श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
होहिं सगुन सुभ बिबिधि बिधि बाजहिं गगन निसान।
पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान।।9ख।।
पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान।।9ख।।
अनेक प्रकार के शुभ शकुन हो रहे हैं, आकाशमें
नगाड़े बज रहे हैं। नगर के
पुरुषों और स्त्रियों को सनाथ (दर्शनद्वारा कृतार्थ) करके भगवान्
श्रीरामचन्द्रजी महल को चले ।।9(ख)।।
चौ.-प्रभु जानी कैकई लजानी। प्रथम तासु गृह गए भवानी।।
ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा।।1।।
ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा।।1।।
[शिवजी कहते हैं-] हे भवानी ! प्रभुने जान
लिया कि माता कैकेयी लज्जित हो
गयी हैं। [इसलिये] वे पहले उन्हीं के महल को गये और उन्हें समझा-बुझाकर
बहुत सुख दिया। फिर श्रीहरिने अपने महलको गमन किया।।1।।
कृपासिंधु जब मंदिर गए। पुर नर नारि सुखी सब भए।।
गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई। आजु सुघरी सुदिन समुदाई।।2।।
गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई। आजु सुघरी सुदिन समुदाई।।2।।
कृपाके समुद्र श्रीरामजी जब अपने महल को गये,
तब नगरके स्त्री-पुरुष सब
सुखी हुए। गुरु वसिष्ठ जीने ब्राह्मणों को बुला लिया [और कहा-] आज शुभ
घड़ी, सुन्दर दिन आदि सभी शुभ योग हैं।।2।।
सब द्विज देहु हरषि अनुसासन। रामचंद्र बैठहिं सिंघासन।।
मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए। सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए।।3।।
मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए। सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए।।3।।
आप सब ब्राह्मण हर्षित होकर आज्ञा दीजिये,
जिसमें श्रीरामचन्द्रजी
सिंहासनपर विराजमान हों। वसिष्ठ मुनिके सुहावने वचन सुनते ही सब
ब्राह्मणोंको बहुत ही अच्छे लगे।।3।।
कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका। जग अभिराम राम अभिषेका।।
अब मुनिबर बिलंब नहिं कीजै। महाराज कहँ तिलक करीजै।।4।।
अब मुनिबर बिलंब नहिं कीजै। महाराज कहँ तिलक करीजै।।4।।
वे सब अनेकों ब्राह्मण कोमल वचन कहने लगे कि
श्रीरामजीका राज्याभिषेक सम्पूर्ण जगत् को आनन्द देनेवाला है। हे
मुनिश्रेष्ठ ! अब विलम्ब न कीजिये
और महाराजका तिलक शीघ्र कीजिये।।4।।
दो.-तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ।
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ।।10क।।
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ।।10क।।
तब मुनिने सुमन्त्र जी से कहा, वे सुनते ही
हर्षित हो चले। उन्होंने
तुरंत ही जाकर अनेकों रथ, घोड़े औऱ हाथी सजाये; ।।10(क)।।
जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ।
हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ।।10ख।।
हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ।।10ख।।
और तहाँ-तहाँ [सूचना देनेवाले] दूतों को
भेजकर मांगलिक वस्तुएँ मँगाकर फिर
हर्षके साथ आकर वसिष्ठ जी के चरणों में सिर नवाया।।10(ख)।।