श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
विभीषण का वस्त्राभूषण बरसाना और वानर-भालुओं का उन्हें पहनना
चढ़ि बिमान सुनु सखा बिभीषन।
गगन जाइ बरषहु पट भूषन॥
नभ पर जाइ बिभीषन तबही।
बरषि दिए मनि अंबर सबही॥
गगन जाइ बरषहु पट भूषन॥
नभ पर जाइ बिभीषन तबही।
बरषि दिए मनि अंबर सबही॥
हे सखा विभीषण! सुनो, विमानपर चढ़कर, आकाशमें जाकर वस्त्रों और गहनोंको बरसा दो। तब (आज्ञा सुनते) ही विभीषणजीने आकाशमें जाकर सब मणियों और वस्त्रोंको बरसा दिया॥३॥
जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं।
मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं।
हँसे रामु श्री अनुज समेता।
परम कौतुकी कृपा निकेता।
मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं।
हँसे रामु श्री अनुज समेता।
परम कौतुकी कृपा निकेता।
जिसके मनको जो अच्छा लगता है, वह वही ले लेता है। मणियोंको मुँहमें लेकर वानर फिर उन्हें खानेकी चीज न समझकर उगल देते हैं। यह तमाशा देखकर परम विनोदी और कृपाके धाम श्रीरामजी सीताजी और लक्ष्मणजीसहित हँसने लगे॥४॥
दो०- मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद।
कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद।।११७ (क)॥
कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद।।११७ (क)॥
जिनको मुनि ध्यानमें भी नहीं पाते, जिन्हें वेद नेति-नेति कहते हैं, वे ही कृपाके समुद्र श्रीरामजी वानरोंके साथ अनेकों प्रकारके विनोद कर रहे हैं॥११७ (क)॥
उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम।
राम कृपा नहिं करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम॥११७ (ख)।
[शिवजी कहते हैं-] हे उमा! अनेकों प्रकारके योग, जप, दान, तप, यज्ञ, व्रत और नियम करनेपर भी श्रीरामचन्द्रजी वैसी कृपा नहीं करते जैसी अनन्य प्रेम होनेपर करते हैं॥ ११७ (ख)॥
भालु कपिन्ह पट भूषन पाए।
पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए।
नाना जिनस देखि सब कीसा।
पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा॥
पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए।
नाना जिनस देखि सब कीसा।
पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा॥
भालुओं और वानरोंने कपड़े-गहने पाये और उन्हें पहन-पहनकर वे श्रीरघुनाथजीके पास आये। अनेकों जातियोंके वानरोंको देखकर कोसलपति श्रीरामजी बार-बार हँस रहे हैं॥१॥
चितइ सबन्हि पर कीन्ही दाया।
बोले मृदुल बचन रघुराया।
तुम्हरें बल मैं रावनु मारयो।
तिलक बिभीषन कहँ पुनि सारयो॥
बोले मृदुल बचन रघुराया।
तुम्हरें बल मैं रावनु मारयो।
तिलक बिभीषन कहँ पुनि सारयो॥
श्रीरघुनाथजीने कृपादृष्टि से देखकर सबपर दया की। फिर वे कोमल वचन बोले-हे भाइयो! तुम्हारे ही बलसे मैंने रावणको मारा और फिर विभीषणका राजतिलक किया॥२॥
निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू।
सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू॥
सुनत बचन प्रेमाकुल बानर।
जोरि पानि बोले सब सादर।
अब तुम सब अपने-अपने घर जाओ। मेरा स्मरण करते रहना और किसीसे डरना नहीं। ये वचन सुनते ही सब वानर प्रेममें विह्वल होकर हाथ जोड़कर आदरपूर्वक बोले-॥३॥
प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा।
हमरे होत बचन सुनि मोहा॥
दीन जानि कपि किए सनाथा।
तुम्ह त्रैलोक ईस रघुनाथा॥
हमरे होत बचन सुनि मोहा॥
दीन जानि कपि किए सनाथा।
तुम्ह त्रैलोक ईस रघुनाथा॥
प्रभो! आप जो कुछ भी कहें, आपको सब सोहता है। पर आपके वचन सुनकर हमको मोह होता है। हे रघुनाथजी! आप तीनों लोकोंके ईश्वर हैं। हम वानरोंको दीन जानकर ही आपने सनाथ (कृतार्थ) किया है॥४॥
सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं।
मसक कहूँ खगपति हित करहीं।
देखि राम रुख बानर रीछा।
प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा।।
मसक कहूँ खगपति हित करहीं।
देखि राम रुख बानर रीछा।
प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा।।
प्रभुके (ऐसे) वचन सुनकर हम लाजके मारे मरे जा रहे हैं। कहीं मच्छर भी गरुड़का हित कर सकते हैं ? श्रीरामजीका रुख देखकर रीछ-वानर प्रेममें मग्न हो गये। उनकी घर जानेकी इच्छा नहीं है॥५॥
दो०- प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि।
हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि॥११८ (क)॥
परन्तु प्रभुकी प्रेरणा (आज्ञा) से सब वानर-भालू श्रीरामजीके रूपको हृदयमें रखकर और अनेकों प्रकारसे विनती करके हर्ष और विषादसहित घरको चले॥११८ (क)॥
कपिपति नील रीछपति अंगद नल हनुमान।
सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान॥११८ (ख)॥
वानरराज सुग्रीव, नील, ऋक्षराज जाम्बवान, अंगद, नल और हनुमान तथा विभीषणसहित और जो बलवान् वानर सेनापति हैं,॥११८ (ख)॥
कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि।
सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि॥११८ (ग)॥
सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि॥११८ (ग)॥
वे कुछ कह नहीं सकते; प्रेमवश नेत्रोंमें जल भर-भरकर, नेत्रोंका पलक मारना छोड़कर (टकटकी लगाये) सम्मुख होकर श्रीरामजीकी ओर देख रहे हैं॥११८ (ग)॥
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