श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)
A PHP Error was encounteredSeverity: Notice Message: Undefined index: author_hindi Filename: views/read_books.php Line Number: 21 |
निःशुल्क ई-पुस्तकें >> श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड) |
वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
माल्यवंत का रावण को समझाना
माल्यवंत अति जरठ निसाचर।
रावन मातु पिता मंत्री बर।।
बोला बचन नीति अति पावन।
सुनहु तात कछु मोर सिखावन॥
रावन मातु पिता मंत्री बर।।
बोला बचन नीति अति पावन।
सुनहु तात कछु मोर सिखावन॥
माल्यवत [नामका एक] अत्यन्त बूढ़ा राक्षस था। वह रावणकी माताका पिता (अर्थात् उसका नाना) और श्रेष्ठ मन्त्री था। वह अत्यन्त पवित्र नीतिके वचन बोला हे तात! कुछ मेरी सीख भी सुनो--॥ ३॥
जब ते तुम्ह सीता हरि आनी।
असगुन होहिं न जाहिं बखानी॥
बेद पुरान जासु जसु गायो।
राम बिमुख काहुँ न सुख पायो॥
असगुन होहिं न जाहिं बखानी॥
बेद पुरान जासु जसु गायो।
राम बिमुख काहुँ न सुख पायो॥
जबसे तुम सीताको हर लाये हो, तबसे इतने अपशकुन हो रहे हैं कि जो वर्णन नहीं किये जा सकते। वेद-पुराणोंने जिनका यश गाया है, उन श्रीरामसे विमुख होकर किसीने सुख नहीं पाया॥४॥
दो०- हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान।
जेहिं मारे सोइ अवतरेउ कृपासिंधु भगवान॥४८ (क)॥
जेहिं मारे सोइ अवतरेउ कृपासिंधु भगवान॥४८ (क)॥
भाई हिरण्यकशिपुसहित हिरण्याक्षको और बलवान् मधु-कैटभको जिन्होंने मारा था, वे ही कृपाके समुद्र भगवान [रामरूपसे] अवतरित हुए हैं। ४८ (क)॥
मासपारायण, पचीसवाँ विश्राम
कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध।
सिव बिरंचि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध॥४८ (ख)॥
सिव बिरंचि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध॥४८ (ख)॥
जो कालस्वरूप हैं, दुष्टोंके समूहरूपी वनके भस्म करनेवाले [अग्नि] हैं, गुणोंके धाम और ज्ञानधन हैं, एवं शिवजी और ब्रह्माजी भी जिनकी सेवा करते हैं, उनसे वैर कैसा?॥४८ (ख)॥
परिहरि बयरु देहु बैदेही।
भजहु कृपानिधि परम सनेही॥
ताके बचन बान सम लागे।
करिआ मुह करि जाहि अभागे।
भजहु कृपानिधि परम सनेही॥
ताके बचन बान सम लागे।
करिआ मुह करि जाहि अभागे।
[अतः] वैर छोड़कर उन्हें जानकीजीको दे दो और कृपानिधान परम स्नेही श्रीरामजीका भजन करो। रावणको उसके वचन बाणके समान लगे। [वह बोला-] अरे अभागे ! मुँह काला करके [यहाँसे] निकल जा॥१॥
बूढ़ भएसि न त मरतेउँ तोही।
अब जनि नयन देखावसि मोही॥
तेहिं अपने मन अस अनुमाना।
बध्यो चहत एहि कृपानिधाना।
अब जनि नयन देखावसि मोही॥
तेहिं अपने मन अस अनुमाना।
बध्यो चहत एहि कृपानिधाना।
तू बूढ़ा हो गया, नहीं तो तुझे मार ही डालता। अब मेरी आँखोंको अपना मुँह न दिखला। रावणके ये वचन सुनकर उसने (माल्यवान्ने) अपने मनमें ऐसा अनुमान किया कि इसे कृपानिधान श्रीरामजी अब मारना ही चाहते हैं॥२॥
सो उठि गयउ कहत दुर्बादा।
तब सकोप बोलेउ घननादा॥
कौतुक प्रात देखिअहु मोरा।
करिहउँ बहुत कहौं का थोरा॥
तब सकोप बोलेउ घननादा॥
कौतुक प्रात देखिअहु मोरा।
करिहउँ बहुत कहौं का थोरा॥
वह रावणको दुर्वचन कहता हुआ उठकर चला गया। तब मेघनाद क्रोधपूर्वक बोला-सबेरे मेरी करामात देखना। मैं बहुत कुछ करूँगा; थोड़ा क्या कहूँ ? (जो कुछ वर्णन करूँगा थोड़ा ही होगा)॥३॥
सुनि सुत बचन भरोसा आवा।
प्रीति समेत अंक बैठावा।
करत बिचार भयउ भिनुसारा।
लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा॥
प्रीति समेत अंक बैठावा।
करत बिचार भयउ भिनुसारा।
लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा॥
पुत्रके वचन सुनकर रावणको भरोसा आ गया। उसने प्रेमके साथ उसे गोदमें बैठा लिया। विचार करते-करते ही सबेरा हो गया। वानर फिर चारों दरवाजोंपर जा लगे॥४॥
कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ घेरा।
नगर कोलाहलु भयउ घनेरा॥
बिबिधायुध धर निसिचर धाए।
गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए।
नगर कोलाहलु भयउ घनेरा॥
बिबिधायुध धर निसिचर धाए।
गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए।
वानरोंने क्रोध करके दुर्गम किलेको घेर लिया। नगरमें बहुत ही कोलाहल (शोर) मच गया। राक्षस बहुत तरहके अस्त्र-शस्त्र धारण करके दौड़े और उन्होंने किलेपरसे पहाड़ोंके शिखर ढहाये॥५॥
छं०- ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले।
घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले॥
मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए।
गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहिं जहँ सो तहँ निसिचर हए॥
उन्होंने पर्वतोंके करोड़ों शिखर ढहाये. अनेक प्रकारसे गोले चलने लगे। वे गोले ऐसा घहराते हैं जैसे वज्रपात हुआ हो (बिजली गिरी हो) और योद्धा ऐसे गरजते हैं मानो प्रलयकालके बादल हों। विकट वानर योद्धा भिड़ते हैं, कट जाते हैं (घायल हो जाते हैं), उनके शरीर जर्जर (चलनी) हो जाते हैं, तब भी वे लटते नहीं (हिम्मत नहीं हारते)। वे पहाड़ उठाकर उसे किलेपर फेंकते हैं। राक्षस जहाँ-के-तहाँ (जो जहाँ होते हैं वहीं) मारे जाते हैं।
दो०- मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़ पुनि छेका आइ।
उतरयो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ॥४९॥
उतरयो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ॥४९॥
मेघनादने कानोंसे ऐसा सुना कि वानरोंने आकर फिर किलेको घेर लिया है। तब वह वीर किलेसे उतरा और डंका बजाकर उनके सामने चला॥४९॥
कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता।
धन्वी सकल लोक बिख्याता॥
कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा।
अंगद हनूमंत बल सीवा॥
धन्वी सकल लोक बिख्याता॥
कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा।
अंगद हनूमंत बल सीवा॥
[मेघनादने पुकारकर कहा-] समस्त लोकोंमें प्रसिद्ध धनुर्धर कोसलाधीश दोनों भाई कहाँ हैं ? नल, नील, द्विविद, सुग्रीव और बलकी सीमा अङ्गद और हनुमान कहाँ हैं ?॥ १॥
कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही।
आजु सबहि हठि मारउँ ओही॥
अस कहि कठिन बान संधाने।
अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने॥
आजु सबहि हठि मारउँ ओही॥
अस कहि कठिन बान संधाने।
अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने॥
भाईसे द्रोह करनेवाला विभीषण कहाँ है? आज मैं सबको और उस दुष्टको तो हठपूर्वक (अवश्य ही) मारूँगा। ऐसा कहकर उसने धनुषपर कठिन बाणोंका सन्धान किया और अत्यन्त क्रोध करके उसे कानतक खींचा॥२॥
सर समूह सो छाडै लागा।
जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा॥
जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर।
सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर॥
जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा॥
जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर।
सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर॥
वह बाणोंके समूह छोड़ने लगा। मानो बहुत-से पंखवाले साँप दौड़े जा रहे हों। जहाँ तहाँ वानर गिरते दिखायी पड़ने लगे। उस समय कोई भी उसके सामने न हो सके॥३॥
जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा।
बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा।।
सो कपि भालु न रन महँ देखा।
कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा॥
बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा।।
सो कपि भालु न रन महँ देखा।
कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा॥
रीछ-वानर जहाँ-तहाँ भाग चले। सबको युद्धकी इच्छा भूल गयी। रणभूमिमें ऐसा एक भी वानर या भालू नहीं दिखायी पड़ा जिसको उसने प्राणमात्र अवशेष न कर दिया हो (अर्थात् जिसके केवल प्राणमात्र ही न बचे हों; बल, पुरुषार्थ सारा जाता न रहा हो)॥४॥
दो०- दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर।
सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर॥५०॥
सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर॥५०॥
फिर उसने सबको दस-दस बाण मारे, वानर वीर पृथ्वीपर गिर पड़े। बलवान् और धीर मेघनाद सिंहके समान नाद करके गरजने लगा॥५०॥
देखि पवनसुत कटक बिहाला।
क्रोधवंत जनु धायउ काला॥
महासैल एक तुरत उपारा।
अति रिस मेघनाद पर डारा॥
क्रोधवंत जनु धायउ काला॥
महासैल एक तुरत उपारा।
अति रिस मेघनाद पर डारा॥
सारी सेनाको बेहाल (व्याकुल) देखकर पवनसुत हनुमान क्रोध करके ऐसे दौड़े मानो स्वयं काल दौड़ा आता हो। उन्होंने तुरंत एक बड़ा भारी पहाड़ उखाड़ लिया और बड़े ही क्रोधके साथ उसे मेघनादपर छोड़ा॥१॥
आवत देखि गयउ नभ सोई।
रथ सारथी तुरग सब खोई॥
बार बार पचार हनुमाना।
निकट न आव मरमु सो जाना॥
रथ सारथी तुरग सब खोई॥
बार बार पचार हनुमाना।
निकट न आव मरमु सो जाना॥
पहाड़को आते देखकर वह आकाशमें उड़ गया। [उसके] रथ, सारथि और घोड़े सब नष्ट हो गये (चूर-चूर हो गये)। हनुमानजी उसे बार-बार ललकारते हैं। पर वह निकट नहीं आता, क्योंकि वह उनके बलका मर्म जानता था।॥ २॥
रघुपति निकट गयउ घननादा।
नाना भाँति करेसि दुर्बादा।।
अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे।
कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे॥
नाना भाँति करेसि दुर्बादा।।
अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे।
कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे॥
इतबा मेघनाद श्रीरघनाथजीके पास गया और उसने उनके प्रति] अनेकों प्रकारके दुर्वचनोंका प्रयोग किया। [फिर] उसने उनपर अस्त्र-शस्त्र तथा और सब हथियार चलाये। प्रभुने खेलमें ही सबको काटकर अलग कर दिया॥३॥
देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना।
करै लाग माया बिधि नाना॥
जिमि कोउ करै गरुड़ सैं खेला।
डरपावै गहि स्वल्प सपेला॥
करै लाग माया बिधि नाना॥
जिमि कोउ करै गरुड़ सैं खेला।
डरपावै गहि स्वल्प सपेला॥
श्रीरामजीका प्रताप (सामर्थ्य) देखकर वह मूर्ख लज्जित हो गया और अनेकों प्रकारकी माया करने लगा। जैसे कोई व्यक्ति छोटा-सा साँपका बच्चा हाथमें लेकर गरुड़को डरावे और उससे खेल करे॥४॥
दो०- जासु प्रबल माया बस सिव बिरंचि बड़ छोट।
ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट॥५१॥
ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट॥५१॥
शिवजी और ब्रह्माजीतक बड़े-छोटे [सभी] जिनकी अत्यन्त बलवान् मायाके वशमें हैं, नीचबुद्धि निशाचर उनको अपनी माया दिखलाता है॥५१॥
नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा।
महि ते प्रगट होहिं जलधारा॥
नाना भाँति पिसाच पिसाची।
मारु काटु धुनि बोलहिं नाची॥
महि ते प्रगट होहिं जलधारा॥
नाना भाँति पिसाच पिसाची।
मारु काटु धुनि बोलहिं नाची॥
आकाशमें [ऊँचे] चढ़कर वह बहुत-से अंगारे बरसाने लगा। पृथ्वीसे जलकी धाराएँ प्रकट होने लगीं। अनेक प्रकारके पिशाच तथा पिशाचिनियाँ नाच-नाचकर मारो, काटो' की आवाज करने लगीं॥१॥
बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़ा।
बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा॥
बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा।
सूझ न आपन हाथ पसारा॥
बरषइ कबहुँ उपल बहु छाड़ा॥
बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा।
सूझ न आपन हाथ पसारा॥
वह कभी तो विष्ठा, पीब, खून, बाल और हड्डियाँ बरसाता था और कभी बहुत से पत्थर फेंके देता था। फिर उसने धूल बरसाकर ऐसा अँधेरा कर दिया कि अपना ही पसारा हुआ हाथ नहीं सूझता था॥२॥
कपि अकुलाने माया देखें।
सब कर मरन बना एहि लेखें।
कौतुक देखि राम मुसुकाने।
भए सभीत सकल कपि जाने।
सब कर मरन बना एहि लेखें।
कौतुक देखि राम मुसुकाने।
भए सभीत सकल कपि जाने।
माया देखकर वानर अकुला उठे। वे सोचने लगे कि इस हिसाबसे (इसी तरह रहा) तो सबका मरण आ बना। यह कौतुक देखकर श्रीरामजी मुसकराये। उन्होंने जान लिया कि सब वानर भयभीत हो गये हैं॥ ३॥
एक बान काटी सब माया।
जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया।
कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके।
भए प्रबल रन रहहिं न रोके।
जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया।
कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके।
भए प्रबल रन रहहिं न रोके।
तब श्रीरामजीने एक ही बाणसे सारी माया काट डाली, जैसे सूर्य अन्धकारके समूहको हर लेता है। तदनन्तर उन्होंने कृपाभरी दृष्टिसे वानर-भालुओंकी ओर देखा, [जिससे] वे ऐसे प्रबल हो गये कि रणमें रोकनेपर भी नहीं रुकते थे॥४॥
दो०- आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ॥५२॥
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ॥५२॥
श्रीरामजीसे आज्ञा माँगकर, अंगद आदि वानरोंके साथ हाथोंमें धनुष-बाण लिये हए श्रीलक्ष्मणजी क्रुद्ध होकर चले॥५२॥
छतज नयन उर बाहु बिसाला।
हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला॥
इहाँ दसानन सुभट पठाए।
नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए॥
हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला॥
इहाँ दसानन सुभट पठाए।
नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए॥
उनके लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं। हिमाचल पर्वतके समान उज्ज्वल (गौरवर्ण) शरीर कुछ ललाई लिये हुए है। इधर रावणने भी बड़े-बड़े योद्धा भेजे, जो अनेकों अस्त्र-शस्त्र लेकर दौड़े॥१॥
भूधर नख बिटपायुध धारी।
धाए कपि जय राम पुकारी॥
भिरे सकल जोरिहि सन जोरी।
इत उत जय इच्छा नहिं थोरी॥
धाए कपि जय राम पुकारी॥
भिरे सकल जोरिहि सन जोरी।
इत उत जय इच्छा नहिं थोरी॥
पर्वत, नख और वृक्षरूपी हथियार धारण किये हुए वानर 'श्रीरामचन्द्रजीकी जय' पुकारकर दौड़े। वानर और राक्षस सब जोड़ीसे जोड़ी भिड़ गये। इधर और उधर दोनों ओर जयकी इच्छा कम न थी (अर्थात् प्रबल थी)॥२॥
मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं।
कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं।
मारु मारु धरु धरु धरु मारू।
सीस तोरि गहि भुजा उपारू॥
कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं।
मारु मारु धरु धरु धरु मारू।
सीस तोरि गहि भुजा उपारू॥
वानर उनको घूसों और लातोंसे मारते हैं, दाँतोंसे काटते हैं। विजयशील वानर उन्हें मारकर फिर डाँटते भी हैं। 'मारो, मारो, पकड़ो, पकड़ो, पकड़कर मार दो, सिर तोड़ दो और भुजाएँ पकड़कर उखाड़ लो'॥३॥
असि रव पूरि रही नव खंडा।
धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा॥
देखहिं कौतुक नभ सुर बृंदा।
कबहुँक बिसमय कबहुँ अनंदा॥
धावहिं जहँ तहँ रुंड प्रचंडा॥
देखहिं कौतुक नभ सुर बृंदा।
कबहुँक बिसमय कबहुँ अनंदा॥
नवों खण्डोंमें ऐसी आवाज भर रही है। प्रचण्ड रुण्ड (धड़) जहाँ-तहाँ दौड़ रहे हैं। आकाशमें देवतागण यह कौतुक देख रहे हैं। उन्हें कभी खेद होता है और कभी आनन्द॥ ४॥
दो०- रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़ाइ।
जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ॥५३॥
जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ॥५३॥
खून गड्ढोंमें भर-भरकर जम गया है और उसपर धूल उड़कर पड़ रही है [वह दृश्य ऐसा है] मानो अंगारोंके ढेरोंपर राख छा रही हो।। ५३।।
घायल बीर बिराजहिं कैसे।
कुसुमित किंसुक के तरु जैसे॥
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा।
भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा।।
कुसुमित किंसुक के तरु जैसे॥
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा।
भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा।।
घायल वीर कैसे शोभित हैं, जैसे फूले हुए पलासके पेड़। लक्ष्मण और मेघनाद दोनों योद्धा अत्यन्त क्रोध करके एक दूसरेसे भिड़ते हैं॥ १॥
एकहि एक सकइ नहिं जीती।
निसिचर छल बल करइ अनीती॥
क्रोधवंत तब भयउ अनंता।
भंजेउ रथ सारथी तुरंता॥
निसिचर छल बल करइ अनीती॥
क्रोधवंत तब भयउ अनंता।
भंजेउ रथ सारथी तुरंता॥
एक दूसरेको (कोई किसी को) जीत नहीं सकता। राक्षस छल-बल (माया) और अनीति (अधर्म) करता है, तब भगवान अनन्तजी (लक्ष्मणजी) क्रोधित हुए और उन्होंने तुरंत उसके रथको तोड़ डाला और सारथिको टुकड़े-टुकड़े कर दिये!॥२॥
नाना बिधि प्रहार कर सेषा।
राच्छस भयउ प्रान अवसेषा॥
रावन सुत निज मन अनुमाना।
संकठ भयउ हरिहि मम प्राना।।
राच्छस भयउ प्रान अवसेषा॥
रावन सुत निज मन अनुमाना।
संकठ भयउ हरिहि मम प्राना।।
To give your reviews on this book, Please Login