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श्रीरामचरितमानस (अरण्यकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।



कबंध वध तथा शबरी से नवधा भक्ति का प्रसंग



संकुल लता बिटप घन कानन ।
बहु खग मृग तहँ गज पंचानन॥
आवत पंथ कबंध निपाता ।
तेहिं सब कही साप कै बाता॥


वह सघन वन लताओं और वृक्षोंसे भरा है। उसमें बहुत-से पक्षी, मृग, हाथी और सिंह रहते हैं। श्रीरामजीने रास्तेमें आते हुए कबंध राक्षसको मार डाला। उसने अपने शापकी सारी बात कही॥३॥

दुरबासा मोहि दीन्ही सापा।
प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा॥
सुनु गंधर्ब कहउँ मैं तोही ।
मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही॥

[वह बोला-] दुर्वासाजीने मुझे शाप दिया था। अब प्रभुके चरणोंको देखनेसे वह पाप मिट गया। [श्रीरामजीने कहा-] हे गन्धर्व! सुनो, मैं तुम्हें कहता हूँ, ब्राह्मणकुलसे द्रोह करनेवाला मुझे नहीं सुहाता ॥४॥

दो०- मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव ॥३३॥

मन, वचन और कर्मसे कपट छोड़कर जो भूदेव ब्राह्मणोंकी सेवा करता है, मुझसमेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता उसके वशमें हो जाते हैं ॥३३॥

सापत ताड़त परुष कहंता ।
बिप्र पूज्य अस गावहिं संता॥
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना॥

शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ भी ब्राह्मण पूजनीय है, ऐसा संत कहते हैं। शील और गुणसे हीन भी ब्राह्मण पूजनीय है। और गुणगणोंसे युक्त और ज्ञानमें निपुण भी शूद्र पूजनीय नहीं है ॥१॥

कहि निज धर्म ताहि समुझावा।
निज पद प्रीति देखि मन भावा॥
रघुपति चरन कमल सिरु नाई।
गयउ गगन आपनि गति पाई॥

श्रीरामजीने अपना धर्म (भागवत-धर्म) कहकर उसे समझाया। अपने चरणोंमें प्रेम देखकर वह उनके मनको भाया। तदनन्तर श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंमें सिर नवाकर वह अपनी गति (गन्धर्वका स्वरूप) पाकर आकाशमें चला गया॥२॥

ताहि देइ गति राम उदारा ।
सबरी के आश्रम पगु धारा॥
सबरी देखि राम गृहँ आए।
मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥

उदार श्रीरामजी उसे गति देकर शबरीजीके आश्रममें पधारे। शबरीजीने श्रीरामचन्द्रजीको घरमें आये देखा, तब मुनि मतङ्गजीके वचनोंको याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया ॥३॥

सरसिज लोचन बाहु बिसाला ।
जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई।
सबरी परी चरन लपटाई।

कमल-सदृश नेत्र और विशाल भुजावाले, सिरपर जटाओंका मुकुट और हृदयपर वनमाला धारण किये हुए सुन्दर साँवले और गोरे दोनों भाइयोंके चरणोंमें शबरीजी लिपट पड़ीं ॥४॥

प्रेम मगन मुख बचन न आवा ।
पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥
सादर जल लै चरन पखारे ।
पुनि सुंदर आसन बैठारे॥

वे प्रेममें मग्न हो गयीं, मुखसे वचन नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलोंमें सिर नवा रही हैं। फिर उन्होंने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयोंके चरण धोये और फिर उन्हें सुन्दर आसनोंपर बैठाया॥५॥

दो०- कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि ॥३४॥


उन्होंने अत्यन्त रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्रीरामजीको दिये। प्रभुने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेमसहित खाया॥३४॥

पानि जोरि आगे भइ ठाढ़ी।
प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी॥
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी ।
अधम जाति मैं जड़मति भारी॥

फिर वे हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गयीं। प्रभुको देखकर उनका प्रेम अत्यन्त बढ़ गया। [उन्होंने कहा-] मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ? मैं नीच जातिकी और अत्यन्त मूढ़बुद्धि हूँ॥१॥

अधम ते अधम अधम अति नारी ।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता।
मानउँ एक भगति कर नाता॥

जो अधमसे भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यन्त अधम हैं; और उनमें भी हे पापनाशन ! मैं मन्दबुद्धि हूँ। श्रीरघुनाथजीने कहा-हे भामिनि! मेरी बात सुन ! मैं तो केवल एक भक्तिहीका सम्बन्ध मानता हूँ॥२॥

जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई।
धन बल परिजन गुन चतुराई॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा।
बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥

जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता-इन सबके होनेपर भी भक्तिसे रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल [शोभाहीन] दिखायी पड़ता है॥३॥

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं ।
सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥

मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मनमें धारण कर।पहली भक्ति है संतोंका सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा-प्रसंगमें प्रेम॥४॥

दो०- गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥३५॥

तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरुके चरणकमलोंकी सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुणसमूहोंका गान करे ॥ ३५ ॥

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