुनि ने मुझे बहुत प्रकार से समझाया। तब मैंने प्रेम के साथ मुनि के चरणों में सिर नवाया।।7।।

निज कर कमल परसि मम सीसा। हषित आसिष दीन्ह मुनीसा।।
राम भगति अबिरल उर तोरें। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें।।8।।

मुनीश्वर ने अपने कर-कमलोंसे मेरा सिर स्पर्श करके हर्षित होकर आशीर्वाद दिया कि अब मेरी कृपासे तेरे हृदय में सदा प्रगाढ़ राम-भक्ति बसेगी।।8।।

दो.-सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान।
कामरूप इच्छामरन ग्यान बिराग निधान।।113क।।

तुम सदा श्रीरामजीको प्रिय होओ और कल्याण रूप गुणोंके धाम, मानरहित इच्छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ, इच्छामृत्यु (जिसकी शरीर छोड़नेकी इच्छा करने पर ही मृत्यु हो, बिना इच्छाके मृत्यु न हो), एवं ज्ञान और वैराग्य के भण्डार होओ।।113(क)।।

जेहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत।
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत।।113ख।।

इतना ही नहीं, श्रीभगवान् को स्मरण करते हुए तुम जिस आश्रम में निवास करोगे वहाँ एक योजन (चार कोस) तक अविद्या (माया-मोह) नहीं व्यापेगी।।113(ख)।।

चौ.-काल कर्म गुन दोष सुभाऊ। कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहिस काऊ।।
राम रहस्य ललित बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना।।1।।

काल, कर्म, गुण दोष और स्वभाव से उत्पन्न कुछ भी दुःख तुमको कभी नहीं व्यापेगा। अनेकों प्रकार से सुन्दर श्रीरामजीके रहस्य (गुप्त मर्म के चरित्र और गुण) जो इतिहास और पुराणोंमें गुप्त और प्रकट हैं (वर्णित और लक्षित हैं)।।1।।

बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ। नित नव नेह राम पद होऊ।।
जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं।।2।।

तुम उन सबको भी बिनाही परिश्रम जान जाओगे। श्रीरामजीके चरणोंमें तुम्हारा नित्य नया प्रेम हो। अपने मनमें तुम जो कुछ इच्छा करोगे, श्रीहरिकी कृपा से उसकी पूर्ति कुछ भी दुर्लभ नहीं होगी।।2।।

सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा। ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा।।
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन बानी।।3।।

हे धीरबुद्धि गरुड़जी ! सुनिये, मुनिका आशीर्वाद सुनकर आकाशमें गम्भीर ब्रह्मवाणी हुई कि हे ज्ञानी मुनि तुम्हारा वचन ऐसा ही (सत्य) हो। यह कर्म, मन और वचन से मेरा भक्त है।।3।।

सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ। प्रेम मगन सब संसय गयऊ।।
करि बिनती मुनि आयसु पाई। पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई।।4।।

आकाशवाणी सुनकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ। मैं प्रेम में मग्न हो गया और मेरा सब सन्देह जाता रहा। तदनन्तर मुनिकी विनती करके, आज्ञा पाकर और उनके चरणकमलों में बार-बार सिर नवाकर-।।4।।

हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ। प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ।।
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा।।5।।

मैं हर्षिसहित इस आश्रममें आया। प्रभु श्रीरामजीकी कृपासे मैंने दुर्लभ वर पा लिया। हे पक्षिराज ! मुझे यहाँ निवास करते सत्ताईस कल्प बीत गये।।5।।

करउँ सदा रघुपति गुन गाना। सादर सुनहिं बिहंग सुजाना।।
जब जब अवधपुरी रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज सरीरा।।6।।

मैं यहाँ सदा श्रीरघुनाथजीके गुणोंका गान किया करता हूँ और चतुर पक्षी उसे आदरपूर्वक सुनते हैं। अयोध्यापुरीमें जब-जब श्रीरघुवीर भक्तों के [हितके] लिये मनुष्यशरीर धारण करते हैं,।।6।।

तब तब जाइ राम पुर रहउँ। सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ।।
पुनि उर राखि राम सिसुरूपा। निज आश्रम आवउँ खगभूपा।।7।।

तब-तब मैं जाकर श्रीरामजी की नगरी में रहता हूँ और प्रभु की शिशु लीला देखकर सुख प्राप्त करता हूँ। फिर हे पक्षिराज ! श्रीरामजीके शिशुरूपको हृदय में रखकर मैं अपने आश्रममें आ जाता हूँ।।7।।

कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई। काग देह जेहिं कारन पाई।।
कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी। राम भगति महिमा अति भारी।।8।।

जिस कारण से मैंने कौए की देह पायी, वह सारी कथा आपको सुना दी। हे तात ! मैंने आपके सब प्रश्नों के उत्तर कहे। अहा ! राभक्तिकी बड़ी भारी महिमा है।।8।।

दो.-ताते यह प्रन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह।
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह।।114क।।

मुझे अपना यह काक शरीर इसिलिये प्रिय है कि इसमें मुझे श्रीरामजीके चरणोंका प्रेम प्राप्त हुआ। इसी शरीर से मैंने अपने प्रभु के दर्शन पाये और मेरे सब सन्देह जाते रहे (दूर हुए) ।।114(क)।।

मासपारायण, उन्तीसवाँ विश्राम


भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप।।114ख।।

मैं हठ करके भक्तिपक्ष पर अड़ रहा, जिससे महिर्ष लोमश ने मुझे शाप दिया। परंतु उसका फल यह हुआ कि जो मुनियों को भी दुलर्भ है, वह वरदान मैंने पाया। भजनका प्रताप तो देखिये !।।114(ख)।।

चौ.-जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं।।
ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी।।1।।

जो भक्ति की ऐसी महिमा जानकर भी उसे छोड़ देते हैं और केवल ज्ञान के लिये श्रम (साधन) करते हैं, वे मूर्ख घर पर पड़ी हुई कामधेनु को छोड़कर दूध के लिये मदार के पेड़ को खोजते फिरते हैं।।1।

सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई।।
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं जड़ करनी।।2।।

हे पक्षिराज ! सुनिये, जो लोग श्री हरिकी भक्ति छोड़कर दूसरे उपायों से सुख चाहते हैं, वे मूर्ख और जड़ करनीवाले (अभागे) बिना ही जहाजके तैरकर महासमुद्र के पार जाना चाहते हैं।।2।।

सुनि भसुंडि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी।।
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीं।।3।।

[शिव जी कहते हैं] हे भवानी ! भुशुण्डिके वचन सुनकर गरुड़जी हर्षित होकर कोमल वाणीसे बोले-हे प्रभो ! आपके प्रसादसे मेरे हृदय में अब सन्देह, शोक, मोह और भ्रम कुछ भी नहीं रह गया।।3।।

सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा। तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा।।
एक बात प्रभु पूँछउँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही।।4।।

मैंने आपकी कृपा से श्रीरामचन्द्रजीके पवित्र गुणों समूहों को सुना और शान्ति प्राप्त की। हे प्रभो ! अब मैं आपसे एक बात और पूछता हूँ, हे कृपासागर ! मुझे समझाकर कहिये।।4।।

कहहिं संत मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना।।
सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईं।।5।।

संत मुनि वेद और पुराण यह कहते हैं कि ज्ञान के समान दुर्लभ कुछ भी नहीं है। हे गोसाईं ! वही ज्ञान मुनिने आपसे कहा; परंतु आपने भक्तिके समान उसका आदर नहीं किया।।5।।

ग्यानहि भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता।।
सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना।।6।।

हे कृपा धाम ! हे प्रभो ! ज्ञान और भक्तिमें कितना अन्तर है ? यह सब मुझसे कहिये। गरुड़जी के वचन सुनकर सुजान काकभुशुण्डिजीने सुख माना और आदरके साथ कहा-।।6।।

भगतिहि ग्यानहिं नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा।।
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगब।।7।।

भक्ति और ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं है। दोनों ही संसार से उत्पन्न क्लेशों को हर लेते हैं। हे नाथ ! मुनीश्वर इसमें कुछ अंतर बतलाते हैं। हे पक्षिश्रेष्ठ ! उसे सावधान होकर सुनिये।।7।।

ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना।।
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती।।8।।

हे हरिवाहन ! सुनिये ; ज्ञान, वैराग्य, योग, विज्ञान-ये सब पुरुष हैं; पुरुषका प्रताप सब प्रकार से प्रबल होता है। अबला (माया) स्वाभाविक ही निर्बल और जाति (जन्म) से ही जड़ (मूर्ख) होती है।।8।।

दो.-पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर।।
न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर।।1115क।।

परंतु जो वैराग्यवान् और धीरबुद्धि पुरुष हैं वही स्त्री को त्याग सकते हैं, न कि वे कामी पुरुष जो विषयों के वश में है। (उनके गुलाम हैं) और श्रीरघुवीरके चरणों से विमुख हैं।।115(क)।।

सो.-सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि।
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट।।115ख।।

वे ज्ञान के भण्डार मुनि भी मृगनयनी (युवती स्त्री) के चन्द्रमुखको देखकर विवश (उसके अधीन) हो जाते हैं। हे गरुड़जी ! साक्षात् भगवान् विष्णुकी की माया ही स्त्रीरूप से प्रकट है।।115(ख)।।

चौ.-इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ। बेद पुरान संत मत भाषउँ।।
मोह न नारि नारि कें रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा।।1।।

यहाँ मैं कुछ पक्षपात नहीं रखता। वेद, पुराण और संतों का मत (सिद्धांत) ही कहता हूँ। हे गरुड़जी ! यह अनुपम (विलक्षण) रीति है कि एक स्त्री के रूप पर दूसरी स्त्री मोहित नहीं होती।।1।।

माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ।।
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी।।2।।

आप सुनिये, माया और भक्ति-ये दोंनों ही स्त्रीवर्ग हैं; यह सब कोई जानते हैं। फिर श्रीरघुनाथजी को भक्ति प्यारी है। माया बेचारी तो निश्चय ही नाचने वाली (नटिनीमात्र) है।।2।।

भगतहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया।
राम भगति निरुपम निरुपाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी।।3।।

श्रीरघुनाथजी भक्तिके विशेष अनुकूल रहते हैं। इसी से माया उससे अत्यन्त डरती रहती है। जिसके हृदय में उपमा रहित और उपाधिरहित (विशुद्ध) रामभक्ति सदा बिना किसी बाधा (रोक-टोक) के बसती है;।।3।।

तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई।।
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहिं भगति सकल सुख खानी।।4।।

उसे देखकर माया सकुचा जाती है। उस पर वह अपनी प्रभुता कुछ भी नहीं कर (चला) सकती। ऐसा विचार कर ही जो विज्ञानी मुनि हैं, वे सभी सुखों की खनि भक्ति की ही याचना करते हैं।।4।।

दो.-यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ।।
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ।।116क।।

श्रीरघुनाथजी का यह रहस्य (गुप्त मर्म) जल्दी कोई भी नहीं जान पाता। श्रीरघुनाथजी की कृपा से जो इसे जान जाता है, उसे स्वप्न में भी मोह नहीं होता।।116(क)।।

औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन।
जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन।।116ख।।

हे सुचतुर गरुड़जी ! ज्ञान और भक्ति का और भी भेद सुनिये, जिसके सुनने से श्रीरामजी के चरणों में सदा अविच्छिन्न (एकतार) प्रेम हो जाता है।।116(ख)।।

चौ.-सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी।।
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।1।।

हे तात ! यह अकथनीय कहानी (वार्ता) सुनिये। यह समझते ही बनती है, कही नहीं जा सकती। जीव ईश्वर का अंश है। [अतएव] वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है।।1।।

सो मायावश भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं।।
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई।।2।।

हे गोसाईं ! वह माया के वशी भूत होकर तोते और वानों की भाँति अपने-आप ही बँध गया। इस प्रकार जड़ और चेतन में ग्रन्थि (गाँठ) पड़ गयी। यद्यपि वह ग्रन्थि मिथ्या ही है, तथापि उसके छूटने में कठिनता है।।2।।

तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी।।
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई।।3।।

तभी से जीव संसारी (जन्मने-मरनेवाला) हो गया। अब न तो गाँठ छूटती है और न वह सुखी होता है। वेदों और पुराणों ने बहुत-से उपाय बतलाये हैं, पर वह (ग्रंथि) छूटती नहीं वरं अधिकाधिक उलझती ही जाती है।।3।।

जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी।।
अस संजोग ईस जब करई। तबहुँ कदाचित सो निरुअरई।।4।।

जीवे के हृदय में अज्ञान रूप अन्धकार विशेष रूप से छा रहा है, इससे गाँठ देख ही नहीं पड़ती, छूटे तो कैसे ? जब कभी ईश्वर ऐसा संयोग (जैसा आगे कहा जाता है) उपस्थित कर देते हैं तब भी वह कदाचित् ही वह (ग्रन्थि) छूट पाती है।।4।।

सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई।।
जप तप ब्रत जम नियम अपारा। जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा।।5।।

श्रीहरि की कृपा से यदि सात्त्विकी श्रद्धारूपी सुन्दर गौ हृदयरूपी घरमें आकर बस जाय; असंख्यों जप, तप, व्रत, यम और नियमादि शुभ धर्म और आचार (आचरण), जो श्रुतियों ने कहे हैं,।।5।।

तेइ तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई।।
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा।।6।।

उन्हीं [धर्माचाररूपी] हरे तृणों (घास) को जब वह गौ चरे और आस्तिक भावरूपी छोटे बछड़े को पाकर वह पेन्हावे। निवृत्ति (सांसारिक बिषयोंसे और प्रपंच से हटना) नोई (गौके दुतहे समय पिछले पैर बाँधने की रस्सी) है, विश्वास [दूध दूहनेका[] बरतन है, निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है। (अपने वशमें है), दुहनेवाला अहीर है।।6।।

परम धर्ममय पय दुहि भाई। अवटै अनल अकाम बनाई।।
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै। धृति सम जावनु देइ जमावै।।7।।

हे भाई ! इस प्रकार (धर्माचारमें प्रवृत्त सात्त्विकी श्रद्धा रूपी गौसे भाव, निवृत्ति और वश में किये हुए निर्मल मन की यहायता से) परम धर्ममय दूध दुहकर उसे निष्काम भावरूपी अग्नि पर भलीभाँति औटावे। फिर क्षमा और संतोष रूपी हवा से उसे ठंढा करे औऱ धैर्य तथा शम (मनका निग्रह) रूपी जामन देकर उसे जमावे।।7।।

मुदिताँ मथै बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी।।
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता।।8।।

तब मुदिता (प्रसन्नता) रूपी कमोरी में तत्त्वविचाररूपी मथानीसे दम (इन्द्रिय-दमन) के आधार पर (दमरूपी खम्भे आदि के सहारे) सत्य और सुन्दर वाणीरुपी रस्सी लगाकर उसे मथे और मथकर तब उसमें से निर्मल, सुन्दर और अत्यन्त पवित्र बैराग्यरूपी मक्खन निकाल ले।।8।।

दो.-जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरावै ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ।।117क।।

तब योग रुपी अग्नि प्रकट करके उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मरूपी ईंधन लगा दे (सब कर्मोको योगरूपी अग्निमें भस्म कर दे)। जब [वैराग्यरूपी मक्खन का] ममता रूपी मल जल जाय, तब [बचे हुए] ज्ञानरूपी घी को निश्चियात्मिका] बुद्धि ठंडा करे।।117(क)।।

तब बिग्यानरूपिनी बुद्धि बिसद घृत पाइ।।
चित्त दिया भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ।।117ख।।

तब विज्ञानरूपिणी बुद्धि उस [ज्ञानरूपी] निर्मल घी को पाकर चित्तरूपी दियेको भरकर, समता की दीवट बनाकर उसपर उसे दृढ़तापूर्वक (जमाकर) रक्खे।।117(ख)।।

तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि।
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि।।117ग।।

[जाग्रत् स्वप्न और सुषुप्ति] तीनों अवस्थाएँ और [सत्त्व, रज और तम] तीनों गुणरूपी कपाससे तुरीयावस्थारूपी रूईको निकालकर और फिर उसे सँवारकर उसकी सुन्दर कड़ी बत्ती बनावें।।117(ग)।।

सो.-एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय।
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब।।117घ।।

इस प्रकार तेज की राशि विज्ञानमय दीपक को जलावे, जिसके समीप जाते ही मद आदि सब पतंगे जल जायँ।।117(घ)।।

चौ.-सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।1।।

सोऽहमस्मम (वह ब्रह्म मैं हू) यह तो अखण्ड (तैलधारावत् कभी न टूटनेवाली) वृति है, वही [उस ज्ञानदीपककी] परम प्रचण्ड दीपशिखा (लौ) है। [इस प्रकार] जब आत्मानुभवके सुखका सुन्दर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रमका नाश हो जाता है।।1।।

प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तग मिटइ अपारा।।
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृँह बैठि ग्रंथि निरुआरा।।2।।

और महान् बलवती अविद्या के परिवार मोह आदि का अपार अन्धकार मिट जाता है। तब वही (विज्ञानरूपिणी) बुद्धि [आत्मानुभवरूप] प्रकाश को पाकर हृदयरूपी घरमें बैठकर उस जड़-चेतन की गाँठ को खोलती है।2।।

छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई।।
छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्र अनेक करइ तब माया।।3।।

यदि वह विज्ञानरूपिणी बुद्धि) उस गाँठको खोलने पावे, तब यह जीव कृतार्थ हो। परंतु हे पक्षिराज गरुड़जी ! गाँठ खोलते हुए जानकर माया फिर अनेकों विघ्न करती है।।3।।

रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई।।
कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा।।4।।

हे भाई ! वह बहुत-सी ऋद्धि-सिद्धियों को भेजती है, जो आकर बुद्धि को लोभ दिखाती है। और वे ऋद्धि-सिद्धियाँ कल (कला), बल और छल करके समीप जाती और आँचल की वायु से उस ज्ञानरूपी दीपकको बुझा देती हैं।।4।।

होइ बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी।।
जौं तेहि बिघ्र बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी।।5।।

यदि बुद्धि बहुत ही सयानी हुई तो वह उन (ऋद्धि-सिद्धियों) को अहितकर (हानिकर) समझाकर उनकी और ताकती नहीं। इस प्रकार यदि माया के विघ्नों से बुद्धि को बाधा न हुई, तो फिर देवता उपाधि (विघ्न) करते हैं।।5।।

इंद्री द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना।।
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देहिं कपाट उघारी।।6।।

इन्द्रियों के द्वारा हृदय रूपी घरके अनेकों झरोखे हैं वहाँ-वहाँ (प्रत्येक झरोखेपर) देवता थाना किये (अड्डा जमाकर) बैठे हैं। ज्यों ही वे विषयरूपी हवाको देखते हैं, त्यों ही हठपूर्वक किवाड़ खोल देते हैं।।6।।

जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई।।
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा।।7।।

ज्यों ही वह तेज हवा हृदयरूपी घरमें जाती है, त्यों ही वह विज्ञानरूपी दीपक बुझ जाता है। गाँठ भी नहीं छूटी और वह (आत्मानुभवरूप) प्रकाश भी मिट गया। विषयरूपी हवासे बुद्धि व्याकुल हो गयी (सारा किया-कराया चौपट हो गया)।।7।।

इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई।।
विषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी।।8।।

इन्द्रियों और उनके देवताओंको ज्ञान [स्वाभाविक ही] नहीं सुहाता; क्योंकि उनकी विषय-भोगोंमें सदा ही प्रीति रहती है। और बुद्धिको भी विषयरूपी हवाने बावली बना दिया। तब फिर (दुबारा) उस ज्ञानदीपकको उसी प्रकार से कौन जलावे ?।।8।।

दो.-तब फिरि जीव बिबिधि बिधि पावइ संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस।।118क।।

[इस प्रकार ज्ञानदीपक के बुझ जानेपर] तब फिर जीव अनेकों प्रकार से संसृति (जन्म-मरणादि) के क्लेश पाता है। हे पक्षिराज ! हरिकी माया अत्यन्त दुस्तर है, वह सहज ही में तरी नहीं जा सकती।।118(क)।।

कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक।।118ख।।

ज्ञान कहने (समझने) में कठिन, समझनेमें कठिन और साधनेमें भी कठिन है। यदि घुणाक्षरन्यायसे (संयोगवश) कदाचित् यह ज्ञान हो भी जाय, तो फिर [उसे बचाये रखनेमें] अनेकों विघ्न हैं।।118(ख)।।

चौ.-ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा।।
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई।।1।।

ज्ञान का मार्ग कृपाण (दुधारी तलवार) की धारके समान है। हे पक्षिराज ! इस मार्गसे गिरते देर नहीं लगती। जो इस मार्गको निर्विघ्न निबाह ले जाता है, वही कैवल्य (मोक्ष) रूप परमपदको प्राप्त करता है।।1।।

अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद।।
राम भगत सोइ मुकुति गोसाईं। अनइच्छित आवइ बरिआईं।।2।।

संत, पुराण, वेद और [तन्त्र आदि] शास्त्र [सब] यह कहते हैं कि कैवल्यरूप परमपद अत्यन्त दुर्लभ है; किंतु गोसाईं ! वही [अत्यन्त दुर्लभ] मुक्ति श्रीरामजी को भजने से बिना इच्छा किये भी जबरदस्ती आ जाती है।।2।।

जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई।।
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ भगति बिहाई।।3।।

जैसे स्थल के बिना जल नहीं रह सकता, चाहे कोई करो़ड़ों प्रकारके उपाय क्यों न करे। वैसे ही, हे पक्षिराज ! सुनिये, मोक्षसुख भी श्रीहरिकी भक्तिको छोड़कर नहीं रह सकता।।3।।

अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने।।
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा।।4।।

ऐसा विचरकर बुद्धिमान् हरिभक्त भक्तिपर लुभाये रहकर मुक्तिका तिरस्कार कर देते हैं। भक्ति करनेसे संसृति (जन्म-मृत्युरूप संसार) की जड़ अविद्या बिना ही यत्न और परिश्रम के (अपने-आप) वैसे ही नष्ट हो जाती है,।।4।।

भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी।।
असि हरि भगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई।।5।।

जैसे भोजन किया तो जाता है तृप्तिके लिये और उस भोजनको जठराग्नि अपने-आप (बिना हमारी चेष्टाके ) पचा डालती है, ऐसी सुगम और परम सुख देनेवाली हरिभक्ति जिसे न सुहावे, ऐसा मूढ़ कौन होगा ?।।5।।

दो.-सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि।।119क।।

हे सर्पों शभु गरुड़जी ! मैं सेवक हूँ और भगवान् मेरे सेव्य (स्वामी) हैं, इस भावके बिना संसाररूपी समुद्रसे तरना नहीं हो सकता। ऐसा सिद्धात विचारकर श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमलोंका भजन कीजिये।।119(क)।।

जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य।।119ख।।

जो चेतन को जड़ कर देता है और जड़ को चेतन कर देता है, ऐसे समर्थ श्रीरघुनाथजीको जो जीव भजते हैं, वे धन्य हैं।।119(ख)।।

चौ.-कहेउँ ग्यान सिद्धातं बुझाई। सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई।।
राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर।।1।।

मैंने ज्ञानका सिद्धान्त समझाकर कहा। अब भक्तिरूपी प्रभुता (महिमा) सुनिये। श्रीरामजीकी भक्ति सुन्दर चिन्तामणि है। हे गरुड़जी ! यह किसके हृदयके अंदर बसती है।।1।।

परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा।।2।।

वह दिन-रात [अपने-आप ही] परम प्रकाशरूप रहता है। उसको दीपक, घी और बत्ती कुछ भी नहीं चाहिये। [इस प्रकार मणिका एक तो स्वाभाविक प्रकार रहता है] फिर मोहरूपी दरिद्रता समीप नहीं आती है [क्योंकि मणि स्वयं धनरूप है]; और [तीसरे] लोभरूपी हवा उस मणिमय दीपको बुझा नहीं सकती [क्योंकि मणि स्वयं प्रकाशरूप है, वह किसी दूसरे की सहायता से नहीं प्रकाश करती]।।2।।

प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई।।
खल कामदि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं।।3।।

[उसके प्रकाशसे] अविद्या का प्रबल अन्धकार निज जाता है। मदादि पतंगोंका सारा समूह हार जाता है। जिसके हृदयमें भक्ति बसती है, काम, क्रोध और लोभ आदि दुष्ट तो पास भी नहीं आते जाते।।3।।

गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई।।
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस जीव दुखारी।।4।।

उसके लिये विष अमृतके समान और शत्रु मित्र के समान हो जाता है। उस मणि के बिना कोई सुख नहीं पाता। बड़े-बड़े मानस-रोग, जिसके वश होकर सब जीव दुखी हो रहे हैं, उसको नहीं व्यापते।।4।।

राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें।।
चतुर सिरेमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं।।5।।

श्रीरामभक्तिरूपी मणि जिसके ह्ररदयमें बसती है, उसे स्वप्नमें भी लेशमात्र दुःख नहीं होता। जगत् में वे ही मनुष्य चतुरोंके शिरोमणि हैं जो उस भक्तिरूपी मणि के लिये भलीभाँति यत्न करते हैं।।5।।

सो मनि जदपि प्रगच जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई।।
सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटभेरे।।6।।

यद्यपि वह मणि जगत् में प्रकट (प्रत्यक्ष) है, पर बिना श्रीरामजीकी कृपाके उसे कोई पा नहीं सकता। उनके पाने उपाय भी सुगम ही हैं, पर अभागे मनुष्य उन्हें ठुकरा देते हैं।।6।।

पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना।।
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी।।7।।

वेद-पुराण पवित्र पर्वत हैं। श्रीरामजीकी नाना प्रकारकी कथाएँ उन पर्वतों में सुन्दर खानें हैं। संत पुरुष [उनकी इन खानोंके रहस्यको जाननेवाले] मर्मी हैं और सुन्दर बुद्धि [खोदनेवाली] कुदाल है। हे गरुड़जी ! ज्ञान और वैराग्य- ये दो उनके नेत्र हैं।।7।।

भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मान सब सुख खानी।।
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।।8।।

जो प्राणी उसे प्रेम के साथ खोजता हैं, वह सब सुखों की खान इस भक्तिरूपी मणिको पा जाता है। हे प्रभो ! मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्रीरामजी के दास श्रीरामजीसे भी बढ़कर हैं।।8।।

राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा।।
सब कर फलर हरिस भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई।।9।।

श्रीरामचन्द्रजी समुद्र हैं तो धीर संत पुरुष मेघ हैं। श्रीहरि चन्दनके वृक्ष हैं तो संत पवन हैं। सब साधनों का फल सुन्दर हरि भक्ति ही है। उसे संतके बिना किसी ने नहीं पाया।।9।।

अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहिं सुलभ बिहंगा।।10।।

ऐसा विचार कर जो भी संतों का संग करता है, हे गरुड़जी ! उसके लिये श्रीरामजीकी भक्ति सुलभ हो जाती है।।10।।

दो.-ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं।।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं।।120क।।

ब्रह्म (वेद) समुद्र है, ज्ञान मन्दराचल है और संत दवता है। जो उस समुद्रको मथकर अमृत निकालते हैं, जिसमें भक्ति रूपी मधुरता बसी रहती है।।120(क)।।

बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि।।120ख।।

वैराग्यरूपी ढाल से अपने को बचाते हुए और ज्ञान रूपी तलवार से मद, लोभ और मोहरूपी वैरियोंको मारकर जो विजय-प्राप्त करती है, वह हरिभक्ति ही है; हे पक्षिराज ! इस विचार कर देखिये।।120(ख)।।

चौ.-पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ।।
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न मम कहहु बिचारी।।2।।

पक्षिराज गरुड़जी फिर प्रेमसहित बोले-हे कृपालु ! यदि मुझपर आपका प्रेम है, तो हे नाथ ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखानकर कहिये।।1।।

प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधारा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा।।
बड़ दुख कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी।।2।।

हे नाथ ! हे धीरबुद्धि ! पहले तो यह बताइये कि सबसे दुर्लभ कौन-सा शरीर है ? फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है, यह भी विचार कर संक्षेप में ही कहिये।।2।।

संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु।।
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला।।3।।

संत और असंत का मर्म (भेद) आप जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिये। फिर कहिये कि श्रुतियोंमें प्रसिद्ध सबसे महान पुण्य कौन-सा है और सबसे महान् भयंकर पाप कौन है।।3।।

मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई।।
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती।।4।।

फिर मानस रोगों को समझाकर कहिये। आप सर्वज्ञ हैं और मुझपर आपकी कृपा भी बहुत है [काकभुशुण्डिजीने कहा-] हे तात ! अत्यन्त आदर और प्रेमके साथ सुनिये। मैं यह नीति संक्षेप में कहता हूँ।।4।।

नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।5।।

मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। यह मनुष्य-शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देनेवाला है।।5।।

सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर।।
काँच किरिच बदलें ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं।।6।।

ऐसे मनुष्य-शरीरको धारण (प्राप्त) करके जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयोंमें अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदलेमें काँचके टुकड़े ले लेते हैं।।6।।

नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया।।7।।

जगत् में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतोंके मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है। और हे पक्षिराज ! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना यह संतोंका सहज स्वभाव है।।7।।

संत सहहिं दुख पर हित लागी। पर दुख हेतु असंत अभागी।।
भूर्ज तरू सम संत कृपाला। पर हित निति सह बिपति बिसाला।।8।।

संत दूसरोंकी भलाईके लिये दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिये। कृपालु संत भोजके वृक्षके समान दूसरों के हित के लिये भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खालतक उधड़वा लेते हैं)।।8।।

सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई।।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी।।9।।

किंतु दुष्ट लोग सनकी भाँति दूसरों को बाँधते हैं और [उन्हें बाँधनेके लिये] अपनी खाल खिंचवाकर विपत्ति सहकर मर जाते हैं। हे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी ! सुनिये; दुष्ट बिना किसी स्वार्थके साँप और चूहे के समान अकारण ही दूसरों का अपकार करते हैं।।9।।

पर संमपदा बिनासि नाहीं। जिमि ससि हति उपल बिलाहीं।।
दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।10।।

वे परायी सम्पत्ति का नाश करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती का नाश करके ओले नष्ट हो जाते हैं। दुष्ट का अभ्युदय (उन्नति) प्रसिद्ध अधम केतू के उदय की भाँति जगत् के दुःख के लिये ही होता है ।।10क।।

संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी।।
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा।पर निंदा सम अघ न गरीसा।।11।।

और संतों का अभ्युदय सदा ही सुखकर होता है, जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिये सुख दायक है। वेदोंमें अहिंसा को परम धर्म माना है और परनिन्दा के समान भारी पाप नहीं है।।1।।

हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्त्र पाव तन सोई।।
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि।।12।।

शंकरजी और गुरुकी निंदा करनेवाला मनुष्य [अगले जन्ममें] मेढक होता है और वह हजार जन्मतक वही मेढक का शरीर पाता है। ब्राह्मणों की निन्दा करनेवाला व्यक्ति बहुत-से नरक भोगकर फिर जगत् में कौए का शरीर धारण करके जन्म लेता है।।12।।

सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी।।
होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत।।13।।

जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निन्दा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं। संतोंकी निन्दा में लगे हुए लोग उल्लू होते हैं, जिन्हे मोहरूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञानरूपी सूर्य जिनके लिये बीत गया (अस्त हो गया) रहता है।।13।।

सब कै निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं।।
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा।।14।।

जो मूर्ख मनुष्य सबकी निन्दा करते हैं, वे चमगीदड़ होकर जन्म लेते हैं। हे तात ! अब मानस-रोग सुनिये, जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं।।14।।

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्हे ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।15।।

सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत-से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वाद है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है।।15।।

प्रीति करहिं जौं तीनउ भाई। उपजई सन्यपात दुखदाई।।
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना।।16।।

प्रीति कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जायँ) दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्नय होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होनेवाले जो विषयोंके मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) है; उनके नाम कौन जानता है (अर्थात् वे अपार हैं)।।16।।

ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई।।
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।।17।।

ममता दाद, और ईर्ष्या (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले की रोगों की अधिकता है (गलगंड, कण्टमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराये सुखको देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है । दुष्टता और मनकी कुटिलता ही कोढ़ है।।17।।

अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ।।
तृस्णा उदरबुद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी।18।।

अहंकार अत्यन्त दुःख देनेवाला डमरू (गाँठका) रोग है। दम्भ, कपट मद, और मान नहरुआ (नसोंका) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदरवृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजोरी हैं।।18।।

जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका।।19।।

मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहाँ तक कहूँ।।19।।

दो.-एक ब्याधि बस नर मरहिं ए साधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि।।121क।।

एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत-से असाध्य रोग हैं ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शान्ति) को कैसे प्राप्त करे ?।।121(क)।।

नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान।।121ख।।

निमय, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों ओषधियाँ हैं, परंतु हे गरुड़जी ! उनसे ये रोग नहीं जाते।।121(ख)।।

चौ.-एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी।।
मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए।।1।।

इस प्रकार जगत् में समस्त जीव रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोगके दुःखसे और भी दुखी हो रहे हैं। मैंने ये थोड़े-से मानस रोग कहे हैं। ये हैं तो सबको, परंतु इन्हें जान पाये हैं कोई विरले ही।।1।।

जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी।।
विषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे।।2।।

प्राणियों को जलाने वाले ये पापी (रोग) जान लिये जानेसे कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं; परंतु नाश को नहीं प्राप्त होते। विषयरूप कुपथ्य पाकर ये मुनियों के हृदयों में भी अंकुरित हो उठते हैं, तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं।।2।।

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा।।
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा।।3।।

यदि श्रीरामजीकी कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाये तो ये सब रोग नष्ट हो जायँ।सद्गुरुरूपी वैद्य के वचनमें विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो।।3।।

रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी।।
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नासाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं।।4।।

श्रीरघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवाके साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जायँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते।।4।।

जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बत बिराग अधिकाई।।
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई।।5।।

हे गोसाईं ! मनको निरोग हुआ तब जानना चाहिये, जब हृदय में वैराग्य का बल बढ़ जाय, उत्तम बुद्धिरूपी भूख नित नयी बढ़ती रहे और विषयों की आशारूपी दुर्बलता मिट जाय।।5।।

बिल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई।।
सिव अज सुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद।।6।।

[इस प्रकार सब रोगों से छूटकर] जब मनुष्य निर्मल ज्ञानरूपी जलमें स्नान कर लेता है, तब उसके हृदय में राम भक्ति छा रहती है। शिवजी, ब्रह्मा, जी शुकदेवजी, सनकादि और नारद आदि ब्रह्मविचारमें परम निपुण जो मुनि हैं।।6।।

सब कर मत खगनायक एहा। करिअ राम पद पंकज नेहा।।
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं।।7।।

हे पक्षिराज ! उन सब का मत यही है कि श्रीरामजी के चरणोंकमलों में प्रेम करना चाहिये। श्रुति पुराण और सभी ग्रन्थ कहते हैं कि श्रीरघुनाथजीकी भक्ति के सुख नहीं है।।7।।

कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा।।
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला।।8।।

कछुए की पीठपर भले ही बाल उग आवें, बाँझ का पुत्र भले ही किसी को मार डाले, आकाशमें भले ही अनेकों फूल खिल उठें; परंतु श्रीहरि से विमुख होकर जीव सुख नहीं प्राप्त कर सकता।।8।।

तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना।।
अंधकारु बरु रबिहि नसावै। राम बिमुख न जीव सुख पावै।।9।।

मृगतृष्णाके जलको पीने से ही प्यास बुझ जाय, खरगोशके भले ही सींग निकल आवें, अन्धकार भले ही सूर्य का नाश कर दे; परंतु श्रीराम से विमुख होकर जीव सुख नहीं पा सकता।।9।।

हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई।।10।।
बर्फ से भले ही अग्नि प्रकट हो जाय (ये सब अनहोनी बातें चाहे हो जायँ), परंतु श्रीरामसे विमुख होकर कोई भी सुख नहीं पा सकता।।10।।

दो.-बारि मथें घृत बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल।।122क।।

जलको मथने से भले ही घी उत्पन्न हो जाय और बालू [को पेरने] से भले ही तेल निकल आवे; परंतु श्रीहरि के भजन बिना संसाररूपी समुद्र से नहीं तरा जा सकता यह सिद्धान्त अटल है।।122(क)।।

मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन।।122ख।।

प्रभु मच्छर को ब्रह्मा कर सकते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से भी तुच्छ बना सकते हैं। ऐसा विचारकर चुतर पुरुष सब सन्देह त्यागकर श्रीरामजीको ही भजते हैं।।122(ख)।।

श्लोक-विनिच्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरि नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते।।122ग।।

मैं आपसे भलीभाँति निश्चित किया हुआ सिद्धान्त कहता हूँ-मेरे वचन अन्यथा (मिथ्या) नहीं है कि जो मनुष्य श्रीहरिका भजन करते हैं, वे अत्यन्त दुस्तर संसारसागरको [सहज ही] पार कर जाते हैं।।122(ग)।

चौ.-कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरूपा।।
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी।।1।।

हे नाथ ! मैंने श्रीहरि का चरित्र अपनी बुद्धिके अनुसार कहीं विस्तारसे और कहीं संक्षेपसे कहा। हे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी ! श्रुतियोंका यही सिंद्धांत है कि सब काम भुलाकर (छोड़कर) श्रीरामजीका भजन करना चाहिये।।1।।

प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही। मोहि से सठ पर ममता जाही।।
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा। नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा।।2।।

प्रभु श्रीरघुनाथजीको छोड़कर और किसका सेवन (भजन) किया जाय, जिनका मुझ-जैसे मूर्खपर भी ममत्व (स्नेह) है। हे नाथ ! आप विज्ञानरूप हैं, आपको मोह नहीं है। आपने तो मुझपर बड़ी कृपा की है।।2।।

पूँछिहु राम कथा अति पावनि। सुक सनकादि संभु मन भावनि।।
सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा।।3।।

जो आपने मुझे से शुकदेवजी, सनकादि और शिवजीके मनको प्रिय लगनेवाली अति पवित्र रामकथा पूछी। संसारमें घड़ीभरका अथवा पलभरका एक-बारका भी सत्संग दुर्लभ है।।3।।

देखु गरुड़ निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी।।
सकुनाधम सब भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन।।4।।

हे गरुड़जी ! अपने हृदय में विचार कर देखिये, क्या मैं भी श्रीरामजी के भजनका अधिकारी हूँ ? पक्षियोंमें सबसे नीच और सब प्रकार से अपवित्र हूँ। परंतु ऐसा होनेपर भी प्रभुने मुझको सारे जगत् को पवित्र करनेवाला प्रसिद्ध कर दिया। [अथवा प्रभुने मुझको जगत्प्रसिद्ध पावन कर दिया]।।4।।

दो.-आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन।
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन।।123क।।

यद्यपि मैं सब प्रकार से हीन (नीच) हूँ, तो भी मैं आज धन्य हूँ, अत्यन्त धन्य हूँ, जो श्रीरामजीने मुझे अपना निज जन जानकर संत-समागम दिया (आपसे मेरी भेंट करायी)।।123(क)।।

नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ।
चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ।।123ख।।

हे नाथ ! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार कहा, कुछ भी छिपा नहीं रक्खा। [फिर भी] श्रीरघुवीरके चरित्र समुद्रके समान हैं; क्या उनकी कोई थाह पा सकता है ?।।123(ख)

चौ.-सुमिरि राम के गुन गन नाना। पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना।।
महिमा निगम नेति करि गाई। अतुलित बल प्रताप प्रभुताई।।1।।

श्रीरामचन्द्रजीके बहुत से गुणसमूहोंका स्मरण कर-करके सुजान भुशुण्डिजी बार-बार हर्षित हो रहे हैं। जिनकी महिमा वेदों ने नेति-नेति कहकर गायी है; जिनका बल, प्रताप और प्रभुत्व (सामर्थ्य) अतुलनीय है;।।1।।

सिव अज पूज्य चरन रघुराई। मो पर कृपा परम मृदुलाई।।
अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ। केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ।।2।।

जिन श्रीरघुनाथजी के चरण शिवजी औऱ ब्रह्माजी द्वारा पूज्य हैं, उनकी मुझपर कृपा होनी उनकी परम कोमलता है। किसीका ऐसा स्वभाव कहीं न सुनता हूँ, न देखता हूँ। अतः हे पक्षिराज गरुड़जी ! मैं श्रीरघुनाथजीके समान किसे गिनूँ (समझूँ) ?।।2।।

साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी।।
जोगी सूर सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी।।3।।

साधक, सिद्ध, जीवन्मुक्त, उदासीन (विरक्त), कवि, विद्वान्, कर्म [रहस्य] के ज्ञाता, संन्यासी, योगी, शूरवीर, बड़े तपस्वी, ज्ञानी, धर्मपरायण, पण्डित और विज्ञानी-।।3।।

तरहि न बिनु सेएँ मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामी।।
सरन गएँ मो से अघ रासी। होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी।।4।।

ये कोई भी मेरे स्वामी श्रीरामजीका सेवन (भजन) किये बिना नहीं तर सकते। मैं उन्हीं श्रीरामजीको बार-बार नमस्कार करता हूँ। जिनकी शरण जानेपर मुझे-जैसे पापराशि भी शुद्ध (पापरहित) हो जाते हैं, उन अविनाशी श्रीरामजी को मैं नमस्कार करता हूँ।।4।।

दो.-जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल।
सो कृपाल मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल।।124क।।

जिनका नाम जन्म मरण रूपी रोग की [अव्यर्थ] औषध और तीनों भयंकर पीड़ाओं (आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःखों) को हरनेवाला है, वे कृपालु श्रीरामजी मुझपर और आपपर सदा प्रसन्न रहें।।124(क)।।

सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह।
बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह।।124ख।।

भुशुण्डिजीके मंगलमय वचन सुनकर और श्रीरामजीके चरणों में उनका अतिशय प्रेम देखकर सन्देहसे भलीभाँति छूटे हुए गरुड़जी प्रेमसहित वचन बोले।।124(ख)।।

चौ.-मैं कृतकृत्य भयउँ तव बानी। सुनि रघुबीर भगति रस सानी।।
राम चरन नूतन रति भई। माया जनित बिपति सब गई।।1।।

श्रीरघुवीर के भक्ति-रस में सनी हुई आपकी वाणी सुनकर मैं कृतकृत्य हो गया। श्रीरामजीके चरणोंमें मेरी नवीन प्रीति हो गयी और मायासे उत्पन्न सारी विपत्ति चली गयी।।1।।

मोह जलधि बोहित तुम्ह भए। मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए।।
मो पहिं होइ न प्रति उपकारा। बंदउँ तव पद बारहिं बारा।।2।।

मोहरूपी समुद्र में डूबते हुए मेरे लिये आप जहाज हुए। हे नाथ ! आपने मुझे बहुत प्रकार के सुख दिये (परम सुखी कर दिया)। मुझसे इसका प्रत्युपकार (उपकार के बदलें में उपकार) नहीं हो सकता। मैं तो आपके चरणोंकी बार-बार वन्दना ही करता हूँ।।2।।

पूरन काम राम अनुरागी। तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी।।
संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी।।3।।

आप पूर्णकाम हैं और श्रीरामजीके प्रेमी हैं। हे तात ! आपके समान कोई बड़भागी नहीं है। संत, वृक्ष, नदी, पर्वत और पृथ्वी-इन सबकी क्रिया पराये हितके लिये ही होती है।।3।।

संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना।।
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुथख द्रवहिं संत सुपुनीता।।4।।

संतोंका हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियोंने कहा है; परंतु उन्होंने [असली] बात कहना नहीं जाना; क्योंकि मक्खन तो अपनेको ताप मिलनेसे पिघलता है और परम पवित्र संत दूसरोंके दुःखसे पिघल जाते हैं।।4।।

जीवन जन्म सुफल मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ।।
जानेहु सदा मोहि निज किंकर। पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर।।5।।

मेरा जीवन और जन्म सफल हो गया। आपकी कृपासे सब सन्देह चला गया। मुझे सदा अपना दास ही जानियेगा। [शिवजी कहते हैं-] हे उमा ! पक्षिश्रेष्ठ गरुड़जी बार-बार ऐसा कह रहे हैं।।5।।

दो.-तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर।
गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर।।125क।।

उन (भुशुण्डिजी) के चरणों में प्रेमसहित सिर नवाकर और हृदय में श्रीरघुवीरको धारण करके धीरबुद्धि गरुड़जी तब वैकुण्डको चले गये।।125(क)।।

गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन।।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान।।125ख।।

हे गिरिजे ! संत-समागम के समान दूसरा कोई लाभ नहीं है। पर वह (संत-समागम) श्रीहरिकी कृपाके बिना नहीं हो सकता, ऐसा वेद और पुराण गाते हैं।।125(ख)।।

चौ.-कहेउँ परम पुनीत इतिहासा। सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा।।
प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा। उपजइ प्रीति राम पद कंजा।।1।।

मैंने यह परम पवित्र इतिहास कहा, जिसे कानों से सुनते ही भवपाश (संसारके बन्धन) छूट जाते हैं और शरणागतों को [उनके इच्छानुसार फल देनेवाले] कल्पवृक्ष तथा दया के समूह श्रीरामजीके चरणकमलोंमें प्रेम उत्पन्न होता है।।1।।

मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई।।
तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई।।2।।

जो कान और मन लगाकर इस कथा को सुनते हैं, उनके मन, वचन और कर्म (शरीर) से उत्पन्न सब पाप नष्ट हो जाते हैं। तीर्थयात्रा आदि बहुत-से साधन, योग, वैराग्य और ज्ञानमें निपुणता,-।।2।।

नाना कर्म धर्म ब्रत दाना। संजम दम जप तप मख नाना।।
भूत दया द्विज गुर सेवकाई। बिद्या बिनय बिबिक बड़ाई।।3।।

अनेकों प्रकार के कर्म, धर्म, व्रत और दान, अनेकों संयम, दम, जप, तप और यत्र प्राणियोंपर दया, बाह्मण और गुरु की सेवा; विद्या, विनय और विवेककी बड़ाई [आदि]-।।3।।

जहँ लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी।।
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपाँ काहूँ एक पाई।।4।।

जहाँ तक वेदोंने साधन बतलाये हैं, हे भवानी ! उन सबका फल श्रीहरिकी भक्ति ही है। किंतु श्रुतियोंमें गायी हुई वह श्रीरघुनाथजीकी भक्ति श्रीरामजीकी कृपासे किसी एक (विरले) ने ही पायी है।।4।।

दो.-मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास।
जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास।।126।।

किंतु जो मनुष्य विश्वास मानकर यह कथा निरंन्तर सुनते हैं, वे बिना ही परिश्रम उस मुनिदुर्लभ हरिभक्ति को प्राप्त कर लेते हैं।।126।।

चौ.-सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मंडित पंडित दाता।।
धर्म परायन सोइ कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता।।1।।

जिसका मन श्रीरामजीके चरणोंमें अनुरक्त है, वही सर्वज्ञ (सब कुछ जाननेवाला) है, वही गुणी है, वही ज्ञानी है। वही पृथ्वीका भूषण, पण्डित और दानी है। वही धर्मपरायण है और वही कुलका रक्षक है।।1।।

नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना।।
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा।।2।।

जो छल छोड़कर श्रीरघुवीरका भजन करता है, वही नीति में निपुण है, वही परम बुद्धिमान् है। उसीने वेदों के सिद्धान्तको भलीभाँति जाना है। वही कवि, वही विद्वान् तथा वही रणधीर है।।2।।

धन्य देस सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी।।
धन्य सो भूपु नीति जो करइ। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई।।3।।

वह देश धन्य है जहाँ श्री गंगाजी हैं, वह स्त्री धन्य है जो पातिव्रत-धर्मका पालन करती है। वह राजा धन्य है जो न्याय करता है और ब्राह्मण धन्य है जो अपने धर्म से नहीं डिगता।।3।।

सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी।।
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा।।4।।

वह धन धन्य है जिसकी पहली गति होती है (जो दान देनेमें व्यय होता है।) वही बुद्धि धन्य और परिपक्य है जो पुण्य में लगी हुई है। वही घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें ब्राह्मणकी अखण्ड भक्ति हो।।4।। [धनकी तीन गतियाँ होती है-दान भोग और नाश। दान उत्तम है, भोग मध्यम है और नाश नीच गति है जो पुरुष न देता है, न भोगता है, उसके धन को तीसरी गति होती है।]

दो.-सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत।।127।।

हे उमा ! सुनो। वह कुल धन्य है, संसारभरके लिये पूज्य है और परम पवित्र है, जिसमें श्रीरघुवीरपरायण (अनन्य रामभक्त) विनम्र पुरुष उत्पन्न हो।।127।।

चौ.-मति अनुरूप कथा मैं भाषी। जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी।।
तव मन प्रीति देखि अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई।।1।।

मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार यह कथा कही, यद्यपि पहले इसको छिपाकर रक्खा था। जब तुम्हारे मनमें प्रेमकी अधिकता देखी तब मैंने श्रीरघुनाथजीकी यह कथा तुमको सुनायी।।1।।

यह न कहिअ सठही हठसीलहि। जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि।।
कहिअ न लोभिहि क्रोधिहि कामिहि। जो न भजइ सचराचर स्वामिहि।।2।।

यह कथा उनसे न कहनी चाहिये जो शठ (धूर्त) हों, हठी स्वभावके हों और श्रीहरिकी लीलाको मन लगाकर न सुनते हों। लोभी, क्रोधी और कामीको, जो चराचरके स्वामी श्रीरामजीको नहीं भजते, यह कथा नहीं कहनी चाहिये।।2।।

द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ।।
राम कथा के तेइ अधिकारी जिन्ह कें सत संगति अति प्यारी।।3।।

ब्राह्मणों के द्रोही को, यदि वे देवराज (इन्द्र) के समान ऐश्वर्यवान् राजा भी हो, तब भी यह कथा कभी नहीं सुनानी चाहिये। श्रीरामजीकी कथाके अधिकारी वे ही हैं जिनको सत्संगति अत्यन्त प्रिय है।।3।।

गुर पद प्रीति नीति रत जेई। द्विज सेवक अधिकारी तेई।।
ता कहँ यह बिसेष सुखदाई। जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई।।4।।

जिनकी गुरुके चरणों में प्रीति हैं, जो नीति परायण और ब्राह्मणों के सेवक हैं, वे ही इसके अधिकारी है। और उसको तो यह कथा बहुत ही सुख देनेवाली है, जिनको श्रीरघुनाथजी प्राणके समान प्यारे हैं।।4।।

दो.-राम चरन रति जो चहि अथवा पद निर्बान।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान।।128।।

जो श्रीरामजीके चरणोंमें प्रेम चाहता हो या मोक्ष पद चाहता हो, वह इस कथा रूपी अमृतको प्रेमपूर्वक अपने कानरूपी दोनेसे पिये।।128।।

चौ.-राम कथा गिरिजा मैं बरनी। कलि मल समनि मनोमल हरनी।।
संसृति रोग सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं श्रुति सूरी।।1।।

हे गिरिजे ! मैंने कलियुगके पापों का नाश करनेवाली और मनके मलको दूर करनेवाली रामकथाका वर्णन किया। यह रामकथा संसृति (जन्म-मरण) रूपी रोगके [नाशके] लिये संजीवनी जड़ी है, वेद और विद्वान पुरुष ऐसा कहते हैं।।1।।

एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पंथाना।।
अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई।।2।।

इसमें सात सुन्दर सीढ़ियाँ हैं, जो श्रीरघुनाथजीकी भक्ति को प्राप्त करनेके मार्ग हैं। जिसपर श्रीहरि की अत्यन्त कृपा होती है, वही इस मार्ग पर पैर रखता है।।2।।

मन कामना सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा।।
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं।।3।।

जो कपट छोड़कर यह कथा गाते हैं, वे मनुष्य अपनी मनःकामनाकी सिद्धि पा लेते हैं। जो इसे कहते-सुनते और अनुमोदन (प्रशंसा) करते हैं, वे संसाररूपी समुद्र को गौके खुरसेबने हुआ गड्ढेकी भाँति पार कर जाते हैं।।3।।

सुनि सब कथा हृदय अति भाई। गिरिजा बोली गिरा सुहाई।।
नाथ कृपाँ मम गत संदेहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा।।4।।

[याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-] सब कथा सुनकर श्रीपार्वतीजीके हृदय को बहुत ही प्रिय लगी और वे सुन्दर वाणी बोलीं-स्वामीकी कृपा से मेरा सन्देह जातास रहा और श्रीरामजी के चरणों में नवीन प्रेम उत्पन्न हो गया।।4।।

दो.-मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस।
उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस।।129।।

हे विश्वनाथ ! आपकी कृपासे अब मैं कृतार्थ हो गयी। मुझमें दृढ़ रामभक्ति उत्पन्न हो गयी और मेरे सम्पूर्ण क्लेश बीत गये (नष्ट हो गये)।।129।।

चौ.-यह सुभ संभु उमा संबादा। सुख संपादन समन बिषादा।।
भव भंजन गंजन संदेहा। जन रंजन सज्जन प्रिय एहा।।1।।

शम्भु-उमाका यह कल्याणकारी संवाद सुख उत्पन्न करने वाला और शोक का नाश करनेवाला है। जन्म-मरणका अन्त करने वाला, सन्दहों का नाश करनेवाला, भक्तोंको आनन्द देनेवाला और संत पुरुषोंको प्रिय है।।1।।

राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह कें कछु नाहीं।।
रघुपति कृपाँ जथामति रावा। मैं यह पावन चरित सुहावा।।2।।

जगत् में जो (जितने भी) रामोपासक हैं, उनको तो इस राम कथा के समान कुछ भी प्रिय नहीं है। श्रीरघुनाथजीकी कृपासे मैंने यह सुन्दर और पवित्र करनेवाला चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है।।2।।

एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।3।।

[तुलसीदासजी कहते हैं-] इस कलिकाल में योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत और पूजन आदि कोई दूसरा साध नहीं है। बस, श्रीरामजीका ही स्मरण करना, श्रीरामजी का ही गुण गाना और निरन्तर श्रीरामजीके ही गुणसमूहोंको सुनना चाहिये।।3।।

जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति संत पुराना।।
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई।।4।।

पतितोंको पवित्र करना जिनका महान् (प्रसिद्ध) बाना है-ऐसा कवि, वेद, संत और पुराण गाते हैं-रे मन ! कुटिलता त्याग कर उन्हींको भज। श्रीरामजीको भजने से किसने परम गति नहीं पायी ?।।4।।

छं.-पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादिखल तारे घना।।
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते।।1।।

अरे मूर्ख मन ! सुन, पतितोंको भी पावन करनेवाले श्रीरामजीको भजकर किसने परमगति नहीं पायी ? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। अभीर, यवन, किरात, खस, श्वरच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पापरूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं, उन श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।1।।

रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं।।
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै।
दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै।।2।।

जो मनुष्य रघुवंश के भूषण श्रीरामजीका यह चरित्र कहते हैं, सुनते हैं और गाते हैं, वे कलियुगके पाप और मन के मलको धोकर बिना ही परिश्रम श्रीरामजीके परम धामको चले जाते हैं। [अधिक क्या] जो मनुष्य पाँच-सात चौपाईयों को भी मनोहर जानकर [अथवा रामायण की चौपाइयों को श्रेष्ठ पंच (कर्तव्याकर्तव्यका सच्चा निर्णायक) जानकर उनको] हृदय में धारण कर लेता है, उसके भी पाँच प्रकार की अविद्याओं से उत्पन्न विकारों को श्रीरामजी हरण कर लेते हैं, (अर्थात् सारे रामचरित्र की तो बात ही क्या है, जो पाँच-सात चौपाइयोंको भी समझकर उनका अर्थ हृदय में धारण कर लेते हैं, उनके भी अविद्याजनित सारे क्लेश श्रीरामचन्द्रजी हर लेते हैं)।।2।।

सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को।।
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।।3।।

[परम] सुन्दर, सुजान और कृपानिधान तथा जो अनाथों पर प्रेम करते हैं, ऐसे एक श्रीरामचन्द्रजी ही हैं। इनके समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करनेवाला (सुह्रद्) और मोक्ष देनेवाला दूसरा कौन है ? जिनकी लेशमात्र कृपासे मन्दबुद्धि तुलसीदासने भी परम शान्ति प्राप्त कर ली, उन श्रीरामजीके समान प्रभु कहीं भी नहीं हैं।।3।।

दो.-मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।।130क।।

हे श्रीरघुवीर ! मेरे समान कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनों का हित करनेवाला नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि ! मेरे जन्म-मरणके भयानक दुःखकों हरण कर लीजिये ।।130(क)।।

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।130ख।।

जैसे कामीको स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी ! हे राम जी ! आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिये।।130(ख)।।

श्लोक-यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।
मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तंमःशान्तये
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्।।1।।

श्रेष्ठ कवि भगवान् शंकरजीने पहले जिस दुर्गम मानस-रामायणकी, श्रीरामजीके चरणकमलोंके नित्य-निरन्तर [अनन्य] भक्ति प्राप्त होनेके लिये रचना की थी, उस मानस-रामायणको श्रीरघुनाथजीके नाममें निरत मानकर अपने अन्तः करणके अन्धकारको मिटानेके लिये तुलसीदासने इस मानसके रूपमें भाषाबद्ध किया।।1।।

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपुरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।2।।

यह श्रीरामचरितमानस पुण्यरूप, पापों का हरण करने वाला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्तिको देनेवाला, माया, मोह और मलका नाश करनेवाला, परम निर्मल प्रेमरूपी जलसे परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्यकी अति प्रचण्ड किरणोंसे नहीं जलते।।2।।


कलियुगके समस्त पापोंका नाश करनेवाले श्रीरामचरितमानसका यह सातवाँ सोपान समाप्त हुआ। (उत्तरकाण्ड समाप्त)


...Prev |

To give your reviews on this book, Please Login