श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
मोरे जियँ भरोस दृढ़ सोई। मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई।।
बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना।।4।।
बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना।।4।।
अतएव मेरे हृदय में ऐसा पक्का भरोसा है कि
श्रीरामजी अवश्य मिलेंगे [क्योंकि] मुझे शकुन बड़े शुभ हो रहे हैं। किन्तु
अवधि बीत जानेपर यदि
मेरे प्राण रह गये तो जगत् में मेरे समान नीच कौन होगा ?।।4।।
दो.-राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवनसुत आइ गयउ जनु पोत।।1क।।
बिप्र रूप धरि पवनसुत आइ गयउ जनु पोत।।1क।।
श्रीरामजी के विरह-समुद्र में भरत जी का मन डूब
रहा था, उसी समय पवन पुत्र
हनुमान् जी ब्राह्मण का रूप धरकर इस प्रकार आ गये, मानो [उन्हें डूबने से
बचाने के लिये] नाव आ गयी हो।।1(क)।।
बैठे देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात।
राम राम रघुपति जपत स्रवत नयन जलपात।।1ख।।
राम राम रघुपति जपत स्रवत नयन जलपात।।1ख।।
हनुमान् जी ने दुर्बल शरीर भरतजी को जटाओं का
मुकुट बनाये, राम ! राम !
रघुपति ! जपते और कमल के समान नेत्रों से [प्रेमाश्रुओंका] जल बहाते कुश के
आसन पर बैठे देखा।।1(ख)।।
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