श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
दो.-देखि राम मुनि आवत हरषि दंड़वत कीन्ह।
स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह।।32।।
स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह।।32।।
सनकादि मुनियोंको आते देखकर
श्रीरामचन्द्रजी ने हर्षित होकर दण्डवत् की और
स्वागत (कुशल) पूछकर प्रभुने [उनके] बैठने के लिये अपना पीताम्बर बिछा दिया
है।।32।।
चौ.-कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई। सहित पवनसुत सुख अधिकाई।।
मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी।।1।।
मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी।।1।।
फिर हनुमान् जी सहित तीनों भाइयों ने दण्डवत्
की, सबको बड़ा सुख हुआ। मुनि
श्रीरघुनाथजी की अतुलनीय छवि देखकर उसीमें मग्न हो गये। वे मन को रोक न
सके।।1।।
स्यामल गात सरोरुह लोचन। सुंदरता मंदिर भव मोचन।।
एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं।।2।।
एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं।।2।।
वे जन्म-मृत्यु [के चक्र] से छुड़ानेवाले,
श्यामशरीर, कमलनयन, सुन्दरता के
धाम श्रीरामजी को टकटकी लगाये देखते ही रह गये, पलक नहीं मारते। और प्रभु
हाथ जोड़े सिर नवा रहे हैं।।2।।
तिन्ह कै दसा देखि रघुबीरा। स्रवत नयन जल पुलक सरीरा।।
कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे।।3।।
कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे।।3।।