लोगों की राय

श्रीरामचरितमानस (सुंदरकाण्ड)

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: author_hindi

Filename: views/read_books.php

Line Number: 21

निःशुल्क ई-पुस्तकें >> श्रीरामचरितमानस (सुंदरकाण्ड)

वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।


हनुमानजी-सीताजी संवाद



सो०- कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥१२॥

तब हनुमानजी ने हृदय में विचारकर [सीताजी के सामने] अँगूठी डाल दी, मानो अशोक ने अङ्गारा दे दिया।[यह समझकर] सीताजी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथमें ले लिया॥१२॥

तब देखी मुद्रिका मनोहर।
राम नाम अंकित अति सुंदर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी।
हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥


तब उन्होंने राम-नामसे अङ्कित अत्यन्त सुन्दर एवं मनोहर अंगूठी देखी। अंगूठीको पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगी और हर्ष तथा विषादसे हृदयमें अकुला उठीं॥१॥

जीति को सकइ अजय रघुराई।
माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना।
मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥


[वे सोचने लगीं-] श्रीरघुनाथजी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है? और मायासे ऐसी (मायाके उपादानसे सर्वथा रहित दिव्य, चिन्मय) अँगूठी बनायी नहीं जा सकती। सीताजी मनमें अनेक प्रकारके विचार कर रही थीं। इसी समय हनुमानजी मधुर वचन बोले-॥२॥

रामचंद्र गुन बरनैं लागा।
सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई।
आदिहु तें सब कथा सुनाई।


वे श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंका वर्णन करने लगे, [जिनके] सुनते ही सीताजीका दुःख भाग गया। वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं। हनुमानजीने आदिसे लेकर सारी कथा कह सुनायी॥३॥

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई।
कही सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ।
फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ॥

[सीताजी बोलीं-] जिसने कानोंके लिये अमृतरूप यह सुन्दर कथा कही, वह हे भाई! प्रकट क्यों नहीं होता? तब हनुमानजी पास चले गये। उन्हें देखकर सीताजी फिरकर (मुख फेरकर) बैठ गयीं; उनके मनमें आश्चर्य हुआ॥४॥

राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुनानिधान की।
यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी।।


[हनुमानजीने कहा-] हे माता जानकी! मैं श्रीरामजीका दूत हूँ। करुणानिधानकी सच्ची शपथ करता हूँ। हे माता! यह अंगूठी मैं ही लाया हूँ। श्रीरामजीने मुझे आपके लिये यह सहिदानी (निशानी या पहिचान) दी है॥५॥

नर बानरहि संग कहु कैसें।
कही कथा भइ संगति जैसें।

[सीताजीने पूछा-] नर और वानरका सङ्ग कहो कैसे हुआ? तब हनुमानजीने जैसे सङ्ग हुआ था, वह सब कथा कही॥६॥

दो०- कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास॥१३॥

हनुमानजी के प्रेमयुक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया। उन्होंने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्रीरघुनाथजी का दास है॥१३॥

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी।
सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी।
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।
भयहु तात मो कहुँ जलजाना।

भगवान का जन (सेवक) जानकर अत्यन्त गाढ़ी प्रीति हो गयी। नेत्रों में [प्रेमाश्रुओं का] जल भर आया और शरीर अत्यन्त पुलकित हो गया। [सीताजी ने कहा-] हे तात हनुमान! विरहसागर में डूबती हुई मुझको तुम जहाज हुए॥१॥

अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।
अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥

मैं बलिहारी जाती हूँ, अब छोटे भाई लक्ष्मणजीसहित खरके शत्रु सुखधाम प्रभुका कुशल-मङ्गल कहो। श्रीरघुनाथजी तो कोमलहृदय और कृपालु हैं। फिर हे हनुमान ! उन्होंने किस कारण यह निष्ठुरता धारण कर ली है?॥२॥

सहज बानि सेवक सुखदायक।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक।
कबहुँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥

सेवक को सुख देना उनकी स्वाभाविक बान है। वे श्रीरघुनाथजी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं? हे तात! क्या कभी उनके कोमल साँवले अङ्गोंको देखकर मेरे नेत्र शीतल होंगे?॥३॥

बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥
देखि परम बिरहाकल सीता।
बोला कपि मद बचन बिनीता।

[मुँहसे ] वचन नहीं निकलता, नेत्रों में [विरहके आँसुओंका] जल भर आया। [बड़े दुःखसे वे बोलीं-] हा नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया! सीताजीको विरहसे परम व्याकुल देखकर हनुमानजी कोमल और विनीत वचन बोले-॥४॥

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।
तब दुख दुखी सुकृपा निकेता॥
जनि जननी मानहु जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम के दूना॥

हे माता! सुन्दर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मणजी के सहित [शरीरसे ] कुशल हैं, परन्तु आपके दुःखसे दुःखी हैं। हे माता! मनमें ग्लानि न मानिये (मन छोटा करके दुःख न कीजिये)। श्रीरामचन्द्रजी के हृदय में आपसे दूना प्रेम है॥५॥

दो०- रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर॥१४॥

हे माता! अब धीरज धरकर श्रीरघुनाथजी का संदेश सुनिये। ऐसा कहकर हनुमानजी प्रेम से गद्गद हो गये। उनके नेत्रों में [प्रेमाश्रुओंका] जल भर आया॥१४॥

कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।
कालनिसा सम निसि ससि भानू॥

[हनुमानजी बोले-] श्रीरामचन्द्रजी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मेरे लिये सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गये हैं। वृक्षों के नये-नये कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान, रात्रि कालरात्रि के समान, चन्द्रमा सूर्य के समान॥१॥

कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥

और कमलोंके वन भालोंके वनके समान हो गये हैं। मेघ मानो खौलता हुआ तेल बरसाते हैं। जो हित करनेवाले थे, वे ही अब पीड़ा देने लगे हैं। त्रिविध (शीतल, मन्द, सुगन्ध) वायु साँपके श्वासके समान (जहरीली और गरम) हो गयी है।।२।।

कहेहू तें कछु दुख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥

मनका दुःख कह डालनेसे भी कुछ घट जाता है। पर कहूँ किससे? यह दुःख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेमका तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है॥३॥

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।
मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥

और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे प्रेमका सार इतने में ही समझ ले। प्रभुका सन्देश सुनते ही जानकीजी प्रेममें मग्न हो गयीं। उन्हें शरीरकी सुध न रही॥४॥

कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई।
सुनि मम बचन तजहु कदराई॥

हनुमानजी ने कहा-हे माता! हृदयमें धैर्य धारण करो और सेवकों को सुख देनेवाले श्रीरामजी का स्मरण करो। श्रीरघुनाथजी की प्रभुता को हृदय में लाओ और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड़ दो॥५॥

दो०- निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु॥१५॥

राक्षसों के समूह पतंगों के समान और श्रीरघुनाथजी के बाण अग्नि के समान हैं। हे माता! हृदयमें धैर्य धारण करो और राक्षसोंको जला ही समझो॥ १५॥

जौं रघुबीर होति सुधि पाई।
करते नहिं बिलंबु रघुराई।
राम बान रबि उएँ जानकी।
तम बरूथ कहँ जातुधान की।

श्रीरामचन्द्रजीने यदि खबर पायी होती तो वे विलम्ब न करते। हे जानकीजी! रामबाणरूपी सूर्यके उदय होनेपर राक्षसोंकी सेनारूपी अन्धकार कहाँ रह सकता है ?॥ १॥

अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई।
प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥


हे माता ! मैं आपको अभी यहाँ से लिवा जाऊँ; पर श्रीरामचन्द्रजी की शपथ है, मुझे प्रभु (उन) की आज्ञा नहीं है। [अत:] हे माता! कुछ दिन और धीरज धरो। श्रीरामचन्द्रजी वानरों सहित यहाँ आवेंगे॥२॥

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।
जातुधान अति भट बलवाना॥

और राक्षसों को मारकर आपको ले जायेंगे। नारद आदि [ऋषि-मुनि] तीनों लोकों में उनका यश गावेंगे। [सीताजीने कहा-] हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान (नन्हें-नन्हें-से) होंगे, राक्षस तो बड़े बलवान् योद्धा हैं॥ ३॥

मोरें हृदय परम संदेहा।
सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥
कनक भूधराकार सरीरा।
समर भयंकर अतिबल बीरा॥

अत: मेरे हृदय में बड़ा भारी सन्देह होता है [कि तुम-जैसे बंदर राक्षसों को कैसे जीतेंगे!] यह सुनकर हनुमानजी ने अपना शरीर प्रकट किया। सोने के पर्वत (सुमेरु) के आकार का (अत्यन्त विशाल) शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करनेवाला, अत्यन्त बलवान् और वीर था॥४॥

शरीर को बड़ा अथवा छोटा कर लेने के प्रसंग केवल हनुमानजी के विषय में आता है। साहित्यकार अधिकांशतः इसे अतिशयोक्ति अलंकार की अभिव्यक्ति के रूप में समझते हैं। परंतु प्रश्न यह उठता है कि इस प्रकार शरीर के आकार को बड़ा या छोटा करने का काम रामचरितमानस में और कोई भी नहीं करता है, यहाँ तक प्रभु श्रीराम भी नहीं! तब केवल हनुमानजी ही ऐसा क्यों करते हैं? इस प्रश्न का उत्तर हनुमानजी के एक और प्रचलित नाम में छुपा हुआ है। हम उन्हें पवनपुत्र कहते हैं, हम यह भी जानते हैं कि पवन का आकार बढ़ता घटता रहता हैं। वह हमारे जीवन में सहज ही छोटी-से छोटी बन कर हर स्थान पर आ जा सकती है, साथ ही वह उपयुक्त वातावरण मिलने पर अत्यंत विशाल आंधी के रूप में अभिव्यक्त होती है।

सीता मन भरोस तब भयऊ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।

तब (उसे देखकर) सीताजी के मन में विश्वास हुआ। हनुमानजी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया॥५॥

दो०- सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल॥१६॥

हे माता ! सुनो, वानरोंमें बहुत बल-बुद्धि नहीं होती। परन्तु प्रभुके प्रतापसे बहुत छोटा सर्प भी गरुड़को खा सकता है (अत्यन्त निर्बल भी महान् बलवान्को मार सकता है)॥१६॥

मन संतोष सुनत कपि बानी।
भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना॥

भक्ति, प्रताप, तेज और बलसे सनी हुई हनुमानजीकी वाणी सुनकर सीताजीके मनमें सन्तोष हुआ। उन्होंने श्रीरामजीके प्रिय जानकर हनुमानजीको आशीर्वाद दिया कि हे तात! तुम बल और शीलके निधान होओ॥१॥

अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥

हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापेसे रहित), अमर और गुणोंके खजाने होओ। श्रीरघुनाथजी तुमपर बहुत कृपा करें। 'प्रभु कृपा करें ऐसा कानोंसे सुनते ही हनुमानजी पूर्ण प्रेममें मग्न हो गये॥२॥

बार बार नाएसि पद सीसा।
बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता॥

हनुमानजीने बार-बार सीताजीके चरणोंमें सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा-हे माता! अब मैं कृतार्थ हो गया। आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है॥३॥

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागि देखि सुंदर फल रूखा॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।
परम सुभट रजनीचर भारी॥

हे माता! सुनो, सुन्दर फलवाले वृक्षोंको देखकर मुझे बड़ी ही भूख लग आयी है। [सीताजीने कहा-] हे बेटा! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वनकी रखवाली करते हैं॥ ४॥

तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥

[हनुमानजीने कहा-] हे माता! यदि आप मन में सुख माने (प्रसन्न होकर आज्ञा दें) तो मुझे उनका भय तो बिलकुल नहीं है॥५॥

दो०- देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकी जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥१७॥

हनुमानजीको बुद्धि और बलमें निपुण देखकर जानकीजीने कहा-जाओ। हे तात! श्रीरघुनाथजीके चरणोंको हृदयमें धारण करके मीठे फल खाओ॥१७॥

...Prev | Next...

To give your reviews on this book, Please Login