श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
सब उदार सब पर उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी।।
एकनारि ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी।।4।।
एकनारि ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी।।4।।
सभी नर-नारी उदार हैं, सभी परोपकारी हैं और
सभी ब्राह्मणों के चरणों के सेवक
हैं। सभी पुरुषमात्र एकपत्नीव्रती हैं। इसी प्रकार स्त्रियाँ भी मन, वचन
और कर्मसे पति का हित करनेवाली हैं।।4।।
दो.-दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज।।22।।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज।।22।।
श्रीरामचन्द्रजी के राज्य में दण्ड केवल
संन्यासियों के हाथों में है और भेद
नाचनेवालों के नृत्यसमाज में है और जीतो शब्द केवल
मनके जीतने के लिये ही सुनायी पड़ता है (अर्थात् राजनीति में शत्रुओं को
जीतने तथा चोर-डाकुओं आदि को दमन करने के लिये साम, दान, दण्ड और भेद-ये
चार उपाय किये जाते हैं। रामराज्य में कोई शत्रु है ही नहीं इसलिये
जीतो शब्द केवल मनके जीतने के लिये कहा जाता है।
कोई अपराध करता ही नहीं, इसलिये दण्ड किसीको नहीं होता;
दण्ड शब्द केवल संन्यासियों के हाथमें रहनेवाले
दण्डके लिये ही रह गया है तथा सभी अनुकूल होने के कारण भेदनीति की आवश्यकता
ही नहीं रह गयी; भेद शब्द केवल सुर-तालके भेद के
लिये ही कामों में आता है।)।।22।।
चौ.-फूलहिं फरहिं सदा तरु कारन। रहहिं एक सँग गज पंचानन।।
खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई।।1।।
खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई।।1।।