श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
चौ.-देहु भगति रघुपति अति पावनि। त्रिबिधि ताप भव दाप नसावनि।
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु।।1।।
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु।।1।।
हे रघुनाथजी ! आप हमें अपनी अत्यन्त पवित्र
करनेवाली और तीनों प्रकार के
तापों और जन्म-मरणके क्लेशों का नाश करनेवाली भक्ति दीजिये। हे शरणागतोंकी
कामना पूर्ण करने के लिये कामधेनु और कल्पवृक्ष रूप प्रभो ! प्रसन्न होकर
हमें यही वर दीजिये।।1।।
भव बारिधि कुंभज रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक।।
मन संभव दारुन दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय।।2।।
मन संभव दारुन दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय।।2।।
हे रघुनाथजी ! आप जन्म-मृत्युरूप समुद्र को
सोखने के लिये अगस्त्य मुनिके
समान हैं। आप सेवा करने में सुलभ हैं तथा सब सुखों के देनेवाले हैं हे
दीनबन्धों ! मन से उत्पन्य दारुण दुःखोंका नाश कीजिये और [हममें]
समदृष्टि का विस्तार कीजिये।।2।।
आस त्रास इरिषादि निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक।।
भूप मौलि मनि मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी।।3।।
भूप मौलि मनि मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी।।3।।
आप ]विषयोंकी] आशा, भय और ईर्ष्या आदि के
निवारण करनेवाले हैं तथा विनय,
विवेक और वैराग्य विस्तार करनेवाले हैं। हे राजाओं के शिरोमणि एवं पृथ्वी
के भूषण श्रीरामजी ! संसृति (जन्म-मृत्युके प्रवाह) रूपी नदीके लिये
नौकारूप अपनी भक्ति प्रदान कीजिये।।3।।
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