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श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।


चौ.-श्रीमुख बचन सुनत सब भाई। हरषे प्रेम न हृदयँ समाई।।
करहिं बिनय अति बारहिं बारा। हनूमान हियँ हरष अपारा।।1।।

भगवान् के श्रीमुख से ये वचन सुनकर सब भाई हर्षित हो गये। प्रेम उनके हृदय में समाता नहीं। वे बार-बार विनती करते हैं। विशेषकर हनुमान् जी के हृदय में अपार हर्ष है।।1।।

पुनि रघुपति निज मंदिर गए। एहि बिधि चरित करत नित नए।।
बार बार नारद मुनि आवहिं। चरित पुनीत राम के गावहिं।।2।।

तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी अपने महलको गये। इस प्रकार वे नित्य नयी लीला करते हैं। नारद मुनि अयोध्या में बार-बार आते हैं और आकर श्रीरामजी के पवित्र चरित्र गाते हैं।।2।।

नित नव चरित देखि मुनि जाहीं। ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं।।
सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं। पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं।।3।।

मुनि यहाँ से नित्य नये-नये चरित्र देखकर जाते हैं और ब्रह्मलोक में जाकर सब कथा कहते हैं। ब्रह्माजी सुनकर अत्यन्त सुख मानते हैं [और कहते हैं-] हे तात ! बार-बार श्रीरामजीके गुणोंका गान करो।।3।।

सनकादिक नारदहि सराहहिं। जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं।।
सुनि गुन गान समाधि बिसारी। सादर सुनहिं परम अधिकारी।।4।।

सनकादि मुनि नारद जी सराहना करते हैं। यद्यपि वे (सनकादि) मुनि ब्रह्मनिष्ठ हैं, परन्तु श्रीरामजीका गुणगान सुनकर वे भी अपनी ब्रह्मसमाधिको भूल जाते हैं और आदरपूर्वक उसे सुनते हैं। वे [रामकथा सुननेके] श्रेष्ठ अधिकारी हैं।।4।।

दो.-जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।।
जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान।।42।।

सनकादि मुनि-जैसे जीवन्मुक्त और ब्रह्मनिष्ठ पुरुष भी ध्यान (ब्रह्मसमाधि) छोड़कर श्रीरामजीके चरित्र सुनते हैं। यह जानकर कर भी जो श्रीहरि की कथा से प्रेम नहीं करते, उनके हृदय [सचमुच ही] पत्थर [के समान] हैं।।42।।

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