श्रीरामचरितमानस (किष्किन्धाकाण्ड)
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भगवान श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट तथा बालि का भगवान के परमधाम को गमन
जाम्बवान द्वारा हनुमान का उत्साह वर्धन
जो नाघइ सत जोजन सागर।
करइ सो राम काज मति आगर॥
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा।
राम कृपाँ कस भयउ सरीरा॥
करइ सो राम काज मति आगर॥
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा।
राम कृपाँ कस भयउ सरीरा॥
जो सौ योजन (चार सौ कोस) समुद्र लाँघ सकेगा और बुद्धिनिधान होगा वही श्रीरामजीका कार्य कर सकेगा। [निराश होकर घबराओ मत] मुझे देखकर मनमें धीरज धरो। देखो, श्रीरामजीकी कृपासे [देखते-ही-देखते] मेरा शरीर कैसा हो गया (बिना पाँखका बेहाल था, पाँख उगनेसे सुन्दर हो गया)!॥१॥
पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं।
अति अपार भवसागर तरहीं॥
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई।
राम हृदयँ धरि करहु उपाई॥
अति अपार भवसागर तरहीं॥
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई।
राम हृदयँ धरि करहु उपाई॥
पापी भी जिनका नाम स्मरण करके अत्यन्त अपार भवसागरसे तर जाते हैं, तुम उनके दूत हो, अतः कायरता छोड़कर श्रीरामजीको हृदयमें धारण करके उपाय करो॥२॥
अस कहि गरुड़ गीध जब गयऊ।
तिन्ह के मन अति बिसमय भयऊ।
निज निज बल सब काहूँ भाषा।
पार जाइ कर संसय राखा॥
तिन्ह के मन अति बिसमय भयऊ।
निज निज बल सब काहूँ भाषा।
पार जाइ कर संसय राखा॥
[काकभुशुण्डिजी कहते हैं-] हे गरुड़जी! इस प्रकार कहकर जब गीध चला गया, तब उन (वानरों) के मनमें अत्यन्त विस्मय हुआ। सब किसीने अपना-अपना बल कहा! पर समुद्रके पार जानेमें सभीने सन्देह प्रकट किया॥३॥
जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा।
नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा॥
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी।
तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी॥
नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा॥
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी।
तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी॥
ऋक्षराज जाम्बवान् कहने लगे-मैं अब बूढ़ा हो गया। शरीरमें पहले वाले बलका लेश भी नहीं रहा। जब खरारि (खरके शत्रु श्रीराम) वामन बने थे, तब मैं जवान था और मुझमें बड़ा बल था॥ ४॥
दो०- बलि बाँधत प्रभु बाढ़ेउ सो तनु बरनि न जाइ।
उभय घरी महँ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ॥२९॥
उभय घरी महँ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ॥२९॥
बलिके बाँधते समय प्रभु इतने बढ़े कि उस शरीरका वर्णन नहीं हो सकता, किन्तु मैंने दो ही घड़ीमें दौड़कर [उस शरीरकी] सात प्रदक्षिणाएँ कर ली॥ २९॥
अंगद कहइ जाउँ मैं पारा।
जियँ संसय कछु फिरती बारा॥
जामवंत कह तुम्ह सब लायक।
पठइअ किमि सबही कर नायक॥
जियँ संसय कछु फिरती बारा॥
जामवंत कह तुम्ह सब लायक।
पठइअ किमि सबही कर नायक॥
अंगदने कहा-मैं पार तो चला जाऊँगा। परन्तु लौटते समयके लिये हृदयमें कुछ सन्देह है। जाम्बवान्ने कहा-तुम सब प्रकारसे योग्य हो। परन्तु तुम सबके नेता हो, तुम्हें कैसे भेजा जाय?॥१॥
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।
का चुप साधि रहेहु बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना।
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥
का चुप साधि रहेहु बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना।
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥
ऋक्षराज जाम्बवान् ने श्रीहनुमान् जी से कहा-हे हनुमान् ! हे बलवान् ! सुनो, तुमने यह क्या चुप साध रखी है ? तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञानकी खान हो॥२॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं।
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा।
सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा।
सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥
जगत् में कौन-सा ऐसा कठिन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके। श्रीरामजीके कार्यके लिये ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है। यह सुनते ही हनुमान्जी पर्वतके आकारके (अत्यन्त विशालकाय) हो गये॥ ३॥
कनक बरन तन तेज बिराजा।
मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा।
लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा॥
मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा।
लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा॥
उनका सोनेका-सा रंग है, शरीरपर तेज सुशोभित है, मानो दूसरा पर्वतोंका राजा सुमेरु हो। हनुमान् जीने बार-बार सिंहनाद करके कहा-मैं इस खारे समुद्रको खेलमें ही लाँघ सकता हूँ॥४॥
सहित सहाय रावनहि मारी।
आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी॥
जामवंत मैं पूँछउँ तोही।
उचित सिखावनु दीजहु मोही।
आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी॥
जामवंत मैं पूँछउँ तोही।
उचित सिखावनु दीजहु मोही।
और सहायकों सहित रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत को उखाड़कर यहाँ ला सकता हूँ। हे जाम्बवान् ! मैं तुमसे पूछता हूँ, तुम मुझे उचित सीख देना [कि मुझे क्या करना चाहिये]॥ ५॥
एतना करहु तात तुम्ह जाई।
सीतहि देखि कहहु सुधि आई।
तब निज भुज बल राजिवनैना।
कौतुक लागि संग कपि सेना॥।
सीतहि देखि कहहु सुधि आई।
तब निज भुज बल राजिवनैना।
कौतुक लागि संग कपि सेना॥।
[जाम्बवान्ने कहा-] हे तात! तुम जाकर इतना ही करो कि सीताजीको देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो। फिर कमलनयन श्रीरामजी अपने बाहुबलसे [ही राक्षसोंका संहार कर सीताजीको ले आयेंगे, केवल] खेलके लिये ही वे वानरोंकी सेना साथ लेंगे॥६॥
छं०-कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं।
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं।
जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई।
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई॥
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं।
जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई।
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई॥
वानरों की सेना साथ लेकर राक्षसों का संहार करके श्रीरामजी सीताजी को ले आयेंगे। तब देवता और नारदादि मुनि भगवान्के तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाले सुन्दर यशका बखान करेंगे, जिसे सुनने, गाने, कहने और समझनेसे मनुष्य परमपद पाते हैं और जिसे श्रीरघुवीरके चरणकमलका मधुकर (भ्रमर) तुलसीदास गाता है।
दो०- भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि॥३० (क)।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि॥३० (क)।
श्रीरघुवीरका यश भव (जन्म-मरण) रूपी रोगकी [अचूक] दवा है। जो पुरुष और स्त्री इसे सुनेंगे, त्रिशिराके शत्रु श्रीरामजी उनके सब मनोरथोंको सिद्ध करेंगे॥३० (क)॥
सो०- नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक।
सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक॥३० (ख)
सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक॥३० (ख)
जिनका नीले कमल के समान श्याम शरीर है, जिनकी शोभा करोड़ों कामदेवों से भी अधिक है और जिनका नाम पापरूपी पक्षियों को मारने के लिये बधिक (व्याधा) के समान है, उन श्रीरामके गुणोंके समूह (लीला) को अवश्य सुनना चाहिये। ३० (ख)॥
मासपारायण, तेईसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने चतुर्थः सोपान: समाप्तः।
कलियुगके समस्त पापोंके नाश करनेवाले श्रीरामचरितमानसका यह चौथा सोपान समाप्त हुआ।
किष्किन्धाकाण्ड समाप्त
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने चतुर्थः सोपान: समाप्तः।
कलियुगके समस्त पापोंके नाश करनेवाले श्रीरामचरितमानसका यह चौथा सोपान समाप्त हुआ।
किष्किन्धाकाण्ड समाप्त