श्रीरामचरितमानस (सुंदरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
श्रीरामजी का वानरों की सेना के साथ चलकर समुद्रतट पर पहुँचना
दो०- एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर॥३५॥
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर॥३५॥
इस प्रकार कृपानिधान श्रीरामजी समुद्रतटपर जा उतरे। अनेकों रीछ-वानर वीर जहाँ-तहाँ फल खाने लगे॥३५॥
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका।
जब तें जारि गयउ कपि लंका॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा।
नहिं निसिचर कुल केर उबारा॥
जब तें जारि गयउ कपि लंका॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा।
नहिं निसिचर कुल केर उबारा॥
वहाँ (लङ्का में) जब से हनुमानजी लङ्का को जलाकर गये; तबसे राक्षस भयभीत रहने लगे। अपने-अपने घरों में सब विचार करते हैं कि अब राक्षसकुल की रक्षा [का कोई उपाय] नहीं है॥१॥
जासु दूत बल बरनि न जाई।
तेहि आएँ पुर कवन भलाई।
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी।
मंदोदरी अधिक अकुलानी।
तेहि आएँ पुर कवन भलाई।
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी।
मंदोदरी अधिक अकुलानी।
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