श्रीरामचरितमानस (अरण्यकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं।
पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती ।
सरल सुभाउ सबहि सन प्रीती॥
पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती ।
सरल सुभाउ सबहि सन प्रीती॥
कानोंसे अपने गुण सुनने में सकुचाते हैं, दूसरोंके गुण सुननेसे विशेष हर्षित होते हैं। सम और शीतल हैं, न्यायका कभी त्याग नहीं करते। सरलस्वभाव होते हैं और सभीसे प्रेम रखते हैं ॥१॥
जप तप ब्रत दम संजम नेमा ।
गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा।
श्रद्धा छमा मयत्री दाया ।
मुदिता मम पद प्रीति अमाया।
गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा।
श्रद्धा छमा मयत्री दाया ।
मुदिता मम पद प्रीति अमाया।
वे जप, तप, व्रत, दम, संयम और नियममें रत रहते हैं और गुरु, गोविन्द तथा ब्राह्मणोंके चरणोंमें प्रेम रखते हैं। उनमें श्रद्धा, क्षमा, मैत्री, दया, मुदिता (प्रसन्नता) और मेरे चरणोंमें निष्कपट प्रेम होता है ॥२॥
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना ।
बोध जथारथ बेद पुराना॥
दंभ मान मद करहिं न काऊ ।
भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥
बोध जथारथ बेद पुराना॥
दंभ मान मद करहिं न काऊ ।
भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥
तथा वैराग्य, विवेक, विनय, विज्ञान (परमात्माके तत्त्वका ज्ञान) और वेद-पुराणका यथार्थ ज्ञान रहता है। वे दम्भ, अभिमान और मद कभी नहीं करते और भूलकर भी कुमार्गपर पैर नहीं रखते ॥३॥
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला ।
हेतु रहित परहित रत सीला॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते ।
कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते॥
हेतु रहित परहित रत सीला॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते ।
कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते॥
सदा मेरी लीलाओंको गाते-सुनते हैं और बिना ही कारण दूसरोंके हितमें लगे रहनेवाले होते हैं । हे मुनि ! सुनो, संतोंके जितने गुण हैं, उनको सरस्वती और वेद भी नहीं कह सकते॥ ४॥
छं०- कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे।
अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे।
सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रए॥
अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे।
सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रए॥
'शेष और शारदा भी नहीं कह सकते' यह सुनते ही नारदजीने श्रीरामजीके चरणकमल पकड़ लिये। दीनबन्धु कृपालु प्रभुने इस प्रकार अपने श्रीमुखसे अपने भक्तोंके गुण कहे। भगवान्के चरणोंमें बार-बार सिर नवाकर नारदजी ब्रह्मलोकको चले गये। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं, जो सब आशा छोड़कर केवल श्रीहरिके रंगमें रँग गये हैं।
दो०- रावनारि जसु पावन गावहिं सुनहिं जे लोग।
राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग॥४६ (क)॥
राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग॥४६ (क)॥
जो लोग रावणके शत्रु श्रीरामजीका पवित्र यश गावेंगे और सुनेंगे, वे वैराग्य, जप और योगके बिना ही श्रीरामजीकी दृढ़ भक्ति पावेंगे॥ ४६ (क)॥
दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग॥४६ (ख)॥
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग॥४६ (ख)॥
युवती स्त्रियोंका शरीर दीपककी लौके समान है, हे मन! तू उसका पतिंगा न बन । काम और मदको छोड़कर श्रीरामचन्द्रजीका भजन कर और सदा सत्संग कर॥४६ (ख)॥
मासपारायण, बाईसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने तृतीयः सोपान: समाप्तः ।
कलियुगके सम्पूर्ण पापोंको विध्वंस करनेवाले श्रीरामचरितमानसका यह तीसरा सोपान समाप्त हुआ।
((अरण्यकाण्ड समाप्त)
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने तृतीयः सोपान: समाप्तः ।
कलियुगके सम्पूर्ण पापोंको विध्वंस करनेवाले श्रीरामचरितमानसका यह तीसरा सोपान समाप्त हुआ।
((अरण्यकाण्ड समाप्त)