लोगों की राय

श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: author_hindi

Filename: views/read_books.php

Line Number: 21

निःशुल्क ई-पुस्तकें >> श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

सुबेल पर श्रीरामजी की झाँकी और चन्द्रोदय वर्णन


इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा।
उतरे सेन सहित अति भीरा॥
सिखर एक उतंग अति देखी।
परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी॥

यहाँ श्रीरघुवीर सुबेल पर्वतपर सेना की बड़ी भीड़ (बड़े समूह) के साथ उतरे। पर्वत का एक बहुत ऊँचा, परम रमणीय, समतल और विशेषरूपसे उज्ज्वल शिखर देखकर-॥१॥

तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए।
लछिमन रचि निज हाथ डसाए।
ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला।
तेहिं आसन आसीन कृपाला॥


वहाँ लक्ष्मणजी ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुन्दर फूल अपने हाथों से सजाकर बिछा दिये। उसपर सुन्दर और कोमल मृगछाला बिछा दी। उसी आसन पर कृपालु श्रीरामजी विराजमान थे॥२॥

प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा।
बाम दहिन दिसि चाप निषंगा॥
दुहुँ कर कमल सुधारत बाना।
कह लंकेस मंत्र लगि काना॥

प्रभु श्रीरामजी वानरराज सुग्रीव की गोद में अपना सिर रखे हैं। उनकी बायीं ओर धनुष तथा दाहिनी ओर तरकस [रखा] है। वे अपने दोनों कर-कमलों से बाण सुधार रहे हैं। विभीषणजी कानों से लगकर सलाह कर रहे हैं॥३॥

बड़भागी अंगद हनुमाना।
चरन कमल चापत बिधि नाना॥
प्रभु पाछे लछिमन बीरासन।
कटि निषंग कर बान सरासन।

परम भाग्यशाली अंगद और हनुमान अनेकों प्रकार से प्रभु के चरणकमलों को दबा रहे हैं। लक्ष्मणजी कमर में तरकस कसे और हाथों में धनुष-बाण लिये वीरासन से प्रभु के पीछे सुशोभित हैं॥४॥

दो०- एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन।
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन॥११ (क)॥

इस प्रकार कृपा, रूप (सौन्दर्य) और गुणों के धाम श्रीरामजी विराजमान हैं। वे मनुष्य धन्य हैं जो सदा इस ध्यान में लौ लगाये रहते हैं॥ ११ (क)॥

पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मयंक।
कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असंक॥११ (ख)॥

पूर्व दिशा की ओर देखकर प्रभु श्रीरामजी ने चन्द्रमा को उदय हुआ देखा। तब वे सबसे कहने लगे-चन्द्रमा को तो देखो। कैसा सिंह के समान निडर है!॥ ११ (ख)॥

पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी।
परम प्रताप तेज बल रासी॥
मत्त नाग तम कुंभ बिदारी।
ससि केसरी गगन बन चारी॥

पूर्व दिशारूपी पर्वत की गुफा में रहनेवाला, अत्यन्त प्रताप, तेज और बल की राशि यह चन्द्रमारूपी सिंह अन्धकाररूपी मतवाले हाथी के मस्तक को विदीर्ण करके आकाशरूपी वनमें निर्भय विचर रहा है॥ १॥

बिथुरे नभ मुकुताहल तारा।
निसि सुंदरी केर सिंगारा॥
कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई।
कहहु काह निज निज मति भाई॥

आकाश में बिखरे हुए तारे मोतियों के समान हैं, जो रात्रिरूपी सुन्दर स्त्री के शृङ्गार हैं। प्रभु ने कहा-भाइयो! चन्द्रमा में जो कालापन है वह क्या है? अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार कहो॥२॥

कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
ससि महुँ प्रगट भूमि के झाँई॥
मारेउ राहु ससिहि कह कोई।
उर महँ परी स्यामता सोई॥

सुग्रीव ने कहा-हे रघुनाथजी ! सुनिये। चन्द्रमा में पृथ्वी की छाया दिखायी दे रही है। किसी ने कहा-चन्द्रमा को राहु ने मारा था। वही [चोटका] काला दाग हृदयपर पड़ा हुआ है॥३॥

कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा।
सार भाग ससि कर हरि लीन्हा॥
छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं।
तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं॥

कोई कहता है--जब ब्रह्मा ने [कामदेवकी स्त्री] रति का मुख बनाया, तब उसने चन्द्रमा का सार भाग निकाल लिया [जिससे रति का मुख तो परम सुन्दर बन गया, परन्तु चन्द्रमा के हृदय में छेद हो गया]। वही छेद चन्द्रमा के हृदय में वर्तमान है, जिसकी राह से आकाश की काली छाया उसमें दिखायी पड़ती है।॥४॥

प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा।
अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा॥
बिष संजुत कर निकर पसारी।
जारत बिरहवंत नर नारी॥

प्रभु श्रीरामजी ने कहा-विष चन्द्रमा का बहुत प्यारा भाई है। इसी से उसने विष को अपने हृदय में स्थान दे रखा है। विषयुक्त अपने किरणसमूह को फैलाकर वह वियोगी नर-नारियों को जलाता रहता है॥५॥

दो०- कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास॥१२ (क)॥

हनुमानजी ने कहा-हे प्रभो! सुनिये, चन्द्रमा आपका प्रिय दास है। आपकी सुन्दर श्याम मूर्ति चन्द्रमा के हृदय में बसती है, वही श्यामता की झलक चन्द्रमा में है॥१२ (क)।

नवाह्नपारायण,
सातवाँ विश्राम
पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान।
दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपानिधान॥१२ (ख)॥

पवनपुत्र हनुमानजी के वचन सुनकर सुजान श्रीरामजी हँसे। फिर दक्षिण की ओर देखकर कृपानिधान प्रभु बोले-॥१२ (ख)॥

...Prev | Next...

To give your reviews on this book, Please Login