श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
रावण का कुम्भकर्ण को जगाना, कुम्भकर्ण का रावण को उपदेश और विभीषण-कुम्भकर्ण-संवाद
यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ।
अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ॥
ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा।
बिबिध जतन करि ताहि जगावा॥
अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ॥
ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा।
बिबिध जतन करि ताहि जगावा॥
यह समाचार जब रावणने सुना, तब उसने अत्यन्त विषादसे बार-बार सिर पीटा। वह व्याकुल होकर कुम्भकर्णके पास गया और बहुत-से उपाय करके उसने उसको जगाया॥३॥
जागा निसिचर देखिअ कैसा।
मानहुँ कालु देह धरि बैसा॥
कुंभकरन बूझा कहु भाई।
काहे तव मुख रहे सुखाई॥
मानहुँ कालु देह धरि बैसा॥
कुंभकरन बूझा कहु भाई।
काहे तव मुख रहे सुखाई॥
कुम्भकर्ण जगा (उठ बैठा)। वह कैसा दिखायी देता है मानो स्वयं काल ही शरीर धारण करके बैठा हो। कुम्भकर्णने पूछा-हे भाई! कहो तो, तुम्हारे मुख सूख क्यों रहे हैं?॥४॥
कथा कही सब तेहिं अभिमानी।
जेहि प्रकार सीता हरि आनी॥
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे।
महा महा जोधा संघारे॥
जेहि प्रकार सीता हरि आनी॥
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे।
महा महा जोधा संघारे॥
उस अभिमानी (रावण) ने उससे जिस प्रकारसे वह सीताको हर लाया था [तबसे अबतककी सारी कथा कही। [फिर कहा--] हे तात! वानरोंने सब राक्षस मार डाले। बड़े-बड़े योद्धाओंका भी संहार कर डाला॥५॥
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी।
भट अतिकाय अकंपन भारी॥
अपर महोदर आदिक बीरा।
परे समर महि सब रनधीरा॥
भट अतिकाय अकंपन भारी॥
अपर महोदर आदिक बीरा।
परे समर महि सब रनधीरा॥
दुर्मुख, देवशत्रु (देवान्तक), मनुष्यभक्षक (नरान्तक), भारी योद्धा अतिकाय और अकम्पन तथा महोदर आदि दूसरे सभी रणधीर वीर रणभूमिमें मारे गये॥६॥
दो०- सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान॥६२॥
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान॥६२॥
तब रावणके वचन सुनकर कुम्भकर्ण बिलखकर (दु:खी होकर) बोला-अरे मूर्ख! जगज्जननी जानकीको हर लाकर अब तू कल्याण चाहता है ?॥ ६२॥
भल न कीन्ह नै निसिचर नाहा।
अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना।
भजहु राम होइहि कल्याना॥
अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना।
भजहु राम होइहि कल्याना॥
हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया। अब आकर मुझे क्या जगाया? हे तात! अब भी अभिमान छोड़कर श्रीरामजीको भजो तो कल्याण होगा॥१॥
हैं दससीस मनुज रघुनायक।
जाके हनूमान से पायक।
अहह बंधु तैं कोन्हि खोटाई।
प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई।
जाके हनूमान से पायक।
अहह बंधु तैं कोन्हि खोटाई।
प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई।
हे रावण! जिनके हनुमान-सरीखे सेवक हैं, वे श्रीरघुनाथजी क्या मनुष्य हैं ? हाय भाई ! तूने बुरा किया, जो पहले ही आकर मुझे यह हाल नहीं सुनाया॥२॥
कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक।
सिव बिरंचि सुर जाके सेवक।
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा।
कहतेउँ तोहि समय निरबहा॥
सिव बिरंचि सुर जाके सेवक।
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा।
कहतेउँ तोहि समय निरबहा॥
हे स्वामी! तुमने उस परम देवताका विरोध किया, जिसके शिव, ब्रह्मा आदि देवता सेवक हैं। नारद मनिने मुझे जो ज्ञान कहा था, वह मैं तुझसे कहता; पर अब तो समय जाता रहा॥३॥
अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई।
लोचन सुफल करौं मैं जाई॥
स्याम गात सरसीरुह लोचन।
देखौं जाइ ताप त्रय मोचन॥
लोचन सुफल करौं मैं जाई॥
स्याम गात सरसीरुह लोचन।
देखौं जाइ ताप त्रय मोचन॥
हे भाई! अब तो [अन्तिम बार] अँकवार भरकर मुझसे मिल ले। मैं जाकर अपने नेत्र सफल करूँ। तीनों तापोंको छुड़ानेवाले श्यामशरीर, कमलनेत्र श्रीरामजीके जाकर दर्शन करूँ॥४॥
दो०- राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक।
रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक॥६३॥
रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक॥६३॥
श्रीरामचन्द्रजीके रूप और गुणोंको स्मरण करके वह एक क्षणके लिये प्रेममें मग्न हो गया। फिर रावणने करोड़ों घड़े मदिरा और अनेकों भैंसे मँगवाये॥६३॥
महिष खाइ करि मदिरा पाना।
गर्जा बज्राघात समाना।।
कुंभकरन दुर्मद रन रंगा।
चला दुर्ग तजि सेन न संगा॥
गर्जा बज्राघात समाना।।
कुंभकरन दुर्मद रन रंगा।
चला दुर्ग तजि सेन न संगा॥
भैंसे खाकर और मदिरा पीकर वह वज्रघात (बिजली गिरने) के समान गरजा। मदसे चूर रणके उत्साहसे पूर्ण कुम्भकर्ण किला छोड़कर चला। सेना भी साथ नहीं ली॥१॥
देखि बिभीषनु आगे आयउ।
परेउ चरन निज नाम सुनायउ॥
अनुज उठाइ हृदय तेहि लायो।
रघुपति भक्त जानि मन भायो॥
परेउ चरन निज नाम सुनायउ॥
अनुज उठाइ हृदय तेहि लायो।
रघुपति भक्त जानि मन भायो॥
उसे देखकर विभीषण आगे आये और उसके चरणोंपर गिरकर अपना नाम सुनाया। छोटे भाईको उठाकर उसने हृदयसे लगा लिया और श्रीरघुनाथजीका भक्त जानकर वे उसके मनको प्रिय लगे॥२॥
तात लात रावन मोहि मारा।
कहत परम हित मंत्र बिचारा॥
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ।
देखि दीन प्रभु के मन भायउँ॥
कहत परम हित मंत्र बिचारा॥
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ।
देखि दीन प्रभु के मन भायउँ॥
[विभीषणने कहा-] हे तात! परम हितकर सलाह एवं विचार कहनेपर रावणने मुझे लात मारी। उसी ग्लानिके मारे मैं श्रीरघुनाथजीके पास चला आया। दीन देखकर प्रभुके मनको मैं [बहुत] प्रिय लगा॥३॥
सुनु सुत भयउ कालबस रावन।
सो कि मान अब परम सिखावन॥
धन्य धन्य तें धन्य बिभीषन।
भयहु तात निसिचर कुल भूषन।
सो कि मान अब परम सिखावन॥
धन्य धन्य तें धन्य बिभीषन।
भयहु तात निसिचर कुल भूषन।
[कुम्भकर्णने कहा-] हे पुत्र! सुन, रावण तो कालके वश हो गया है (उसके सिरपर मृत्यु नाच रही है)। वह क्या अब उत्तम शिक्षा मान सकता है ? हे विभीषण! तू धन्य है, धन्य है, धन्य है। हे तात! तू राक्षसकुलका भूषण हो गया॥४॥
बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर।
भजेहु राम सोभा सुख सागर॥
भजेहु राम सोभा सुख सागर॥
हे भाई! तूने अपने कुलको देदीप्यमान कर दिया, जो शोभा और सुखके समुद्र श्रीरामजीको भजा॥५॥
दो०- बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर॥६४॥
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर॥६४॥
मन, वचन और कर्मसे कपट छोड़कर रणधीर श्रीरामजीका भजन करना। हे भाई! मैं काल (मृत्यु) के वश हो गया हूँ, मुझे अपना-पराया नहीं सूझता; इसलिये अब तुम जाओ॥६४॥
बंधु बचन सुनि चला बिभीषन।
आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन।
नाथ भूधराकार सरीरा।
कुंभकरन आवत रनधीरा॥
आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन।
नाथ भूधराकार सरीरा।
कुंभकरन आवत रनधीरा॥
भाईके वचन सुनकर विभीषण लौट गये और वहाँ आये जहाँ त्रिलोकीके भूषण श्रीरामजी थे। [विभीषणने कहा-] हे नाथ! पर्वतके समान [विशाल] देहवाला रणधीर कुम्भकर्ण आ रहा है॥१॥
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