श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
चरन नलिन उर धरि गृह आवा। प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा।।
रघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी।।3।।
रघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी।।3।।
फिर भगवान् के चरणकमलों को हृदय में रखकर वह
घर आया और आकर अपने
कुटुम्बियों को उसने प्रभु का स्वभाव सुनाया। श्रीरघुनाथजी का यह चरित्र
देखकर अवध-पुरवासी बार-बार कहते हैं कि सुख की राशि श्रीरामचन्द्रजी धन्य
हैं।।3।।
राम राज बैठें त्रैलोका। हरषित भए गए सब सोका।।
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता सोई।।4।।
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता सोई।।4।।
श्रीरामचन्द्रजीके राज्य पर प्रतिष्ठित होनेपर तीनों लोक हर्षित हो गये,
उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसीसे वैर नहीं करता। श्रीरामचन्द्रजीके
प्रतापसे सबकी बिषमता (आन्तरिक भेदभाव) मिट गयी।।4।।
दो.-बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग।।20।।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग।।20।।
सब लोग अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल
धर्म में तत्पर हुए सदा
वेद-मार्गपर चलते हैं और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बात का भय है, न शोक
है और न कोई रोग ही सतात है।।20।।
चौ.-दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीति। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।।1।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीति। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।।1।।