श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
दो.-नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह।
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह।।36।।
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह।।36।।
हे नाथ ! न तो कुछ सन्देह है और न स्वप्नमें
भी शोक और मोह है। हे कृपा और
आनन्दके समूह ! यह केवल आपकी ही कृपाका फल है।।36।।
चौ.-करउँ कृपानिधि एक ढिठाई। मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई।।
संतन्ह कै महिमा रघुराई। बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई।।1।।
संतन्ह कै महिमा रघुराई। बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई।।1।।
तथापि हे कृपानिधान ! मैं आपसे एक धृष्टता
करता हूँ। मैं सेवक हूँ और आप
सेवक को सुख देनेवाले हैं [इससे मेरी धृष्टताको क्षमा कीजिये और मेरे
प्रश्न का उत्तर देकर सुख दीजिये]। हे रघुनाथजी ! वेद पुराणों ने संतों की
महिमा बहुत प्रकार से गायी है।।1।।
श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बड़ाई। तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई।।
सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन। कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन।।2।।
सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन। कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन।।2।।
आपने भी अपने श्रीमुखसे उनकी बड़ाई की है और
उनपर प्रभु (आप) का प्रेम भी
बहुत है। हे प्रभो ! मैं उनके लक्षण सुनना चाहता हूँ। आप कृपाके समुद्र
हैं और गुण तथा ज्ञानमें अत्यन्त निपुण हैं।।2।।
संत असंत भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई।।
संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता।।3।।
संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता।।3।।
हे शरणागत का पालन करनेवाले ! संत और असंत के
भेद अलग-अलग करके मुझको समाझकर
कहिये। [श्रीरामजीने कहा-] हे भाई ! संतों के लक्षण (गुण) असंख्य है, जो
वेद और पुराणों में प्रसिद्ध हैं।।3।।
संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी।।
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देई सुगंध बसाई।।4।।
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देई सुगंध बसाई।।4।।
संत और असंतों की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी
और चन्दन का आचरण होता है।
हे भाई ! सुनो, कुल्हाड़ी चन्दन को काटती है [क्योंकि उसका स्वभाव या काम
ही वृक्षोंको काटना है]; किन्तु चन्दन [अपने् स्वभाववश] अपना गुण देकर उसे
(काटने वाली कुल्हाड़ीको) सुगन्ध से सुवासित कर देता है।।4।।
दो.-ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड।।37।।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड।।37।।