श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता। जगदंबा संततनिंदिता।।5।।
[शिवजी कहते हैं-] हे उमा ! जगज्जननी रमा
(सीताजी) ब्रह्मा आदि देवताओं से
वन्दित और सदा अनिन्दित (सर्वगुणसम्पन्न हैं।।5।।
दो.-जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोई।
राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोई।।24।।
राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोई।।24।।
देवता जिनका कृपा कटाक्ष चाहते हैं, परंतु वे
उनकी ओर देखती भी नहीं, वे
ही लक्ष्मीजी जानकीजी अपने [महामहिम] स्वभावको छोड़कर श्रीरामचन्द्रजी के
चरणारविन्दमें प्रीति करती हैं।।24।।
चौ.-सेवहिं सानुकूल सब भाई। राम चरन रति अति अधिकाई।।
प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं। कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं।।1।।
प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं। कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं।।1।।
सब भाई अनुकूल रहकर उनकी सेवा करते हैं।
श्रीरामचन्द्रजीके चरणों में उनकी
अत्यन्त अधिक प्रीति है। वे सदा प्रभु का मुखारविन्द ही देखते रहते हैं कि
कृपाल श्रीरामजी कभी हमें कुछ सेवा करने को कहें।।1।।
राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती। नाना भाँति सिखावहिं नीती।।
हरषित रहहिं नगर के लोगा। करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा।।2।।
हरषित रहहिं नगर के लोगा। करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा।।2।।